सोमवार, 13 अप्रैल 2020


 दल -बदलुओं के बच निकलने का रास्ता बंद करने वाला कानून बने
    --सुरेंद्र किशोर--

मध्य प्रदेष की राजनीति में जो कुछ हो रहा है,वह कोई पहली बार नहीं  है।
ऐसी  राजनीतिक उठापटक को कोई लोकतंत्र प्रेमी पसंद नहीं करता ।
आप पांच साल के लिए चुने जाते हैं।
इसी बीच आप सरकार गिरा देंगे ?!
सरकार गिराने के पक्ष में आप जो भी तर्क दें,पर
एक बात जान लीजिए कि संविधान निर्माताओं ने इसकी कोई कल्पना तक
 नहीं की थी।
इसीलिए उन लोगों ने उसे रोकने के लिए कोई प्रावधान भी नहीं किया ।
बाद में करना पड़ा।
दल बदल विरोधी कानून बना।
 जरुरत पड़ी तो उसमें संषोधन भी हुआ।
फिर भी दल बदलू उस कानूनी फंदे से बचने के रास्ते निकालते रहे।
अब सरकार को कोई ऐसा उपाय करना पड़ेगा ताकि दलबदलू अपने स्वार्थ में उस कानून 
में कोई छेद न बना  पाएं।
    मध्य प्रदेष में दल बदल का लाभ भाजपा को मिलता नजर आ रहा है। 
किसी अन्य मामले में
लाभ कांग्रेस को मिल सकता है।
इस तरह सरकारों के गिरने-बनने से बारी -बारी से दल खुष होते रहै हैं।
पर निरपेक्षा जनता उदास ही होती रही है।
 दल -बदलू किसी के नहीं होते।
वैसे लोगों को ध्यान में रखते हुए खास कानूनी प्रावधान होना चाहिए।
ऐसा प्रावधान बने जिसके तहत जो भी दल बदल करें,उन्हें सदन से इस्तीफा देना पड़े।
चाहे उसके पक्ष में दो -तिहाई  जन प्रतिनिधि क्यों न हों।
दल बदलू को उस विधान सभा या लोक सभा के 
बचे कार्यकाल के लिए उप चुनाव नहीं लड़ने देना चाहिए।
कोई दूसरा लड़े।
उसका कोई करीबी रिष्तेदार भी न लड़े।
फिर देखिए।इससे कुछ तो फर्क आ ही सकता है। 
 राजनीति की शरद यादव षैली !
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राजद ने शरद यादव को राज्य सभा का टिकट नहीं दिया।
इसको लेकर शरद यादव के कुछ समर्थकों ने राजद खास कर 
लालू प्रसाद के खिलाफ सार्वजनिक रूप से रोष प्रकट किया।
अब जरा पीछे जाइए।
2007 में शरद यादव ने एक अखबार में लेख लिखा था।
उन्होंने लिखा कि ‘‘मेरी जिन्दगी की सबसे बड़ी भूल यह थी कि 
मैंने कर्पूरी ठाकुर के उत्तराधिकारी के रूप में बिहार 
की राजनीति में लालू प्रसाद को बिहार की राजनीति 
में आगे बढ़ाया ।जबकि, जनता दल के विधायकों में 
दो  दर्जन से ज्यादा लोग बिहार की राजनीति में लालू से 
ऊंची हैसियत रखते थे।’’
    शरद जी, जब आपको तब मौका मिला था तो आपने 
किन्हीं खास बातों का ध्यान रखते हुए 
योग्य नेताओं को नजरअंदाज किया।
अब जब लालू प्रसाद के हाथों में अधिकार है तो वे अपनी 
राजनीतिक तथा अन्य सुविधाओं का
ध्यान रख रहे हैं ।
फिर  उसमें आपके समर्थकों को  एतराज 
करने का  नैतिक हक नहीं है।  
भूली-बिसरी याद
पहली कथा-
बिहार के स्वतंत्रता सेनानीष्ष्याम नारायण सिंह 1937 में बिहार की विधायिका के
सदस्य चुने गए थे।वह जिला बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे ।
  नालंदा जिले के मूल निवासीष्ष्याम बाबू ने 1946 के सांप्रदायिक दंगे के समय 
सराहनीय काम किया था।उन्होंने 
तब दंगाई भीड़ से हजारों अल्पसंख्यकों को बचाया था।
उन्होंने अपने पारिवारिक मंदिर के पीछे स्थित 
अपने उद्यान में उन लोगों को पनाह दी थी।  
दूसरी कथा-
सन 1963 में दीन दयाल उपाध्याय उत्तर प्रदेष के ब्राह्मण बहुल क्षेत्र 
जौन पुर से लोक सभा 
का चुनाव लड़ रहे थे।वहां उप चुनाव हो रहा था।
वहां के कुछ लोगों ने उपाध्याय जी से आग्रह किया कि आप ब्राह्णों
को अलग से संबोधित करें।
उन्होंने यह कहते हुए ऐसा करने से इनकार कर दिया कि जातिवाद की जीत,
रास्ट्रवाद की हार होगी।
जातिवाद की जीत जनसंघ की सैद्धांतिक पराजय भी होगी ।
उपाध्याय जी वह उप चुनाव हार गए।
तीसरी कथा-
सन 1967 में डा.राम मनोहर लोहिया लोक सभा का चुनाव लड़ रहे थे।
उसी समय किसी संवाददाता ने उनसे पूछ दिया कि सामान्य नागरिक संहिता पर
आपकी क्या राय है ?
उन्होंने तपाक से कहा कि वह तो बननी ही  चाहिए।
इस पर उनके कुछ समाजवादी सहकर्मियों ने कहा कि यह आपने 
क्या कर दिया ?
अब तो आप चुनाव हार जाएंगे।
क्योंकि आपके क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या काफी है।
उस पर लोहिया ने कहा कि मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए
 राजनीति में नहीं हूं।
देष बनाने के लिए राजनीति में हूं।
वे इस बयान के कारण  हारते -हारते बचे।
मात्र 400 वोट से लोहिया जीते।
चैथी  कथा-
1994 में भाजपा नेता तरूण विजय ने  एक लेख लिखा था।
उसमें उन्होंने कम्युनिस्टों की 
तारीफ की थी।
तरूण विजय ने लिखा कि ‘‘अगर अपवाद माना जाए तोष्षायद कम्युनिस्ट 
पार्टी के सांसद होंगे जिन्होंने
 अपने लिए मिलने वाली आवासीय सुविधाएं पार्टी के संगठनों और कार्यकत्र्ताओं में 
बहुत ईमानदारी से बांटी।
यह लिखने का आषय यह है कि कुछ दषक पहले तक लगभग सभी दलों में आदर्षवादियों 
की संख्या कम नहीं थी।
पर,अब बहुत खोजने पर वैसे लोग मिलते हैं।   
और अंत में 
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स्न 2008 से अब तक एन.आई.ए. को जांच के लिए 319 मामले 
समर्पित किए गए थे।
उनमें से 237 मामलों में अदालतों में आरोप पत्र दाखिल कर दिए गए।
62 मुकदमों में अदालतों के निर्णय भी आ गए।
उनमें से 56 में आरोपितों को सजा भी हो गई।
यानी, सजा का प्रतिषत 
करीब 90
फीसद  रहा।
केरल  में सामान्य अपराधों में भी सजा का प्रतिषत 80 से अधिक रहा।
  पर पूरे देष में सामान्य अपराधों में सजा का प्रतिषत 46 रहा।
इतना  अंतर क्यों ?
इस अंतर के कारणों का पता लगा कर उन्हें दूर करने से सरकार का भी 
भला होगा और जनता का भी।
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कानोंकान,
प्रभात खबर,
पटना 
20 मार्च 2020
    


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