दिल्ली के मयूर विहार-3 के कम्युनिटी सेंटर पर 74 वर्षीय पत्रकार देवीदास गुप्त पत्नी के साथ कोविड जांच कराने गए थे।
तीन घंटे चिलचिलाती धूप में कतार में खड़े रहे।
काउंटर पर बैठा व्यक्ति काउंटर के बंदी समय से पहले शटर डाउन कर दिया।
देवीदास गुप्त दंपति सहित क्यू में खड़े 50 व्यक्ति ठगे से रह गए।
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कोरोना ने इस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की कमी की पोल खोल कर रख दी है।
संरचना की कमी के साथ-साथ काम चोरी का भी बोलबाला है।
अन्यथा, बंदी के समय से पहले ही काउंटर बंद नहीं होता।
वैसे तो अभूतपूर्व महामारी कोरोना ने पूरी दुनिया में स्वास्थ्य-व्यवस्था की कमियां उजागर कर दी हैं।
पर भारत की पहले से ही जर्जर- व्यवस्था ने मरीजों को बहुत अधिक दुःख दिया है और दे रही है।
इस बीच विपरीत परिस्थितियों में भी हमारे देश के अधिकतर स्वास्थ्य कर्मियों ने जान पर खेल कर मरीजों की सेवा भी की है।कर भी रहे हैं।
कई चिकित्सकों व स्वास्थ्यकर्मियों ने जान भी गंवाई।
कई मरीजों के परिजनों से दुव्र्यवहार भी सहा।
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कल्पना कीजिए कि आजादी के तत्काल बाद हमारे देश के संसाधनों को हमारे ही अनेक हुक्मरानों ने दोनों हाथों से नहीं लूटा होता तो क्या स्वास्थ्य -व्यवस्था आज की अपेक्षा बेहतर नहीं होती ?
1985 में ही प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने स्वीकारा था कि दिल्ली से सरकार की ओर से जो 100 पैसे भेजे जाते हैं,उनमें से सिर्फ 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं।
1985 के बाद के वर्षों में भी स्थिति कमोवेश वैसी ही रही।
हाल के वर्षों में कुछ मामलों में जहां राजनीतिक कार्यपालिका ईमानदार भी है तो प्रशासनिक कार्यपालिका कमोबेश पहले जैसी ही है।
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कल्पना कीजिए कि 1947 और 1985 के बीच में लूट लिए गए 85 पैसे भी विकास,संरचना व कल्याण कार्यों में लगे होते तो उनका सकारात्मक असर स्वास्थ्य महकमे पर भी पड़ता।
फिर हम कोरोना महा विपत्ति का थोड़ा बेहतर ढंग से मुकाबला कर पाते।
हालांकि सफल मुकाबला तो विकसित देश भी नहीं कर पा रहे हैं तो हम किस खेत की मूली हैं।
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-- सुरेंद्र किशोर
14 अप्रैल, 21
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