भ्रष्टाचार-अपराध के ऊंटों को पहाड़ के नीचे लाने के लिए धन्यवाद--सुरेंद्र किशोर
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चर्चित गैंगेस्टर मुख्तार अंसारी जैसा अपराध जगत का ऊंट अब पहाड़ के नीचे आ गया है।
उधर भ्रष्टाचार जगत के ऊंटों के ‘‘आदेशपालक’’ पुलिस अफसर सचिन वाझे भी
जांच एजेंसी के मजबूत शिकंजे में हैं।
यह इस देश की अदालतों की महिमा है कि इतने बड़े -बड़े ‘‘ऊंट’’ भी पहाड़ के नीचे आते जा रहे हैं। अब इनके आका और लगुए-भगुए भी देर -सवेर कठघरों में होंगे।
कतिपय शीर्ष नेताओं की मदद से मुख्तार अंसारी दशकों से उत्तर प्रदेश में अपनी बादशाहत चला रहे थे।
कोई उन्हें छूने वाला नहीं था।
छूने वाले अफसर ही शीर्ष सत्ता द्वारा छूमंतर कर दिए जाते थे।अब स्थिति बदल रही है।
उन्हें दिन में तारे देखने होंगे।
इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का, शांतिप्रिय लोग,न्यायपालिका
के शुक्रगुजार रहेंगे।
उधर सचिन वाझे की स्वीकारोक्तियों के कारण महाराष्ट्र के बड़े- बड़े नेताओं के असली चेहरे जल्द ही सामने आएंगे।
अदालतों की सक्रियता के कारण ही इस देश के कई विवादास्पद नेता व माफिया विभिन्न राज्यों के जेलों में पहले से कैद हैं।
कुछ अन्य गंभीर आरोपों में मुकदमों का सामना कर रहे हैं।
उनमें से कई जेल के रास्ते में हैं।
अदालतें इसी तरह भेदभावरहित होकर सक्रिय रहीं तो सार्वजनिक धन के बाकी बचे अन्य लुटेरों को भी इसी तरह बुरे दिन देखने पड़ेंगे।
सार्वजनिक धन, आमजन से प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से वसूले गए टैक्स के पैसों से ही, एकत्र होता है।
सार्वजनिक धन में से अपार राशि शासकों की मदद से कुछ थोड़े लोग यदि लूट लें तो देश का विकास कैसे होगा ?
गरीबों की गरीबी दूर कैसे होगी ?
आंतरिक और बाह्य सुरक्षा बल को मजबूत करने के लिए साधन कैसे जुटेगा ?
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देश में धन का केंद्रीकरण
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इस देश में अरबपतियों की संख्या बढती जा रही है।
यह संख्या एक साल में 102 से 140 हो गई।
दुनिया के अरबपतियों की सूची में भारत का स्थान तीसरा है।
यानी, इस विकासशील देश में धन का संकेंद्रीकरण हो रहा है।
संविधान निर्माताओं को इस स्थिति का अंदेशा था।
इसीलिए संविधान के नीति निदेशक तत्वों वाले अध्याय में इसकी चर्चा की गई है।
अनुच्छेद-39 (ग)में यह कहा गया है कि
देश की ‘‘आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन ओर उत्पादन के साधनों का अहितकारी संकेंद्रण न हो।’’
अधिकतर सार्वजनिक उपक्रमों की विफलता के कारण भी पूंजीवाद मजबूत हुआ है।
पूंजीवाद धीरे -धीरे एकाधिकार पूंजीवाद में बदलने लगा है।
आजादी के बाद केंद्र सरकार ने मिश्रित अर्थ -व्यवस्था को बढ़ावा देने की कोशिश की थी।
इसलिए एक तरफ जहां अनेक निजी उपक्रमों का सरकारीकरण हुआ,वहीं सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों की बड़े पैमाने पर स्थापना की।
इनमें से कई सार्वजनिक उपक्रम अब भी बढ़िया काम कर रहे हैं।
पर अधिकतर उपक्रम भ्रष्टाचार और काहिली के शिकार हो गए।
दरअसल जब राजनीति में सदाचार का लोप होने लगा तो उसका कुपरिणाम सार्वजनिक उपक्रमों पर पड़ना ही था।
यदि अब से भी भ्रष्टाचार और काहिली के खिलाफ सरकारें कठोर हो जाएं तो सार्वजनिक उद्यम बढ़ेंगे।
मिश्रित अर्थ व्यवस्था विकसित होगी । आज जैसा धन का संकेंद्रण नहीं होगा।
क्या ऐसा हो पाएगा ?
पता नहीं।
जिस देश के अधिकतर नेताओं और अफसरों के बीच ‘‘पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसे बनाने की होड़ मची हो,उस देश में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के विकास की संभावना कम ही है।
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पश्चिम बंगाल का चुनाव बाद परिदृश्य
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पश्चिम बंगाल के साथ -साथ केरल से भी चुनावी हिंसा की खबरें आती रही हैं।
आरोप लगा कि कोझिकोड में मंगलवार को सी.पी.एम.कार्यकत्र्ताओं ने मुस्लिम लीग के एक कार्यकत्र्ता की हत्या कर दी।
पश्चिम बंगाल से तो आम दिनों में भी अनेक हत्याओं की खबरें आती रही हैं।
पर दोनों हत्याओं में अधिक नहीं तो थोड़ा फर्क जरूर है।
2012 की मई में केरल सी.पी.एम. के इडुकी जिला सचिव एम.एन.मणि ने कहा था कि ‘‘हम अपने राजनीतिक विरोधियों की हत्या करवा देते हैं।’’
उनका यह बयान देश भर के अखबारों में छपा था।
पर, पश्चिम बंगाल की चुनावी हिंसा उसी तरह की है जिस तरह की हिंसा बिहार में अस्सी-नब्बे के दशकों में हुआ करती थी।
अभी तो रिजल्ट आना बाकी है।इसलिए यह कहना संभव नहीं है कि बंगाल में अगली सरकार किसकी बनेगी।
मिल रहे अनुमानों के अनुसार किसी पक्ष की सरकार बन सकती है।
ममता बनर्जी की सरकार यदि फिर बन जाए तब तो हिंसा के मामले में भी किसी परिवत्र्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती।
किंतु भाजपा की बनी तो कुछ उम्मीद की जा सकती है।
हालांकि नजर आने लायक परिवत्र्तन तभी होगा जब पिछली सत्ता से जुड़े बाहुबली, अगली सत्ता के हिस्सा न बन जाएं।
पिछले दशकों में यही होता रहा है।
पश्चिम बंगाल में 1972 -77 की कांग्रेस सरकार ने नक्सलियों के सफाए के लिए बाहुबली दस्ते तैयार किए थे।
पर जब 1977 में वाम मोर्चा की सरकार बनी तो उनमेंसे अनेक बाहुबली वाम मोर्चा में शामिल हो गए।
बाद में वही लोग ममता बनर्जी की पार्टी की शोभा बढ़ाने लगे।
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और अंत में
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बिहार के ताजा मैट्रिक रिजल्ट की मेधा सूची देखी।
92 टाॅपरों में से सिर्फ 14 विद्यार्थियों के नाम के साथ जाति सूचक उपनाम हैं।
खैर, नाम तो उनके अभिभावक ने रखे हैं।
यह किस बात का संकेत है कि अधिकतर लोग जातीय पहचान का प्रदर्शन अब नहीं चाहते।
ऐसा पहले नहीं था।
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कानोंकान,प्रभात खबर
पटना-9 अप्रैल 21
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