रविवार, 26 सितंबर 2021

                 एक 

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  सेंसेक्स 60 हजार अंक के स्तर को पार कर गया।

याद आता है कि 2016 में किसी ने लिखा था कि यदि रघुराम राजन भारत छोड़ते हैं तो देश से करीब सौ अरब डालर का निवेश बाहर चला जाएगा।

  साफ है कि भारत ऐसे उदारवादी विश्लेषकों और कथित अर्थ -शास्त्रि़यों के दंभ से कहीं बड़ा है।

         -- अभिषेक,दैनिक जागरण

             26 सितंबर, 21 

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                दो

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     पढ़िए एक नोबेल विजेता अर्थशास्त्री 

     का अनर्थ शास्त्र

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‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,

शायद भ्रष्टाचार अर्थ -व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था, इसे काट दिया गया है।

मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’

--नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी,

हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाइम्स

23 अक्तूबर, 2019

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       तीन

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इस साल जून में यह खबर आई कि भारत का फाॅरेन एक्सचेंज रिजर्व बढ़कर 600 अरब डाॅलर हो चुका है।

यह एक रिकाॅर्ड है।

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      चार

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पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने इसी जुलाई में कहा कि 

केंद्र सरकार अर्थ व्यवस्था को ठीक से चलाने में विफल रही है।

उसकी रूचि सिर्फ सरकारी खजाना भरने में है।

(अन्य अधिकतर नेताओं की रूचि तो निजी खजाना भरने की रहती है।)

क्या खुर्शीद साहब को इस तथ्य का भी ज्ञान नहीं है कि कोविड-19 के कारण भारत ही नहीं बल्कि लगभग पूरी दुनिया की सरकारों की अर्थ-व्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है।

इसके बावजूद नरेंद्र मोदी सरकार की उपलब्धियां देखने लायक हंै यदि आंखें खुली हों।

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       पांच

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 खुर्शीद ने यह भी कहा कि नरेंद्र मोदी शासन हमें सौंप दें ।हम दिखा दंेगे कि अर्थ व्यवस्था कैसे ठीक रखी जाती है।

दरअसल कांग्रेस नेता एक बार फिर सत्ता पर कब्जा करके

नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी के सुझाए रास्ते पर चलना चाहते हैं।

यानी भ्रष्टाचार को एक बार फिर अर्थ व्यवस्था का अनिवार्य अंग बना देना चाहते हैं।

(राहुल गांधी को ‘न्याय योजना’ का मंत्र अभिजीत बनर्जी ने ही दिया है। इतने करीबी हैं वे कांग्रेस के)

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सुरेंद्र किशोर

26 सितंबर 21

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मेरे फेसबुक वाॅल से



 


अगले चुनाव का मुख्य मुद्दा

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भ्रष्टाचार पर चोट बनाम भ्रष्टों का बचाव

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साइड मुद्दा

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जेहाद का विरोध बनाम जेहाद का

 प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन

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--सुरेंद्र किशोर-

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इस देश की भ्रष्ट राजनीति को है 

‘जेहादियों’ का पूरा सहारा 

बदले में भ्रष्ट राजनीति भी अपवादों को छोड़कर 

जेहादियों की 

तहे दिल से मदद कर रही

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अब मतदाताओं को सोचना और तय करना है।

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सन 2022 का यू.पी चुनाव--सेमी फाइनल

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सन 2024 का लोक सभा चुनाव फाइनल

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 भ्रष्ट राजनीति के समर्थन में एक नोबेल विजेता का 

यह गुरु मंत्र--पढ़ लीजिए।

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‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,

शायद भ्रष्टाचार अर्थ -व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था, इसे काट दिया गया है।

मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’

--नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी,

हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाइम्स

23 अक्तूबर, 2019

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यह संयोग नहीं है कि अभिजीत बनर्जी ने ही 

कांग्रेस को ‘‘न्याय योजना’’ सुझाया था।

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कांग्रेस शासन काल में एक बड़े मीडिया समूह के मालिक ने मुझसे कहा था कि 

‘‘सुरेंद्र जी, भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने की जरूरत नहीं है।भ्रष्टाचार यहां से जाने वाला नहीं है।’’

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भ्रष्टाचार और कांग्रेस 

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    प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि

‘‘यदि भ्रष्ट मंत्रियों -अफसरों पर कार्रवाई होगी तो प्रशासन में पस्तहिम्मती आएगी।’’

(-- एम.ओ.मथाई की पुस्तक से )

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 जून, 1964 में  यानी शास्त्री जी के कार्यकाल में पंजाब के मुख्य मंत्री प्रताप सिंह कैरो पद से हटा दिए गए।

उन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे।फिर भी उन्हें नेहरू जी हटाना नहीं चाहते थे।

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 आरोप लगने पर प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि 

‘‘सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार तो विश्वव्यापी है।’’

(इंदिरा जी का यह बयान तब के अखबारों में मैंने पढ़ा था।)

जेपी ने जब भ्रष्टाचार आदि के खिलाफ आंदोलन शुरू किया तो इंदिरा जी ने जेपी को इंगित करते हुए कहा था कि ‘‘जो पूंजीपतियों से पैसे लेते हैं,वे भ्रष्टाचार की बात करते हैं।’’

उसके जवाब में जेपी ने अपने निजी खर्च और आय का पूरा विवरण एक पत्रिका में छपवा दिया।  

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राजीव गांधी की सरकार तो सन 1989 में बोफोर्स के दलालों को बचाने में चली गई।

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हालांकि राजीव गांधी एक अच्छी बात कह गए थे--

हम 100 पैसे भेजते हैं और उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जनता तक पहुंचते हैं।

85 प्रतिशत सरकारी राशि भ्रष्टाचार में ही तो चली जाती थी।

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अब आप ही अंदाज लगा लीजिए कि 100 पैसे में से जवाहरलाल नेहरू के राज में कितना घिसा ?

लालबहादुर शास्त्री के शासन काल में कितना घिसा ?

इंदिरा गांधी के राज में कितना घिसा ?

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आगे का राजनीतिक दृश्य

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  आगे क्या होने वाला है ?

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यदि सन 2024 में नरेंद्र मोदी फिर लोक सभा चुनाव जीत गए तब तो इस देश के न जाने कितने छोटे -बड़े नेता व उनके परिजन जेलों में होंगे ?

मुझे उनके नाम बताने की यहां जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।

अखबार व टी.वी.आपको कई साल से बताते रहे हंै।

पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण चहुंओर ईश्वर की तरह ही राजनीति में भ्रष्टाचार सर्वव्यापी है।

अपवादों को छोड़कर।

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जिन नेताओं व उनके परिजनों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में केस चल रहे हैं,उनमें से अधिकतर मुकदमे सन 2029 तक तार्किक परिणति तक पहुंच चुके हांेगे।

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यदि सन 2024 में राजग विरोधियों की सरकार बन गई तो 

गैर राजग नेताआंे के खिलाफ जारी मुकदमे दबा दिए जाएंगे। इसका पूर्व उदाहरण मौजूद है।

 1980 में संजय गांधी के खिलाफ मुकदमे दबा दिए गए और 2004 में बोफोर्स मुकदमे का वही हाल हुआ।

बोफोर्स केस में तो अटल सरकार ने भी ‘प्रथम परिवार’ के प्रति नरमी दिखाई।कई महीनों तक अपील की अनुमति नहीं दी।

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 और क्या-क्या होगा,उसकी कल्पना कर लीजिए।

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16 सितंबर 21

              

  

 


शनिवार, 25 सितंबर 2021

    जातीय गणना में दिक्कत है,

   पर रोहिणी आयोग की सिफारिश 

   लागू करने में कैसी दिक्कत ?

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     --सुरेंद्र किशोर--

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केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कह दिया कि हम जातीय गणना नहीं कराएंगे।

मेरी राय में यदि वह करवा भी देती तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ता।

यदि किसी कारणवश नहीं करवा पा रही है तो उससे भी आसमान नहीं गिर रहा है।

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खैर, अब पिछड़ों के वास्तविक भले की बात की जाए

ताकि पिछड़े समुदाय की सभी जातियों का समरूप विकास

हो सके।

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 कुछ सवाल हैं तो

कुछ जवाब भी है।

आम पिछड़ों के हक में कुछ उपाय भी।

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क्या यह सवाल नहीं उठना चाहिए कि मंडल आरक्षण का अब तक कोई भी लाभ करीब एक हजार कमजोर पिछड़ी जातियों में से किसी उम्मीदवार को भी क्यों नहीं मिला ?

ऐसा क्यों हुआ जबकि 1993 के बाद पिछड़ी जातियों के अनेक दबंग नेता केंद्र की सरकार को चलाते रहे थे और कुछ नेता तो सरकार को ‘हांकते’ भी थे ?

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पिछड़ी जातियों के लिए केंद्र सरकार की सेवाओं में 27 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं।

   उनमें से अभी औसतन 15 प्रतिशत सीटें ही 

क्यों भर पाती हैं ?

जो लोग आज आरक्षण का दायरा बढ़वाना चाहते हैं,उन्होंने सत्ता में रहते समय कोटा खाली रह जाने की भीषण समस्या को हल करने के लिए क्या प्रयास किया ? 

(वैसे आरक्षण का दायरा तो तभी बढ़ेगा जब सुप्रीम कोर्ट उसकी अनुमति देगा।)  

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अब नरेंद्र मोदी सरकार से सवाल

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रोहिणी आयोग की सिफारिश को लागू क्यों नहीं किया जा रहा है ?

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आयोग ने सिफारिश की है कि 27 प्रतिशत के कोटे को चार हिस्सों में बांट दिया जाए।

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रोहिणी न्यायिक आयोग की रपट के अनुसार केंद्रीय सूची में शामिल कुल 2633 पिछड़ी जातियों में से करीब 1000 जातियों के किसी भी उम्मीदवार को मंडल आरक्षण का लाभ अब तक नहीं मिल सका है।

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  याद रहे कि सन 2017 में गठित रोहिणी न्यायिक आयोग  ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी है।

  मिली जानकारी के अनुसार आयोग ने 27 प्रतिशत मंडल आरक्षण को चार भागों में बांट देने की सिफारिश की है।

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   यदि सिफारिश मान ली गई तो केंद्र की सूची में शामिल 97 मजबूत पिछड़ी जातियों को कुल 27 में से 10 प्रतिशत हिस्सा मिलेगा।

  1674 जातियों को दो प्रतिशत आरक्षण, 534 जातियों को 6 प्रतिशत आरक्षण और शेष 328 जातियों को 9 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा।

  आयोग के अनुसार अब तक आरक्षण का अधिक लाभ कुछ मजबूत पिछड़ी जातियों को ही अधिक मिलता रहा है।

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आयोग ने केंद्र सरकार के मंत्रालयों, विभागों तथा लोक उपक्रमों के कर्मियों का सर्वे किया।

केंद्रीय विश्वविद्यालयों के आंकड़े भी एकत्र किए गए।

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एक नमूना

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नीतीश सरकार ने अल्पसंख्यक विद्यार्थियों की विशेष कोचिंग का प्रबंध करवाया है।

उससे अब राज्य सरकार की नौकरियों में अल्संख्यकों यानी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है।

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नरेंद्र मोदी सरकार बड़े पैमाने पर पिछड़ी जातियों खास कर अति पिछड़ी जातियों के विद्यार्थियों के लिए उच्चस्तरीय कोचिंग का प्रबंध तो करवा ही सकती है।

उससे 27 प्रतिशत कोटा पूरा करने के मार्ग में आने वाली बाधा भी दूर हो सकती है।

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25 सितंबर 21


शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

 


कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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चुनावी टिकटों की खुली खरीद-बिक्री से लोकतंत्र पर भारी खतरा

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रुपए लेने के बावजूद चुनावी टिकट न देने के आरोप से संबंधित एक मामला अब पटना अदालत तक पहुंच चुका है।

दूसरी ओर, पैसों के बल पर टिकट पा लेने के अन्य अनेक मामलों से लोगबाग अवगत होते रहे हैं।

  अदालत किस नतीजे पर पहुंचती है,वह तो समय बताएगा।

आरोप साबित होगा भी या नहीं ,यह भी एक यक्ष प्रश्न है।

पर, जानकार लोग बताते हैं कि बिहार में हाल के वर्षों में चुनावी टिकटों की खरीद-बिक्री का चलन तेजी से बढ़ रहा है।

इसके लिए कोई एक ही दल या नेता जिम्मेदार नहीं है।

  उधर वोट खरीदने की शिकायतें भी बढ़ रही हैं।इस तरह ईमानदार व सेवाभावी नेताओं के लिए अवसर सिकुड़ते जा रहे हैं।पढे-लिखे व अच्छे वक्ताओं की आम तौर से जरूरत भी कम हो रही है क्योंकि सदनों में शोरगुल,हंगामा व मारपीट ही तो करनी पड़ती है।  

आम तौर से उम्मीदवारों के ‘वोट बैंक’ से बाहर वाले मतदाताओं के वोट खरीदे जा रहे हैं।

  यानी, कुल मिलाकर चुनाव का खर्च इतना बढ़ चुका है कि आम राजनीतिक कर्मियों के लिए कुछ खास दलों के टिकट पाना असंभव सा हो गया है।

   राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार यदि चुनावी टिकट की खरीद -बिक्री की यही रफ्तार  रही तो लोकतंत्र का मंदिर  धन कुबेरों का सदन बन कर रह जाएगा।

  अभी तो अधिकतर सदस्य टिकट खरीदे बगैर विधायक व सांसद बन रहे हैं।

पर ऐसा कब तक चलेगा ?

वह दिन दूर नहीं जब सदन के अधिकतर सदस्य अपार धन वाले ही होंगे।

उधर ऐसे सदस्यों की संख्या भी बढ़ ही रही हैं जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं।

 सदनों में शांति भंग करने वालों की भी संख्या बढ़ ही रही है।

  इस तरह कुल मिलाकर बिहार सहित इस देश की विधायिकाओं का कैसा स्वरूप बनता जा रहा है ?

दूसरी तरफ राजनीति के विवेकशील लोग सदन की गरिमा कायम करने की कोशिश भी कर रहे हैं।पर लगता है कि वे एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं।यदि अंततः वे हार गए तो क्या होगा ?

लोकतंत्र बचेगा ?

पता नहीं !

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 टिकटों की बिक्री की 

 जांच सी.बी.आई.करे

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सिर्फ एक मामले में पटना में केस हुआ है।

पर, चुनावी टिकटों की खरीद-बिक्री के मामले अनेक हैं।

 यानी, ऐसे सारे मामलों की जांच अदालत की निगरानी में यदि सी.बी.आई.करे करे तो लोकतंत्र की गरिमा व लोगों की उसमें आस्था बनाए रखने में सुविधा होगी।

 बिहार विधान सभा के गत चुनाव के समय मैंने एक परिचित से टिकट नहीं मिलने का कारण पूछा।

 एकाधिक बार विधायक व मंत्री रहे नेता ने बताया  कि मुझसे 50 लाख रुपए का चंदा हमारी पार्टी ने मांगा।

  मैं मात्र 15 लाख ही देने की स्थिति में था।इसलिए मेरा टिकट कट गया।

ऐसे न जाने और भी कितने मामले होंगे।

जिनकी जांच भी की जा सकती है।

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    कैसे बच जा रहे वेतन के पैसे !

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बिहार के एस.पी.राकेश दुबे प्रकरण में यह बात सामने आई कि अपने पूरे सेवाकाल में उन्होंने कुछ ही दफा वेतन खाते से पैसे निकाले।

  शासन को इससे यह संकेत ग्रहण करना चाहिए कि राकेश दुबे इस मामले में अकेले नहीं हैं।

ऊपरी कमाई की क्षमता वाली जगहों पर बैठे कर्मियों के सैलरी अकाउंट की नमूना जांच का प्रावधान होना चाहिए।

  जांच एजेंसियां समुचित प्रक्रिया के तहत ऐसा कर ही सकती है।

   चारा घोटाला सामने आने के बाद का एक प्रकरण याद है।

सी.बी.आई. ने बैंकों को चिट्ठियां लिखीं ।

बैंकों से जिन व्यक्तियों के खातों का विवरण मांगा गया था, उनमें बिहार काॅडर के चार वरीय आई.ए.एस.अफसर भी थे।उस पत्र से पहली बार यह बात सामने आई कि चारा घोटाले में कुछ आई.ए.एस.अफसर भी पकड़ में आने वाले हैं।पकड़ में आए भी।

  उसके बाद तो उनकी दुनिया ही बदल गई।आराम व शान का जीवन बर्बाद हो गया।

आश्चर्य है कि इसके बावजूद केंद्रीय सेवा के भी अनेक अफसरों में पैसे का लोभ तीव्र होता जा रहा है।

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  आॅटोमेटिक ड्राइविंग टेस्ट

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पटना में भी आॅटोमेटिक ड्राइविंग टेस्ट शुरू हुए हैं।

जो उसमें पास हो रहे हैं ,उन्हें ही गाड़ी चलाने का लाइसंेस दिया जा रहा है।

  हाल के टेस्ट में 46 प्रतिशत उम्मीदवार फेल कर गए।

पुराने जमाने में शैक्षणिक संस्थानों की ठीकठाक कदाचारमुक्त परीक्षाएं होती थीं तो लगभग इतने प्रतिशत परीक्षार्थी फेल करते थे।पर आज ?

बिहार स्कूल बोर्ड की परीक्षा में इन दिनों करीब 80 प्रतिशत परीक्षार्थी पास कर जाते हैं।

   आॅटोमेटिक ड्राइविंग टेस्ट में किसी तरह की बेईमानी का आविष्कार नहीं हुआ तो उसका सकारात्मक असर सड़कों पर भी पड़ेगा।

यानी, ड्राइवर भरसक अनुशासन कायम रखेंगे।

दुर्घटनाएं भी कम होंगी।

विमान चालकों के काम के घंटे तय हैं।उसी तरह सड़कों पर छोटी-बड़ी गाड़ियां चलाने वालों के काम के घंटे भी तय होने चाहिए।

 साथ ही,तीस साल से कम उम्र के लाइसेंसशुदा ड्राइवरों की कुशलता की जांच आॅटोमेटिक ड्राइविंग टेस्ट के जरिए होनी चाहिए

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और अंत में 

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समाजवादी नेता और विचारक डा.राममनोहर लोहिया ने कहा था,

‘‘पुश्तैनी गुलामों के परिवार हिन्दुस्तान में बहुत हंै,और दुनिया में भी इनकी कमी नहीं।

उन्हें गलती से रईस कहा जाता है।

पर, वे वास्तव में पारस्परिक रसज्ञ,सुसभ्य और योग्य होते हैं।

जो भी पक्ष जीते, उसकी खिदमत में वे हाजिर हो जाते हैं।

लेकिन जीत के पहले उनकी आंखें वर्तमान पर इतनी टिकी रहती है कि उनके अंतर्गत पकने वाले भविष्य को वे भांप लेते हैं।’’

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प्रभात खबर

पटना

24 सितंबर 21

  

  


बुधवार, 22 सितंबर 2021

     

 नरेंद्र मोदी की सत्ता के अनवरत 20 साल 

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आज के ‘हिन्दुस्तान’ में अखबार के प्रधान सम्पादक शशि शेखर का नरेंद्र मोदी पर वस्तुपरक लेख छपा है।

इस लेख का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि न तो शशि शेखर को और न ही हिन्दुस्तान को गोदी मीडिया की श्रेणी में रखा जा सकता है।

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मेरी टिप्पणी

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  मुझे भी याद नहीं कि इस लोकतांत्रिक देश में कोई नेता अपने व अपने दल के बल पर लगातार 20 साल सत्ता में रहा हो।

  दल महत्वपूर्ण है किंतु मोदी का बल निर्णायक ! 

 भाजपा एक ताकतवर व काॅडर आधारित दल है।

उसकी अपनी ताकत है।

पर, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का अलग से भी अतिरिक्त वोट बैंक बन गया है।

  ऐसा क्यों हुआ ?

उसके कुछ ही कारण गिना रहा हूं।

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गुजरात दंगे के लिए दशकों तक मोदी की देश-विदेश में भारी आलोचना होती रही।

मानो नरेंद्र मोदी से अधिक बड़ा दंगाई कोई पैदा ही नहीं हुआ।

किंतु यह आरोप निराधार है।

सिर्फ भागलपुर दंगे( 1989 )से गुजरात दंगे (2002) की तथ्याधारित तुलना करके देख लीजिए।

हर कसौटी पर भागलपुर दंगे में जघन्यता और व्यापकता तब की राज्य सरकार व केंद्र सरकार 

की विफलता ,मोदी सरकार से बहुत अधिक थी।

मैंने दोनों दंगों का तुलनात्मक अध्ययन किया है।

किसी को मेरी बात पर शक हो तो मैं कभी तुलनात्मक तथ्य पेश कर दूंगा।

लोगों में इस कारण मोदी के प्रति सहानुभूति ही हुई।

  बहुसंख्यक समाज में असली धर्म निरपेक्ष लोगों की कमी नहीं है।

उनमें भी  मोदी के प्रति सहानुभूति पैदा हुई ।

क्योंकि अधिक जघन्य दंगों के बावजूद मोदी को नाहक सबसे बड़े राक्षस और मौत के सौदागर के रूप में पेश किया गया।

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अधिकतर लोगों को नरेंद्र मोदी की यह खूबी पसंद है कि 

उनमें आय से अधिक संपत्ति एकत्र करने की कोई प्रवृति नहीं है।यह गुण बहुत ही कम नेताओं में है।

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 जहां इस देश की अधिकांश राजनीति, भीषण भ्रष्टाचार व वंशवाद-परिवारवाद में बुरी तरह बेशर्मी से लिप्त है,वहीं मोदी पर वंशवाद-परिवारवाद का कोई आरोप नहीं है।

ये दोनों विरल गुण हैं।

कोई राष्ट्रीय स्तर का बड़ा नेता ऐसा गुण खुद में विकसित करके देखे , लोग मोदी की तरह उसे भी पसंद करने लगेंगे। 

भले उतना नहीं।

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तो फिर कहिएगा कि अब भी देश -विदेश के अनेक लोग मोदी के इतने अधिक विरोधी क्यों हैं ?

मेरी समझ से इस देश में इस्लामिक शासन कायम करने के लिए प्रयत्नशील बाहरी-भीतरी शक्तियां यह समझ गई हैं कि मोदी के रहते यह संभव नहीं।

  दूसरे अधिकतर नेता व दल भले ही उन्हें वोट के लिए बढ़ावा देते और मदद करते रहें।

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मोदी की विफलता

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15 अगस्त, 2014 को लाल किले से नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘‘न मैं खाऊंगा और न ही खाने दूंगा।’’

खा तो नहीं रहे हैं।

किंतु दूसरों को खाने से नहीं रोक पा रहे हैं।

केंद्रीय मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर तो घोटाले का आरोप नहीं लगा है।

पर ब्यूरोक्रेसी व केंद्र व राज्यों में छुटभैया नेताओं का हाल सही नहीं है।

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सांसद फंड की कमीशनखोरी राजनीति व ब्यूरोक्रेसी में भ्रष्टाचार कम नहीं होने दे रही है।

  यह भ्रष्टाचार का रावणी अमृत कुंड बन चुका है।

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दो सलाह--

1.-सांसदों की ओर से भारी विरोध है,फिर भी सांसद फंड मोदी बंद कर दें।इससे राजनीतिक संकट तो आएगा,पर इससे आपकी सरकार नहीं गिरेगी।हां,जनता आपकी वाह-वाह जरूर करेगी।

2.-भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी का प्रावधान कराएं।

3.-ब्यूरोक्रेसी की जकड़न कम करने के लिए लेटरल बहाली सराहनीय रही है।

किंतु ब्यूराक्रेसी पर लगाम लगाने के लिए संविधान में संशोधन भी जरूरी है।

राज्य सभा में बहुमत होते ही यह काम कर दीजिए।

एक ईमानदार मुख्यमंत्री ने एक बार मुझसे कहा था कि भ्रष्टाचार कम करने में बड़े अफसर सहयोग नहीं करते।

--सुरेंद्र किशोर

19 सितंबर 21


 अखबारों का सर्कुलेशन बढ़ाने 

का एक तरीका यह भी 

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--सुरेंद्र किशोर--

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बहुत पहले कहीं पढ़ा था।

वही बताना चाहता हैं।

दिल्ली के ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ का प्रसार 

यानी सर्कुलेशन 

बढ़ जाने का एक खास कारण रहा।

उस अखबार ने अपराध की घटनाओं का फाॅलोअप यानी पीछा करना शुरू कर दिया था।

उससे अखबार को प्रसार की दृष्टि से भारी लाभ हुआ।

अधिक प्रसार यानी अधिक विज्ञापन।

अधिक विज्ञापन यानी अधिक राजस्व।

उस बढ़े राजस्व के छोटे हिस्से का सदुपयोग बेहतर स्टाफ की संख्या बढ़ाने में करिए।

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इस विधि से आज के अखबार भी लाभ उठा सकते हैं।

आज होता क्या है ?

किसी गंभीर से गंभीर अपराध की कहानी एक-दो दिन या अधिक से अधिक एक सप्ताह तक छपकर रह जाती है।

अपराध संवाददाता फिर दूसरी घटना में लग जाते हैं।

समस्या उनके सामने भी है।

रिपोर्टर कम और काम ज्यादा है।

अधिकतर अखबार संपादकीय विभाग पर कम से कम खर्च करता है।

ऐसा विदेशी अखबार का प्रबंधन नहीं करता है।

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अपराध कथाओं में अब तो भ्रष्टाचार कथाओं को भी जोड़ लेना चाहिए।

खास कर राजनीति में जाकर जनता के करोड़ों-अरबों रुपए लूटने वालों की कथाएं।

हालांकि भ्रष्ट लोग सिर्फ राजनीति में ही नहीं हैं।

‘‘राडिया टेप कहानी’’ तो बताती है कि अन्य क्षेत्रों में भी यहां तक कि मीडिया में भी घोटालेबाज व हथियार के दलाल रहे हैं।

हाल ही में टी.वी.पर देखा कि एक बड़ा पत्रकार एक बड़े नेता का इंटरव्यू ले रहा था।

उस नेता ने कुछ दशक पहले उस पत्रकार के बारे में प्रभाष जोशी से शिकायत के लहजे में कहा था कि फलां पत्रकार ने मुझसे 5 करोड़ रुपए ठग लिए। 

भीषण भ्रष्टाचार आज की राजनीति का उसी तरह अंग बन चुका है जिस तरह आजादी के तत्काल बाद के वर्षों तक नेताओं के सिर पर गांधी टोपियां रहती थीं।

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भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों की खबरें भी अखबारों में आम तौर पर क्षणभंगुर ही होती हैं।

उधर मीडिया की नजरों से मामला ओझल हुआ नहीं कि आरोपीगण मामले को रफा-दफा करने में लग जाते हैं।

  अधिकतर मामलों में रफादफा हो भी जाते हैं।

यदि उन आरोपों व आरोपितों पर मीडिया की निरंतर चैकसी रहे तो भ्रष्टों की नानी मर जाएगी।

इस तरह ऐसे फाॅलोअप करने वाले अखबारों की भी चांदी भी रहेगी।

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जरा करके देखिए,कैसी उपलब्धि मिलती है !!

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20 सितंबर 21



सोमवार, 20 सितंबर 2021

 याद करें सन 2014 की राहुल गांधी से 

अर्णब गोस्वामी की मशहूर बातचीत

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उस बातचीत ने भी 2014 के लोस 

चुनाव नतीजे पर असर डाला था

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यदि इंटरव्यू उपलब्ध न हो तो मेरे 

ही फेसबुक वाॅल पर देख लीजिए।

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-- सुरेंद्र किशोर -

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अर्णब गोस्वामी ने जनवरी, 2014 में राहुल गांधी से लंबी बातचीत की थी।

तब वे ‘टाइम्स नाऊ’ के लिए काम कर रहे थे।

अर्णब ने शालीन सवालों -दर सवालों के जरिए यह साबित कर दिया कि राहुल गांधी,नरेंद्र मोदी का मुकाबला नहीं कर सकते।

उस इंटरव्यू से राहुल गांधी की वास्तविक क्षमता का

 देश को पता चल गया।

वह राहुल का पहला औपचारिक लंबा इंटरव्यू था।

2014 लोक सभा चुनाव का क्या नतीजा हुआ,

यह सबको मालूम है।

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यह अर्णब गोस्वामी की भी उपलब्धि थी।

उस उपलब्धि के लिए अर्णब को चीखने-चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं पड़ी थी।

भविष्य में भी ऐसी पत्रकारीय उपलब्धि के लिए भी अर्णब जैसे तेजस्वी पत्रकार को चिल्लाना नहीं पड़ेगा।

बेजरूरत चिल्लाने व डिबेट के नाम पर कुछ जग जाहिर अशिष्ट लोगों को स्टुडियो में एक साथ बैठाकर एक दूसरे पर भुकवाने से किसी की इज्जत नहीं बढ़ती,न मीडिया की और न ही किसी और की।

हां, कहीं किसी में गुस्सा जरूर पैदा होता है।

नतीजतन कुछ समर्थवान लोग झूठा-सच्चा  केस भी करवा देते हैं।

इससे नाहक समय-पैसे की बर्बादी होती है।

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खुशी की बात है कि अर्णब के खिलाफ ऐसे दायर एक झूठे केस से उन्हें मुक्ति मिल गई है।

 अब उनके लिए यह सोच-विचार का अवसर है।

अपने लाखों शालीन प्रशंसकों के लिए अर्णब को अपनी उखाड़-पछाड़ वाली शैली बदल देनी चाहिए।

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 किसी का इंटरव्यू करने या किसी कार्यक्रम में प्रस्तुत होने से पहले कभी अर्णब गोस्वामी का गजब का होम वर्क होता था।

चीख-चिल्लाहट व हल्ला- गुल्ला गुणात्मक होम वर्क का विकल्प नहीं बन सकता।

उसे अब वैसा बनने भी नहीं देना चाहिए।

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--सुरेंद्र किशोर

19 सिमंबर 21

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शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

    संसद (सन 2001)जैसे हमले की पाक 

    साजिश पर भी भारत के ‘सेक्युलर’ दलों 

     व बुद्धिजीवियों की खतरनाक चुप्पी 

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  स्थानीय पलिस को सूचना दिए बिना 

   मुम्बई से एक आतंकी को दिल्ली 

   पुलिस ने किया गिरफ्तार

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      --सुरेंद्र किशोर--

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 पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइ.एस.आइ.के आतंकियों से हाल में पूछताछ की गई।

उससे यह पता चला कि इस देश में संसद जैसे हमले की उनकी एक और साजिश थी।

   उस साजिश को पुलिस ने विफल कर दिया है।

यानी, लगता है कि सरकार देश की सुरक्षा के लिए कारगर कदम उठा रही है।

यह भी लगता है कि खुफिया जानकारी एकत्र करने के लिए सरकार जो राशि आबंटित करती है,उसका अब बेहतर इस्तेमाल हो रहा है।

  किंतु क्या किसी राजग विरोधी दल के किसी नेता ने

इस साजिश के लिए पाकिस्तान व उसकी खुफिया एजेंसी की सार्वजनिक रूप से आलोचना की है ?

हां,कुछ अखबारों ने इस साजिश के खिलाफ संपादकीय जरूर लिखा है।

यहां तक कि दिल्ली पुलिस के विशेष कोषांग ने महाराष्ट्र से एक आतंकी जान मोहम्मद शेख को गिरफ्तार किया।

ऐसा करने से पहले दिल्ली पुलिस ने महाराष्ट्र पुलिस को कोई जानकारी नहीं दी।

क्यों नहीं दी ?

इस पर अटकलें लगाई जा रही हैं।

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किसी ने ठीक ही कहा है कि कुछ राजग विरोधी दल पाक के खिलाफ ऐसे अवसर पर कोई बयान कैसे दे सकते हैं जबकि अगले साल यहां कई राज्यों में चुनाव होेने वाला है ?

 क्या आप पाकिस्तान में जाकर वहां के मुसलमानों से कह सकते हैं कि आप लोग मोदी को हराइए ?

शायद नहीं।

पर, पाक पहुंच कर कांग्रेस नेता मणिशंकर अयर ने 2015 में एक पाकिस्तानी न्यूज चैनल से बातचीत करते हुए कह दिया था कि ‘‘पहले तो मोदी को सत्ता से निकालो।’’

  ऐसा वही नेता कह सकता है जो यह समझता या जानता है कि भारत के चुनाव में पाक के लोगों की भी परोक्ष भूमिका होती है।

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16 सितंबर 21


बुधवार, 15 सितंबर 2021

    16 वीं सदी का चित्तौड़ और

    आज का अफगानिस्तान !

    कितना फर्क-कितनी समानता ???

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--सुरेंद्र किशोर--

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16 वीं सदी में चित्तौड़ की तीन हजार महिलाओं ने

एक साथ खुद को जला लिया था।

उसे जौहर कहा गया।

  अफगानिस्तान में महिलाओं के साथ आज जो अत्याचार तालबानी कर रहे हैं,उसकी तस्वीरें टी.वी. पर देख कर

 चित्तौड़ की महिलाओं के बलिदान का कारण समझ में नहीं आया ? !!!

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तब कथित ‘‘महान अकबर’’ ने चित्तौड़ गढ़ के किले को घेर

रखा था।

 राजपूत महिलाएं समझ गईं थी कि यदि वे जिंदा रह गईं तो उनके साथ आतताई क्या-क्या करेंगे।

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जिन लोगों के हाथों में तलवारें थीं,उनकी महिलाओं को तो जौहर करना पड़ा था।

मुगल काल में इस देश के जिन आम लोगों के पास हथियार नहीं थे,उनके व उनके परिवार के साथ क्या-क्या हुआ था ?

उसकी कल्पना आज के अफगानिस्तान को देख कर आसानी से की ही जा सकती है।

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कुछ देशी-विदेशी शक्तियां भारत में भी ‘तालिबान सदृश्य शासन कायम करने की कोशिश में हैं।

हमारे यहां के वोटलोलुप नेतागण व कुछ खास विचार धारा के बुद्धिजीवी व इतिहास लेखक उनकी ऐसी घृणित कोशिश को जाने-अनजाने दशकों से बल पहुंचाते रहे हैं।

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अब समझ लीजिए कि यहां भी क्या-क्या  हो सकता है !

यदि आप संभले नहीं ,सचेत नहीं हुए और वैसे तत्वों का डटकर विरोध नहीं किया तो एक बार फिर ‘जौहर’ करना पड़ेगा।

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अफगानिस्तान में हो रहे अत्याचारों पर आज के भी कुछ भारतीय

नेता व बुद्धिजीवी पर्दा डाल रहे हैं।

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ठीक उसी तरह जिस तरह तीन हजार महिलाओं को जौहर करने पर मजबूर कर देने वाले शासक को भारत के कुछ इतिहासकारों व वोटलोलुप नेताओं ने ‘महान’ बताया।

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15 सितंबर 21


मंगलवार, 14 सितंबर 2021

     खाद्य सामग्री में आर्सेनिक

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    --सुरेंद्र किशोर--

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दैनिक ‘प्रभात खबर’,पटना ने यह खबर दी है कि बक्सर से भागलपुर तक गेहूं -आलू में आर्सेनिक के असर की पुष्टि की गई है।

इंडो -यूके रिसर्च प्रोजेक्ट में यह खुलासा हुआ है।

  अत्यधिक भू-जल दोहन को आर्सेनिक के बढ़ते असर की वजह बताया गया है।

 आर्सेनिक दिल,गुर्दा,फेफड़े पर असर करता है।

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पर्यावरण विज्ञानी और बिहार राज्य प्रदूषण बोर्ड के अध्यक्ष डा.अशोक कुमार घोष इस संबंध में बताते हैं कि 

‘‘डोर टू डोर जाकर लिए गए सैंपल के बाद यह पहली बार खुलासा हुआ है कि बिहार के विभिन्न इलाकों में पहुंच रहे गेहूं और आलू में आर्सेनिक मौजूद है।

 यह सामान्य लिमिट से अधिक है।

सैंपल में लिये गए गेहूं या आलू बिहार से बाहर से आए बताए जाते हैं।

फिलहाल इस संबंध में घबराने की जरूरत नहीं है।

व्यापक जागरूकता की जरूरत है।

हमें अत्यधिक गहराई वाले नलकूप खनन को हतोत्साहित करने की जरूरत है।’’

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रिसर्च प्रोजेक्ट, डा.घोष और प्रभात खबर को धन्यवाद।

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पर, उससे हटकर मेरी समझ से बिहार में इस पर और अधिक जांच करने की जरूरत है।

पंजाब में आर्सेनिक और उससे बढ़ रहे कैंसर की समस्या बहुत अधिक है।देश में सबसे अधिक।

वहां की एक रपट के अनुसार किसान रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का बहुत ही अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं।

वहां भी भूजल दोहन की गंभीर समस्या है।

पंजाब से आ रही खबर के अनुसार वहां भूजल दोहन के कारण पानी के साथ नीचे से निकल कर बालू जमीन की सतह पर आ जा रहा है।

उससे जमीन अनुर्वर होती जा रही है।

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निष्कर्ष--हमें ‘हरित क्रांति’ से पहले वाले जमाने में फिर से लौटना होगा।

यानी, जैविक खाद का इस्तेमाल करना होगा।

मैंने बचपन में गोबर खाद से उपजाए गए देसी गेहूं की रोटी खाई है।

 उसकी मिठास अब दुर्लभ है भले उसके दाने छोटे होते थे। 

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13 सितंबर 21 


 आमने-सामने की बातचीत हो 

या सोशल मीडिया पर चर्चा !

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बेहतर है कि बहस हार जाओ,पर दोस्त मत ‘हारो’।

   यानी, 

दोस्त मत छोड़ो।संबंध खराब मत करो।

बहस में जीतने के चक्कर में कई लोग, कई बार संबंध 

खराब कर लेते हैं।

बीच का रास्ता यह है कि ‘अनफंे्रड’ कर दो।

इससे यह होगा कि कभी मिलोगे तो शर्मिंदा नहंीं होना पड़ेगा।

सबको अपनी -अपनी राय रखने व उस पर अड़े रहने का पूरा अधिकार है।

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लोकतंत्र में हर पांच साल पर जनता किसी को गलत व किसी को सही साबित कर ही देती है।

मैंने दशकों से देखा है कि अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर इस देश के मतदाता अक्सर सही ही होते हैं।

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--सुरेंद्र किशोर

14 सितंबर 21   


सोमवार, 13 सितंबर 2021

     महाराणा प्रताप के बारे में 

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  (एक खास संदर्भ में )‘‘.......डूंगरपुर के महारावल ने पत्र लिखकर प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू को याद दिलाया था कि

 ‘‘राजस्थान के सभी राजा, (महाराणा प्रताप के परिजन) महाराणा को शाष्टांग नमस्कार करते हैं।

 जनता में उनका जितना मान है,वह तो भारत सरकार ने भी राज्यों के अधिमिलन के समय उनको देश का एकमात्र ‘महा राज प्रमुख’ बनाकर स्वीकार किया था।’’

( तब अन्य राजा ‘राज प्रमुख’ बने थे।)

   महारावल ने यह भी लिखा कि 

‘‘अंग्रेजी सरकार ने भी उनके विशिष्ट स्थान को स्वीकार कर 

उन्हें ब्रिटिश सम्राट् जार्ज पंचम के दिल्ली दरबार में ,जहां भारतीय राजाओं को अंग्रेज महाराजाधिराज के सामने झुककर उन्हें नजराना देना पड़ा था, हाजिर होने से बरी कर दिया था।’’(जबकि महाराणा उस दिन दिल्ली में ही थे।उन्होंने कोई उपहार भी जार्ज पंचम को नहीं भेजा था।

यह तो मानी हुई बात है कि उनके पूर्वज महाराणा प्रताप ने कभी मुगल यानी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की थी।)

याद रहे कि महारावल के पत्र के बाद नेहरू ने युवक महाराणा को दिल्ली आमंत्रित किया और उन्हें प्रधान मंत्री आवास में ठहराया।   

(--उपर्युक्त विवरण के मुख्य अंश एम.ओ.मथाई की पुस्तक ‘नेहरू के साथ तेरह वर्ष’ से साभार ।)

  आजादी के बाद नेहरू सरकार ने इतिहासकारों को निदेश दे दिया था कि छत्रपति शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप के शौर्य व वीरता का बखान करते हुए कोई इतिहास न लिखा जाए क्योंकि उससे हिन्दुत्व फैलेगा।

सेक्युलर व वामपंथी इतिहासकारों ने उस निदेश का पालन किया।

   दूसरी ओर, मुगल शासकों के सिर्फ अच्छे गुणों को उभारा गया और देसी राजाओं की सिर्फ कमियों का बखान किया गया।

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उस विकृत इतिहास का भारतीय जन मानस पर आज भी इतना अधिक असर है कि यदि आप महाराणा प्रताप के पक्ष में कोई सकारात्मक पोस्ट भी लिखें तो लाइक करने वाले मात्र एक-डेढ़ दर्जन से अधिक लोग नहीं होंगे।

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जबकि इधर यह खबर भी आई है कि वियतनाम के शासक की समाधि पर लिखा हुआ है कि 

‘‘यह महाराणा प्रताप के शिष्य की समाधि है।’’

(वैसे मैं अभी इस खबर की पुष्टि नहीं कर रहा हूं।हालांकि यह खबर तार्किक है।)

याद रहे कि अमेरिका के साथ युद्ध में वियतनाम के लोगों ने महाराणा प्रताप की युद्ध शैली अपनाई थी।

अमेरिका वियतनाम छोड़कर भाग गया था।

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  हमें यू.पी.के पूर्व राजा सुहलदेव की वीरता का पता भी तब चला जब वहां के एक पिछड़ा नेता ने उनके नाम पर एक राजनीतिक दल बना लिया।

याद रहे कि राजा सुहेलदेव ने सन 1033 में मुस्लिम हमलावर 

गाजी सल्लार मसूद को बहराइच में हुए युद्ध में 

हराया और उसे मार डाला था।

ऐसी बहुत सारी दबी हुई कहानियां हंै जिन्हें 1947 के बाद आम लोगों को जानबूझ कर नहीं बताया गया। 

याद रहे कि सुहेलदेव व महाराणा प्रताप जैसे राजाओं के समक्ष भी वैसी ही परिस्थितियां थीं जैसी परिस्थिति से आज अफगानिस्तान में है।

हालांकि हमारे सेक्युलर व नेहरूपंथी इतिहासकार लिख रहे थे कि तब राजा भूभाग के फैलाव के लिए आपस में लड़ रहे थे ।उन लड़ाइयों में कोई दूसरा तत्व नहीं था।  

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    सन 2005 में पश्चिम बंगाल की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार ने ललित सूरी गू्रप को कोलकाता का ग्रेट ईस्टर्न होटल मात्र 52 करोड़ रुपए में आखिर क्यों बेच दिया ?

सार्वजनिक क्षेत्र के भारी समर्थक वाम मोर्चा को ऐसा क्यों करना पड़ा ?

 इतने सस्ते में क्यों बेचा ?

मैं नहीं मानता कि इसके बदले किसी वाम नेता को कोई रिश्वत मिली होगी या उन्होंने ली होगी।

 इस देश की राजनीति में भारी नैतिक गिरावट के बावजूद अब भी सामान्यतः वाम दलों के अधिकतर लोग अन्य अधिकतर राजनीतिक दलों के नेताओं की अपेक्षा अधिक ईमानदार हैं,रुपए पैसे के मामलों में।

  राष्ट्रहित के बारे में भले न हों !

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दरअसल मेरा अनुमान है कि ग्रेट ईस्टर्न होटल के प्रबंधन में ईमानदारी व कार्य कुशलता लाने में विफल वाम सरकार औने -पौने दाम में बेचने बेच देने को मजबूर हो गई।

ग्रेट ईस्टर्न होटल को बनाए रखने का अर्थ था-रोज -रोज सरकारी खजाने से घाटा पूरा करना।

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नब्बे के दशक में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने जब बड़े पैमाने पर विनिवेश शुरू किया अटल सरकार ने उसे जारी रखा तो उनके सामने भी वैसी ही मजबूरी थी।

मौजूदा मोदी सरकार के समक्ष भी वैसी ही मजबूरी है।

हां,मोदी सरकार जो कर रही है ,उसे ‘लीज’ करण कहते हैं न कि बिक्रीकरण।

बिक्रीकरण वही लोग बोल रहे है जो या तो अनजान हैं या राजनीतिक रूप से बेईमान। 

--सुरेंद्र किशोर

13 सितंबर 21

  

 


शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

     मीडिया क्या करे और क्या न करे ?

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      --सुरेंद्र किशोर--

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सन 1997 में पटना के जिस दैनिक अखबार का दाम 

ढाई रुपए था,वह अखबार आज 5 रुपए में बिक रहा है।

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1997 में गेहूं की कीमत प्रति क्ंिवटल 510 रुपए थी।

2021 में 1975 रुपए है।

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यानी, 24 साल में अखबार की कीमत बढ़कर सिर्फ दोगुनी हुई,पर अनाज की कीमत लगभग चैगुनी।

इस तरह अखबार प्रबंधन ने अपने दाम को आम मूल्य वृद्धि के अनुपात में बढ़ने नहीं दिया।

जबकि अखबार का लागत खर्च भी तो इस बीच बहुत बढ़ा।

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दुनिया में अखबार ही ऐसा उत्पाद है जो लागत खर्च से कम पर बिकता है।

दरअसल अखबार का घाटा विज्ञापनों से पूरा होता है।

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विाज्ञापन कौन देता है ?

सरकारी और निजी विज्ञापनदाता।

अखबार की बिक्री से भी कुछ राजस्व मिल जाता है।

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अब इस देश के कुछ राजनीतिक ,गैर राजनीतिक व बौद्धिक  ‘‘क्रांतिकारी’’ लोग यह चाहते हैं कि 

उनके बदले व उनके लिए अखबार ही ‘क्रांति’ कर दे।

जो काम क्रांतिकारी लोग नहीं कर सके,वह काम अखबार 

अपने विज्ञापनदाताओं को नाराज करने की कीमत पर भी उनके लिए करके दिखाए।

अन्यथा,वह ‘गोदी मीडिया’ है।

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मीडिया का कत्र्तव्य क्या है ?

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वही है जो बात नब्बे के दशक में बी.बी.सी.के एक पदाधिकारी ने बताई थी।

   नब्बे के दशक में मैंने पटना के दैनिक ‘इंडियन नेशन’ में सिंगापुर डेटलाइन से बीबीसी. के उप प्रधान की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी पढ़ी थी।

 उनसे पूछा गया था कि बी.बी.सी. की साख का राज 

क्या है ?

उन्होंने बताया कि 

‘‘यदि दुनिया के किसी देश में कम्युनिज्म आ रहा है तो हम यह सूचना लोगों को देते हैं कि आ रहा है।

उसे रोकने की कोशिश नहीं करते।

दूसरी ओर, यदि किसी देश से कम्युनिज्म जा रहा है तो हम रिपोर्ट करते हैं कि जा रहा है।

हम उसे बचाने की भी कोशिश नहीं करते।

 यही हमारी साख का राज है।’’

   (यह और बात है कि लगता है कि बी बी सी का इस बीच पुराना ध्येय बदल चुका है।)

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एक और बात।

सन् 1983 के जून की बात है।

  मैं नई दिल्ली में  नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर के आॅफिस में बैठा हुआ था।

एक खास संदर्भ में मैंने उनसे कह दिया कि आपका अखबार दब्बू है।

 वह इंदिरा गांधी के खिलाफ नहीं लिख सकता।

इस पर उन्होंने कहा कि ‘‘ नहीं सुरेंद्र जी , यू आर मिस्टेकन।

मेरा अखबार दब्बू नहीं है।

 आप इंदिरा जी के खिलाफ जितनी भी कड़ी खबरें  लाकर मुझे दीजिए, मैं उसे जरूर छापूंगा।

पर इंदिरा जी में बहुत से गुण भी हैं।

मैं उन्हें भी छापूंगा।

 एक बात समझ  लीजिए।

मेरा अखबार अभियानी भी नहीं है।’’

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और अंत में 

मेरी टिप्पणी--थोड़ा लिखना,अधिक समझना !!!

मेरा मानना है कि मीडिया यदि बीबीसी के तब के उप प्रधान व राजेंद्र माथुर की राह पर चले तो कोई भी विवेकशील व्यक्ति उसे 

गोदी मीडिया नहीं कहेगा।

(अविवेकशील लोगों की कोई जिम्मेवारी नहीं ले सकता।)  

न ही कोई सरकार उसका विज्ञापन बंद या कम करेगी।

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10 सितंबर 21


 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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    निष्क्रिय दलों के निबंधन 

   रद करने की आयोग की सरकार से मांग

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इस देश के चुनाव आयोग को यह अधिकार तो हासिल है कि वह किसी राजनीतिक दल का निबंधन करे।

पर, आयोग को निबंधन रद करने का अधिकार नहीं है।

इसलिए आयोग ने एक बार फिर केंद्र सरकार से अनुरोध किया है कि वह यह अधिकार प्रदान करे।

चुनाव आयोग यह मांग दशकों से केंद्र सरकार से करता रहा है।

पर निहितस्वार्थ ने इस मांग को पूरा नहीं होने दिया।

उम्मीद है कि नरेंद्र मोदी सरकार इस मांग पर निरेपक्ष ढंग से देशहित में विचार करेगी।

  इस देश करीब 2700 राजनीतिक दल चुनाव आयोग में निबंधित हैं।

किंतु चुनाव आयोग सूत्र बताते हैं कि इनमें से करीब 4 से पांच सौ दल ही सक्रिय हैं।

इनके अलावा अधिकतर दल वर्षों तक कहीं कोई उम्मीदवार तक खड़ा नहीं करते।

किंतु वे राजनीतिक दलों को सरकार की ओर से मिली सुविधाओं का लाभ जरूर उठाते हैं।

  अधिकतर निबंधित दलों के खिलाफ यह शिकायत मिलती रहती है कि वे ‘मनी लांैड्रिंग’ यानी काले धन को उजला बनाने के धंधे में लगे हुए हैं।साथ ही, वे कर वंचना का काम भी करते हैं।

  याद रहे कि राजनीतिक दलों को चंदा लेने और आयकर से छूट पाने का विशेष अधिकार मिला हुआ है।  

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उच्च सदन में मनोनयन

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राज्य सभा और विधान परिषद के लिए क्रमशः राष्ट्रपति और राज्यपाल सीमित संख्या में सदस्य मनोनीत करते हैं।

संवैधानिक प्रावधान के अनुसार ‘‘वैसे व्यक्तियों को मनोनीत किया जाना चाहिए जिन्हें साहित्य,विज्ञान,कला और समाजसेवा 

में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव हासिल हो।’’

  इस संवैधानिक प्रावधान का जितना उलंघन होता है,उतना शायद ही किसी अन्य प्रावधान का होता होगा।

 राज्य सभा और विधान परिषद में मनोनयन के मामले में लगभग सभी दलों का रवैया एक जैसा ही रहा है।

यह रवैया पुराना है।

जहां तक मेरी जानकारी है, बिहार में विधान परिषद में मनोनयन के मामले में अंतिम बार सन 1978 में नियम का पालन हुआ था।

कर्पूरी ठाकुर के मुख्य मंत्रित्वकाल में पोद्दार रामावतार अरूण,डा.जयनारायण मंडल,सियाराम तिवारी और जगदीश सिंह बिहार विधान परिषद में मनोनीत हुए थे।

  साठ और सत्तर के दशकों में तीन पत्रकार जरूर मनोनीत  हुए।

  किंतु पत्रकारों को मनोनीत करने की अनुमति संविधान नहीं देता।

  याद रहे कि जो पत्रकार तब मनोनीत किए गए थे,उनके नाम हैं-श्रीकांत ठाकुर विद्यालंकार(आर्यावर्त),शम्भूनाथ झा (सर्चलाइट)और एस.के.घोष(पी.टी.आई.)।

  राज्य सभा में मनोनयन के मामले में भी संवैधानिक प्रावधान का उलंघन होता  रहा है।

हाल में राष्ट्रपति ने एक पत्रकार और एक वकील को मनोनीत किया ।

  जब खुद सरकार कानून या संविधान का उलंघन करती है तो दूसरे लोगों को भी उलंघन करने की अघोषित छूट मिल जाती है।

  इस मामले में केंद्र सरकार एक काम कर सकती है।

वह संविधान के अनुच्छेद-80 (3) में संशोधन कर दे।

या फिर मौजूदा अनुच्छेद का अक्षरशः पालन करे।

संशोधन इस तरह हो सकता है।

राष्ट्रपति या राज्यपाल ऐसे लोगों को मनोनीत करेंगे जिन पेशों के लोगों का निम्न सदन में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता है।  

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भूली-बिसरी याद

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सन 1977 में जब प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने लोक सभा चुनाव की घोषणा की तो जार्ज फर्नंडिस ने शंका जताई थी कि चुनाव में धांधली होगी ।इस तरह कांग्रेस चुनाव जीत जाएगी।

उससे इमरजेंसी को वैधता मिल जाएगी।

 खुद जार्ज चुनाव लड़ने को तैयार नहीं थे।

  बड़ैदा डायनामाइट केस के सिलसिले में 

जार्ज को दिल्ली

कोर्ट में हाजिर होना पड़ता था।तब वे तिहाड़ जेल में थे।

एक दिन खुद मोरारजी देसाई नामांकन पत्र का फार्म लेकर अदालत पहुंच गए।तब जार्ज ने उस पर हस्ताक्षर कर दिया।

जार्ज मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़े और भारी बहुमत से विजयी हुए।

  किंतु मेरी समझ से चुनाव लड़ने से मना करने का एक कारण और भी था।

आपातकाल के दौरान मैं जार्ज फर्नांडिस से पटना के अलावा बारी -बारी से बंगलोर,दिल्ली और कलकता में मिला था।

 याद रहे कि वह गहरे भूमिगत (डीप अंडरग्राउंड)थे।

  उनमें से किसी एक मुलाकात में जार्ज ने एक अखबार की रिर्पोटिंग की चर्चा की।

वह रपट इंदिरा गांधी की एक सभा की थी।

रपट के साथ संवाददाता का नाम भी छपा था।

उस संवाददाता के लिए जार्ज के मन बहुत सम्मान था। 

वह समझते थे कि वह संवाददाता गलत लिख ही नहीं सकता।

उस संवाददाता ने लिखा था कि बीस सूत्री कार्यक्रम ने गरीब जनता पर सरकार के पक्ष में भारी सकारात्मक असर डाला है।

संवाददाता ने लिखा कि मैंने सभा में उपस्थित श्रोताओं की आखों में इंदिरा जी के लिए भारी समर्थन के भाव देखे।

यानी जब चुनाव की घोषणा हुई तो जार्ज को लगा होगा कि 

धांधली व जन समर्थन के मिले-जुले प्रभावों के कारण कांग्रेस चुनाव जीत जाएगी।

   एक विशेष परिस्थिति यानी इमरजेंसी में भी किसी संवाददाता की रिपोर्टिंग से कोई नेता कितना गुमराह हो सकता है,उसका यह एक उदाहरण था।

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और अंत में

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जब भी किसी नेता या उसके रिश्तेदार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में मुकदमे शुरू होते हैं।

 या, जांच शुरू होती है ।

तो नेता झट से कह देता है कि बदले की भावना से सरकार एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है।

नेता  यह नहीं कहता  कि आरोप गलत है या सही।बदले की भावना वाला आरोप दशकों से लगाया जाता रहा है।

ऐसे में एक सवाल उठता है।

यदि आरोप कोर्ट में अंततः गलत साबित होता है तो पीड़ित व्यक्ति कानून की संबंधित धाराओं के तहत जांच एजेंसी पर अदालत में केस कर सकता है।पर ऐसा वह कभी नहीं करता।

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प्रभात खबर

पटना

10 सितंबर 21

 


गुरुवार, 9 सितंबर 2021

 नरेंद्र मोदी बहुत अच्छे प्रधान मंत्री हैं।

 किंतु कुल मिलाकर सबसे अच्छा प्रधान मंत्री होना बाकी है।

   यदि वे सांसद फंड समाप्त कर देने का साहस करें तो मेरी राय में वह सबसे अच्छा प्रधान मंत्री माने जाएंगे।

दरअसल सांसद फंड इस देश के ‘‘भ्रष्टाचार के रावण की नाभि का अमृत कुंड’’ बन चुका है।


सोमवार, 6 सितंबर 2021

 किसान महा पंचायत के लिए कूच कर रही लक्जरी कारों और एस.यू.वी.का लंबा काफिला देखकर बहुत अच्छा लगा।

  हमारा देश बदल रहा है।

उम्मीद है कि एक वक्त ऐसा भी आएगा कि सामान्य मध्यम वर्ग भी इतनी महंगी कारों और लंबे सैर सपाटों के लिए खर्च वहन कर पाएगा।

     --संदीप घोष

      दैनिक जागरण

       6 सितंबर 21


रविवार, 5 सितंबर 2021

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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 करीब एक हजार जातियों में से किसी को भी आरक्षण का लाभ नहीं 

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सन 1993 में केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए मंडल आरक्षण लागू हुआ।

सरकारी अधिसूचना भले 1990 में जारी हुई थी।

इस बीच मामला कोर्ट में था।

केंद्रीय सूची में पिछड़ी जातियों की कुल संख्या 2633 है।

इनमें से करीब 1000 जातियों में से किसी व्यक्ति को मंडल आरक्षण का लाभ अब तक नहीं मिल सका है।

   इसके लिए कौन -कौन से तत्व जिम्मेदार हैं ?

इस बात का पता कैसे लगाया जाए ?

पता लगेगा तभी तो उसका निदान होगा।

तभी देश का समरूप विकास होगा।

  यदि जातीय और आर्थिक गणना होगी तभी तो इस बात का पता चल पाएगा कि उन एक हजार जातियों  की कुल आबादी कितनी है ? 

उनकी आर्थिक -शैक्षणिक स्थिति कैसी है ?

उसे कैसे बेहतर बनाया जाए ?

   इसी तरह यह भी देखा जाना चाहिए कि गैर आरक्षित समूह में भी किस हिस्से को योजना और नौकरियों में लाभ कम मिल रहा है ।

  याद रहे कि सन 2017 में गठित रोहिणी न्यायिक आयोग की पड़ताल से पिछड़ों के बारे में उपर्युक्त आंकड़ा सामने आया है।

  रोहिणी आयोग ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी है।

  मिली जानकारी के अनुसार आयोग ने 27 प्रतिशत आरक्षण को चार भागों में बांट देने की सिफारिश की है।

   यदि यह सिफारिश मान ली गई तो केंद्र की सूची में शामिल 97 मजबूत पिछड़ी जातियों को 27 में 10 प्रतिशत हिस्सा मिलेगा।

  1674 जातियों को दो प्रतिशत, 534 जातियों को 6 प्रतिशत और शेष 328 जातियों को 9 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा।

  याद रहे कि यह आरोप लगता रहा है कि आरक्षण का  लाभ मजबूत पिछड़ी जातियों को ही अधिक मिलता रहा है।

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उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद ही 

तैयार हो सकेगा दलीय गठबंधन

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लोक सभा के अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए 

गैर राजग दल एकजुट होने की गंभीर कोशिश कर रहे हैं।

पर उन्हें मन वांछित सफलता नहीं मिल रही है।

अभी सफलता मिलेगी भी नहीं।

आखिर क्यों ?

इसलिए कि कुछ दल उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव का नतीजा देख लेना चाहते हैं।

विपरीत परिस्थितियों के बावजूद यदि वहां भाजपा जीत गई तो 

प्रतिपक्षी एकता की पूर्ण सफलता संदिग्ध हो जाएगी।

क्योंकि तब राजनीति के मौसम वैज्ञानिक सक्रिय हो जाएंगे।

यदि यू.पी.मंे भाजपा हार गई तब तो 

गैर राजग दलों का मनोबल बढ़ जाएगा और उनकी उम्मीदें भी।

हालांकि यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि 

सन 2024 में नरेंद्र मोदी सत्ताच्युत ही हो जाएंगे। 

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     अंचल कार्यालय में मंत्री लगाएं 

     जनता का दरबार 

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रिश्वतखोरी से पीड़ित जनता की वास्तविक व्यथा राज्य सरकार को समझनी -जाननी है ?

यह जानना है कि अंचल और पुलिस थाना स्तर पर लोगों का कैसे दोहन किया जाता है ?

कैसे -कैसे बहाने बनाकर काम को लटकाया जाता है ?

एक ईमानदार मुख्य मंत्री भला क्यों नहीं जानना चाहेगा ?

फिर तो एक काम कीजिए।

हर तीन महीने पर प्रत्येक जिले के एक अंचल कार्यालय मंे जनता का दरबार लगाइए।

पर उस दरबार में जिले के किसी मंत्री या जन प्रतिनिधि को मत रखिए।

 किसी अन्य जिले से आने वाले किसी मंत्री के साथ सचिवालय स्तर के किसी वरीय अफसर को लगा दीजिए।

 जनता का ऐसा ही दरबार पुलिस थाने में भी लगे।

थाना भवन से थोड़ा हटकर। 

यदि हर जिले के एक- एक अंचल व थाने को कवर कर लिया गया तो हांड़ी के चावल की स्थिति का पता चल जाएगा।

उससे जनता की व्यथा कम करने में राज्य सरकार को सुविधा होगी।

  किसी भी सरकार की लोकप्रियता का सीधा संबंध थानों व अंचल कार्यालयों के कामकाज पर निर्भर करता है।

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सांसदों-विधायकों के खिलाफ मामले

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जांच एजेंसियों की सुस्ती पर सुप्रीम कोर्ट नाराज है।

सबसे बड़ी अदालत की शिकायत है कि प्रवर्तन निदेशालय और सी.बी.आई.जैसी एजेंसियां भी कुछ खास नहीं कर रही हैं।

क्या सुप्रीम कोर्ट को जैन हवाला घोटाले का अनुभव याद नहीं है ?

दरअसल जहां घोटाला सर्वदलीय हो,वहां जांच एजेंसियां सुस्त पड़ ही जाती हैं।नब्बे के दशक के हवाला कांड में भी यही हुआ था।

 जहां तक वत्र्तमान व पूर्व सांसदों-विधायकों के खिलाफ जारी मुकदमों का सवाल है,वहां मौजूदा परिस्थिति में कुछ खास नहीं हो सकता।इसलिए कि समस्या सिर्फ मानव संसाधन की कमी की नहीं है। मंशा ही साफ नहीं है।

 कुछ खास हो,इसके लिए सबसे पहले आपराधिक मुकदमों की सुनवाई अन्य राज्य में करानी पड़ेगी।

अपने राज्य में गवाहों को धमकाना आसान हो जाता है।

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अपराधीकरण पर नकली आंसू

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राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ इस देश में सिर्फ नकली आंसू ही अब तक बहाए जाते रहे हैं।

होता कुछ नहीं है।

वैसे मौजूदा सरकार चाहे तो एक काम तो वह कर ही सकती है।

जिनके खिलाफ हत्या या बलात्कार के मामले में अदालत में आरोप पत्र दाखिल किए जा चुके हैं,उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया जाए।

इसके लिए कानून बने।

ऐसे उम्मीदवार को जो दल टिकट दे,उस दल की मान्यता चुनाव आयोग रद कर दे,यह भी नियम बने।

यदि सरकार कानून न बनाए तो सुप्रीम कोर्ट तत्संबंधी आदेश पारित कर दे।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी कानून का रूप ले लेता है।

संविधान के अनुच्छेद-142 का सहारा लेकर सुप्रीम कोर्ट ने करीब दो साल पहले राम मंदिर विवाद को सुलझा दिया था।

अब जब लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद व विधायिका की प्रतिष्ठा खतरे में है तो उस अनुच्छेद का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट इसे भी बचा सकता है।बचाना भी चाहिए।

अन्यथा, अपराधियों व आर्थिक घोटालेबाजों से जब विधायिका पूरी तरह भर जाएगी तो फिर लोकतंत्र सिर्फ नाम के लिए ही तो रह जाएगा।

वैसे भी ‘वंशवादी राजनीति’ के बढ़ते असर से लोकतंत्र कराह रहा है। 

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और अंत में

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अगले लोक सभा चुनाव को लेकर एक जगह बात चल रही थी।

एक ने दूसरे से कहा,

‘‘मिलीजुली सरकारों के प्रधानमंत्री का पद अल्पायु होता है।’’

दूसरे ने जवाब दिया,

‘‘तो क्या हुआ ?

 किसी पर्वतारोही को हिमालय की चोटी पर अपना घर बनाते कभी देखा है आपने ?’’

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प्रभात खबर

पटना-27 अगस्त 21




 शिक्षक दिवस पर

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याद आए हमारे शिक्षक 

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सुरेंद्र किशोर

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इस अवसर पर मुझे वे सारे शिक्षक मुझे याद आते हैं 

जिन्होंने मुझे बारी -बारी से अपर प्राइमरी स्कूल

 से लेकर विश्व विद्यालय तक पढ़ाया।

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अपर प्राइमरी स्कूल,खानपुर

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सबके नाम तो याद नहीं किंतु सारण जिले के दरियापुर अंचल स्थित खानपुर अपर प्राइमरी स्कूल के हेड मास्टर धनुषधारी राय जरूर याद आते हैं।

 पास के गांव सुलतानपुर के निवासी थे।

उनका जीवन सादगीपूर्ण था।

वे अनुशासनप्रिय थे।

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मिडिल इंगलिस स्कूल, दिघवारा

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सहायक शिक्षक जनक सिंह याद आते हैं।

हेडमास्टर के पद पर बंगाली बाबू थे।

नाम याद नहीं।

उनकी छड़ी खूब चलती थी।

उसका छात्रों पर सकारात्मक असर होता था।

अब तो छड़ी रखने की भी मनाही हो गई है,चलाने की बात कौन कहे।

शिक्षा में गिरावट का एक कारण यह भी है।

अंग्रेजी में एक पुरानी कहावत है- 

स्पेयर द स्टिक एंड स्प्वायल द चाइल्ड।

यानी ‘‘छड़ी छोड़ दो और बच्चों को बिगाड़ दो।’’

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जयगोविंद हाई स्कूल,दिघवारा 

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याद आते हैं प्रधानाध्यापक हरिहर प्रसाद सिंह उप प्रधानाध्यापक जनार्दन राय और राम जंगल सिंह उर्फ जंगल बाबा।

  हरिहर बाबू अत्यंत योग्य शिक्षक थे।शालीनता की प्रतिमूत्र्ति।

वैसे भी उन दिनों अधिकतर शिक्षक योग्य होते ही थे।

निजी प्रबंधन वाले स्कूल में अयोग्य शिक्षक टिक भी नहीं सकते थे।

 जंगल बाबा तो कोई भी विषय पढ़ा सकते थे।

जगजीवन राम और जंगल बाबा बी.एच.यू. में सहपाठी थे।

जंगल बाबा इंजीनियरिंग भी पढ़े।

पर स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने के कारण बीच में पढ़ाई छोड़कर दिघवारा यानी अपने घर आ गए।

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अलख नारायण उच्च विद्यालय ,एकमा ,सारण

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बैकुंठनाथ सिंह हेडमास्टर थे।

साठ के दशक में उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला था।

सिताब दियारा के मूल निवासी बैकुंठ बाबू के शिक्षण के कारण ही मेरी हिन्दी बेहतर हो सकी।

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महाराजा काॅलेज,आरा में एक साल

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कोई खास याद नहीं।

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राजेंद्र काॅलेज,छपरा

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प्रिंसिपल भोला प्रसाद सिंह केमेस्ट्री के अद्भुत शिक्षक थे।

कई सेक्सन के छात्रों को मैदान में शामियाना लगवाकर माइक-लाउड स्पीकर से पढ़ाते थे।

उनका क्लास करने के बाद घर आकर फिर वह चैप्टर पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी।

हिन्दी विभाग के डा.मुरलीधर श्रीवास्तव ‘शेखर’ की कक्षाओं ने हिन्दी साहित्य सिखाने के साथ-साथ हमें राजनीतिक रूप से भी जागरूक बनाया।

दिवंगत सांसद शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव के पिता शेखर जी हिन्दी के प्रचार के लिए कभी गांधी जी से जुड़े थे।

पर हिन्दी बनाम हिन्दुस्तानी के सवाल पर उनका गांधी जी से 

मतभेद हो गया । उन्होंने गांधी जी का साथ छोड़ दिया।

सुना है कि शेखर जी ने गांधी से कह दिया था कि हम पत्नी को बेगम नहीं कह सकते।

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पटना लाॅ काॅलेज

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मैंने यूं ही रानीघाट स्थित लाॅ कालेज 

में दाखिला जरूर करा लिया था,पर पढ़ने में जी नहीं लगा।

क्योंकि तब तक मैं राजनीतिक कार्यकत्र्ता बन चुका था।

हाजिरी बनाकर हम कक्षा से निकल जाते थे।

तीनों साल मैंने क्लास किया।

पर एक साल की भी परीक्षा नहीं दी।

 खैर,वहां इलाहाबाद के निवासी श्रीवास्तव जी प्राचार्य थे।

शिक्षक के.एन.पोद्दार व प्रयाग सिंह याद आते हैं।

‘‘मूट कोर्ट’’ में मेरे सहपाठी अशोक जी (कदम कुंआ निवासी) खूब जमते थे।

अंग्रेजों जैसी अंग्रेजी बोलते थे।

अब पटना हाईकोर्ट में वकालत करते हैं।

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शिक्षक दिवस पर मेरे गांव के विज्ञान शिक्षक चंद्रदेव राय याद आते हैं।

मैट्रिक स्तर पर मैंने उनसे उनके घर जाकर पढ़ा था।

उनकी अच्छी पढ़ाई के कारण मुझे मैट्रिक (1963) में अच्छा डिविजन आया।

वह जमाना परीक्षा में कदाचार का नहीं था।

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आज भी कोई ईमानदार सर्वे हो तो तो पता चलेगा कि किसी 

अन्य पेशे की अपेक्षा अब भी (जाली सर्टिफिकेट पर बहाल शिक्षकों को छोड़कर) समाज में आम शिक्षकों की इज्जत सबसे अधिक है।

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5 सितंबर, 21


 हमने नहीं जीता, बल्कि खुद भारतीयों ने 

भारत को जीत कर हमारे प्लेट पर रख दिया

 ---उदारवादी ब्रिटिश इतिहासकार 

      सर जे.आर. सिली

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--सुरेंद्र किशोर--

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 ब्रिटिश इतिहासकार सर जे.आर.सिली (1834-1895)ने लिखा है कि ब्रिटिशर्स ने भारत को कैसे जीता।

मशहूर किताब ‘द एक्सपेंसन आॅफ इंगलैंड’ के लेखक सिली  की स्थापना थी कि 

‘‘हमने (यानी अंग्रेजों ने) नहीं जीता,बल्कि खुद भारतीयों ने ही भारत को जीत कर हमारे प्लेट पर रख दिया।’’

  चैधरी चरण सिंह ने सर जे.आर.सिली की पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद करवाकर बंटवाया था।

  चरण सिंह ने एक तरह से हमें चेताया था कि यदि इस देश में गद्दार मजबूत होंगे तो देश नहीं बचेगा।

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मध्य युग में भी वीरता की कमी के कारण हम नहीं हारे।

बल्कि आधुनिक हथियारों की कमी और आपसी फूट के कारण हारे।

हमारे राजा अपने विदेशी दुश्मन की माफी को बार-बार स्वीकार कर उसे बख्श देते थे।

  पर, दुश्मन एक बार भी नहीं बख्शता था।

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आजादी के तत्काल बाद के हमारे हुक्मरानों ने यह सुनिश्चित किया कि ऐसा इतिहास लिखवाया जाए जिसमें हमारे देश के शूरमाओं के शौर्य और वीरता की चर्चा तक नहीं हो।

वे इस काम में सफल रहे।

उनका तर्क था कि इससे हिन्दुत्व पनपेगा।

यानी, भले दूसरा धर्म पनप जाए किंतु हिन्दुत्व न पनपे।

यही थी अपने वोट बैंक की रक्षा की उनकी रणनीति।

अब उनकी वह रणनीति फेल हो रही है।

पर उसने देश का नुकसान तो कर ही दिया।

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आज की स्थिति क्या है ?

आज की स्थिति का पता ठीकठाक यानी ईमानदार अध्ययन 

हो तो चल जाएगा।

वैसे वास्तविक स्थिति यह है कि आज इस देश में गद्दारों की संख्या मध्य युग और ब्रिटिश काल से भी काफी अधिक हो चुकी है।

  जिन्हें मेरी बात पर विश्वास न हो,वे कम से कम निजी टी.वी.चैनलों के डिबेट्स को ही ध्यान से देख-सुन लें।

इस तरह आज उपस्थित भीषण व चैतरफा खतरों के समक्ष इस देश का भगवान ही मालिक है।

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    3 सितंबर 21


 


आज के राजनीतिक कार्यकत्र्ता लोहिया

-जेपी के इस पक्ष को भी जरा जान लें !

उन्हें सिलेबस तक ही सीमित रखोगे ??

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पर,सवाल है कि उनकी यह सब ‘‘अव्यावहारिक

 बातें’’ जानने में कितनों की रूचि है ?

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खैर, मेरी रूचि बताने में जरूर है,चाहे कोई सुने या नहीं।

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--सुरेंद्र किशोर--

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1.-डा.राममनोहर लोहिया ने शादी नहीं की।

घर नहीं बसाया।

क्योंकि उनका मानना था कि जिन्हें सार्वजनिक जीवन में 

जाना है,उन्हें शादी नहीं करनी चाहिए।

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आज राजनीति में वंशवाद-परिवारवाद की ‘महामारी’ को देखने से यह लगता है कि शायद डा.लोहिया यह जान गए थे कि एक दिन यही सब होने वाला है।

नेहरू परिवार को तो वे देख भी चुके थे।

इन दिनों तो इन बुराइयों के कारण कुछ राजनीतिक दल मुरझाते भी जा रहे हैं।

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2.-लोक सभा के सदस्य रहने के बावजूद डा.लोहिया ने अपने लिए कार नहीं खरीदी।

वे कहते थे कि कार को मेन्टेन करने लायक मेरी आय नहीं है।

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लोहिया यह भी जान गए थे कि नेताओं को जायज आय से अधिक खर्च करने की आदत पड़ जाएगी तो देश घोटालों-महा घोटालों में डूब जाएगा ।

आज देश के कितने छोटे -बड़े नेतागण भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में मुकदमे झेल रहे हैं,उनकी गिनती की है आपने ?

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3.-लोहिया का नारा था-‘‘पिछड़े पावें सौ में साठ।’’

वे सभी जातियों-समुदायों की महिलाओं को भी पिछड़ा मानते थे।

 वे ऊंची जातियों के विरोधी नहीं थे।

बारी-बारी से उनके जितने भी निजी सचिव हुए,

सब के सब ब्राह्मण थे।

यह बात बहुत मायने रखती है कि कोई नेता किसे अपना निजी सचिव रखता है।

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याद रहे कि जातीय-साम्प्रदायिक वोट बैंक के किले में सुरक्षित हो जाने के कारण इस देश के अनेक नेताओं ने जितने भ्रष्टाचार व अनर्थ किए हैं,वह एक रिकाॅर्ड है।

यह आजादी के बाद से ही शुरू हो गया था।कुछ लोग कहते हैं कि उसके पहले से ही जारी था।

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4.-लोहिया ने एक बार एक ऐसे व्यक्ति को पार्टी छोड़ देने को कहा था कि जिसके भोजनालय में शराब भी बिकती थी।

रांची के उस व्यक्ति ने शराब का व्यापार छोड़ दिया,पर पार्टी नहीं छोड़ी। 

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इस देश में आज कितने नेता हैं जो शराब नहीं पीते ?

उसका राजनीतिक व गैर राजनीतिक युवा पीढ़ी पर कैसा असर पड़ता है ?

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5.-लोहिया ने 1967 के चुनाव से ठीक पहले कहा कि मैं सामान्य नागरिक संहिता के पक्ष में हूं।

इस पर उनके एक सहकर्मी ने कहा कि यह आपने क्या कह दिया ?!!

आप तो अब चुनाव हार जाएंगे।

उस पर डा.लोहिया ने कहा कि ‘‘मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए राजनीति नहीं करता।

देश बनाने के लिए राजनीति करता हूं।’’ 

उस बयान के बाद वे चुनाव हारते -हारते जीते थे।

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सामान्य नागरिक संहिता संविधान के नीति निदेशक तत्वों वाले चैप्टर में है।

आज कितने नेता हैं जो अपने राजनीतिक स्वार्थ के कारण संविधान या उसकी भावना की उपेक्षा नहीं करते हैं ?

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ये तो बानगी भर हैं।

उनके बारे में और

भी बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो राजनीति में आज कहीं नजर नहीं आतीं।

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अब जरा जयप्रकाश नारायण के बारे में

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जयप्रकाश नारायण का निजी खर्च कैसे चलता था,

आपको पता है ?

उनके गांव से अनाज आता था।

मेगसायसाय पुरस्कार में मिले पैसों को बैंक में जमा कर दिया गया था जिसके सूद से उनका खर्च चलता था।

उनके लिए कपड़े उनके कुछ संपन्न मित्र बनवा देते थे।फर्नीचर भी मित्रों से मिले थे।

उनके निजी सचिव का वेतन ‘‘इंडियन एक्सप्रेस’’ यानी राम नाथ गोयनका देते थे।

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ऐसा जीवन वे सत्ता को ठोकर मार कर खुशी -खुशी बिता रहे थे।

पचास के दशक में तत्कालीन प्रधान मंत्री व उनके मुंहबोले ‘‘बड़े भाई’’ जवाहरलाल नेहरू ने सरकार से सहयोग करने के लिए जेपी को आमंत्रित किया था।

पर जेपी ने उनके सामने कार्यक्रमों की सूची संभवतः 14 या 15 सूत्री पेश कर दी ।उसमें  बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी शामिल था।

कहा कि इन्हें मान लीजिएगा तो हम आपकी सरकार को सहयोग करेंगे।

नेहरू ने उसे मानने में अपनी असमर्थता दिखाई।

जेपी भी पीछे हट गए।

जानकार लोग बताते हैं कि यदि जेपी नहीं हटे होते तो बाद में जो पद लालबहादुर शास्त्री को मिला,वह जेपी को मिल सकता था।

  पर जेपी तो उसके लिए नहीं बने थे।

जेपी की चिट्ठी पर नेहरू ने दिनकर जी को राज्य सभा का सदस्य बना दिया तो उन्हें क्या नहीं बना देते !

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लोहिया की तरह ही जेपी के बारे में भी और बहुत सारी बातें हैं जिसके लिए यह जगह यानी वाॅल छोटी पड़ती है।

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पहले के जमाने में ऐसे त्यागी-तपस्वी नेताओं के बारे में बड़े नेतागण अपने कार्यकत्र्ताओं को बताते हैं।

आज भी इक्के -दुक्के बताते होंगे।

पर अधिकतर नेता कहते हैं कि वह जमाना ही कुछ और था।

वह सब आज संभव नहीं है।

फिर सिलेबस से निकाले जाने पर हो -हल्ला क्यों ?

लगता है कि  उतना ही करना उनके वश में है।

तो मैं कौन  होता हूं रोकने वाला ?

जन्म दिन -पुण्यतिथि मनाइए,कभी कभी सिलेबस जैसे मामले उठा दीजिए, और फिर अपनी राह पर 

चलते रहिए !

पर कई बार यह राह नेता को कहीं और भी ले जाती है,यह भी याद रहे।

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