शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

परीक्षाओं में कदाचार रोकने के लिए नोडल एजेंसी जरूरी-सुरेंद्र किशोर



माफिया-नेता-अफसर गंठजोड़ पर वोहरा समिति की रपट 1993 में आई  थी।उस रपट में समिति  ने  केंद्र सरकार को एक महत्वपूर्ण  सलाह दी थी।सलाह यह थी कि  गृह मंत्रालय के तहत एक  नोडल एजेंसी  बननी चाहिए। देश मेंे जो भी गलत काम हो रहे हैं ,उनकी सूचना वह एजेंसी एकत्र करे।ऐसी व्यवस्था की जाए ताकि सूचनाएं लीक नहीं हों।क्योंकि सूचनाएं लीक होने से राजनीतिक दबाव पड़ने लगता हैं ।इससे  ताकतवर लोगों के खिलाफ कार्रवाई खतरे में पड़ जाती है।
वोहरा समिति की सिफारिश को तो लागू नहीं किया गया।नतीजतन उसका खामियाजा यह देश आज भी भुगत रहा है। 
पर कम से कम इसी तरह की एक गंभीर समस्या से लड़ने के लिए नोडल एजेंसी बननी चाहिए।कम से कम बिहार में पहले बने।
  माफिया-नेता-अफसर गंठजोड़ की तरह ही एक देशव्यापी ताकतवर व शातिर गंठजोड़ बिहार सहित देश भर की परीक्षाओं में  चोरी करवाने के काम में निधड़क संलिप्त  है।
 अपवादों कोछोड़ दें तो आज शायद ही किसी बड़ी या छोटी  परीक्षा की पवित्रता बरकरार है।चाहे मेडिकल, इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिले के लिए परीक्षाएं हो रही हों या छोटी -बड़ी नौकरियों के लिए।
सामान्य परीक्षाओं का तो कचरा बना दिया गया है।अपवादों की बात और है।
कदाचार परीक्षाओं का अनिवार्य अंग है।
उसकी रोक थाम के लिए एक ताकतवर नोडल एजेंसी तो बननी ही चाहिए। एजेंसी  हर परीक्षा की निगरानी  करे।एजेंसी का अपना खुफिया तंत्र हो।साथ में अर्ध सैनिक बल भी।
सामान्य दिनों में भी एजेंसी सक्रिय रहे।
एजेंसी के पास अपना धावा दल हो।
इस पर जो भी खर्च आएगा,वह व्यर्थ नहीं जाएगा।
कल्पना कीजिए कि चोरी से  पास करके कोई व्यक्ति सरकारी,अफसर,डाक्टर या इंजीनियर बन जाए।
वैसे अयोग्य लोग जहां भी तैनात होंगे तो वे निर्माण योजनाओं और मानव संसाधन को  नुकसान ही तो पहुंचाएंगे ।
 उस भारी नुकसान को बचाने के लिए किसी ताकतवर व सुसज्जित नोडल एजेंसी पर होने वाले खर्चे का बोझ उठाया जा सकता है।
 आए दिन यह खबर आती रहती है कि परीक्षा केंद्रों पर परीक्षा के समय सी.सी.टी.वी.कैमरा काम ही नहीं कर रहे थे।
कहीं जैमर बंद थे तो कहीं से गार्ड गायब।कहीं परीक्षा केंद्र के आसपास अवांछित तत्वों का जमावड़ा है।
नोडल एजेंसी के धावा दल परीक्षा केद्रों पर दौरा कर उस बिगड़ी स्थिति को संभाल सकते हंै।
 मान लीजिए कि राज्य में प्रतियोगिता परीक्षाएं सौ केंद्रों में हो रही हैं।
उनमें से दस केंद्रों पर भी नोडल एजेंसी के धावा दल अचानक पहुंच जाएं तो बाकी नब्बे केंद्रों पर भी हड़कंप मच जाएगा।
क्योंकि तब तक सचेत करने के लिए मोबाइल फोन अपना कमाल दिखा चुके होंगे।
 ़--यौन अपराधियों को लेकर गोपनीयता--   
इस देश में एक नया काम हो रहा है।काम तो बहुत अच्छा है।
यौन अपराधियों की नेशनल रजिस्ट्री तैयार की जा रही है।
नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो को यह जिम्मेदारी दी गयी है।
देश भर के सजायाफ्ता यौन अपराधियों के बारे में पूरा विवरण एक जगह उपलब्ध रहने पर देश की जांच एजेंसियों के काम आसान हो जाएंगे।
यौन अपराधियों के नाम,फोटो,पता,फिंगर प्रिंट,डी.एन.ए.नमूना,पैन और आधार नंबर क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के पास होंगे।
 पर इसमें एक कमी रहेगी।
इस विवरण को सार्वजनिक नहीं किया जा सकेगा।हालांकि अमेरिका में ऐसी सूचनाओं को सार्वजनिक कर दिया  जाता है।
 सार्वजनिक करने से कई लाभ हैं।एक तो ऐसे अपराधी जब सजा भुगत कर जेल से बाहर आएंगे तो उनसे लोगबाग सावधान रहेंगे।
दूसरी बात यह भी होगी कि उस अपराधी घर के  आसपास के लोगों का उसके परिवार पर मानसिक दबाव पड़ेगा।
उससे ऐसी सामाजिक शक्तियां भी सामने आ सकती हैं जो सामाजिक दबाव बना कर ऐसे अपराधों को रोकने में शायद मदद करें।
बदनामी के डर से ऐसी प्रवृति वालों के परिजन ऐसे अपराधियों का बहिष्कार भी कर सकते हैं।
अब केंद्र सरकार बताएगी कि ऐसी सूचनाएं सार्वजनिक करने का नुकसान किसे होगा।
दरअसल हमारे यहां ऐसी बातों में भी गोपनीयता बरती जाती है जिनमें बरतने की कोई जरूरत नहीं है।
 राजनीतिक दल अपने  चंदे का पूरा विवरण जनता को नहीं देते हैं। चंदे के एक हिस्से का तो देते हैं ,पर  बाकी का छिपा लेते हैं।
1967 में आई.बी.की रपट थी कि भारत के अधिकतर राजनीतिक दलों ने यहां चुनाव लड़ने के लिए विदेशों से पैसे लिए।
पर उस रपट को केंद्र सरकार ने सार्वजनिक नहीं होने दिया।
माफिया-नेता-अफसर गंठजोड़ पर वोहरा कमेटी की  1993 की रपट  भी गोपनीय ही रही।
यहां तक कि 2002 में जब चुनाव आयोग ने कहा कि उम्मीदवार  शैक्षणिक योग्यता,आपराधिक रिकाॅर्ड और संपत्ति का विवरण नोमिनेशन पेपर के साथ पेश करें तो तत्कालीन सरकार ने उसका विरोध कर दिया। पर सुप्रीम कोर्ट ने जब सख्त आदेश दिया तो वैसा करना पड़ा।     
   --‘टिस’ पर ही निर्भरता-- 
मुम्बई स्थित टाटा इंस्टीच्यूट आॅफ सोशल साइंसेस यानी ‘टिस’ की फील्ड एक्शन टीम ने हाल में बिहार के आसरा गृहों की जांच रपट पेश करके तहलका मचा दिया।
उस इंस्टीच्यूट में ‘सोशल वर्क’ विषय  की भी पढ़ाई होती है।
वहां समाज व लोगों के प्रति निष्ठावान होना सिखाया जाता है।
 सोशल वर्क की पढ़ाई बिहार में भी होती है।पर बहुत कम स्थानों में ।वह भी आधे मन से। 
 इस राज्य के एक नामी विश्व विद्यालय में तो सोशल वर्क विभाग के प्रधान पद पर सोशियोलाॅजी के शिक्षक तैनात हैं।
  हाल में बिहार लोक सेवा आयोग ने काॅलेज शिक्षकों की नियुक्ति के लिए जो विज्ञापन निकाले, उसमें सोशल वर्क विषय शामिल ही नहीं था।
   बिहार सरकार अन्य विभागों की भी सोशल आॅडिट कराना चाहती है।
 यहां तो सोशल आॅडिट की अधिक जरूरत है भी।
इसलिए इस बात की भी जरूरत है कि ‘टिस’ की तरह बिहार के विश्व विद्यालयों में  भी सोशल वर्क विभागों को स्थापित किया जाए।जहां विभाग पहले से हैं,उन्हें मजबूत किया जाए।
इन संस्थानों से डिग्रियां लेकर जन सेवा की भावना से ओतप्रोत होकर जब विद्यार्थी निकलेंगे तो सोशल आॅडिट के लिए बिहार को मुम्बई के टिस का रुख नहीं करना पड़ेगा। 
    -- भूली बिसरी याद--
 आजादी के तत्काल बाद विश्व विद्यालय में किस तरह खोज-खोज कर विद्वान 
प्राध्यापकों की बहाली की गयी,उसका वर्णन डा.नागेश्वर प्रसाद शर्मा ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘बिहार के ढहते विश्व विद्यालय’ में की है।
उन्होंने लिखा है कि ‘सर सी.पी.एन.सिंह की  नेपाल के राजदूत पद पर नियुक्ति के बाद सारंगधर सिंह पटना विश्व विद्यालय के वाइस चांसलर बने।वे 1949 से 1952 तक वाइस चांसलर रहे।
सारंगधर बाबू जमींदार परिवार से आते थे और पटना के खड्ग विलास प्रेस के मालिक भी थे।इसी प्रेस ने  भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएं छापी थीं।
सारंगधर बाबू  स्वतंत्रता सेनानी  थे।कांग्रेस  से जुड़े हुए  थे।
1952 और 1957 में वे पटना से लोक सभा के सदस्य भी चुने गए थे।
सारंगधर बाबू ख्यातिप्राप्त शिक्षाविद् नहीं होते हुए भी ,विश्व विद्यालय के शैक्षणिक स्तरोन्नयन के प्रति सजग और दृढप्रतिज्ञ थे।
उनकी दूरदर्शिता,कर्मठता और पटना विश्व विद्यालय के प्रति सत्यनिष्ठता का प्रमाण है कि उनके कार्यकाल में उनके द्वारा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वानों की नियुक्ति यहां  हुई।जिनकी नियुक्ति हुई,उनके नाम हैं डा.ए.एस.अल्टेकर, डा.बी.आर.मिश्र, वी.के.एन.मेनन, पी.एस.मुहार, एम.जी.पिल्लई, डा.के.सी.जकारिया और डा.एम.एम.फीलिप।’
       --और अंत में-
उत्तर प्रदेश के पूर्व लोक निर्माण मंत्री शिवपाल यादव  प्रदेश में सपा से  अलग एक समानांतर राजनीतिक शक्ति खड़ी करना चाहते हैं।
 पर संकेत हैं कि सपा के अधिकतर लोग अखिलेश के साथ ही रहेंगे।
क्योंकि मुलायम सिंह यादव  का आशीर्वाद अखिलेश को ही मिलता रहा है।नेता जी  का दिमाग शिवपाल के साथ है,पर  दिल अखिलेश के साथ।
 बिहार में भी ऐसा होगा।जिसे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद का आशीर्वाद मिला है,उनके वोटर भी अंततः उसे ही  उत्तराधिकारी मानेंगे।
तमिलनाडु में भी स्टालिन को ही करूणानिधि का आशीर्वाद मिला था।
दूसरे पुत्र को अंततः  आत्म समर्पण करना पड़ा।ऐसे अन्य उदाहरण भी हैं।
@कानोंकान-प्रभात खबर-बिहार-21 सितंबर 2018@


  


   

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