संभवतः चुनाव प्रचार के लिए हिन्दी फिल्मों के किसी शीर्ष अभिनेता का पहली बार 1962 में इस्तेमाल किया गया था।
तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने वी.के.कृष्ण मेनन के पक्ष में मशहूर फिल्मी कलाकार दिलीप कुमार को चुनाव प्रचार में उतारा था।
उत्तरी बंबई लोक सभा सीट पर मेनन का पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष जे.बी.कृपलानी से सीधा मुकाबला था।वह चुनाव देश में काफी चर्चित हुआ था।
1984 के लोक सभा चुनाव में तो कांग्रेस ने इलाहाबाद में
हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ अमिताभ बच्चन को उम्मीदवार ही बना दिया था।बहुगुणा जी हार भी गए थे।
कहा गया कि राजीव गांधी ने स्वतंत्रता सेनानी बहुगुणा जी को एक फिल्म अभिनेता से हरवा कर राजनीति में गलत परंपरा शुरू की।पर कम ही लोग जानते हैं कि यह काम तो
जवाहरलाल नेहरू 1962 में ही शुरू कर चुके थे ।
संकेत मिल रहे हैं कि 2019 के लोक सभा चुनाव में पूरे देश में जितनी बड़ी संख्या में फिल्मी हस्तियां उतरेंगी ,उतनी संख्या में पहले कभी नहीं उतरी थीं।
दिलीप कुमार के अनुसार, ‘मैंने पहली बार 1962 में लोक सभा चुनाव में किसी उम्मीदवार के लिए प्रचार किया था।
पंंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुझे खुद फोन करके कहा था कि ‘क्या मैं समय निकाल कर बम्बई में कांग्रेस आॅफिस में जाकर वी.के.कृष्ण मेनन से मिल सकता हूं ?
वे उत्तरी मुम्बई से चुनाव लड़ रहे हैं।
उनके खिलाफ एक बड़े नेता जे.बी.कृपलानी लड़ रहे थे।’
मैंने पंडित जी की बात का सम्मान किया।क्योंकि आगा जी के बाद मैं सबसे ज्यादा आदर व सम्मान उन्हीं का करता था।
आत्म कथा ‘वजूद और परछाई’ में दिलीप साहब लिखते हैं कि ‘जैसा कि पंडित जी ने कहा मैं जुहू में कांग्रेस आॅफिस गया।मैं मेनन का इंतजार कर रहा था कि एक आदमी तेजी से अंदर आया और अपना परिचय देते हुए बोला कि ‘मेरा नाम रजनी है और मैं रोजी-रोटी के लिए वकालत करता हूं।’
मैं उठ खड़ा हुआ और कहा कि ‘मेरा नाम युसुफ है और मैं रोजी-रोटी के लिए कुछ नहीं करता हूं।’
उसी समय कृष्ण मेनन आ गए।मुझे देख कर मुस्कराते हुए हाथ बढ़ाया तो रजनी यानी रजनी पटेल हैरान रह गए।
कृष्ण मेनन ने पंडित जी के फोन के बारे में बताया और कहा कि मुझे मालूम हुआ कि आप यहां आॅफिस में आने वाले हैं।
बाद में मेनन ने रजनी का दिलीप कुमार से परिचय कराया तो वे माफी मांगने लगे कि उन्होंने मुझे पहचाना नहीं था।
उन्होंने कहा कि ‘मैं फिल्में नहीं देखता।’
मेनन ने दिलीप कुमार से कहा कि चुनाव मुकाबला कड़ा है।
वे चाहते थे कि मैं फिल्म उद्योग के लोगों को चुनाव रैली में आने के लिए कहूं।
1962 का वह चुनाव शहर का सबसे नाटकीय चुनाव था।
मैंने सबसे बड़ी राजनीतिक सभा बम्बई के कूपरेज मैदान में संबोधित किया।रजनी और मैं कार से जा रहे थे।मुझे इसके बारे में बिलकुल पता नहीं था कि मुझे भाषण देना है।मेरीन ड्राइव के पास रजनी ने मुझसे कहा कि मौजूद लोगों के सामने आपको भाषण देना है।
मैं कुछ खीज गया।मैंने कहा कि मैं कोई नेता नहीं हूं कि बिना किसी तैयारी के जनता के सामने बोल पाउं।
उन्होंने मेरे हाथ को थपथपाते हुए कहा कि ‘आपसे राजनीतिक भाषण की उम्मीद किसे है ? उसे नेताओं के लिए छोड़ दीजिए।आप तो लोगों के सामने दिलीप कुमार की तरह बोलिए।’
दिलीप लिखते हैं कि ‘मौके पर पहुंचते ही देखा कि लोग दिलीप कुमार का नाम ले रहे थे और शोर मचा रहे थे।
मैं जब जनता के सामने आया तो उनकी खुशी और जोश भरी चीख -पुकार और साफ सुनाई देने लगी।
मैंने गहरी सांस ली और दस मिनट बोला।
जब मेरा भाषण खत्म हुआ तो तालियों की आवाज बहरा कर देने वाली थी।
इस तरह मैंने मेनन के लिए चुनाव प्रचार करते हुए कई भाषण दिए।
बाद में कांगेेस के लिए चुनाव प्रचार करना एक मेरा एक नियमित काम बन गया क्योंकि कृष्ण मेनन जीत गए थे।’
दरअसल वह एक ऐसा चुनाव था जहां दक्षिणपंथ और वाम पंथ आमने -सामने था।
अखबारों खास कर साप्ताहिक पत्रिकाओं ने जबर्दस्त भूमिका निभाई।
पर दिलीप कुमार तो दिलीप कुमार ही थे।
कृष्ण मेनन 1957 में उसी क्षेत्र से लोक सभा चुनाव जीत चुके थे।पर 1962 के चुनाव में दिग्गज कृपलानी के उम्मीदवार
बन जाने के कारण जवाहर लाल जी अपने मित्र मेनन के लिए चिंतित हो उठे थे।वे कोई कसर छोड़ना नहीं चाहते थे।इसीलिए उन्होंने फिल्म अभिनेता की मदद ली।
जब देश को स्वतंत्रता मिल रही थी,तब जे.बी.कृपलानी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे।
पर कृपलानी को जब लगा कि प्रधान मंत्री देश के महत्वपूर्ण
मुद्दों पर कांग्रेस अध्यक्ष से राय नहीं लेते तो उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया।
1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद तो उन्होंने कांग्रेस को ही छोड़ दिया।
जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1946 में अंतरिम सरकार बनने के बाद जे.बी.कृपलानी कांग्रेस अध्यक्ष बने थे।
पर प्रधान मंत्री से मतभेद के कारण उन्होंने नवंबर ,1947 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
याद रहे कि नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद कार्य समिति ने कृपलानी को अध्यक्ष बनाया था।ऐसा गांधी जी के कहने पर हुआ था अन्यथा नेहरू और कृपलानी के विचार नहीं मिलते थे।लगभग परस्पर विरोधी विचार वाले ये दोनों नेता थे।
दूसरी ओर मेनन वामपंथी थे।ब्रिटेन में भारत के हाई कमिश्नर रहे चुके थे।
1953 में राज्य सभा के सदस्य बने।
बाद में रक्षा मंत्री बने।
चीन के हाथों भारत की पराजय के बाद मेनन को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था।1967 में तो कांग्रेस ने उन्हें टिकट तक नहीं दिया।सन 1969 में वामपंथियों की मदद से पश्चिम बंगाल से एक उप चुनाव के जरिए लोक सभा पहुंचे थे।@फस्र्टपोस्ट हिन्दी में 10 सितंबर 2018 को प्रकाशित मेरा लेख@
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