शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

पुण्य तिथि के अवसर पर  
‘कलम के जादूगर’ रामवृक्ष बेनीपुरी ने जानकी वल्लभ शास्त्री के बारे में 1949 में जो कुछ लिखा, उससे उनकी बेजोड़ प्रतिभा का पता उन्हें भी चल जाएगा जिन्हें बेनीपुरी जी को पढ़ने का अवसर अभी नहीं मिला है।
  जानकीवल्लभ !
एक अशांत आत्मा-जिसके कंठ में कोमल स्वर,मस्तिष्क में सपक्ष कल्पना और हृदय में भावना का
सागर !
  जहां एक ही साथ समुद्र का हाहाकार ,पक्षी का कलरव और वंशी की तान !..
 घुघराले बाल,उन्नत ललाट,प्रेमिल आंखें, नुकीली नाक और दोनों ओष्ठ-अधर जो कभी अट्टहास तक दे सकते हैं,मगर जिन्हें एक मंद मुस्कान देने में भी संकोच हो !...जो प्रकृति -प्रदत्त अपने गोरे रंग को साधना की आंच मंे तपा -तपा कर तांबा बनाने पर तुला हो !....आप जिसके बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते ...जो ज्ञान की इतनी बड़ी गठरी लेकर कभी अपने को बीच में नहीं खड़ा कर सकता, चाहे इस ओर या उस छोर !....पच्चीस वर्षों की इस छोटी सी उम्र में ही जिसने पच्चीस तिनके चुने,पच्चीस डालों को देखा -भाला,लेकिन जो अपने लिए एक घांेसला भी न बना सका,और जिंदगी तो उड़ान का ही नाम है।उड़े-चलो, बढ़े चलो ओ मानव पंछी ,अपने पंखों की फड़फड़ाहट से वायु मंडल को आंदोलित करते,अपनी काकली से रिक्त हृदयों को भरते ।

कोई टिप्पणी नहीं: