बुधवार, 30 जनवरी 2019

जॉर्ज फर्नांडिस : जान हथेली पर लेकर इमरजेंसी का मुकाबला किया था


इमरजेंसी में ‘न्यूजविक’ ने भारत पर एक स्टोरी की थी। उस स्टोरी के साथ जयप्रकाश नारायण और जॉर्ज फर्नांडिस की तस्वीरें थीं। पत्रिका के अनुसार भारत में दो तरह से आपातकाल के खिलाफ संघर्ष हो रहा है। जेपी का अहिंसक तरीका है और जॉर्ज फर्नांडिस का डाइनामाइटी।

शब्द भले डायनामाइटी न था, पर आशय गैर अहिंसक होने का था। जेपी, जॉर्ज के तरीके से असहमत थे। आपातकाल में जॉर्ज और उनके साथियों पर बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र केस चला।
जेल में उन्हें व उनके साथियों को यातनाएं दी गयी थीं। मुकदमा तब उठा जब 1977 में मोरारजी की सरकार बनी।

25 जून, 1975 को जब देश में आपातकाल लगा तो उस समय जॉर्ज फर्नांडीस ओडिशा में थे। अपनी पोशाक बदलकर 5 जुलाई को जॉर्ज पटना आये और तत्कालीन समाजवादी विधान पार्षद रेवतीकांत सिन्हा के पटना के आर. ब्लॉक स्थित सरकारी आवास में टिके।


इन पंक्तियों का लेखक भी उनसे मिला जो उन दिनों जॉर्ज द्वारा संपादित चर्चित साप्ताहिक पत्रिका 
‘प्रतिपक्ष’ का बिहार संवाददाता था। जॉर्ज दो—तीन दिन पटना रहकर इलाहाबाद चले गये।

बाद में उन्होंने मध्य प्रदेश के प्रमुख समाजवादी नेता लाड़ली मोहन निगम को इस संदेश के साथ पटना भेजा कि वे मुझे और शिवानंद तिवारी को जल्द विमान से बंगलुरू लेकर आयें। शिवानंद जी तो उपलब्ध नहीं हुए। पर मैं निगम जी के साथ मुम्बई होते हुए बंगलुरू पहुंचा। वहां जॉर्ज के साथ तय योजना के अनुसार रामबहादुर सिंह, शिवानंद तिवारी, विनोदानंद सिंह, राम अवधेश सिंह और डॉ. विनयन को लेकर मुझे कोलकाता पहुंचना था।

पटना लौटने पर मैंने उपर्युक्त नेताओं की तलाश की। पर इनमें से कुछ जेल जा चुके थे या फिर गहरे भूमिगत हो चुके थे। सिर्फ डॉ. विनयन उपलब्ध थे। उनके साथ मैं धनबाद गया।

याद रहे कि आपातकाल में कांग्रेस विरोधी राजनीतिक नेताओं-कार्यकर्ताओं पर सरकार भारी आतंक ढा रही थी। राजनीतिककर्मियों के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना तक कठिन था।भूमिगत जीवन जेल जीवन की अपेक्षा अधिक कष्टप्रद था।

धनबाद में समाजवादी लाल साहेब सिंह से पता चला कि राम अवधेश तो कोलकाता में ही हैं तो फिर हम कोलकाता गये। वहां जॉर्ज से हमारी मुलाकात हुई। पर वह मुलाकात सनसनीखेज थी।

जॉर्ज ने दक्षिण भारत के ही एक गैरराजनीतिक व्यक्ति का पता दिया था। उस व्यक्ति का नाम तीन अक्षरों का था। जॉर्ज ने कहा था कि इन तीन अक्षरों को कागज के तीन टुकड़ों पर अलग -अलग लिखकर तीन पाॅकेट में रख लीजिए ताकि गिरफ्तार होने की स्थिति में पुलिस को यह पता नहीं चल सके कि किससे मिलने कहां जा रहे हो। यही किया गया। पार्क स्ट्रीट के एक बंगले में मुलाकात हुई। दक्षिण भारतीय सज्जन ने कह दिया था कि बंगले के मालिक के कमरे में जब भी बैठिए, उनसे हिन्दी में बात नहीं कीजिए। अन्यथा उन्हें शक हो जाएगा कि आप मेरे अतिथि हैं भी या नहीं।


मनमोहन रेड्डी नामक उस दक्षिण भारतीय सज्जन ने हमें जॉर्ज से मुलाकात करा दी। हम एक बड़े चर्च के अहाते में गये। जॉर्ज उस समय पादरी की पोशाक में थे। उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। चश्मा बदला हुआ था और हाथ में एक विदेशी लेखक की मोटी अंग्रेजी किताब थी। जॉर्ज,  विनयन और मुझसे देर तक बातचीत करते रहे। फिर हम राम अवधेश की तलाश में उल्टा डांगा मुहल्ले की ओर चल दिये। वहीं की एक झोपड़ी में हम टिके भी थे। फुटपाथ पर स्थित नल पर नहाते थे और बगल की जलेबी-चाय दुकान में खाते-पीते थे।

उल्टा डांगा का वह पूरा इलाका बिहार के लोगों से भरा हुआ था। जॉर्ज के साथ टैक्सी में हमलोग वहां पहुंचे थे। मैंने जॉर्ज को उस चाय की दुकान पर ही छोड़ दिया और राम अवधेश की तलाश में उस झोपड़ी की ओर बढ़े। पर पता चला कि राम अवधेश जी भूमिगत कर्पूरी ठाकुर के साथ कोलकाता में ही कहीं और हैं।

चाय की दुकान पर बैठे जॉर्ज ने इस बीच चाय पी थी। जब हम लौटे और जॉर्ज चाय का पैसा देने लगे तो दुकानदार उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। उसने कहा, ‘हुजूर हम आपसे पैसा नहीं लेंगे।’ इस पर जॉर्ज थोड़ा घबरा गये। उन्हें लग गया कि वे पहचान लिये गये। अब गिरफ्तारी में देर नहीं होगी। जॉर्ज को परेशान देखकर मैं भी पहले तो घबराया, पर मुझे बात समझने में देर नहीं लगी। मैंने कहा कि जॉर्ज साहब, चलिए मैं इन्हें बाद में पैसे दे दूंगा। मैं यहीं टिका हुआ हूं।

फिर अत्यंत तेजी से हम टैक्सी की ओर बढ़े जो दूर हमारा इंतजार कर रही थी। फिर हमें बीच कहीं छोड़ते हुए अगली मुलाकात का वादा करके जॉर्ज कहीं और चले गये।

आपातकाल में जॉर्ज और उनके साथियों पर बड़ौदा डायनामाइट षडयंत्र केस को लेकर मुकदमा चला। सी.बी.आई. का आरोप था कि पटना में जुलाई 1975 मेें जॉर्ज फर्नाडीस, रेवतीकांत सिंह, महेंद्र नारायण वाजपेयी और इन पंक्तियों के लेखक यानी चार लोगों ने मिलकर एक राष्ट्रद्रोही षड्यंत्र किया। षड्यंत्र यह रचा गया कि डायनामाइट से देश के महत्वपूर्ण संस्थानों को उड़ा देना है और देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर देनी है।

सन 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार बनने पर यह केस उठा लिया गया।  

@--फस्र्टपोस्टहिन्दी-29 जनवरी 2019@



      

कोई टिप्पणी नहीं: