रविवार, 30 जून 2019

भ्रष्टाचार में किसका कितना योगदान ?
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विवेक रंजन अग्निहोत्री के अनुसार,
‘मुझे बताया गया है कि आजादी के बाद से एक भी सरकारी कर्मचारी को लापारवाही और अपने कत्र्तव्यों का पालन नहीं करने के लिए दंडित या बर्खास्त नहीं किया गया है।
सरकार को एक ऐसे तंत्र का निर्माण करना चाहिए जिससे सरकारी कर्मचारियों की उत्पादकता मापी जा सके।
इसके साथ ही फिसड्डी कर्मचारियों को पदमुक्त किया जाना चाहिए।’
  विवेक रंजन ने बहुत अच्छी बात लिखी है।
 पर, सवाल यह है कि ऐसे नाकाबिल कर्मचारियों को बचाने और संरक्षण देने में राजनीतिक कार्यपालिका का कितना बड़ा योगदान रहता है,इसका भी पता लगाया जाना चाहिए।
साथ ही, उनके लिए भी किसी न किसी दंड का प्रावधान होना चाहिए।
आचार्य विनोबा भावे कहा करते थे कि ‘यदि आपका रसोइया सौ रोटियों में से 67 रोटियां जला दे तो क्या आप कल से उसे अपना रसेसिया रखिएगा ?
नहीं।’
 इस बात की भी जांच नहीं हुई कि सौ पैसे को घिस कर 15 पैसे कर देने में किनका कितना योगदान रहा ?
सरकारी कर्मचारियों का कितना ?
बिचैलियों का कितना ?
साथ ही,उन्हें संरक्षण देने वालों का कितना ?
सजा जब तक उसी अनुपात में नहीं मिलेगी, तब तक सरकारी खजाने की लूट जारी रहेगी।
  याद रहे कि 1985 में राजीव गांधी ने कहा था कि हम दिल्ली से सौ पैसे भेजते हैं ,पर उसमें से 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं।
  मौजूदा सरकार कहती है कि आज वह स्थिति नहीं है।
हां, भले ठीक वही स्थिति नहीं है।
पर स्थिति कितनी बदली है ?
इसकी भी खुफिया जांच मौजूदा सरकार को करानी चाहिए।
  

गुरुवार, 27 जून 2019

जेपी सेनानियों की मदद में 
आगे आए आर.के.सिन्हा
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भाजपा के राज्य सभा सदस्य आर.के. सिन्हा ने कहा है कि
लोकनायक जयप्रकाश नारायण सामाजिक परिवत्र्तन संस्थान 
जेपी सेनानियों की देखभाल करेगा।
  श्री सिन्हा की यह पहल सराहनीय है।
बिहार सरकार उन जेपी सेनानियों को पेंशन देती है जिन्होंने कम से कम 3 महीने तक जेल यातना सही है।
 लेकिन जेपी सेनानियों की संख्या तो बहुत अधिक है।
होना यह चाहिए था कि जो सेनानी एक दिन के लिए भी जेल गए थे,उन्हें भी सरकार की तरफ से कुछ न कुछ मदद मिले।
महिला सेनानी के लिए यह नियम मौजूद है।
शायद अर्थाभाव के कारण राज्य सरकार सभी जेपी सेनानियों के लिए ऐसा आर्थिक प्रबंध सरकार नहीं कर सकी।
ऐसे में उन्हें किसी न किसी तरह से मदद करने के लिए  आर.के. सिन्हा आगे आए हैं तो यह अच्छी बात है।
इससे आज भी राजनीतिक आंदोलनों में शामिल होकर जेल तक जाने से राजनीतिक कार्यकत्र्ता  हिचकंेगे नहीं ।
क्योंकि तब उन्हें लगेगा कि मुसीबत में पड़ने पर उनके और उनके परिवार की भी कोई न कोई  
किसी न किसी तरह से मदद करेगा।
 इससे राजनीतिक कार्यकत्र्ता बढ़ेंगे।
आज तो आम तौर से राजनीतिक कर्म आउटसार्सिंग के जरिए ही चल रहे हैं।अपवादों की बात और है। 

बुधवार, 26 जून 2019

इंदिरा गांधी और लालू प्रसाद का फर्क : कम से कम एक मामले में

यह प्रसंग लालू प्रसाद के बचाव के लिए नहीं लिखा जा रहा है। उन्होंने जो कुछ किया है, उसका परिणाम वे भुगत ही रहे हैं। उसमें अदालत के सिवा कोई अन्य उनकी किसी तरह से मदद नहीं कर सकता। पर, लालू प्रसाद की अपने विरोधी के प्रति भी मानवीय सोच का एक प्रसंग यहां प्रस्तुत है।

पहले इंदिरा गांधी के बारे में।

तब देश में आपातकाल था। देश के मशहूर पत्रकार और पत्रकारों के नेता के. विक्रम राव बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र मुकदमे के सिलसिले में जेल में बंद थे। उनके पिता के. रामाराव नेहरू युग में नेशनल हेराल्ड के संस्थापक संपादक थे। आजादी की लड़ाई में जेल भी गए थे। विक्रम राव की पत्नी डाॅक्टर हैं और वह भारतीय रेल में तब पदस्थापित थीं।

तत्कालीन रेलमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने डा. सुधा का तबादला पाकिस्तान की सीमा पर गुजरात में करवा दिया। बाद में अपनी असहायता प्रदर्शित करते हुए त्रिपाठी जी ने किसी से कहा था कि ऊपर से आदेश था।

इसके  विपरीत लालू प्रसाद ने एक ‘अत्यंत असुविधाजनक’ पत्रकार की शिक्षिका पत्नी का ‘सजा स्वरूप’ पटना से पूर्णिया तबादला करने से साफ मना कर दिया था। चारा घोटाले की खबरों को लेकर उस पत्रकार से खुद लालू तथा अन्य आरोपित अत्यंत नाराज रहते थे।

एक दिन लालू प्रसाद, शिक्षा मंत्री और चारा घाटाले के एक दबंग व चर्चित आरोपी एक साथ बैठे थे। उस चर्चित आरोपी ने शिक्षा मंत्री से उस पत्रकार का नाम लेकर कहा कि उस पत्रकार की पत्नी का पूर्णिया तबादला करवा दो। बीच में टोकते हुए लालू प्रसाद ने कहा कि ‘उसकी पत्नी ने हमारा क्या बिगाड़ा है?’ इस तरह  बात आई -गई हो गई।
मेरे संदर्भ पुस्तकालय में अंग्रेजी साप्ताहिक ‘संडे’ -कलकत्ता-
के मार्च, 1977 से सन 1999 तक के अंक उपलब्ध हैं।
     इसे मैं बेचना चाहता हूं।किसी व्यक्ति या संस्था की रूचि हो तो मेरे ईमेल या फेसबुक पर संपर्क करें।
      ----सुरेंद्र किशोर,
          स्वतंत्र पत्रकार,
             पटना
मो.नं...9334116589


प्रस्तावित स्मार्ट सिटी में अधिकाधिक पार्किंग - स्मार्ट शौचालय की अपेक्षा


पटना के बकरी बाजार-कबाड़ी बाजार में स्मार्ट सिटी के तहत स्मार्ट मार्केट बनाने का प्रस्ताव है। जीपीओ गोलंबर के पास के इस लंबे- चौड़े भूखंड से अतिक्रमण हटाने के बाद घेराबंदी कर इसे स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट  के लिए चुनी गई एजेंसी को सौंप दिया जाएगा। वहां स्मार्ट संरचना के निर्माण की योजना है। उस स्थल से विस्थापित लोगों को भी वहां जगह देने का प्रस्ताव है।

स्मार्ट सिटी तो बसेगा, पर क्या उसमें स्मार्ट जनसुविधाएं भी उपलब्ध हो सकेंगी ? नगरों के मार्केट में आज सबसे बड़ी समस्या शौचालय और पार्किंग की रही है। यदि किसी मार्केट में सुविधा है भी तो अपर्याप्त। शौचालय है भी उसकी नियमित सफाई की व्यवस्था नहीं। इसलिए इस्तेमाल के लायक नहीं।

बिलकुल नए मार्केट प्लेस में इन दो सुविधाओं की नए ढंग से व्यवस्था की जा सकती है। वह अन्य के लिए नमूना बनेगा। यथा, स्मार्ट सिटी में शौचालय की साफ -सफाई करते रहने की चौबीस घंटे व्यवस्था हो। उसका खर्च उठाने के लिए मार्केट के व्यवसायियों से कुछ अलग से शुल्क लिया जा सकता है।

जिस मार्केट में पार्किंग और शौचालयों की बेहतर व्यवस्था होगी, वहां अपेक्षाकृत अधिक ग्राहक जाएंगे। बाजारों में शौचालयों को लेकर सर्वाधिक परेशानी महिलाओं को होती है। वैसे आम तौर अधिक खरीदारी महिलाएं ही तो करती हैं। 

बलि के बकरे की तलाश

लड़े सिपाही नाम हवलदार के ! यह एक बहुत पुरानी कहावत है। वह राजनीति पर भी खूब लागू होती है। यदि कोई दल चुनाव जीत जाए तो उसका श्रेय तुरंत सुप्रीमो को चला जाता है। यदि हार जाए तो उसका ठीकरा अपने कार्यकर्ताओं, मीडिया, ई.वी.एम. या फिर किसी अन्य तत्व पर फोड़ा जाता है।

हाल में कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर गुस्सा उतारते हुए कहा कि मैं उन कार्यकर्ताओं के नाम का पता लगाउंगी जिन्होंने दल के लिए काम नहीं किया। कमोवेश अन्य दलों का भी यही हाल है।

200 करोड़ पेड़ लगाने की योजना

देश में राष्ट्रीय राजमार्ग की लंबाई एक लाख किलोमीटर है। संबंधित केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि हमारी सरकार देशभर में एन.एच. के किनारे 200 करोड़ पेड़ लगाने की योजना बना रही है। उद्देश्य पर्यावरण की रक्षा और रोजगार सृजन हैं।

यह सराहनीय काम है। पर, क्या पीपल और नीम लगाने की भी कोई योजना है ? जानकार लोगों के अनुसार यदि हर पांच सौ मीटर पर पीपल का एक पेड़ लगे तो ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं रहेगी। यानी उससे पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में काफी मदद मिलेगी।

नीम भी इस मामले में बहुत ही लाभदायक होता है। पर यह देखा जाता है कि इन उपयोगी पेड़ों की जगह सरकार सजावटी-दिखावर्टी पेड़ लगाने में अधिक रुचि रखती है। उम्मीद है कि गडकरी साहब इस स्थिति को बदलेंगे।

सोशल मीडिया पर अभद्र टिप्पणियां

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने के आरोप में हाल में पत्रकार प्रशांत कनौजिया को गिरफ्तार तक होना पड़ा था। केरल के मुख्यमंत्री के खिलाफ सोशल मीडिया पर कथित फेक खबर देने वाले अनुपम पाॅल को गिरफ्तार किया गया।

केरल के मुख्यमंत्री के खिलाफ सोशल मीडिया पर लिखने वाले 119 लोगों के खिलाफ मुकदमे किए गए हैं। मुख्यमंत्रियों के पास तो साधन होते हैं। वे आसानी से केस कर या करवा सकते हैं। पर उन लोगों का क्या जिन्होंने पिछले चुनाव -प्रचार के दौरान सोशल मीडिया पर खूब गालियां सुनी हैं। पर वे कुछ कर नहीं सके। वे सोशल मीडिया पर अपने विचार प्रकट कर रहे थे। वे अपने विचारों के लिए अपमानित हुए ।

अपमानित होने वालों में दोनों पक्षों के लोग शामिल हैं। जिन्होंने नरेंद्र मोदी का पक्ष लिया, उन्हें मोदी विरोधियों की गालियों का सामना करना पड़ा। जिन लोगों ने मोदी विरोधियों के पक्ष में लेखन किया, वे मोदी के पक्षधरों के शिकार हुए।

कुछ लोग बारी -बारी से दोनों पक्षों के निशाने पर थे। कई लोगों के  विरोध में भी शालीनता देखी गई, पर अन्य अनेक लोगों ने भारी अशिष्टता और घटियापन दिखाए। अब सामान्य लोग तो केस  कर नहीं सकते।

पर एक सवाल जरूर पैदा हो गया है। अपने विचारों के लिए किसी का इतना अपमान क्यों ? सोशल मीडिया के अराजक तत्वों से अपमानित होने से लोगों को कैसे बचाया जाए ? यह स्वाभाविक ही है कि निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर किसी खास पक्ष का प्रचार कर रहा हो।

उसे भी आप शालीन भाषा में तार्किक जवाब दे सकते हैं। यदि आप इसके बदले अपमानित करते हैं तो आपके पास तर्कों की भारी कमी है।

और अंत में 

भाजपा हाईकमान कभी -कभी इस बात से परेशान हो उठता है कि उसके कुछ बड़े नेता दलीय लाइन से उपर उठकर ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ देने लगते हैं।

पर कुछ अन्य दलों की कुछ दूसरी ही समस्या है। उनके अधिकृत प्रवक्ता भी ऐसे -ऐसे बयान देने लगते हैं जो उनके दल या सुप्रीमो के विचार और राजनीतिक लाइन से तनिक मेल ही नहीं खाते।

(14 जून, 2019 के -प्रभात खबर-बिहार- में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से )   


   


1946 : तब बहुमत पटेल को था लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू बने


महात्मा गांधी ने सरदार पटेल के पक्ष में कांग्रेस में अपार बहुमत रहते हुए भी 1946 में जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनवा दिया था।  एक गुजराती के साथ तब अलोकतांत्रिक ढंग से अन्याय हुआ था।

लगता है कि अब दो गुजराती नरेंद्र मोदी और अमित शाह मिलकर नेहरू खानदान से लोकतांत्रिक तरीके से बदला ले रहे हैं।


कांग्रेसमुक्त भारत का नारा देकर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार अगले पांच साल जनहित में ऐसे-ऐसे चैंकाने वाले काम करेगी कि कांग्रेस या किसी अन्य दल के लिए फिर से सत्ता में आने की शायद ही गुंजाइश बचे, ऐसा अनेक लोगों का अब मानना है।


इस देश के जिन नेताओं ने आज तक निजी व्यवसाय मानकर राजनीति व सत्ता को चलाया है, उन्हें राजनीति छोड़कर शायद कोई व्यवसाय ही करना पड़ेगा, ऐसा भी कई लोगों को लगता है। वैसे उनमें से अनेक नेता तो इस बीच जेल में होंगे।


अब 1946 की कहानी नई पीढ़ी के लिए ।


1946 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का चुनाव होने वाला था। तब प्रदेश कांग्रेस कमेटियां चुनाव करती थीं। देश की कुल 15 में से 12 प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने सरदार के पक्ष में अपनी राय भेजी थी। तीन कमेटियों की कोई राय नहीं थी।


पर गांधी ने सरदार पटेल को दरकिनार करके नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष  बनवा दिया। चूंकि कांग्रेस अध्यक्ष को ही प्रधानमंत्री बनना था, इसलिए जवाहरलाल जी प्रधानमंत्री बन गए। 


बन गए तो वे आगे का भी इंतजाम कर गए।


ली कुआन यू का सुशासन और भारत की अराजकता 
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सन 2014 में सत्ता में आने के बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 
सिंगा पुर के महान नेता ली कुआन यू के बारे में कहा था कि ‘वे एक दूरदर्शी नेता थे और नेताओं में सिंह थे।
ली कुआन का जीवन हर किसी को अमूल्य पाठ की सीख देता है।’
 ली कुआन यू 1959 से 1990 तक सिंगा पुर के प्रधान मंत्री थे।
उन्होंने अन्य अच्छाइयों के साथ -साथ सिंगा पुर के लोगों की प्रति व्यक्ति  आय को 500 डाॅलर से बढ़ाकर 55 हजार डालर कर दिया था।
पर, इसके लिए उन्हें एकदलीय व्यवस्था लागू करनी पड़ी थी।
एकदलीय व्यवस्था के कारण ही वे देश में अनुशासन ला सके और प्रशासन को ईमानदार बना सके।
पर यदि कोई देश भ्रष्टाचार,जातिवाद, वंश तत्र,माफिया तंत्र, तरह -तरह की अराजकताओं, टुकड़े -टुकड़े गिरोह, जेहादी तत्वों  और अन्य भारत विरोधी विदेशी तत्वों की धमा-चैकड़ी से आजिज आ जाए तो इस देश की अधिकतर जनता किसी दिन तानाशाही स्वीकार करने को भी मजबूर हो सकती है।
पर अभी तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही हल खोजने की कोशिश हो रही है।होना भी यही चाहिए।
मजबूरी और आपद् धर्म की बात और है।
   2014 में भी कुछ लोग लिखकर और बोल कर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को यह सलाह दे रहे थे कि आप ली कुआन बनिए।
2019 की जीत के बाद भी कुछ लोग लीन कव नाम लेकर ऐसी ही सलाह दे रहे हैं। 
  साफ बात है कि हल्की तानाशाही लाए बिना क्या कोई वैसी उपलब्धि हासिल कर सकता है जैसी सिंगा पुर में 
संभव हुआ ?
  यहां तो देश की सुरक्षा के लिए पुलवामा का बदला भी लो तो कई लोग बदनाम करने के लिए कहने लगते हैं कि मोदी अंध राष्ट्रवाद फैला कर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है।

 यदि किसी भ्रष्ट और घोटालेबाज नेता पर भी कानूनी कार्रवाई हो तो कई बेशर्म व स्वार्थी लोग कहने लगते हैं कि राजनितिक बदले की भावना में आकर ऐसा हो रहा है।
यदि किसी माफिया और राक्षस नुमा अपराधी पर कार्रवाई हो तो कई लोग कहने लगते हैं कि वह चूंकि फलां जाति या समुदाय का है , इसीलिए कार्रवाई हो रही है।
यदि भारत तेरे टुकड़े होंगे का नारा लगाने वाले और उस उद्देश्य से आतंकवादी गतिविधियां चलाने वालों पर कार्रवाई हो तो कुछ लोग कहते हैं कि वाणी की स्वतंत्रता पर हमला हो रहा है और लोकतंत्र खतरे में है।
 इसी तरह की और भी बहुत सारी बाते हैं।
 हालांकि इसके लिए कोई एक ही दल या जमात दोषी नहीं है।लगभग सभी दल दोहरे मापदंड वाले हैं।
ऐसे में भारत में कोई ली कुआन कैसे बन सकता है ?
  यहां तो वैसा ही शासन चल सकता है जिसके तहत  84 प्रतिशत लोग नकली दूध पीने को अभिशप्त हों।
जिस शासन के तहत पालीथिन के खिलाफ कार्रवाई हो तो पूरा मुहल्ला कार्रवाई करने वाले पर टूट पड़े।और शासन पीछे हट जाए।
 जबकि पालीथिन इस सृष्टि को एक दिन नष्ट कर देगा।
 ‘महा मिलावट’ भले राजनीति में पराजित हो जाए,पर खाद्य और भोज्य पदार्थों में बेशुमार मिलावट पर कारगर कार्रवाई करने की औकात आज इस देश की  किसी सरकार में नहीं है।
इधर दवाएं सहित मिलावटी चीजें खा -खा कर लोग धीरे -धीरे असमय मृत्यु की ओर बढ ़रहे हैं।
   यहां पुलिस थानों की रिश्वतखोरी कोई ईमानदार प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री भी नहीं रोक पाता।लोकल पुलिस के हाथों आम लोग लगातार पीडि़त और अपमानित हो रहे हैं।
दिल्ली में केंद्रीय होम मिनिस्टर की नाक के नीचे थानों में घूस के बिना शायद ही कोई काम होता हो।
बिहार की बात कौन करे ?
 यहां जो जितना बड़ा धनपशु, अपराधी और जातिवादी हो उसके राजनीति में उतना ही उपर उठने के चांस हैं।
जनता राजनीति के वंश तंत्र को जरूर ध्वस्त कर रही है,पर राजनीतिक दल उसे किसी न किसी रूप में कायम रखने पर अमादा हैं।
यहां तो भ्रष्टाचार के कारण न तो योेग्य डाॅक्टर पैदा हो रहे हैं और न ही योग्य इंजीनियर।यहां तक कि योग्य शिक्षक भी नहीं। अपवादों की बात और है।
आप तभी तक जंदा हैं ,जब तक आपको मारने में किसी की रूचि नहीं है।
ऐसे में कोई ली कुआन यू कैसे काम कर पाएगा ? कैसे भारतीयों की आय 500 डालर से 55000 डाॅलर हो पाएगी ?
कैसे उन 25 करोड़ लोगों के दिन बहुरेंगे  जिन्हें आज भी एक ही शाम खाना नसीब होता है ?
यह सब दिवास्वप्न ही है।
हालांकि सचमुच कोई तानाशाह भी यदि सिंगापुर जैसा कायापलट  कर दे तो भारत की आम जनता उसे पसंद करेगी।मजबूरी में ही सही।
 यहां एक बार तानाशाह पैदा भी हुई भी तो वह भी अपनी गद्दी बचाने,अपने पुत्र का राज्यारोहन करने और उसके लिए कार का कारखाना खोलवाने के लिए ही यानी उसे ‘भारतीय फोर्ड’ बनाने के लिए।
ऐसे में हल्की तानाशाही के नाम पर भी लोगों को अभी तो नफरत है।पर यह नफरत कब तक रहेगी ? 
  


  --नगरों की व्यस्त सड़कों पर भी हर तरह के वाहनों को छूट क्यों ?--
पटना सहित बिहार के नगरों की व्यस्त सड़कों पर भी हर तरह के वाहनों को छूट मिली हुई है।
 सड़क जाम का यह एक बड़ा कारण है।
 पटना सहित बिहार के नगरों में तीव्र गति वाले छोटे -बड़े आॅटोमोबाइल से लेकर  धीमी गति वाले ठेले भी साथ -साथ चलते देख जा सकते हैं।
सड़कों की दोनों तरफ काबिज हठी अतिक्रमणकारियों की समस्या अलग से है।उनके सामने शासन-कोर्ट तक लाचार नजर आते हैं।कहीं -कहीं ही शासन राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाता है।बाकी जगह भगवान भरोसे !
 मुख्य सड़कों से धीमी गति वाले वाहनों को हटाने की मांग लंबे समय से होती रही है।
पर सत्तासीनों को लगता है कि इससे उनके वोट कम हो सकते हैं।
 पर अब सत्ताधारियों के पास वोट की कोई कमी नहीं है । आनेवाले दिनों में तो वे बढ़ने ही वाले हैं ।तो फिर रोज -रोज रोड जाम में मददगार  बनने वाले थोड़े से वोटरों की परवाह क्यों ?
वैसे अतिक्रमण से पीडि़त लोग भी तो मतदाता ही हैं।उनकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक है।
 -शासन की इच्छा शक्ति से हटा आर.ब्लाॅक -दीघा रोड से अतिक्रमण -
पटना की आर.ब्लाॅक-दीघा सड़क संभवतः अगले साल बन कर तैयार हो जाएगी।
 सड़क करीब सवा छह किलोमीटर लंबी होगी और चार लेन वाली सड़क होगी।
  पहले उस जमीन पर रेलवे लाइन थी।
वर्षों की माथा पच्ची के बाद रेलवे महकमा  वह जमीन बिहार सरकार को देने पर हाल में राजी हुआ।
  पर रेलवे के किनारे अतिक्रमणकारियों का स्वर्ग था।खटालों के अलावा कई मंदिर भी थे।प्रभावशाली लोगों ने निजी मकान तक बना रखा था।
पटना हाई कोर्ट के दबाव और शासन की  राजनीतिक इच्छा शक्ति से अतिक्रमण अंततः हट गया।
इस मार्ग के तैयार हो जाने पर जाम पीडि़त पटनावासियों को बहुत राहत मिलेगी।
  बिहार सरकार को चाहिए कि वह राज्य के अनेक नगरों और पटना के बाकी अतिक्रमणों को भी निमर्मतापूर्व हटाए।
अतिक्रमण हटने से जितने लोग नाराज होंगे,उससे कई गुना लोग सरकार से खुश होंगे। 
राज्य के प्रत्येक छोटे -बड़े नगर जाम से परेशान रहते हैं।
अतिक्रमण हटने और सड़कें चैड़ी होने से गर्भवती महिलाओं और गंभीर रूप से घायल तथा  बीमार मरीजों को  काफी राहत मिलेगी।
अतिक्रमणों को न सिर्फ सड़कों के किनारे से हटाने की जरूरत है बल्कि सरकारी जमीनों से भी अतिक्रमण हटे।
हटा कर वहां ‘आक्सीजन जोन’ बनाया जा सकता है।
 -इस बार विधान सभाओं को भंग करने की मांग नहीं !-
आपातकाल के दौर की बात है। जनवरी ,1977 में  लोक सभा चुनाव की घोषणा हो गई थी।
उसके तत्काल बाद एक अखबार के लिए मैंने जय प्रकाश नारायण से लंबी बातचीत की थी।
उन्होंेने  कहा था कि यदि हम लोक सभा चुनाव में हम जीत गए तो विधान सभाओं के चुनाव भी करवा देंगे।
जनता पार्टी लोक सभा चुनाव जीत कर केंद्र की सत्ता में आ गई।मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने।
उसके बाद  कई विधान सभाओं को समय से पहले भंग कर उनके चुनाव करवा दिए गए।
वहां भी जनता पार्टी की सरकारें बन गईं।
1980 के लोक सभा चुनाव के बाद  इंदिरा गांधी एक बार फिर केंद्र की  सत्ता में आ गर्इं।
उन्होंने इस मामले में जनता पार्टी का अनुसरण किया। 
कई विधान सभाओं के मध्यावधि चुनाव उन्होंने भी 
करवा दिए ।
वहां भी  कांग्रेस पुनः  सत्ता में आ गई।
 सन 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद राजग केंद्र की सत्ता में आ गया।फिर भी  राजग ने यह मांग नहीं की कि उन राज्य विधान सभाओं को भंग कर देना चाहिए जहां राजग को वहां के सत्ताधारी दल से अधिक मत मिले हैं।
 --वर्षा जल संचयन के लिए चेक डैम जरूरी--
वर्षा जल का अधिक अंश  हम लोग हर साल यूं ही 
समुद्र में चले जाने देते हैं।
पर बाकी दिनों में हम पानी के लिए तरसते हैं।क्योंकि हम जल संचय नहीं करते।
अब कुछ लोग एक खास सपने दिखा रहे हैं।
वे कह रहे हैं कि  समुद्र के खारा जल को साफ करके हम अपना आगे वाले जल संकट के दिनों में काम चला लेंगे।
इस बीच वर्षा जल संचयन के अनेक उपाय हो सकते हैं।
पर उसमें एक बड़ा उपाय  यह है कि छोटी नदियों पर भी चेक डैम यानी छोटे -छोटे बांध बनवाए जाएं।
उससे वर्षा जल नदियों में रूकेगा जो बरसात के बाद भी काम आएगा।
सिंचाई हो सकेगी।
 साफ करके उसका इस्तेमाल पेय जल के रूप में भी किया जा सकता है। इस बीच उस रुके हुए जल से धरती में  पुनर्भरण होता रहेगा।
अधिकतर तालाबों पर अवैध कब्जा है।लोगबाग अधिकतर  कंुओं को भी भर चुके हैं।
  उनकी उड़ाही भी होनी चाहिए।
पर उससे पहले छोटी नदियों में चेक डैम यानी छोटे बांध  बनने जरूरी हंै।
दरअसल अधिकतर इंजीनियर बड़े बांधों के ही पक्ष में रहते हैं।
कारण अघोषित  है।पर ऐसे ही मौके पर राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत पड़ती है।  
 दिक्कत यह है कि जल संकट पर चर्चा सिर्फ गर्मी के दिनों ही होती है।बरसात शुरू होते ही लोग बेफिक्र हो जाते हैं।
 - भूली बिसरी याद आपात काल की -
अमरीकी पत्रकार--‘सैटरडे रिव्यू’ से एक भेंट में हाल में आपने कहा था कि भारत में जो कुछ किया गया,यानी इमरजेंसी लगाई गई,वह लोकतंत्र का त्याग नहीं है,वरन उसे बचाने की कोशिश है।
जब आप मुक्त पे्रस ,निर्बाध अभिव्यक्ति और असहमति का अधिकार --लोकतंत्र की इन बुनियादी बातों को प्रतिबंधित कर देती हैं तो लोकतंत्र की रक्षा कैसे कर सकती हैं ?
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी--लोकतंत्र में दो प्रकार के उत्तरदायित्व होते हैं।
यह उत्तरदायित्व सरकार का होता है कि वह मुक्त प्रेस, निर्बाध अभिव्यक्ति और निर्बाध संगठन आदि की सुविधा दे।
लेकिन दूसरों की भी जिम्मेदारी होती है कि वह लोकतंत्रीय नियमों का पालन करे।लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा था।यही वजह है कि मौजूदा स्थिति पैदा हुई।
यह सवाल नहीं था कि सारा देश कुछ चाह रहा हो।
ऐसे लोग अल्पमत में थे।
चुनाव को कुछ महीने ही बाकी रह गए थे और यदि वे इंतजार करते तो उनको जनता का निर्णय मिल जाता।
लेकिन प्रतिपक्ष के एक नेता ने कहा कि इसका निर्णय सड़कों पर किया जाएगा।
एक दूसरे नेता ने कहा कि संपूर्ण क्रांति की अवश्यकता है।और उसने न सिर्फ औद्योगिक मजदूरों को बल्कि सेना और पुलिस को भी भड़काने की कोशिश की ।
यह चीज किसी तरह लोकतंत्र को मजबूत नहीं बना सकती थी।
  --और अंत में--
स्वामी रामदेव--हम दो, हमारे दो।
नरेंद्र मोदी--एक नेशन, एक इलेक्शन।
आम जन-एक परिवार, एक उम्मीदवार !
--21 जून 2019 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से--



 -- ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ अपरिहार्य --
       --सुरेंद्र किशोर-- 
जिस देश के अधिकतर सरकारी अस्पतालों में रूई और सूई तक भी उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि  सरकारों के पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं।
जिस देश के करीब 20 करोड़ गरीबों को एक ही जून का  भोजन नसीब है।
जिस देश के सरकारी स्कूलों में अब भी बेंच-कुर्सियों की भारी कमी है क्योंकि सरकारें घाटे के बजट पर चलती हैं।
उस देश के अनेक दलों और नेताओं की यह राय है कि भले हजारों करोड़ रुपए टालने योग्य चुनावों में पानी में बहा दिए जाएं,पर लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ नहीं होने चाहिए।
क्योंकि उससे लोकतंत्र और संघवाद संकट में पड़ जाएंगे।
विधायिकाओं में क्षेत्रीय भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाएगा।
एक साथ चुनाव संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। न जाने और कितनी बेसिर पैर की बातें !

 ‘वन नेशन,वन इलेक्शन’ के विरोधी नेता गण यह भूल जाते हैं कि आजादी के बाद के प्रथम चार आम चुनाव एक ही साथ हुए थे।
तब किसी प्रतिपक्षी नेता ने ऐसे सवाल नहीं उठाए।
क्योंकि तब के नेतागण संभवतः इतने गैर जिम्मेदार नहीं थे।
इस तरह कुल मिलाकर स्थिति यह है कि  ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर कतिपय प्रतिपक्षी दल आज राजी होने वाले नहीं हैं जबकि एक साथ चुनावों से  इस गरीब देश को हजारांे -हजार  करोड़ रुपए की बचत का लाभ मिल सकता  है।
सत्तर के दशक में एक राष्ट्र ,दो चुनाव की परंपरा तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने ऐसे समय में डाली थी जब उनकी पार्टी का लोक सभा में बहुमत तक नहीं था।आरोप लगा था कि राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर उन्होंने वैसा किया था।
तब द्रमुक और कम्युनिस्टों के सहारे  उनकी सरकार चल रही  थी।
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को यह लग गया था कि देर से चुनाव कराने पर  ‘गरीबी हटाओे’ के उनके नारे से मिली उनकी लोकप्रियता को भुनाया नहीं जा सकेगा।
पर आज नरेंद्र मोदी की पार्टी को तो लोक सभा में पूर्ण बहुमत है।राजग के अन्य दलों को जोड़ें तो भारी बहुमत है।
राजग को अगले साल संभवतः राज्य सभा में भी बहुमत मिल जाए।
इसलिए यह सरकार देशहित में यह काम कर सकती है।यदि नहीं करेगी तो वह वादाखिलाफी करेगी।
फिर से एक साथ चुनाव कराने का यह मतलब भी होगा 1970-1971 की भूल को सुधारा जा रहा है।
 जनता से टैक्स में मिले हजारों करोड़ रुपए को अनावश्यक कामों में खर्च कर देना आम लोगों के साथ अपराध ही माना जाएगा।
मौजूदा सरकार उस अपराध से बचना चाहती है।
उसे बचना भी चााहिए।
इतने पैसे बचाने के लिए किसी जनपक्षी सरकार को कोई भी राजनीतिक खतरा मोल लेने को तैयार रहना चाहिए।हालांकि इस काम में कोई भी खतरा नजर नहीं आ रहा ।लोकप्रियता ही मिलेगी।
 इस देश के जिन राजनीतिक दलों ने राजनीति को व्यापार बना रखा है,उनके लिए तो अधिक चुनाव यानी अधिक चंदा यानी उस बहाने निजी धन की अधिक कमाई।
अब तो कुछ दलों को टिकट बेचने से भी अलग से आय हो रही है।
पर, सारे दल एक जैसे नहीं हैं।कई विवेकशील दल वन नेशन, वन इलेक्शन के लक्ष्य की प्राप्ति में सरकार को सहयोग देने को तैयार हैं।
सन 1967 तक जब साथ -साथ चुनाव हो रहे थे तो लोकतंत्र पर कोई खतरा नहीं था।पर अब कुछ स्वार्थी नेतागण खतरा बता कर इस भूल सुधार को भी रोकना चाहते हैं।
1967 में लोक सभा में कांग्रेस को बहुमत मिला था ,पर सात  राज्यों में गैर कांग्रेसी दलों की सरकारें बन गई थीं।
 जिन राज्यों में 1967 में प्रतिपक्षी दलों की सरकारें बनीं,उनमें मद्रास में डी.एम.के. की सरकार भी शामिल है।
 पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चो की सरकारें बनीं जबकि आज सी.पी.आई. और सी.पी.एम.साथ चुनाव के खिलाफ हैं।
उससे पहले सन 1957 में ही केरल में नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट सरकार बन चुकी थी।
1967 में बिहार में लोक सभा की 53 सीटें थीं।उनमें 33 सीटें कांग्रेस को मिलीं।
पर बिहार विधान सभा में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिल सका था।
 प्रतिपक्ष की सरकार बनी जिसके मुख्य मंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा थे।
वह एक ऐसी अजीब सरकार थी जिस मंत्रिमंडल में जनसंघ और सी.पी.आई.के मंत्री साथ- साथ काम कर रहे थे।
यानी मतदाताओं में उस समय भी इतना बुद्धि-विवेक मौजूद था कि वे यह जानते थे कि  लोक सभा में उन्हें किसे जिताना है और विधान सभा मंे किसे ?
   आज तो सूचनाओं का विस्फोट हो रहा है और गांव -गांव में अनेक लोगों के हाथों में 
स्मार्ट फोन आ गए हैं।
उन्हें मालूम है कि उन्हें किसे वोट देना है।
सन 2016 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा था कि राजनीतिक दल पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने पर मिलकर सोचें।
उन्होंने कहा कि बहुत अधिक चुनाव होने से न सिर्फ धन की बर्बादी होती है बल्कि सरकारों के कामकाज भी प्रभावित होते हैं।
2016 में चुनाव आयोग ने भी कहा कि यदि राजनीतिक दल संविधान में बदलाव को तैयार हों तो हम एक साथ लोक सभा-विधान सभा के चुनाव कराने को तैयार हैं।
एक साथ चुनाव कराने के विरोधी तर्क देते हैं कि उससे क्षेत्रीय दल कमजोर हो जाएंगे।
पर 2014 के चुनाव इससे विपरीत हुआ।तब लोक सभा चुनाव के साथ ही ओडि़शा,तेलांगना और आंध्र प्रदेश विधान सभाओं के चुनाव भी हुए थे।
तीनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारें बनीं,जबकि केंद्र में भाजपानीत राजग की सरकार बनी।
यानी साथ चुनाव  के बावजूद क्षेत्रीय मुद्दों का महत्व नहीं घटा।
2014 में केंद्र की सत्ता में आने के साथ ही नरेंद्र मोदी ने वन नेशन,वन इलेक्शन की जरूरत पर जोर देना शुरू कर दिया था।
2016 में ही उन्होंने कहा था कि एक साथ चुनाव कोई थोप नहीं सकता।लेकिन भारत एक विशाल देश होने के नाते चुनाव की जटिलताओं और आर्थिक बोझ के मद्देनजर सभी पक्षों को इस पर चर्चा करनी चाहिए।
प्रधान मंत्री ने इसी 19 जून को 
इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाई तो कांग्रेस सहित कुछ दलों ने उस बैठक का बहिष्कार कर दिया।
पर 21 दलों ने वन नेशन,वन इलेक्शन की इस पहल का समर्थन किया।
हालांकि इसका समर्थन करके कांग्रेस  अपनी 1970-71 की गलती का प्रायश्चित कर सकती थी।पर लगता है कि ऐसा उसके स्वभाव में नहीं है।
इधर 21 दलों के समर्थन के कारण यह अभियान देर -सवेर सफल होगा,ऐसा लगता है।
  पर इसके साथ जो कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां भी सामने आ सकती हैं,उनका समाधान ढूंढ़ना होगा।
 वैसे उन कठिनाइयों और उसके समाधान पर पहले भी चर्चाएं हो चुकी हैं।
चर्चाओं से लगा कि उसके हल के रास्ते भी संविधान विशेषज्ञों के पास हैं।   
  इस बीच इस विषय पर सुझाव देने के लिए प्रधान मंत्री द्वारा गठित होने वाला पैनल भी समय सीमा के भीतर अपना बहुमूल्य सुझाव देगा।
पैनल वन नेशन, वन इलेक्शन के सभी पहलुओं पर विचार करेगा।
उसी रपट के आधार पर आगे कोई निर्णय होगा।विधि आयोग पहले ही इसके पक्ष में अपनी राय दे चुका है।
पूर्व मुख्य चुनाव आयोग एस.वाई.कुरैशी ने कहा है कि इसमें दो मत नहीं कि साथ -साथ चुनाव के दूरगामी सकारात्मक प्रभाव होंगे।यह चुनाव सुधार का हिस्सा भी होगा।
यह अच्छी बात है कि सरकार इस लक्ष्य को पाने के लिए आम सहमति की कोशिश कर रही है।
सरकार इस पर चर्चा चलवा रही है।इसे थोपना नहीं चाहती।
 पर सवाल है कि इस मामले में कुरैशी के अच्छे विचारों  का कोई असर उन दलों पर कभी पड़ेगा जिनका एकमात्र उद्देश्य मोदी सरकार के हर काम का विरोध करना है।
भले मोदी सरकार के किसी काम से सरकारी खजाने के हजारों करोड़ रुपए बचते हों !
1970 -71 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने  जिस तरह अलग -अलग चुनाव की आधार शिला रख दी थी,उसी तरह मौजूदा सरकार को चाहिए कि विरोध की परवाह नहीं करके यह भूल सुधार कर ही दे।
--23 जून 2019 के ‘राष्ट्रीय सहारा’ में प्रकाशित।

  हकीकत से मुंह मोड़ती कांग्रेस              
        सुरेंद्र किशोर 
मन का दाग मिटाने की जगह सिर्फ काया पलट की कोशिश से कांग्रेस का कोई कल्याण होेता नजर नहीं आ रहा  है।
 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद एंटोनी कमेटी ने एक तरह से ‘आत्मा की बैटरी चार्ज करने’ की सलाह कांग्रेस हाई कमान को दी थी।
 पर, पिछले पांच साल में हाई कमान ने उस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया।सन 2019 के लोक सभा चुनाव में हार के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा।
 आज भी कांग्रेस यह समझ रही है कि पार्टी के शीर्ष
पर राहुल गांधी के अलावा किसी अन्य को बैठा देने और कार्य कत्र्ताओं को उनकी तथाकथित अकर्मण्यता के लिए फटकार देने से काम चल जाएगा।
नेताओं के लोगों के पास सिर्फ खाली हाथ पहुंच जाने से भी कांग्रेस का कोई भला नहीं होने वाला ।
मुद्दों के ईंधन के बिना वंशवाद की गाड़ी भी अधिक दिनों तक नहीं चल सकती।
कांग्रेस 1984 के बाद कभी लोक सभा में पूर्ण बहुमत नहीं पा सकी तो इसका कारण हाई कमान को अपने ही भीतर झांक कर ही खोजना होगा ।
 पर क्या कभी झांका ? क्या बाहर या भीतर के सलाहकारों ने कभी हाईकमान को ऐसा करने की सलाह दी ?
शायद कभी हिम्मत नहीं  रही।उधर लगता है कि अधिकतर राजनीतिक पंडितों को कांग्रेस के लगातार दुबले होते जाने के असली कारणों की समझ ही नहीं है।
  हां, ए.के. एंटोनी को इसकी समझ जरूर रही है।यदि खुली छूट के साथ उनको नेतृत्व सौंपा जाता तो फर्क पड़ सकता था।
  पर संभवतः उन्हें भी लगता है कि वंश तंत्र के आधार पर चल रही पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से उन्हें वैसी छूट नहीं मिलेगी।
क्योंकि दाग चेहरे पर है,पर  आईना साफ कर रहा है शीर्ष नेतृत्व !  
 स्वास्थ्य कारणों से  एंटोनी ने राहुल गांधी की जगह अध्यक्ष पद संभालने में अपनी असमर्थता प्रकट कर  दी है।
पर, यह भी संभव है कि उन्होंने  सोचा होगा कि जब नीतियां-कार्य नीतियां हमारी नहीं चलेंगी तो फिर सिर्फ नेतृत्व
संभाल लेने से पार्टी के भविष्य पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। 
याद रहे कि करीब पांच साल पहले पूर्व रक्षा मंत्री ए.के.एंटोनी ने हाई कमान को समर्पित अपनी रपट में साफ -साफ कहा था कि 2014 के  लोक सभा चुनाव में हमारी हार इसलिए हुई क्योंकि लोगों में यह धारणा बनी कि कांग्रेस 
धार्मिक अल्पसंख्यकों के पक्ष में पूर्वाग्रहग्रस्त है।
इसलिए बहुमत मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर हुआ।
एंटोनी के अनुसार भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति  और दल में  अनुशासनहीनता हार के अन्य कारण थे।
 जब कांग्रेस हाई कमान ने एंटोनी की सलाह पर ध्यान तक नहीं दिया तो  अब सवाल  उठता है कि  कांग्रेस के पुनरुद्धार की कितनी गुंजाइश बची हुई है ?
  कम से कम दो अवसरों पर कांग्रेस नेतृत्व ने मुद्दों के जरिए कांग्रेस को चुनावी सफलता के शीर्ष पर पहुंचा दिया था।भले वे मुद्दे बाद में नकली साबित हुए,पर तब की स्थिति में मुद्दे तो वे थे ही।
1969 में हुए कांग्रेस के महा विभाजन के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की सरकार लोक सभा में अल्पमत में आ गई थी।
कम्युनिस्ट और द्रमुक की मदद से सरकार चल रही थी।
इंदिरा गांधी और उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस का भविष्य अनिश्चित हो चुका था।
पर इंदिरा गांधी ने साहस के साथ जनपक्षी नारे उछाले।‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया।
साथ ही,उनकी सरकार ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके यह धारणा बनाई कि निजी बैंक गरीबी हटाने की राह में बाधक हैं।
क्योंकि वे गरीबों को कर्ज नहीं देते।
  साथ ही उन्होंने राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार खत्म किए।
ऐसे कुछ अन्य कदम भी उठाए।
भले आगे चलकर वे कदम लाभकारी नहीं रहे,पर तब गरीबों को लगा था कि इंदिरा गांधी हमारे लिए काम कर रही हैं।
नतीजतन 1971 के लोक सभा चुनाव और 1972 के विधान सभा चुनावों में इंदिरा कांगेस ने भारी सफलता हासिल की।
जबकि संगठन यानी अधिकतर छोटे- बड़े तपे -तपाए कांग्रेस कार्यकत्र्ता दल विभाजन के समय मूल कांग्रेस यानी ‘संगठन कांगे्रस’ के साथ ही रह गए थे।
जब मुद्दों के ईंधन उपलब्ध थे तो कार्यकत्र्ताओं की कमी इंदिरा गांधी को नहीं खली।
आज जब मुद्दे नहीं हैं तो प्रियंका गांधी चुनावी हारके लिए कार्यकत्र्ताओं का फटकार रही हैं।
    संजय गांधी के निधन के बाद जब राजीव गांधी को पार्टी का महा सचिव बनाया गया तो उनकी छवि ‘मिस्टर स्वच्छ’ की बनी थी।
उनकी ही पहल पर देश के तीन विवादास्पद कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों को पद से हटाया गया था।
इंदिरा गांधी की 1984 में हुई हत्या के कारण उपजी जन सहानुभूति के साथ -साथ राजीव गांधी की स्वच्छ छवि  भी 1984 में कांग्रेस की अभूतपूर्व जीत का कारण बने।
आज कांग्रेस के शीर्ष परिवार के साथ -साथ अनेक बड़े नेताओं की एक खास तरह की  छवि बन चुकी है ।प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों  कहा था कि भ्रष्टाचार और गरीबी के लिए कांग्रेस को जिम्मेवार मानते हुए लोगों ने कांग्रेस को ‘बेल गाड़ी’ कहना शुरू कर दिया है।
प्रथम परिवार के सदस्य भ्रष्टाचार के मुकदमों के कारण बेल पर है यानी जमानत पर है।
 2014 की शर्मनाक चुनावी पराजय के बाद 2019 में तो कांग्रेस को 18 प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों में लोक सभा की एक भी सीट नहीं मिली।
 मान लिया कि आज के कांग्रेस नेतृत्व को इंदिरा गांधी की तरह कोई लोक लुभावन नारा गढ़ना तक नहीं आता।
पर वह एंटोनी कमेटी की कम से कम कुछ सलाहों को मान कर अपनी बेहतरी की कोशिश कर ही सकती थी।
 भले केंद्र में कांग्रेस की अब सरकार नहीं है,पर अपनी राज्य सरकारों के जरिए तो यह साबित करने की कोशिश कर ही सकती थी कि उस पर भ्रष्टाचार का आरोप सही नहीं है।पर उल्टे मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार पर कुछ ही महीने के कार्यकाल में  एक बड़े घोटाले का आरोप लग गया।
2014 की पराजय के बाद कांग्रेस में नई जान फंूकने के लिए आठ सूत्री सुझाव के साथ शशि थरूर ने इंडिया टूडे में लंबा लेख लिखा था।उनमें एक सूत्र यह भी था कि कांग्रेस  ‘बीजेपी को राष्ट्रवाद पर एकाधिकार कायम न करने दे।’
  पर पुलवामा और बालाकोट तथा रोहिग्या घुसपैठ आदि के मामलों में कांग्रेस का व्यवहार ऐसा रहा जिससे भाजपा को ही लाभ मिल गया।
  अब लगता है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व  ‘मन के गहरे दाग’ को मिटाने की क्षमता खो चुकी है,इसीलिए हार के कारण कहीं और ही खोजे जा रहे हैं।
या फिर नरेंद्र मोदी सरकार के अलोकप्रिय होने की प्रतीक्षा कांग्रेस कर रही है।
 पर,उसे यह वास्तविकता समझ में नहीं आ रही है कि नरेंद्र मोदी पूर्णकालिक राज नेता हैं।
उनके पास सरकार भी है । उन्हें जनहित में पहल करने और फैसले लेने की सुविधा है।मोदी की छवि व्यक्तिगत रूप से एक ईमानदार नेता की है।
 गत चुनाव प्रचार के दौरान  राहुल गांधी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘नरेंद्र मोदी की ताकत उनकी इमेज है, इसे मैं खराब कर दूंगा।मैंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है।’
  ऐसी ही गलतफहमियां  राहुल गांधी और उनकी पार्टी के लिए लगातार नुकसानदेह साबित हुई हंै।
जिसकी छवि स्वच्छ है,उसे भला कोई खराब कैसे कर सकता है !
 स्वस्थ  लोकतंत्र के लिए जिम्मेवार व मजबूत विपक्ष की उपस्थिति जरूरी है।
पर यदि कांग्रेस व उसके नेता इसी तरह गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करते रहे तो उससे खुद कांग्रेस और लोकतंत्र का कोई भला नहीं होने वाला है।
 क्या यह कोई मामूली बात है कि जब किसी प्रदेश कांग्रेस कमेटी में कोई आंतरिक झगड़ा होता है और उसे शांत करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष की जरूरत पड़ती है तो पता चलता है कि राहुल गांधी विदेश में छुट्टी मना रहे हैं।
दूसरी ओर प्रधान मंत्री और भाजपा अध्यक्ष ने एक दिन की छुट्टी नहीं ली।
यदि कांग्रेस में जिम्मेवारी की भावना विकसित नहीं हुई तो अगले चुनाव में भाजपा पिछले चुनाव की अपेक्षा भी अधिक सीटें पा सकती है। 
@इस लेख का संपादित अंश 21 जून, 2019 के दैनिक जागरण में प्रकाशित@

      
  

 अपनी इस मांग के जरिए पश्चिम बंगाल के  46 प्रमुख मुसलमानों ने ममता बनर्जी की शासन शैली और राजनीतिक शैली को बेनकाब कर दिया।
ममता की मुस्लिम तुष्टिकरण को भी जग जाहिर कर दिया।
जो आरोप ममता सरकार पर भाजपा लगाती रही है,उनकी
पुष्टि 46 जाने -माने मुसलमानों ने कर दी।
यानी,पश्चिम बंगाल से एक बात फिर  सामने आई है कि किस तरह धर्म निरपेक्षता की आड़ में मुसलमानों के बीच के अतिवादी तत्वों के सात खून माफ किए जाते रहे हैं।भावनाएं उभारी जाती हैं।
वैसे में आम मुसलमानों के आर्थिक और शैक्षणिक जरूरतों को पूरा करने की जरूरत नहीं पड़ती।
साथ ही 46 जाने माने  मुसलमानों ने, जिन्हें दूरदर्शी भी कहा जा सकता है, प्रकारांतर से उन भाजपा विरोधी अल्ट्रा सेक्युलर  दलों को भी बेनकाब कर दिया है जो समय -समय पर ममता के गलत कामों का भी समर्थन करते रहते हैं।
  दरअसल 46 मुसलमानों ने देखा कि ममता की इस तुष्टिकरण शैली से तो भाजपा, पश्चिम बंगाल विधान सभा का अगला चुनाव जीत जाएगी और अन्य कामों के साथ -साथ एन.आर.सी. भी लागू कर देगी तब क्या होगा ?
पर सवाल है कि अब तक कहां थे ये 46 जाने -माने मुसलमान बंधु ?
उन्हें पहले सामने आना चाहिए था।
उससे यह होता कि ममता की पार्टी का अधिक नुकसान नहीं होता।
खैर जो हो,जब जगे, तभी सवेरा।
अन्य राज्यों के भी जाने माने मुसलमान और जाने माने हिन्दू उन सरकारों से सार्वजनिक तौर से अपील करें जो धर्म के आधार पर भेदभाव करती है।
 वैसा करके वे आम मुसलमानों और आम हिन्दुओं का ही भला करेंगे।
तब मुख्यतः उनकी रोजी -रोटी की समस्या के आधार पर  राजनीति होगी न कि किसी अन्य बात की। 

बांटिए जरूर ,पर अपने बुढ़ापे के लिए भी कुछ बचाकर
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कई दशक पहले की बात है।
वे अविभाजित बिहार के कैबिनेट मंत्री थे।
अपार पुश्तैनी संपत्ति के मालिक भी थे।
जब उन्हें अपना लीवर बदलवाने की नौबत आई तो पत्नी और पुत्र ने कह दिया,‘क्यों 50-60 लाख रुपए बर्बाद करिएगा।अब कितने दिन जीना है !’
  पूर्व मंत्री जी को भारी सदमा लगा।
जिनके लिए सब कुछ किया,उन्होंने भी मंझधार में छोड़ दिया !
  पर, उन्होंने हार नहीं मानी।
परिवार नहीं जानता था।
रांची में उनकी एक कीमती जमीन थी।उन्होंने बेच दी।एक करोड़ रुपए मिले।
अमेरिका जाकर लीवर बदलवा लिया।
उसी के बाद मैं उनसे बिहार विधान सभा परिसर में मिला था।
हालचाल पूछने पर वे भावुक हो उठे।
अपनी यही व्यथा सुनाई।
साथ ही , मुझे उपदेश दिया,‘ सबके लिए जो भी बन पाए जरूर कीजिए,पर अपने बुढ़ापे के लिए भी अलग से कुछ बचा कर रख लीजिएगा।ध्यान रखिएगा ,उस बचत के बारे में किसी को पता न चले।’
   इस घोर कलियुग में अक्सर घर-बाहर के कृतघ्नों की कहानियां जब सुनता हूंंं तो वे पूर्व मंत्री जी याद आ जाते है।वे अब नहीं रहे।

    


   आपातकाल में फरारी के मेरे वे रोमांचक दिन !  

             --- सुरेंद्र किशोर 
  आपातकाल में बड़ौदा डायनामाइट केस के सिलसिले में सी.बी.आई. की विशेष टीम मेरी तलाश कर रही थी।
 पर, समय रहते पूर्व सूचना मिल गई और मैं किसी तरह उस टीम की गिरफ्त में आने से बच गया। मैं फरार हो गया।
 पर फरारी के महीनों में मुझे इतना अधिक परेशानी, अभाव और कष्ट से गुजरना पड़ा जिसका वर्णन मुश्किल है। मेरा काफी समय मेघालय के एक छोटे बाजार फुलबाड़ी में बीता। 
वहां तब आॅल पार्टी हिल लीडर्स कांफे्रंस की सरकार थी। इसलिए आपातकाल का अत्याचार वहां नहीं था।
 भूमिगत जीवन के कष्टों को देखकर कई बार मैं यह सोचता था कि बेहतर होता कि मैं गिरफ्तार ही हो जाता। पर,दूसरे ही क्षण यह डर समा जाता कि मुझे मार-मार कर सी.बी.आई. डायनामाइट केस में मुखबिर बना देगी।
 जिस रेवतीकांत सिन्हा को सी.बी.आई. ने मुखबिर बनाया, उन्हें मेरी अपेक्षा फर्नांडिस की गतिविधियों के बारे में कम ही जानकारियां थीं।
 मेरे जैसे दुबले-पतले और कमजोर से दिखने वाले व्यक्ति को धमका कर और आतंकित करके मुखबिर बनाने की कोशिश जांच एजेंसियां करती रही हैं।
  17 फरवरी, 1977 को मुखबिर रेवतीकांत सिन्हा का इकबालिया बयान देश के सभी अखबारों में छपा था। वह बयान उन्होंने दिल्ली के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्टेªट मोहम्मद शमीम की अदालत में दिया था। उस बयान में अन्य बातों के अलावा सिन्हा ने यह भी कहा था कि ‘मेरे पटना स्थित आवास पर चार लोगों की बैठक हुई। जुलाई, 1975 के पहले हफ्ते में हुई उस बैठक में मेरे अलावा जार्ज फर्नांडिस, महेंद्र नारायण वाजपेयी और सुरेंद्र अकेला थे। बैठक में जार्ज ने घोषणा की कि वह इंदिरा सरकार को उखाड़ फेंकने की योजना बना रहे हैं। इसके लिए उन्हें कुछ विश्वस्त कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है।’
याद रहे कि उन दिनों मैं सुरेंद्र अकेला के नाम से लिखता था।
 जार्ज फर्नांडिस ‘प्रतिपक्ष’ के प्रधान संपादक थे। मैं उसका बिहार संवाददाता था। इस लिहाज से जार्ज से मेरी निकटता थी। याद रहे कि लाइसेंस घोटाले से संबंधित ‘प्रतिपक्ष’ की एक रिपोर्ट पर लोकसभा मंे लगातार पांच दिनों तक गर्मागर्म चर्चा हुई थी। यह बात सितंबर, 1974 की है। सदन में पांच दिनों तक कोई दूसरा कामकाज नहीं हुआ था।   
 बड़ौदा डायनामाइट केस के सिलसिले में 24 सितंबर 1976 को अदालत में आरोेप पत्र दाखिल कर दिया गया था। केस की सुनवाई चल रही थी। सी.बी.आई. ने इस केस के सिलसिले मेंे जिन्हें गिरफ्तार किया, उन्हें बड़ा कष्ट दिया।
दिल्ली विश्वविश्वविद्यालय के व्याख्याता विनोदानंद सिंह को तो कुर्सी से बांध कर रखा गया था। विनोद जी को बाद में सी.बी.आई. ने छोड़ दिया था।
 सी.बी.आई. को इस केस के सिलसिले में कई झूठी जानकारियां भी मिली थीं। उनमें एक गलत जानकारी यह भी थी कि मैं जार्ज के लिए नेपाल से पैसे लाता था। सी.बी.आई. के अनुसार काठमांडु स्थित चीनी दूतावास से मैं संपर्क में था।
सी.बी.आई. के एक जांच अधिकारी ने मेरे एक मित्र को बाद में बताया था कि यदि सुरेंद्र अकेला गिरफ्तार हो जाता तो हमें जार्ज से चीन के रिश्ते का पता चल जाता।
 पर, सच्चाई यह है कि मैं आज तक नेपाल नहीं गया हूं। चीनी दूतावास से किसी तरह के संपर्क का सवाल ही नहीं उठता।
 पर, यह तब की जांच एजेंसी की ‘कार्य कुशलता’ का एक नमूना था।
 खैर मुझे गिरफ्तारी से बचाया था मुख्य मंत्री सचिवालय के एक अफसर ने। समाजवादी पृष्ठभूमि का वह अफसर  तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र के सचिवालय में तैनात था।
 दिल्ली से सी.बी.आई. की टीम आई हुई थी। उसने मुख्यमंत्री सचिवालय से संपर्क करके पटना का मेरा पता-ठिकाना पूछा। उस अफसर के अलावा किसी अन्य को मेरे बारे में कोई बात मालूम नहीं थी।
 उस अफसर ने हमारे परिचित लक्ष्मी साहु को इस बात की सूचना देते हुए कहा कि अकेला जी को शीघ्र खबर कर दीजिए कि वे फरार हो जाएं।
कर्पूरी ठाकुर के निजी सचिव रहे लक्ष्मी साहु ने किसी तरह पटना के जक्कनपुर स्थित मेरा घर खोजा। वहां मैं किराए के मकान में रहता था। मुझे छिप जाने को कहकर लक्ष्मी जी तुरंत वहां से चल दिए।
आपातकाल का इतना आतंक ही था कि किसी ऐसे व्यक्ति के पास फटकना भी कोई नहीं चाहता था जिसे सी.बी.आई. कौन कहे पुलिस भी खोज रही हो।
मैं फरार हो गया। प्रतिपक्ष के संवाददाता के रूप में मुझे तब भी हर माह दो सौ रुपए मिलते थे। जार्ज ने आपातकाल लागू हो जाने के बाद भी वह राशि मुझे भिजवानी जारी रखी। हालांकि प्रतिपक्ष का प्रकाशन 25 जून, 1975 के बाद बंद हो गया था।
 आपातकालीन भूमिगत गतिविधियों में मैं जार्ज का सहयोग कर रहा था।
 मेरा असल कष्ट शुरू हुआ 1976 के मार्च में। तब बड़ौदा में डायनामाइट पकड़ा गया था। उससे जोड़कर जार्ज फर्नांडिस के साथियों की गिरफ्तारियां शुरू हुईं।
 फरारी समय में कोई मुझे शरण देने को तैयार ही नहीं था। रिश्तेदार भी भला नाहक क्यों संकट मोल लेते !
 मेरे मित्र और पटना सचिवालय में सहायक रामबिहारी सिंह ने एक अन्य सरकारी कर्मचारी श्रीवास्तव के पटना स्थित आवास में मुझे रखवा दिया।
पटना के बांसघाट के पास की उस घनी आबादी वाले मोहल्ले में कुछ दिन तो बीत गए, पर एक जगह अधिक दिनों तक रहा भी नहीं जा सकता था। पैसों की भारी दिक्कत थी। मेरे जैसे मामूली अभियानी पत्रकार को आपातकाल में कोई पैसे क्यों देता ?
राजनीतिक लोग या तो जेल में थे या काफी डरे हुए थे। इस बीच जार्ज से मिलना भी बंद हो गया। उनके पत्र जरूर आ रहे थे।
आपातकाल लागू होने के बाद मैं जार्ज से बंगलुरू, कोलकाता और दिल्ली में बारी -बारी से मिला था।
 जार्ज की गिरफ्तारी के बाद मैंने बिहार छोड़ देना ही बेहतर समझा।
मेरे बहनोई मेघालय के गारो हिल्स जिले के फुलबाड़ी बाजार में अपना छोटा व्यापार करते थे। मेरी बहन भी वहीं थीं।
 मैं जाकर वहीं रहने लगा। वहां चूंकि आपातकाल का कोई अत्याचार था ही नहीं, इसलिए मेरे रिश्तेदार यह समझ ही नहीं सके कि सी.बी.आई. को मेरी कितनी तलाश है। उनके यहां कोई अखबार भी नहीं आता था।
 पर मैं यह समझ रहा था कि मुझे यहां बैठकर रहने के बदले किसी काम में लग जाना चाहिए। मैं अपने बहनोई की दुकान पर ही बैठना चाहता था। बहनोई राजी थे। पर मेरी दीदी ने साफ मना कर दिया। उसने कहा कि आपको जो रोजगार करना हो करिए, पर बबुआ दुकान नहीं चलाएगा। बाबू जी सुनेंगे तो उन्हें इस बात का बुरा लगेगा कि राजपूत का लड़का दुकान चला रहा है।
  जीजा जी भी मान गए।
 नतीजतन मैं बहन के घर खाता और सोता था। शाम को बाजार जाता था। एक बंगाली की चाय  दुकान में बैठकर चाय पीता था और ‘असम ट्रिब्यून’ पढ़ता था।
कुछ दिनों तक तो यह ठीक ठाक चलता रहा। फुलबाड़ी तब एक छोटी जगह थी। बंगलादेश की सीमा के पास है। वहां सब एक दूसरे को जानते थे। समय बीतने के साथ इस बात की चर्चा शुरू होने लग गयी कि अंग्रेजी पढ़ने वाला यह व्यक्ति यहां निट्ठला क्यों बैठा हुआ है ? क्या इंदिरा गांधी का सी.आई.डी. है ? क्या स्थानीय सरकार पर नजर रखने के लिए इसकी तैनाती हुई है ?
 जब यह चर्चा मुझ तक भी पहुंची तो मैं चिंतित हो गया। आशंका हुई कि यदि स्थानीय पुलिस मुझसे पूछताछ करने लगेगी तो मैं क्या जवाब दूंगा ? जल्दी-जल्दी
मैं वहां से भागकर पटना पहुंचा। क्योंकि इस बीच नवंबर, 1976 में मेघालय के मुख्यमंत्री विलियमसन ए. संगमा कांग्रेस में शामिल हो चुके थे। मेघालय की राजनीतिक स्थिति बदल चुकी थी।
हालांकि तब तक पूरे देश में आपातकाल की कठोरता कम होने लगी थी। बड़े नेतागण जेलों से रिहा होने लगे थे। चुनाव होने वाले थे। हालांकि बड़ौदा डायनामाइट केस की सुनवाई चल ही रही थी। जब 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तभी वह केस वापस हुआ। 
लोकसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही यह लगने लगा था कि कांग्रेस हार जाएगी। फिर तो मैंने ‘आज’ अखबार के पटना दफ्तर में नौकरी शुरू कर दी।
 मंत्री बनने के बाद जार्ज ने मुझसे कहा कि ‘दिल्ली चलकर प्रतिपक्ष निकालो।’
मेरे कुछ ‘शुभचिंतकों’ ने भी कहा कि ‘चले जाओ, उद्योगमंत्री से कुछ व्यापारियों की मुलाकात भी करवा दोगे तो जीवन संवर जाएगा। कई उद्योगपतियों के जायज बड़े काम भी मंत्री से मुलाकात नहीं होने के कारण रुका रहता है।’
इस पर मैंने कहा कि मुझे ऐसा जीवन मंजूर नहीं है। मैंने साफ मना कर दिया। क्योंकि संघर्षशील  जार्ज मुझे जरूर प्रभावित करते थे, पर मंत्री जार्ज कत्तई नहीं। 
वैसे भी मैं राजनीतिक गतिविधियांे से अलग हो जाने का पहले ही मन बना चुका था। आपातकाल के विशेष कालखंड में आपात धर्म ही निभा रहा था। उससे पहले किसी पेशेवर अखबार में नौकरी पाने की प्रतीक्षा में प्रतिपक्ष और जनता जैसे अभियानी और सोद्देश्य पत्रिकाओं में काम कर रहा था। 
--हरिशंकर व्यास संपादित एवं नई दिल्ली से प्रकाशित चर्चित दैनिक ‘नया इंडिया’से सभार-- 
  

   

  
  

  
    



रविवार, 23 जून 2019

लालू, मुलायम और रामविलास सिमी पर प्रतिबंध के खिलाफ थे

अवैध गतिविधियां संचालित करने के आरोप में प्रतिबंधित सिमी के संस्थापक सदस्य सफदर नागौरी को भोपाल की जिला अदालत ने शनिवार को सात साल की सजा सुनाई। नागौरी के साथ दो अन्य व्यक्तियों को भी सजा हुई है।

याद रहे कि अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में पहली बार प्रतिबंध लगने के बाद सिमी के सदस्यों ने इंडियन मुजाहिददीन नामक संगठन बना लिया।

9 अप्रैल 2008 के हिन्दुस्तान टाइम्स के अनुसार नागौरी ने कहा था कि हमारा लक्ष्य जेहाद के जरिए भारत में इस्लामिक शासल कायम करने का है।

7 अगस्त 2008 के टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार लालू प्रसाद ने कहा था कि यदि सिमी पर प्रतिबंध लग गया तो आर.एस.एस. पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए। मुलायम सिंह यादव ने भी 2008 में सिमी का बचाव किया।

12 अगस्त 2008 को रामविलास पासवान ने भी सिमी पर से प्रतिबंध हटाने की मांग की। 2008 में यू.पी.ए. सरकार ने सिमी पर रोक जारी रखने की सुप्रीम कोर्ट से गुहार की। पर कांग्रेस के ही सलमान खुर्शीद सिमी के वकील थे।

टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार सिमी के अहमदाबाद के जोनल सेके्रट्री साजिद मंसूरी ने कहा था कि जब भी हम सत्ता में आएंगे तो हम इस देश के सभी मंदिरों को तोड़ देंगे और वहां मस्जिद बनवाएंगे।..टाइम्स ऑफ इंडिया..30 सितंबर 2001  

शुक्रवार, 21 जून 2019

बिहार सरकार से

बिहार जैसे गरीब प्रदेश में बेहतर शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था की जिम्मेवारी तो शासन को ही उठानी ही पड़ेगी। अन्यथा, बेचारा गरीब कहां जाएगा ?

पर, राज्य में दोनों महकमों की हालत दशकों से बहुत ही खराब है। वैसे फंड की कोई कमी नहीं है। बस उसे लूट से बचा लेने की समस्या है।

मेरी राय रही है कि कम से कम इन विभागों को भ्रष्टाचार की परंपरागत महामारी से मुक्त किया जाना चाहिए। इन विभागों को भ्रष्टाचार के प्रति जीरो सहनशीलता वाले विभाग के रूप में चिन्हित किया जाए।

साथ ही, महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे आई.ए.एस. अफसरों को तैनात किया जाए जो आज के जमाने में भी घूस नहीं लेते। वैसे आई.ए.एस. अफसरों में के.के. पाठक और सुभाष शर्मा जैसे अफसर बिहार काडर से हैं। अन्य भी होंगे, पर मैं उन्हें नहीं जानता।

यदि कोई केंद्र की प्रतिनियुक्ति पर हों तो उन्हें भी बुलाइए। उन्हें पूरी छूट भी दीजिए। गरीब घरों के छात्रों और मरीजों पर अब भी तो विशेष दया कीजिए। मुजफ्फरपुर की महामारी से तो आंखें खुल जानी चाहिए।

मंगलवार, 18 जून 2019

ए.के.राय को जन्म दिन पर बधाई !

नेताओं के बीच के संत कॉमरेड ए.के.राय का आज जन्मदिन है। तीन बार विधायक और तीन बार सांसद रहे ए.के. राय इन दिनों धनबाद में  अपने एक साथी के घर रह रहे हैं।

इंजीनियर रहे ए.के. राय ने जनसेवा को प्राथमिकता दी। न शादी की और न परिवार खड़ा किया। कोई मकान तक नहीं बनाया। 

मैं 1972 में उनसे कई बार पटना में मिला था। तब वे विधायक थे। जैसे तब थे, वैसे ही बाद के दिनों में भी रहे। एक सामान्य साधनहीन भारतीय की तरह। वे सांसदों की वेतन वृद्धि का विरोध करने वाले संभवतः एकमात्र सांसद थे। अपनी पेंशन राशि भी उन्होंने राष्ट्रपति कोष में दान दे दी।

हिंसाग्रस्त धनबाद में मजदूरों के बीच काम करना काफी जोखिम भरा काम रहा है। कई बड़े मजदूर नेता मारे गए। कहते हैं कि सांसद राय को भी मारने के लिए कोई शूटर भेजा गया था। पर एक सांसद की फटेहाली देख कर वह अपना काम किए बिना लौट गया। हां, 2014 में चोर उनके घर में घुस गए थे। उन्हें लूटा भी। 

पर जब बाद में पता चला तो चोरों ने माफी मांग ली। एक जमाने में धनबाद तथा आसपास के इलाके में शिबू सोरेन, विनोद बिहारी महतो  और ए.के. राय गरीबों के बीच किवदंती बन गए थे।

गरीबों-मजदूरों की सेवा के काम में इन्हें धनबाद के तत्कालीन डी.सी. के.बी. सक्सेना से मदद मिलती रहती थी। शिबू तो अपनी छवि बनाए नहीं रख सके, पर ए.के. राय ने ‘जस की तस धर दीनी चदरिया।’ उनके जन्म दिन पर राय साहब को मेरी बधाई !

काश! राय साहब जैसा निःस्वार्थ सेवाभावी नेताओं की संख्या हर दल व हर विचारधारा की जमातों में बढ़ पाती। इसके विपरीत आज के तो अधिकतर नेतागण चौधरी देवीलाल की कभी की इस उक्ति का अनुसरण करते हैं कि ‘राजनीति में सिद्धांत कुछ नहीं होता। सब कुछ सत्ता के लिए होता है। मेनिफेस्टो का कवर बदलता रहता है। पर, मजमून कभी नहीं बदलता।’

सोमवार, 17 जून 2019

200 करोड़ पेड़ लगाने की योजना, पर मत भूल न जाएं नीम-पीपल

देश में राष्ट्रीय राजमार्ग की लंबाई एक लाख किलोमीटर है। संबंधित केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि हमारी सरकार देश भर में एन.एच. के किनारे 200 करोड़ पेड़ लगाने की योजना बना रही है। उद्देश्य पर्यावरण की रक्षा और रोजगार सृजन हैं।

यह सराहनीय काम है। पर, क्या पीपल और नीम लगाने की भी कोई योजना है ? जानकार लोगों के अनुसार यदि हर पांच सौ मीटर पर पीपल का एक पेड़ लगे तो ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं रहेगी। यानी उससे पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में काफी मदद मिलेगी।

नीम भी इस मामले में बहुत ही लाभदायक होता है। पर यह देखा जाता है कि इन उपयोगी पेड़ों की जगह सरकार सजावटी-दिखावर्टी पेड़ लगाने में अधिक रुचि रखती है। उम्मीद है कि गडकरी साहब इस स्थिति को बदलेंगे।

शुक्रवार, 14 जून 2019

गरीब देश में भी कम्युनिस्टों का यह हाल


सन् 1929 के चर्चित मेरठ षड्यंत्र केस ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत बनाया तो 2007 की सिंगूर-नंदीग्राम की घटनाओं ने साम्यवादी दलों के अवसान की बुनियाद रख दी। याद रहे कि मेरठ षडयंत्र केस में कई कम्युनिस्ट नेता आरोपित थे। आज तो कम्युनिस्ट दलों की चुनावी दुर्दशा देख कर उनके कुछ राजनीतिक विरोधियों को भी उन पर दया आ रही होगी। अनेक गरीब मर्माहत और पस्तहिम्मत होंगे।

याद रहे कि विशेष आर्थिक जोन के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण के कारण सिंगूर-नंदीग्राम में वाम मोरचा सरकार के खिलाफ बड़ा जन आंदोलन हुआ था। भारत जैसे गरीब देश में कम्युनिस्टों की दिन प्रति दिन पतली हो रही हालत के लिए आखिर कौन जिम्मेवार रहे ? कम्युनिस्ट नेतृत्व, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, सर्वहारा, आम जन, आर्थिक उदारीकरण या कोई अन्य तत्व? इसी के साथ यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि इस देश में कम्युनिस्ट दलों का पुनरुद्धार अब संभव भी है या नहीं।

पहली नजर में ही यह लगता है कि जिस तरह कम्युनिस्ट आंदोलन के उत्थान के लिए मुख्यतः उसके नेतृत्व को श्रेय जाता है तो उसके अवसान के लिए भी तो उसी को जिम्मेवारी लेनी होगी। जहां तक पुनरुत्थान की बात है तो इस मामले में कुछ भी भविष्यवाणी करना जोखिम भरा काम है।

इस देश की कम्युनिस्ट पार्टियां शुरू से ही भारत भूमि के अनुसार खुद को कभी पूरी तरह ढाल नहीं सकी। दुनिया के अन्य कम्युनिस्ट देश तो अपनी भूमि के एक-एक इंच की रक्षा के मामले में वे ‘राष्ट्रवादी’ रहे हैं। पर, हमारे देश के कम्युनिस्ट रक्षा में लगी सरकार को ‘अंध राष्ट्रवादी’ तो कभी हिन्दूवादी कहने लगते हैं।

इस दुनिया में जब-जब दो कम्युनिस्ट देश आपस में लड़े तो वहां कौन अंध राष्ट्रवादी था और कौन किसी धर्म का शासन अपने देश पर थोपना चाहता था? दूसरे देश के कम्युनिस्ट इस बात की चिंता करते हैं कि उनके देश को कौन- कौन से देश घेरने की कोशिश कर रहे हैं। पर केरल सी.पी.एम. के सचिव कहते हैं कि अमेरिका, आस्ट्रेलिया और भारत मिलकर चीन को घेरना चाहते हैं। 

सामाजिक न्याय यानी पिछड़ा आरक्षण की कोई अवधारणा कम्युनिस्ट शब्दकोष में नहीं है। कम्युनिस्टों ने लगातार इस रणनीति पर काम किया कि साम्प्रदायिक तत्वों यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए किसी भी राजनीतिक दल का, चाहे वह कितना भी भ्रष्ट, वंश-तंत्रवादी और अक्षम हो, साथ दिया जाना चाहिए।

क्या वे भाजपा को रोक पाए ?

नब्बे के दशक तक यहां के कम्युनिस्टों के एक बड़े तबके की स्थानीय रणनीति इसी आधार पर बनती थी जिससे सोवियत संघ या चीन के हितों को नुकसान न हो। अब भला ऐसी नीतियां इस देश की कितनी जनता को प्रभावित कर सकती हैं ?

स्थापना के शुरू के वर्षों में तो युवाओं में कम्युनिस्ट रूमानियत और सोवियत तथा चीन की क्रांतियों की प्रेरणा से दल बढ़े। बोलेविया के जंगलों में क्रांति के लिए शहादत देने वाले क्यूबा के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री चे ग्वेवारा एक जमाने में यहां के हजारों युवाओं के प्रेरणा स्रोत थे।

पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु सरकार ने भूमि सुधार के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम उठाए थे। उससे वाम मोरचा को भारी जन समर्थन मिला। तब अधिकतर कम्युनिस्टों के साफ-सुथरे निजी जीवन ने भी लोगों को प्रभावित किया।

पर, लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के कारण किसी भी दल में जो कमजोरियां पनपती हैं, उनके शिकार होने से कम्युनिस्ट भी बचे नहीं रहे। तालाब का पानी सड़ने लगा। पश्चिम बंगाल की वाम सरकार की अलोकप्रियता बढ़ती गई। शासन के अंतिम वर्षों में बूथ जाम और साइंटिफिक रिगिंग के जरिए चुनाव जीता गया। पर वह कब तक चलता? 

वैसे भी सफेद कमीज पर हल्का धब्बा भी कुछ अधिक ही दिखाई पडने लग़ता है।

कम्युनिस्ट नेताओं में एक खास खूबी है। वे यदाकदा अपनी गलतियों को भरसक सार्वजनिक रूप से स्वीकारते हैं। उन्हें दुरुस्त करने की कोशिश भी करते है। पर एक समय ऐसा आया जब कम्युनिस्ट नेतृत्व ने सुधार की ताकत खो दी। पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री ज्योति बसु यह लगातार कहते रहे कि हमारी पार्टी में भ्रष्ट और अपराधी तत्व घुस आए हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। कुछ कार्रवाइयां हुईं भी। पर जरूरत के अनुपात में काफी कम। यानी नेता कमजोरियों की चर्चा करते रहे और कमजोरियां बढ़ती चली गईं। इसे किसकी विफलता मानें ?

2009 में सी.पी.एम. के महासचिव प्रकाश करात ने कहा कि सत्ता और पैसों की लालच ने पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट आंदोलन के शानदार इतिहास को धूमिल कर दिया। उधर सीताराम येचुरी ने 2016 में अपनी ही पार्टी की केरल सरकार में जारी भाई-भतीजावाद के खिलाफ आवाज उठाई। उधर ज्योति बसु ने 1994 में कहा कि ‘भारत की विशेष परिस्थितियों में जाति भी महत्वपूर्ण है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।’ क्या ध्यान दिया गया ?

हां, 2009 में लोकसभा चुनाव में हार के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने कुछ कदम जरूर उठाए।पर तब तक देर हो चुकी थी। 2011 में राज्य की सत्ता वाम मोरचा के हाथों से निकल गई।  सी.पी.आई. के महासचिव ए.बी. वर्धन ने तब कहा था कि ‘भ्रष्टाचार और अहंकार ने वाम मोर्चा को आमजन से अलग कर दिया और हम चुनाव हार गए। वामपंथी खुद को बदलें।’    

कतिपय वाम नेताओं ने पहले तो वोटबैंक को मजबूत करने के लिए पश्चिम बंगाल में बंगला देशियों के अवैध प्रवेश का रास्ता साफ किया, पर जब पश्चिम बंगाल के राज्य सात जिलों में शासन चलाना कठिन हो गया तो राजनीतिक कार्यपालिका की तरफ से कहा गया कि राज्य में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. सक्रिय हो गया है। मदरसों में खास तरह की शिक्षा दी जा रही है।

वाम नेताओं के इस आरोप का अल्पसंख्यक समुदाय के सामाजिक नेताओं ने सख्त विरोध किया। ममता बनर्जी ने उन्हें हाथों -हाथ लिया। इस तरह अल्पसंख्यक मतदाता धीरे -धीरे ममता बनर्जी की ओर खिसकते चले गए। अल्पसंख्यकों के बीच के अतिवादियों के तुष्टिकरण के मामले में ममता वाम से आगे निकल गई। आम अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए दोनों में से किसी ने भी कोई खास नहीं किया। उसका राजनीतिक खामियाजा अब ममता बनर्जी भी भुगत रही हैं।

यदि हिंदी प्रदेशों में वाम दल मजबूत रहे होते तो बंगाल-केरल-त्रिपुरा के नुकसानों की क्षतिपूर्ति अखिल भारतीय स्तर पर हो सकती थी। पर नेतृत्व की अदूरदर्शी नीतियों के कारण कभी बिहार में मजबूत रही सी.पी.आई. भी समय के साथ कमजोर होती चली गई।

मंडल आंदोलन और मंदिर आंदोलन के कारण भी कम्युनिस्ट पार्टियां कमजोर हुई हैं। अनेक वर्णों  के बदले सिर्फ दो वर्गों की उपस्थिति में विश्वास करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों को हिंदी प्रदेशों में मंडल आंदोलन ने नुकसान पहुंचाया है।

लालू प्रसाद-मुलायम सिंह यादव का बिना शर्त साथ देने के कारण सवर्णों का कम्युनिस्टों के प्रति आकर्षण घटा। साथ ही, पिछड़ों का समर्थन नहीं बढ़ा क्योंकि पिछड़ों का आकर्षण राजद, सपा और जदयू की ओर अधिक रहा । बिहार में तो लालू प्रसाद के धृतराष्ट्र आलिंगन में कम्युनिस्ट चकनाचूर हो गए।

हिंदी पट्टी में अपेक्षाकृत अधिक गरीबी भी है। गरीबों के बीच कम्युनिस्टों के प्रसार की गुंजाइश अधिक रहती है। इसके बावजूद यदि कम्युनिस्ट पार्टियां मुरझा गईं तो इसके लिए इन दलों की रणनीतियां और कार्य नीतियां ही जिम्मेदार रही हैं।

क्या उनमें सुधारकी कोई गुंजाइश बची है ?

साठ- सत्तर के दशक तक कम्युनिस्ट व सोशलिस्ट दलों के नेता व कार्यकर्ता हर साल कोई न कोई आंदोलन करके जेल जाते थे। जेलों में वे अपने काॅडर का राजनीतिक शिक्षण भी करते थे।  पर, लगता है कि उनमें संघर्ष का पहले जैसा माद्दा नहीं बचा। नए लोग दल से जुड़ नहीं रहे हैं।

याद रहे कि संघर्ष और शिक्षण के कारण जनता की नई जमात पार्टी से जुड़ती है। पर, दुर्भाग्यवश भारत जैसे गरीब देश में, जहां विषमता बढ़ती जा रही है, कम्युनिस्ट पार्टियां मुरझा रही हैं।

(14 जून 2019 के प्रभात खबर में प्रकाशित)

पिछले कार्यकाल की मोदी सरकार

प्रधानमंत्री मोदी ने 12 जून को कहा कि  ‘सभी मंत्री समय पर आफिस पहुंचें और कुछ मिनट का समय निकाल कर अधिकारियों के साथ मंत्रालय के कामकाज की जानकारी लें। घर से काम करने से बचना चाहिए।’

प्रधानमंत्री ने बहुत बड़ी बात कही है। प्रकारांतर से उन्होंने यह बता दिया कि पिछले कार्यकाल में उनकी सरकार कैसे चल रही थी। यानी पिछले कार्यकाल में कई मंत्री न तो समय पर आफिस जाते थे और न ही मंत्रालय के कामकाज में रुचि लेते थे। घर से काम करते थे।

ध्यान रहे कि मोदी ने कहा कि कुछ मिनट का समय निकाल कर! सब जानते हैं कि घर से काम करने का क्या मतलब होता है! इन सबके बावजूद मोदी यह सब बर्दाश्त करते रहे। क्योंकि 2014 में उनकी अपनी पार्टी को लोकसभा में बहुमत तो मिला था, पर बाद के दिनों में वह भी समाप्त -सा हो गया था।

अब उनका अपना ही पूरा बहुमत है। अब लगता है कि लापारवाह और इधर -उधर झांकने वाले मंत्रियों पर लगाम कस सकेंगे।

कारनामे चंबल वाले, लूटने का तरीका बदला


इस देश में लोकतंत्र नहीं आता तो वे शायद चंबल के बीहड़ों में कंधे पर बंदूक लेकर विचरण कर रहे होते। पर, कुछ दशक पहले कतिपय नेताओं की मेहरबानी से वे चुनावी राजनीति मेंं प्रवेश कर गए।

पहले कुछ नेताओं के लिए बूथ कैप्चर कर रहे थे। बाद में खुद चुनाव लड़ कर विधायिका और सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने लगे। कुछ अन्य सीधे राजनीति में पहुंचे। पर, उनके कारनामे फिर भी कमोवेश चंबल वाले ही रहे। हां, लूटने का तरीका बदल गया।

कई कारणों से उनके लिए अब राजनीति में गुंजाइश कम होती जा रही है। यह नहीं कह रहा हूं कि गुंजाइश पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। पर, उम्मीद है कि कम होती जाएगी। इसलिए उनके लिए बेहतर यह होगा कि वे फिर एक बार अपना पेशा बदल लें। 

शेरपुर-दिघवारा गंगा पुल को केंद्र सरकार की मंजूरी

केंद्र सरकार ने शेरपुर-दिघवारा गंगा पुल के निर्माण की मंजूरी दे दी। इसे मैं मात्र एक पुल नहीं बल्कि सारण जिले के विकास का महा-द्वार कहूंगा। याद रहे कि अविभाजित सारण जिला मनिआर्डर इकोनाॅमी का जिला रहा है। ‘आबादी अधिक व जमीन कम’ वाला जिला।

यह पुल बन जाने के बाद दिघवारा से हाजीपुर तक ‘एक और नोयडा’ बनने का रास्ता साफ हो जाएगा। पर, यह भी देखना है कि शेरपुर -दिघवारा गंगा पुल कितना शीघ्र बनकर तैयार होता है। 
उम्मीद तो है कि हमलोगों के जीवनकाल में ही बन जाएगा !

13 जून 19

सोमवार, 10 जून 2019

बिहार में दहेज की ताजा दर

बिहार में दहेज की ताजा दर का मोटा—मोटी पता चला है। बिहार के एक गिरफ्तार इंजीनियर ने हाल में बताया कि मैंने अपनी बिटिया की शादी के लिए 2 करोड़ 36 लाख रुपए घर में रखे थे।

निगरानी दस्ते ने 14 लाख रुपए घूस लेते सुरेश प्रसाद सिंह को हाल गिरफ्तार किया। नकदी भी बरामद हुई। याद रहे कि उनकी बिटिया डाॅक्टर है। यानी डाक्टर भी है तो क्या हुआ! 


लड़की वालों का दोहन तो होना ही है।


दरअसल जब कोई लड़की वाला वर की तलाश में निकलता है तो उसे अच्छी तरह पता चल जाता है कि जातिवाद कितना बेमतलब शब्द है। क्या किसी को कभी दया आती है कि बेचारे का अधिक दोहन नहीें किया जाए क्योंकि आखिर अपनी ही जति का तो है! 


शुक्रवार, 7 जून 2019

आदतन दल—बदलुओं को बुलाना, यानी अपने कार्यकर्ताओं का हक मारना

मौसमी पक्षियों के डाल-बदल यानी दल—बदल के लिए हर चुनाव एक अच्छा मौसम होता है। चुनाव से पहले और चुनाव के बाद खूब दल—बदल होते हैं। इस बार के चुनाव से पहले भी दल बदल हुए। चुनाव के बाद भी होंगे, इसके संकेत मिल रहे हैं।

कई पराजित उम्मीदवारों के बयानों और हाव—भाव से संकेत साफ हैं। वे किसी ऐसे दल में प्रवेश करने की कोशिश में हैं जिसके बल पर वे अगले चुनाव में जीत हासिल कर सकें। लोकसभा नहीं तो विधानसभा ही सही। जो ट्रेन पहले खुल रही हो, उसी पर चढ़ जाना है!

इनमें से कुछ दल—बदलू प्रवेश भी पा जाएंगे। कुछ तो आदतन दल—बदलू हैं। होना तो यह चाहिए कि जो नेता तीन बार पहले ही दल—बदल कर चुका हो, उसे चौथी बार कोई दल स्वीकार न करे। चौथी बार स्वीकार करने का मतलब है बिच्छू की माला पहनना है।

पर कुछ दल डंक झेलने की कीमत पर भी वह माला भी समय-समय पर ग्रहण करते ही रहते हैं। इस बार भी करेंगे ही। पर, उन कार्यकर्ताओं का क्या होगा, जहां के कार्यकर्ताओं का हक मार कर आदतन दल—बदलू उस मजबूत दल के टिकट भी पा जाएंगे?

दरअसल ये आदतन दल—बदलू ताश के पत्तों की तरह हैं। कभी एक हाथ में, तो कभी दूसरे हाथ में। इससे नए लोगों का राजनीति में प्रवेश और विकास रुकता है। इस कारण भी कुछ राजनीतिक दल नदी की जगह तालाब बन गए हैं। तालाब का पानी सड़ सकता है, पर नदी का नहीं।


एंटोनी की सलाह थरूर से बेहतर

2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद ए.के. एंटोनी ने हार के कुछ कारण बताए थे। उसी साल शशि थरूर ने भी कांग्रेस में नई जान फूंकने के लिए आठ सूत्री सुझाव हाईकमान तक पहुंचाए थे।

हार के कारणों को लेकर एंटोनी की बातें सच से अधिक करीब थीं। पर, कांग्रेस ने गत पांच साल में न तो एंटानी की बातों पर ध्यान दिया और न ही थरूर की बातों को कोई तवज्जो दी।

एक बार फिर थरूर सहित कुछ अन्य लोग कांग्रेस के पुनरुद्धार के लिए सलाह दे रहे हैं। जाहिर है कि उनपर भी कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा। दरअसल कांग्रेस जैसी कुछ पार्टियों के साथ दिक्कत यह है कि कोई भी सलाह उन दलों के सुप्रीमो के चाल, चरित्र, चिंतन में बदलाव की जरूरत नहीं बताती। उतनी हिम्मत है ही नहीं। पर वे भी क्या करें ? सुप्रीमो पर ही पार्टी आधारित है। उन्हें हटा दीजिएगा तो पार्टी बिखर जाएगी। यदि नहीं हटाइएगा तो धीरे -धीरे दुबली होती जाएगी।


नल-जल योजना, घर-घर की कहानी

नल जल योजना, यानी घर- घर की कहानी। इस महत्वाकांक्षी योजना के जरिए सरकार घर -घर पहुंच रही है।   इस योजना के साथ सरकार की छवि भी पहुंच रही है। इसलिए इसके बेहतर कार्यान्वयन की सख्त जरूरत है।

पर शिकायतें आ रही हैं। सोशल आडिट से गड़बडि़यों को रोका जा सकता है। मुजफ्फरपुर शेल्टर होम की सही जांच ‘टिस’ की जिस टीम ने की थी, वैसे ही कर्तव्यनिष्ठ लोगों की टीम से या उसी से नल—जल योजना की भी जांच कराने की जरूरत है।


साथ-साथ चुनाव से 60 हजार करोड़ की बचत

2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग 60 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए। इनमें सरकारी और गैरसरकारी खर्च शामिल हैं। इसी तरह पूरे देश के विधानसभा चुनावों में अलग से इतने ही या फिर इससे भी अधिक खर्च होंगे। क्या यह जनता के धन का दुरुपयोग नहीं है?

1967 तक दोनों चुनाव एक ही साथ होते थे। इसलिए दोहरे खर्च की नौबत नहीं थी। अब भी यदि देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने लगे तो कितने पैसे बचेंगे ?

2018 में विधि आयोग को नौ राजनीतिक दलों ने साफ—साफ बता दिया कि हम साथ-साथ चुनाव के खिलाफ हैं। क्या 60 हजार करोड़ रुपए बचाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए? पर इस गरीब देश के कितने नेता इस कोशिश के लिए तैयार हैं ? यदि नहीं हैं तो उन्हें इस गरीब देश की जनता किस नाम से पुकारे ? नाम तय कर लीजिए।

सी.पी.एम. ने तो यहां तक कह दिया कि साथ-साथ चुनाव लोकतंत्र के ही खिलाफ है। क्या 1952 से 1967 तक देश में लोकतंत्र नहीं था जब साथ- साथ चुनाव होते थे ?


और अंत में

खबर है कि इस कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार ने कई बड़े महत्व के काम करने का मन बनाया है। पर वैसे कुछ कामों की राह में दिक्कत यह है कि राज्यसभा में राजग का अभी  बहुमत नहीं है। बहुमत के लिए 24 सदस्यों की कमी है।

एक आकलन के अनुसार 2022 तक राजग को बहुमत मिल जाएगा। यानी 2022 से 2025 तक की अवधि केंद्र सरकार के लिए सर्वाधिक अनुकूल होगी। 

(सात जून 2019 को प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरे कालम कानोंकान से )