बुधवार, 5 जून 2019

तेजाबी संबंधों का नुकसान !

यदि किन्हीं दो जातियों के बीच कभी ‘तेजाबी संबंध’ रहा हो तो उसका असर जल्दी नहीं जाता।  यानी, यदि वे दोनों कभी मिलकर भी चुनाव लड़ेंगे तो आम तौर पर केमिस्ट्री से गणित पराजित हो जाएगा।

2016 में पश्चिम बंगाल में यही हुआ था। इस बार उत्तर प्रदेश में भी यही हुआ।

बिहार में भी फसल काट लेने वाले समुदाय यदि अपनी फसल बचाने की कोशिश में लगे समुदाय से चुनावी तालमेल भी करें तो उसका कोई लाभ नहीं होगा।

इस कहानी का यही मोरल है कि राजनीतिक दल विभिन्न जातियों के बीच के झगड़े को न बढ़ाएं।बल्कि उसे कम करने की कोशिश करें। अन्यथा, उन्हें लाभ के बदले कभी भारी नुकसान भी  हो सकता है।

2016 में सी.पी.एम. ने सोचा था कि यदि वह कांग्रेस के साथ तालमेल करके पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव लड़ेगी तो दो जोड़ तीन बराबर पांच हो जाएगा जो चार से अधिक होगा। पर ऐसा नहीं हुआ। सी.पी.एम. को 23 सीटें ही मिल सकी जबकि कांग्रेस 43 सीटें जीत कर प्रमुख विपक्षी दल बन गया।

ऐसा इसलिए हुआ कि सी.पी.एम. के लोगों ने तो कांग्रेसी उम्मीदवारों को मत दे और दिला दिए, पर कांग्रेस समर्थकों ने ऐसा कम ही किया। क्योंकि दशकों तक कांग्रेस समर्थक लोग वाम मोरचा की भीषण हिंसा के शिकार हुए थे।

उत्तर प्रदेश में इस बार के लोकसभा चुनाव में बसपा को 10 सीटें मिल गई जबकि सपा पांच पर ही अटक कर रह गई। जानकार लोग कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में भी पश्चिम बंगाल दुहरा दिया गया।  

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