मौसमी पक्षियों के डाल-बदल यानी दल—बदल के लिए हर चुनाव एक अच्छा मौसम होता है। चुनाव से पहले और चुनाव के बाद खूब दल—बदल होते हैं। इस बार के चुनाव से पहले भी दल बदल हुए। चुनाव के बाद भी होंगे, इसके संकेत मिल रहे हैं।
कई पराजित उम्मीदवारों के बयानों और हाव—भाव से संकेत साफ हैं। वे किसी ऐसे दल में प्रवेश करने की कोशिश में हैं जिसके बल पर वे अगले चुनाव में जीत हासिल कर सकें। लोकसभा नहीं तो विधानसभा ही सही। जो ट्रेन पहले खुल रही हो, उसी पर चढ़ जाना है!
इनमें से कुछ दल—बदलू प्रवेश भी पा जाएंगे। कुछ तो आदतन दल—बदलू हैं। होना तो यह चाहिए कि जो नेता तीन बार पहले ही दल—बदल कर चुका हो, उसे चौथी बार कोई दल स्वीकार न करे। चौथी बार स्वीकार करने का मतलब है बिच्छू की माला पहनना है।
पर कुछ दल डंक झेलने की कीमत पर भी वह माला भी समय-समय पर ग्रहण करते ही रहते हैं। इस बार भी करेंगे ही। पर, उन कार्यकर्ताओं का क्या होगा, जहां के कार्यकर्ताओं का हक मार कर आदतन दल—बदलू उस मजबूत दल के टिकट भी पा जाएंगे?
दरअसल ये आदतन दल—बदलू ताश के पत्तों की तरह हैं। कभी एक हाथ में, तो कभी दूसरे हाथ में। इससे नए लोगों का राजनीति में प्रवेश और विकास रुकता है। इस कारण भी कुछ राजनीतिक दल नदी की जगह तालाब बन गए हैं। तालाब का पानी सड़ सकता है, पर नदी का नहीं।
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद ए.के. एंटोनी ने हार के कुछ कारण बताए थे। उसी साल शशि थरूर ने भी कांग्रेस में नई जान फूंकने के लिए आठ सूत्री सुझाव हाईकमान तक पहुंचाए थे।
हार के कारणों को लेकर एंटोनी की बातें सच से अधिक करीब थीं। पर, कांग्रेस ने गत पांच साल में न तो एंटानी की बातों पर ध्यान दिया और न ही थरूर की बातों को कोई तवज्जो दी।
एक बार फिर थरूर सहित कुछ अन्य लोग कांग्रेस के पुनरुद्धार के लिए सलाह दे रहे हैं। जाहिर है कि उनपर भी कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा। दरअसल कांग्रेस जैसी कुछ पार्टियों के साथ दिक्कत यह है कि कोई भी सलाह उन दलों के सुप्रीमो के चाल, चरित्र, चिंतन में बदलाव की जरूरत नहीं बताती। उतनी हिम्मत है ही नहीं। पर वे भी क्या करें ? सुप्रीमो पर ही पार्टी आधारित है। उन्हें हटा दीजिएगा तो पार्टी बिखर जाएगी। यदि नहीं हटाइएगा तो धीरे -धीरे दुबली होती जाएगी।
नल जल योजना, यानी घर- घर की कहानी। इस महत्वाकांक्षी योजना के जरिए सरकार घर -घर पहुंच रही है। इस योजना के साथ सरकार की छवि भी पहुंच रही है। इसलिए इसके बेहतर कार्यान्वयन की सख्त जरूरत है।
पर शिकायतें आ रही हैं। सोशल आडिट से गड़बडि़यों को रोका जा सकता है। मुजफ्फरपुर शेल्टर होम की सही जांच ‘टिस’ की जिस टीम ने की थी, वैसे ही कर्तव्यनिष्ठ लोगों की टीम से या उसी से नल—जल योजना की भी जांच कराने की जरूरत है।
2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग 60 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए। इनमें सरकारी और गैरसरकारी खर्च शामिल हैं। इसी तरह पूरे देश के विधानसभा चुनावों में अलग से इतने ही या फिर इससे भी अधिक खर्च होंगे। क्या यह जनता के धन का दुरुपयोग नहीं है?
1967 तक दोनों चुनाव एक ही साथ होते थे। इसलिए दोहरे खर्च की नौबत नहीं थी। अब भी यदि देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने लगे तो कितने पैसे बचेंगे ?
2018 में विधि आयोग को नौ राजनीतिक दलों ने साफ—साफ बता दिया कि हम साथ-साथ चुनाव के खिलाफ हैं। क्या 60 हजार करोड़ रुपए बचाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए? पर इस गरीब देश के कितने नेता इस कोशिश के लिए तैयार हैं ? यदि नहीं हैं तो उन्हें इस गरीब देश की जनता किस नाम से पुकारे ? नाम तय कर लीजिए।
सी.पी.एम. ने तो यहां तक कह दिया कि साथ-साथ चुनाव लोकतंत्र के ही खिलाफ है। क्या 1952 से 1967 तक देश में लोकतंत्र नहीं था जब साथ- साथ चुनाव होते थे ?
खबर है कि इस कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार ने कई बड़े महत्व के काम करने का मन बनाया है। पर वैसे कुछ कामों की राह में दिक्कत यह है कि राज्यसभा में राजग का अभी बहुमत नहीं है। बहुमत के लिए 24 सदस्यों की कमी है।
एक आकलन के अनुसार 2022 तक राजग को बहुमत मिल जाएगा। यानी 2022 से 2025 तक की अवधि केंद्र सरकार के लिए सर्वाधिक अनुकूल होगी।
कई पराजित उम्मीदवारों के बयानों और हाव—भाव से संकेत साफ हैं। वे किसी ऐसे दल में प्रवेश करने की कोशिश में हैं जिसके बल पर वे अगले चुनाव में जीत हासिल कर सकें। लोकसभा नहीं तो विधानसभा ही सही। जो ट्रेन पहले खुल रही हो, उसी पर चढ़ जाना है!
इनमें से कुछ दल—बदलू प्रवेश भी पा जाएंगे। कुछ तो आदतन दल—बदलू हैं। होना तो यह चाहिए कि जो नेता तीन बार पहले ही दल—बदल कर चुका हो, उसे चौथी बार कोई दल स्वीकार न करे। चौथी बार स्वीकार करने का मतलब है बिच्छू की माला पहनना है।
पर कुछ दल डंक झेलने की कीमत पर भी वह माला भी समय-समय पर ग्रहण करते ही रहते हैं। इस बार भी करेंगे ही। पर, उन कार्यकर्ताओं का क्या होगा, जहां के कार्यकर्ताओं का हक मार कर आदतन दल—बदलू उस मजबूत दल के टिकट भी पा जाएंगे?
दरअसल ये आदतन दल—बदलू ताश के पत्तों की तरह हैं। कभी एक हाथ में, तो कभी दूसरे हाथ में। इससे नए लोगों का राजनीति में प्रवेश और विकास रुकता है। इस कारण भी कुछ राजनीतिक दल नदी की जगह तालाब बन गए हैं। तालाब का पानी सड़ सकता है, पर नदी का नहीं।
एंटोनी की सलाह थरूर से बेहतर
हार के कारणों को लेकर एंटोनी की बातें सच से अधिक करीब थीं। पर, कांग्रेस ने गत पांच साल में न तो एंटानी की बातों पर ध्यान दिया और न ही थरूर की बातों को कोई तवज्जो दी।
एक बार फिर थरूर सहित कुछ अन्य लोग कांग्रेस के पुनरुद्धार के लिए सलाह दे रहे हैं। जाहिर है कि उनपर भी कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा। दरअसल कांग्रेस जैसी कुछ पार्टियों के साथ दिक्कत यह है कि कोई भी सलाह उन दलों के सुप्रीमो के चाल, चरित्र, चिंतन में बदलाव की जरूरत नहीं बताती। उतनी हिम्मत है ही नहीं। पर वे भी क्या करें ? सुप्रीमो पर ही पार्टी आधारित है। उन्हें हटा दीजिएगा तो पार्टी बिखर जाएगी। यदि नहीं हटाइएगा तो धीरे -धीरे दुबली होती जाएगी।
नल-जल योजना, घर-घर की कहानी
पर शिकायतें आ रही हैं। सोशल आडिट से गड़बडि़यों को रोका जा सकता है। मुजफ्फरपुर शेल्टर होम की सही जांच ‘टिस’ की जिस टीम ने की थी, वैसे ही कर्तव्यनिष्ठ लोगों की टीम से या उसी से नल—जल योजना की भी जांच कराने की जरूरत है।
साथ-साथ चुनाव से 60 हजार करोड़ की बचत
1967 तक दोनों चुनाव एक ही साथ होते थे। इसलिए दोहरे खर्च की नौबत नहीं थी। अब भी यदि देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने लगे तो कितने पैसे बचेंगे ?
2018 में विधि आयोग को नौ राजनीतिक दलों ने साफ—साफ बता दिया कि हम साथ-साथ चुनाव के खिलाफ हैं। क्या 60 हजार करोड़ रुपए बचाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए? पर इस गरीब देश के कितने नेता इस कोशिश के लिए तैयार हैं ? यदि नहीं हैं तो उन्हें इस गरीब देश की जनता किस नाम से पुकारे ? नाम तय कर लीजिए।
सी.पी.एम. ने तो यहां तक कह दिया कि साथ-साथ चुनाव लोकतंत्र के ही खिलाफ है। क्या 1952 से 1967 तक देश में लोकतंत्र नहीं था जब साथ- साथ चुनाव होते थे ?
और अंत में
एक आकलन के अनुसार 2022 तक राजग को बहुमत मिल जाएगा। यानी 2022 से 2025 तक की अवधि केंद्र सरकार के लिए सर्वाधिक अनुकूल होगी।
(सात जून 2019 को प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरे कालम कानोंकान से )
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