हकीकत से मुंह मोड़ती कांग्रेस
सुरेंद्र किशोर
मन का दाग मिटाने की जगह सिर्फ काया पलट की कोशिश से कांग्रेस का कोई कल्याण होेता नजर नहीं आ रहा है।
2014 के लोक सभा चुनाव के बाद एंटोनी कमेटी ने एक तरह से ‘आत्मा की बैटरी चार्ज करने’ की सलाह कांग्रेस हाई कमान को दी थी।
पर, पिछले पांच साल में हाई कमान ने उस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया।सन 2019 के लोक सभा चुनाव में हार के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा।
आज भी कांग्रेस यह समझ रही है कि पार्टी के शीर्ष
पर राहुल गांधी के अलावा किसी अन्य को बैठा देने और कार्य कत्र्ताओं को उनकी तथाकथित अकर्मण्यता के लिए फटकार देने से काम चल जाएगा।
नेताओं के लोगों के पास सिर्फ खाली हाथ पहुंच जाने से भी कांग्रेस का कोई भला नहीं होने वाला ।
मुद्दों के ईंधन के बिना वंशवाद की गाड़ी भी अधिक दिनों तक नहीं चल सकती।
कांग्रेस 1984 के बाद कभी लोक सभा में पूर्ण बहुमत नहीं पा सकी तो इसका कारण हाई कमान को अपने ही भीतर झांक कर ही खोजना होगा ।
पर क्या कभी झांका ? क्या बाहर या भीतर के सलाहकारों ने कभी हाईकमान को ऐसा करने की सलाह दी ?
शायद कभी हिम्मत नहीं रही।उधर लगता है कि अधिकतर राजनीतिक पंडितों को कांग्रेस के लगातार दुबले होते जाने के असली कारणों की समझ ही नहीं है।
हां, ए.के. एंटोनी को इसकी समझ जरूर रही है।यदि खुली छूट के साथ उनको नेतृत्व सौंपा जाता तो फर्क पड़ सकता था।
पर संभवतः उन्हें भी लगता है कि वंश तंत्र के आधार पर चल रही पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से उन्हें वैसी छूट नहीं मिलेगी।
क्योंकि दाग चेहरे पर है,पर आईना साफ कर रहा है शीर्ष नेतृत्व !
स्वास्थ्य कारणों से एंटोनी ने राहुल गांधी की जगह अध्यक्ष पद संभालने में अपनी असमर्थता प्रकट कर दी है।
पर, यह भी संभव है कि उन्होंने सोचा होगा कि जब नीतियां-कार्य नीतियां हमारी नहीं चलेंगी तो फिर सिर्फ नेतृत्व
संभाल लेने से पार्टी के भविष्य पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
याद रहे कि करीब पांच साल पहले पूर्व रक्षा मंत्री ए.के.एंटोनी ने हाई कमान को समर्पित अपनी रपट में साफ -साफ कहा था कि 2014 के लोक सभा चुनाव में हमारी हार इसलिए हुई क्योंकि लोगों में यह धारणा बनी कि कांग्रेस
धार्मिक अल्पसंख्यकों के पक्ष में पूर्वाग्रहग्रस्त है।
इसलिए बहुमत मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर हुआ।
एंटोनी के अनुसार भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति और दल में अनुशासनहीनता हार के अन्य कारण थे।
जब कांग्रेस हाई कमान ने एंटोनी की सलाह पर ध्यान तक नहीं दिया तो अब सवाल उठता है कि कांग्रेस के पुनरुद्धार की कितनी गुंजाइश बची हुई है ?
कम से कम दो अवसरों पर कांग्रेस नेतृत्व ने मुद्दों के जरिए कांग्रेस को चुनावी सफलता के शीर्ष पर पहुंचा दिया था।भले वे मुद्दे बाद में नकली साबित हुए,पर तब की स्थिति में मुद्दे तो वे थे ही।
1969 में हुए कांग्रेस के महा विभाजन के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की सरकार लोक सभा में अल्पमत में आ गई थी।
कम्युनिस्ट और द्रमुक की मदद से सरकार चल रही थी।
इंदिरा गांधी और उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस का भविष्य अनिश्चित हो चुका था।
पर इंदिरा गांधी ने साहस के साथ जनपक्षी नारे उछाले।‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया।
साथ ही,उनकी सरकार ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके यह धारणा बनाई कि निजी बैंक गरीबी हटाने की राह में बाधक हैं।
क्योंकि वे गरीबों को कर्ज नहीं देते।
साथ ही उन्होंने राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार खत्म किए।
ऐसे कुछ अन्य कदम भी उठाए।
भले आगे चलकर वे कदम लाभकारी नहीं रहे,पर तब गरीबों को लगा था कि इंदिरा गांधी हमारे लिए काम कर रही हैं।
नतीजतन 1971 के लोक सभा चुनाव और 1972 के विधान सभा चुनावों में इंदिरा कांगेस ने भारी सफलता हासिल की।
जबकि संगठन यानी अधिकतर छोटे- बड़े तपे -तपाए कांग्रेस कार्यकत्र्ता दल विभाजन के समय मूल कांग्रेस यानी ‘संगठन कांगे्रस’ के साथ ही रह गए थे।
जब मुद्दों के ईंधन उपलब्ध थे तो कार्यकत्र्ताओं की कमी इंदिरा गांधी को नहीं खली।
आज जब मुद्दे नहीं हैं तो प्रियंका गांधी चुनावी हारके लिए कार्यकत्र्ताओं का फटकार रही हैं।
संजय गांधी के निधन के बाद जब राजीव गांधी को पार्टी का महा सचिव बनाया गया तो उनकी छवि ‘मिस्टर स्वच्छ’ की बनी थी।
उनकी ही पहल पर देश के तीन विवादास्पद कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों को पद से हटाया गया था।
इंदिरा गांधी की 1984 में हुई हत्या के कारण उपजी जन सहानुभूति के साथ -साथ राजीव गांधी की स्वच्छ छवि भी 1984 में कांग्रेस की अभूतपूर्व जीत का कारण बने।
आज कांग्रेस के शीर्ष परिवार के साथ -साथ अनेक बड़े नेताओं की एक खास तरह की छवि बन चुकी है ।प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों कहा था कि भ्रष्टाचार और गरीबी के लिए कांग्रेस को जिम्मेवार मानते हुए लोगों ने कांग्रेस को ‘बेल गाड़ी’ कहना शुरू कर दिया है।
प्रथम परिवार के सदस्य भ्रष्टाचार के मुकदमों के कारण बेल पर है यानी जमानत पर है।
2014 की शर्मनाक चुनावी पराजय के बाद 2019 में तो कांग्रेस को 18 प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों में लोक सभा की एक भी सीट नहीं मिली।
मान लिया कि आज के कांग्रेस नेतृत्व को इंदिरा गांधी की तरह कोई लोक लुभावन नारा गढ़ना तक नहीं आता।
पर वह एंटोनी कमेटी की कम से कम कुछ सलाहों को मान कर अपनी बेहतरी की कोशिश कर ही सकती थी।
भले केंद्र में कांग्रेस की अब सरकार नहीं है,पर अपनी राज्य सरकारों के जरिए तो यह साबित करने की कोशिश कर ही सकती थी कि उस पर भ्रष्टाचार का आरोप सही नहीं है।पर उल्टे मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार पर कुछ ही महीने के कार्यकाल में एक बड़े घोटाले का आरोप लग गया।
2014 की पराजय के बाद कांग्रेस में नई जान फंूकने के लिए आठ सूत्री सुझाव के साथ शशि थरूर ने इंडिया टूडे में लंबा लेख लिखा था।उनमें एक सूत्र यह भी था कि कांग्रेस ‘बीजेपी को राष्ट्रवाद पर एकाधिकार कायम न करने दे।’
पर पुलवामा और बालाकोट तथा रोहिग्या घुसपैठ आदि के मामलों में कांग्रेस का व्यवहार ऐसा रहा जिससे भाजपा को ही लाभ मिल गया।
अब लगता है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ‘मन के गहरे दाग’ को मिटाने की क्षमता खो चुकी है,इसीलिए हार के कारण कहीं और ही खोजे जा रहे हैं।
या फिर नरेंद्र मोदी सरकार के अलोकप्रिय होने की प्रतीक्षा कांग्रेस कर रही है।
पर,उसे यह वास्तविकता समझ में नहीं आ रही है कि नरेंद्र मोदी पूर्णकालिक राज नेता हैं।
उनके पास सरकार भी है । उन्हें जनहित में पहल करने और फैसले लेने की सुविधा है।मोदी की छवि व्यक्तिगत रूप से एक ईमानदार नेता की है।
गत चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘नरेंद्र मोदी की ताकत उनकी इमेज है, इसे मैं खराब कर दूंगा।मैंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है।’
ऐसी ही गलतफहमियां राहुल गांधी और उनकी पार्टी के लिए लगातार नुकसानदेह साबित हुई हंै।
जिसकी छवि स्वच्छ है,उसे भला कोई खराब कैसे कर सकता है !
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जिम्मेवार व मजबूत विपक्ष की उपस्थिति जरूरी है।
पर यदि कांग्रेस व उसके नेता इसी तरह गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करते रहे तो उससे खुद कांग्रेस और लोकतंत्र का कोई भला नहीं होने वाला है।
क्या यह कोई मामूली बात है कि जब किसी प्रदेश कांग्रेस कमेटी में कोई आंतरिक झगड़ा होता है और उसे शांत करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष की जरूरत पड़ती है तो पता चलता है कि राहुल गांधी विदेश में छुट्टी मना रहे हैं।
दूसरी ओर प्रधान मंत्री और भाजपा अध्यक्ष ने एक दिन की छुट्टी नहीं ली।
यदि कांग्रेस में जिम्मेवारी की भावना विकसित नहीं हुई तो अगले चुनाव में भाजपा पिछले चुनाव की अपेक्षा भी अधिक सीटें पा सकती है।
@इस लेख का संपादित अंश 21 जून, 2019 के दैनिक जागरण में प्रकाशित@
सुरेंद्र किशोर
मन का दाग मिटाने की जगह सिर्फ काया पलट की कोशिश से कांग्रेस का कोई कल्याण होेता नजर नहीं आ रहा है।
2014 के लोक सभा चुनाव के बाद एंटोनी कमेटी ने एक तरह से ‘आत्मा की बैटरी चार्ज करने’ की सलाह कांग्रेस हाई कमान को दी थी।
पर, पिछले पांच साल में हाई कमान ने उस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया।सन 2019 के लोक सभा चुनाव में हार के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा।
आज भी कांग्रेस यह समझ रही है कि पार्टी के शीर्ष
पर राहुल गांधी के अलावा किसी अन्य को बैठा देने और कार्य कत्र्ताओं को उनकी तथाकथित अकर्मण्यता के लिए फटकार देने से काम चल जाएगा।
नेताओं के लोगों के पास सिर्फ खाली हाथ पहुंच जाने से भी कांग्रेस का कोई भला नहीं होने वाला ।
मुद्दों के ईंधन के बिना वंशवाद की गाड़ी भी अधिक दिनों तक नहीं चल सकती।
कांग्रेस 1984 के बाद कभी लोक सभा में पूर्ण बहुमत नहीं पा सकी तो इसका कारण हाई कमान को अपने ही भीतर झांक कर ही खोजना होगा ।
पर क्या कभी झांका ? क्या बाहर या भीतर के सलाहकारों ने कभी हाईकमान को ऐसा करने की सलाह दी ?
शायद कभी हिम्मत नहीं रही।उधर लगता है कि अधिकतर राजनीतिक पंडितों को कांग्रेस के लगातार दुबले होते जाने के असली कारणों की समझ ही नहीं है।
हां, ए.के. एंटोनी को इसकी समझ जरूर रही है।यदि खुली छूट के साथ उनको नेतृत्व सौंपा जाता तो फर्क पड़ सकता था।
पर संभवतः उन्हें भी लगता है कि वंश तंत्र के आधार पर चल रही पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से उन्हें वैसी छूट नहीं मिलेगी।
क्योंकि दाग चेहरे पर है,पर आईना साफ कर रहा है शीर्ष नेतृत्व !
स्वास्थ्य कारणों से एंटोनी ने राहुल गांधी की जगह अध्यक्ष पद संभालने में अपनी असमर्थता प्रकट कर दी है।
पर, यह भी संभव है कि उन्होंने सोचा होगा कि जब नीतियां-कार्य नीतियां हमारी नहीं चलेंगी तो फिर सिर्फ नेतृत्व
संभाल लेने से पार्टी के भविष्य पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
याद रहे कि करीब पांच साल पहले पूर्व रक्षा मंत्री ए.के.एंटोनी ने हाई कमान को समर्पित अपनी रपट में साफ -साफ कहा था कि 2014 के लोक सभा चुनाव में हमारी हार इसलिए हुई क्योंकि लोगों में यह धारणा बनी कि कांग्रेस
धार्मिक अल्पसंख्यकों के पक्ष में पूर्वाग्रहग्रस्त है।
इसलिए बहुमत मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर हुआ।
एंटोनी के अनुसार भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति और दल में अनुशासनहीनता हार के अन्य कारण थे।
जब कांग्रेस हाई कमान ने एंटोनी की सलाह पर ध्यान तक नहीं दिया तो अब सवाल उठता है कि कांग्रेस के पुनरुद्धार की कितनी गुंजाइश बची हुई है ?
कम से कम दो अवसरों पर कांग्रेस नेतृत्व ने मुद्दों के जरिए कांग्रेस को चुनावी सफलता के शीर्ष पर पहुंचा दिया था।भले वे मुद्दे बाद में नकली साबित हुए,पर तब की स्थिति में मुद्दे तो वे थे ही।
1969 में हुए कांग्रेस के महा विभाजन के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की सरकार लोक सभा में अल्पमत में आ गई थी।
कम्युनिस्ट और द्रमुक की मदद से सरकार चल रही थी।
इंदिरा गांधी और उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस का भविष्य अनिश्चित हो चुका था।
पर इंदिरा गांधी ने साहस के साथ जनपक्षी नारे उछाले।‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया।
साथ ही,उनकी सरकार ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके यह धारणा बनाई कि निजी बैंक गरीबी हटाने की राह में बाधक हैं।
क्योंकि वे गरीबों को कर्ज नहीं देते।
साथ ही उन्होंने राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार खत्म किए।
ऐसे कुछ अन्य कदम भी उठाए।
भले आगे चलकर वे कदम लाभकारी नहीं रहे,पर तब गरीबों को लगा था कि इंदिरा गांधी हमारे लिए काम कर रही हैं।
नतीजतन 1971 के लोक सभा चुनाव और 1972 के विधान सभा चुनावों में इंदिरा कांगेस ने भारी सफलता हासिल की।
जबकि संगठन यानी अधिकतर छोटे- बड़े तपे -तपाए कांग्रेस कार्यकत्र्ता दल विभाजन के समय मूल कांग्रेस यानी ‘संगठन कांगे्रस’ के साथ ही रह गए थे।
जब मुद्दों के ईंधन उपलब्ध थे तो कार्यकत्र्ताओं की कमी इंदिरा गांधी को नहीं खली।
आज जब मुद्दे नहीं हैं तो प्रियंका गांधी चुनावी हारके लिए कार्यकत्र्ताओं का फटकार रही हैं।
संजय गांधी के निधन के बाद जब राजीव गांधी को पार्टी का महा सचिव बनाया गया तो उनकी छवि ‘मिस्टर स्वच्छ’ की बनी थी।
उनकी ही पहल पर देश के तीन विवादास्पद कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों को पद से हटाया गया था।
इंदिरा गांधी की 1984 में हुई हत्या के कारण उपजी जन सहानुभूति के साथ -साथ राजीव गांधी की स्वच्छ छवि भी 1984 में कांग्रेस की अभूतपूर्व जीत का कारण बने।
आज कांग्रेस के शीर्ष परिवार के साथ -साथ अनेक बड़े नेताओं की एक खास तरह की छवि बन चुकी है ।प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों कहा था कि भ्रष्टाचार और गरीबी के लिए कांग्रेस को जिम्मेवार मानते हुए लोगों ने कांग्रेस को ‘बेल गाड़ी’ कहना शुरू कर दिया है।
प्रथम परिवार के सदस्य भ्रष्टाचार के मुकदमों के कारण बेल पर है यानी जमानत पर है।
2014 की शर्मनाक चुनावी पराजय के बाद 2019 में तो कांग्रेस को 18 प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों में लोक सभा की एक भी सीट नहीं मिली।
मान लिया कि आज के कांग्रेस नेतृत्व को इंदिरा गांधी की तरह कोई लोक लुभावन नारा गढ़ना तक नहीं आता।
पर वह एंटोनी कमेटी की कम से कम कुछ सलाहों को मान कर अपनी बेहतरी की कोशिश कर ही सकती थी।
भले केंद्र में कांग्रेस की अब सरकार नहीं है,पर अपनी राज्य सरकारों के जरिए तो यह साबित करने की कोशिश कर ही सकती थी कि उस पर भ्रष्टाचार का आरोप सही नहीं है।पर उल्टे मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार पर कुछ ही महीने के कार्यकाल में एक बड़े घोटाले का आरोप लग गया।
2014 की पराजय के बाद कांग्रेस में नई जान फंूकने के लिए आठ सूत्री सुझाव के साथ शशि थरूर ने इंडिया टूडे में लंबा लेख लिखा था।उनमें एक सूत्र यह भी था कि कांग्रेस ‘बीजेपी को राष्ट्रवाद पर एकाधिकार कायम न करने दे।’
पर पुलवामा और बालाकोट तथा रोहिग्या घुसपैठ आदि के मामलों में कांग्रेस का व्यवहार ऐसा रहा जिससे भाजपा को ही लाभ मिल गया।
अब लगता है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ‘मन के गहरे दाग’ को मिटाने की क्षमता खो चुकी है,इसीलिए हार के कारण कहीं और ही खोजे जा रहे हैं।
या फिर नरेंद्र मोदी सरकार के अलोकप्रिय होने की प्रतीक्षा कांग्रेस कर रही है।
पर,उसे यह वास्तविकता समझ में नहीं आ रही है कि नरेंद्र मोदी पूर्णकालिक राज नेता हैं।
उनके पास सरकार भी है । उन्हें जनहित में पहल करने और फैसले लेने की सुविधा है।मोदी की छवि व्यक्तिगत रूप से एक ईमानदार नेता की है।
गत चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘नरेंद्र मोदी की ताकत उनकी इमेज है, इसे मैं खराब कर दूंगा।मैंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है।’
ऐसी ही गलतफहमियां राहुल गांधी और उनकी पार्टी के लिए लगातार नुकसानदेह साबित हुई हंै।
जिसकी छवि स्वच्छ है,उसे भला कोई खराब कैसे कर सकता है !
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जिम्मेवार व मजबूत विपक्ष की उपस्थिति जरूरी है।
पर यदि कांग्रेस व उसके नेता इसी तरह गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करते रहे तो उससे खुद कांग्रेस और लोकतंत्र का कोई भला नहीं होने वाला है।
क्या यह कोई मामूली बात है कि जब किसी प्रदेश कांग्रेस कमेटी में कोई आंतरिक झगड़ा होता है और उसे शांत करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष की जरूरत पड़ती है तो पता चलता है कि राहुल गांधी विदेश में छुट्टी मना रहे हैं।
दूसरी ओर प्रधान मंत्री और भाजपा अध्यक्ष ने एक दिन की छुट्टी नहीं ली।
यदि कांग्रेस में जिम्मेवारी की भावना विकसित नहीं हुई तो अगले चुनाव में भाजपा पिछले चुनाव की अपेक्षा भी अधिक सीटें पा सकती है।
@इस लेख का संपादित अंश 21 जून, 2019 के दैनिक जागरण में प्रकाशित@
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