बुधवार, 26 जून 2019


  --नगरों की व्यस्त सड़कों पर भी हर तरह के वाहनों को छूट क्यों ?--
पटना सहित बिहार के नगरों की व्यस्त सड़कों पर भी हर तरह के वाहनों को छूट मिली हुई है।
 सड़क जाम का यह एक बड़ा कारण है।
 पटना सहित बिहार के नगरों में तीव्र गति वाले छोटे -बड़े आॅटोमोबाइल से लेकर  धीमी गति वाले ठेले भी साथ -साथ चलते देख जा सकते हैं।
सड़कों की दोनों तरफ काबिज हठी अतिक्रमणकारियों की समस्या अलग से है।उनके सामने शासन-कोर्ट तक लाचार नजर आते हैं।कहीं -कहीं ही शासन राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाता है।बाकी जगह भगवान भरोसे !
 मुख्य सड़कों से धीमी गति वाले वाहनों को हटाने की मांग लंबे समय से होती रही है।
पर सत्तासीनों को लगता है कि इससे उनके वोट कम हो सकते हैं।
 पर अब सत्ताधारियों के पास वोट की कोई कमी नहीं है । आनेवाले दिनों में तो वे बढ़ने ही वाले हैं ।तो फिर रोज -रोज रोड जाम में मददगार  बनने वाले थोड़े से वोटरों की परवाह क्यों ?
वैसे अतिक्रमण से पीडि़त लोग भी तो मतदाता ही हैं।उनकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक है।
 -शासन की इच्छा शक्ति से हटा आर.ब्लाॅक -दीघा रोड से अतिक्रमण -
पटना की आर.ब्लाॅक-दीघा सड़क संभवतः अगले साल बन कर तैयार हो जाएगी।
 सड़क करीब सवा छह किलोमीटर लंबी होगी और चार लेन वाली सड़क होगी।
  पहले उस जमीन पर रेलवे लाइन थी।
वर्षों की माथा पच्ची के बाद रेलवे महकमा  वह जमीन बिहार सरकार को देने पर हाल में राजी हुआ।
  पर रेलवे के किनारे अतिक्रमणकारियों का स्वर्ग था।खटालों के अलावा कई मंदिर भी थे।प्रभावशाली लोगों ने निजी मकान तक बना रखा था।
पटना हाई कोर्ट के दबाव और शासन की  राजनीतिक इच्छा शक्ति से अतिक्रमण अंततः हट गया।
इस मार्ग के तैयार हो जाने पर जाम पीडि़त पटनावासियों को बहुत राहत मिलेगी।
  बिहार सरकार को चाहिए कि वह राज्य के अनेक नगरों और पटना के बाकी अतिक्रमणों को भी निमर्मतापूर्व हटाए।
अतिक्रमण हटने से जितने लोग नाराज होंगे,उससे कई गुना लोग सरकार से खुश होंगे। 
राज्य के प्रत्येक छोटे -बड़े नगर जाम से परेशान रहते हैं।
अतिक्रमण हटने और सड़कें चैड़ी होने से गर्भवती महिलाओं और गंभीर रूप से घायल तथा  बीमार मरीजों को  काफी राहत मिलेगी।
अतिक्रमणों को न सिर्फ सड़कों के किनारे से हटाने की जरूरत है बल्कि सरकारी जमीनों से भी अतिक्रमण हटे।
हटा कर वहां ‘आक्सीजन जोन’ बनाया जा सकता है।
 -इस बार विधान सभाओं को भंग करने की मांग नहीं !-
आपातकाल के दौर की बात है। जनवरी ,1977 में  लोक सभा चुनाव की घोषणा हो गई थी।
उसके तत्काल बाद एक अखबार के लिए मैंने जय प्रकाश नारायण से लंबी बातचीत की थी।
उन्होंेने  कहा था कि यदि हम लोक सभा चुनाव में हम जीत गए तो विधान सभाओं के चुनाव भी करवा देंगे।
जनता पार्टी लोक सभा चुनाव जीत कर केंद्र की सत्ता में आ गई।मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने।
उसके बाद  कई विधान सभाओं को समय से पहले भंग कर उनके चुनाव करवा दिए गए।
वहां भी जनता पार्टी की सरकारें बन गईं।
1980 के लोक सभा चुनाव के बाद  इंदिरा गांधी एक बार फिर केंद्र की  सत्ता में आ गर्इं।
उन्होंने इस मामले में जनता पार्टी का अनुसरण किया। 
कई विधान सभाओं के मध्यावधि चुनाव उन्होंने भी 
करवा दिए ।
वहां भी  कांग्रेस पुनः  सत्ता में आ गई।
 सन 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद राजग केंद्र की सत्ता में आ गया।फिर भी  राजग ने यह मांग नहीं की कि उन राज्य विधान सभाओं को भंग कर देना चाहिए जहां राजग को वहां के सत्ताधारी दल से अधिक मत मिले हैं।
 --वर्षा जल संचयन के लिए चेक डैम जरूरी--
वर्षा जल का अधिक अंश  हम लोग हर साल यूं ही 
समुद्र में चले जाने देते हैं।
पर बाकी दिनों में हम पानी के लिए तरसते हैं।क्योंकि हम जल संचय नहीं करते।
अब कुछ लोग एक खास सपने दिखा रहे हैं।
वे कह रहे हैं कि  समुद्र के खारा जल को साफ करके हम अपना आगे वाले जल संकट के दिनों में काम चला लेंगे।
इस बीच वर्षा जल संचयन के अनेक उपाय हो सकते हैं।
पर उसमें एक बड़ा उपाय  यह है कि छोटी नदियों पर भी चेक डैम यानी छोटे -छोटे बांध बनवाए जाएं।
उससे वर्षा जल नदियों में रूकेगा जो बरसात के बाद भी काम आएगा।
सिंचाई हो सकेगी।
 साफ करके उसका इस्तेमाल पेय जल के रूप में भी किया जा सकता है। इस बीच उस रुके हुए जल से धरती में  पुनर्भरण होता रहेगा।
अधिकतर तालाबों पर अवैध कब्जा है।लोगबाग अधिकतर  कंुओं को भी भर चुके हैं।
  उनकी उड़ाही भी होनी चाहिए।
पर उससे पहले छोटी नदियों में चेक डैम यानी छोटे बांध  बनने जरूरी हंै।
दरअसल अधिकतर इंजीनियर बड़े बांधों के ही पक्ष में रहते हैं।
कारण अघोषित  है।पर ऐसे ही मौके पर राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत पड़ती है।  
 दिक्कत यह है कि जल संकट पर चर्चा सिर्फ गर्मी के दिनों ही होती है।बरसात शुरू होते ही लोग बेफिक्र हो जाते हैं।
 - भूली बिसरी याद आपात काल की -
अमरीकी पत्रकार--‘सैटरडे रिव्यू’ से एक भेंट में हाल में आपने कहा था कि भारत में जो कुछ किया गया,यानी इमरजेंसी लगाई गई,वह लोकतंत्र का त्याग नहीं है,वरन उसे बचाने की कोशिश है।
जब आप मुक्त पे्रस ,निर्बाध अभिव्यक्ति और असहमति का अधिकार --लोकतंत्र की इन बुनियादी बातों को प्रतिबंधित कर देती हैं तो लोकतंत्र की रक्षा कैसे कर सकती हैं ?
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी--लोकतंत्र में दो प्रकार के उत्तरदायित्व होते हैं।
यह उत्तरदायित्व सरकार का होता है कि वह मुक्त प्रेस, निर्बाध अभिव्यक्ति और निर्बाध संगठन आदि की सुविधा दे।
लेकिन दूसरों की भी जिम्मेदारी होती है कि वह लोकतंत्रीय नियमों का पालन करे।लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा था।यही वजह है कि मौजूदा स्थिति पैदा हुई।
यह सवाल नहीं था कि सारा देश कुछ चाह रहा हो।
ऐसे लोग अल्पमत में थे।
चुनाव को कुछ महीने ही बाकी रह गए थे और यदि वे इंतजार करते तो उनको जनता का निर्णय मिल जाता।
लेकिन प्रतिपक्ष के एक नेता ने कहा कि इसका निर्णय सड़कों पर किया जाएगा।
एक दूसरे नेता ने कहा कि संपूर्ण क्रांति की अवश्यकता है।और उसने न सिर्फ औद्योगिक मजदूरों को बल्कि सेना और पुलिस को भी भड़काने की कोशिश की ।
यह चीज किसी तरह लोकतंत्र को मजबूत नहीं बना सकती थी।
  --और अंत में--
स्वामी रामदेव--हम दो, हमारे दो।
नरेंद्र मोदी--एक नेशन, एक इलेक्शन।
आम जन-एक परिवार, एक उम्मीदवार !
--21 जून 2019 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से--



कोई टिप्पणी नहीं: