शुक्रवार, 14 जून 2019

गरीब देश में भी कम्युनिस्टों का यह हाल


सन् 1929 के चर्चित मेरठ षड्यंत्र केस ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत बनाया तो 2007 की सिंगूर-नंदीग्राम की घटनाओं ने साम्यवादी दलों के अवसान की बुनियाद रख दी। याद रहे कि मेरठ षडयंत्र केस में कई कम्युनिस्ट नेता आरोपित थे। आज तो कम्युनिस्ट दलों की चुनावी दुर्दशा देख कर उनके कुछ राजनीतिक विरोधियों को भी उन पर दया आ रही होगी। अनेक गरीब मर्माहत और पस्तहिम्मत होंगे।

याद रहे कि विशेष आर्थिक जोन के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण के कारण सिंगूर-नंदीग्राम में वाम मोरचा सरकार के खिलाफ बड़ा जन आंदोलन हुआ था। भारत जैसे गरीब देश में कम्युनिस्टों की दिन प्रति दिन पतली हो रही हालत के लिए आखिर कौन जिम्मेवार रहे ? कम्युनिस्ट नेतृत्व, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, सर्वहारा, आम जन, आर्थिक उदारीकरण या कोई अन्य तत्व? इसी के साथ यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि इस देश में कम्युनिस्ट दलों का पुनरुद्धार अब संभव भी है या नहीं।

पहली नजर में ही यह लगता है कि जिस तरह कम्युनिस्ट आंदोलन के उत्थान के लिए मुख्यतः उसके नेतृत्व को श्रेय जाता है तो उसके अवसान के लिए भी तो उसी को जिम्मेवारी लेनी होगी। जहां तक पुनरुत्थान की बात है तो इस मामले में कुछ भी भविष्यवाणी करना जोखिम भरा काम है।

इस देश की कम्युनिस्ट पार्टियां शुरू से ही भारत भूमि के अनुसार खुद को कभी पूरी तरह ढाल नहीं सकी। दुनिया के अन्य कम्युनिस्ट देश तो अपनी भूमि के एक-एक इंच की रक्षा के मामले में वे ‘राष्ट्रवादी’ रहे हैं। पर, हमारे देश के कम्युनिस्ट रक्षा में लगी सरकार को ‘अंध राष्ट्रवादी’ तो कभी हिन्दूवादी कहने लगते हैं।

इस दुनिया में जब-जब दो कम्युनिस्ट देश आपस में लड़े तो वहां कौन अंध राष्ट्रवादी था और कौन किसी धर्म का शासन अपने देश पर थोपना चाहता था? दूसरे देश के कम्युनिस्ट इस बात की चिंता करते हैं कि उनके देश को कौन- कौन से देश घेरने की कोशिश कर रहे हैं। पर केरल सी.पी.एम. के सचिव कहते हैं कि अमेरिका, आस्ट्रेलिया और भारत मिलकर चीन को घेरना चाहते हैं। 

सामाजिक न्याय यानी पिछड़ा आरक्षण की कोई अवधारणा कम्युनिस्ट शब्दकोष में नहीं है। कम्युनिस्टों ने लगातार इस रणनीति पर काम किया कि साम्प्रदायिक तत्वों यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए किसी भी राजनीतिक दल का, चाहे वह कितना भी भ्रष्ट, वंश-तंत्रवादी और अक्षम हो, साथ दिया जाना चाहिए।

क्या वे भाजपा को रोक पाए ?

नब्बे के दशक तक यहां के कम्युनिस्टों के एक बड़े तबके की स्थानीय रणनीति इसी आधार पर बनती थी जिससे सोवियत संघ या चीन के हितों को नुकसान न हो। अब भला ऐसी नीतियां इस देश की कितनी जनता को प्रभावित कर सकती हैं ?

स्थापना के शुरू के वर्षों में तो युवाओं में कम्युनिस्ट रूमानियत और सोवियत तथा चीन की क्रांतियों की प्रेरणा से दल बढ़े। बोलेविया के जंगलों में क्रांति के लिए शहादत देने वाले क्यूबा के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री चे ग्वेवारा एक जमाने में यहां के हजारों युवाओं के प्रेरणा स्रोत थे।

पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु सरकार ने भूमि सुधार के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम उठाए थे। उससे वाम मोरचा को भारी जन समर्थन मिला। तब अधिकतर कम्युनिस्टों के साफ-सुथरे निजी जीवन ने भी लोगों को प्रभावित किया।

पर, लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के कारण किसी भी दल में जो कमजोरियां पनपती हैं, उनके शिकार होने से कम्युनिस्ट भी बचे नहीं रहे। तालाब का पानी सड़ने लगा। पश्चिम बंगाल की वाम सरकार की अलोकप्रियता बढ़ती गई। शासन के अंतिम वर्षों में बूथ जाम और साइंटिफिक रिगिंग के जरिए चुनाव जीता गया। पर वह कब तक चलता? 

वैसे भी सफेद कमीज पर हल्का धब्बा भी कुछ अधिक ही दिखाई पडने लग़ता है।

कम्युनिस्ट नेताओं में एक खास खूबी है। वे यदाकदा अपनी गलतियों को भरसक सार्वजनिक रूप से स्वीकारते हैं। उन्हें दुरुस्त करने की कोशिश भी करते है। पर एक समय ऐसा आया जब कम्युनिस्ट नेतृत्व ने सुधार की ताकत खो दी। पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री ज्योति बसु यह लगातार कहते रहे कि हमारी पार्टी में भ्रष्ट और अपराधी तत्व घुस आए हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। कुछ कार्रवाइयां हुईं भी। पर जरूरत के अनुपात में काफी कम। यानी नेता कमजोरियों की चर्चा करते रहे और कमजोरियां बढ़ती चली गईं। इसे किसकी विफलता मानें ?

2009 में सी.पी.एम. के महासचिव प्रकाश करात ने कहा कि सत्ता और पैसों की लालच ने पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट आंदोलन के शानदार इतिहास को धूमिल कर दिया। उधर सीताराम येचुरी ने 2016 में अपनी ही पार्टी की केरल सरकार में जारी भाई-भतीजावाद के खिलाफ आवाज उठाई। उधर ज्योति बसु ने 1994 में कहा कि ‘भारत की विशेष परिस्थितियों में जाति भी महत्वपूर्ण है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।’ क्या ध्यान दिया गया ?

हां, 2009 में लोकसभा चुनाव में हार के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने कुछ कदम जरूर उठाए।पर तब तक देर हो चुकी थी। 2011 में राज्य की सत्ता वाम मोरचा के हाथों से निकल गई।  सी.पी.आई. के महासचिव ए.बी. वर्धन ने तब कहा था कि ‘भ्रष्टाचार और अहंकार ने वाम मोर्चा को आमजन से अलग कर दिया और हम चुनाव हार गए। वामपंथी खुद को बदलें।’    

कतिपय वाम नेताओं ने पहले तो वोटबैंक को मजबूत करने के लिए पश्चिम बंगाल में बंगला देशियों के अवैध प्रवेश का रास्ता साफ किया, पर जब पश्चिम बंगाल के राज्य सात जिलों में शासन चलाना कठिन हो गया तो राजनीतिक कार्यपालिका की तरफ से कहा गया कि राज्य में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. सक्रिय हो गया है। मदरसों में खास तरह की शिक्षा दी जा रही है।

वाम नेताओं के इस आरोप का अल्पसंख्यक समुदाय के सामाजिक नेताओं ने सख्त विरोध किया। ममता बनर्जी ने उन्हें हाथों -हाथ लिया। इस तरह अल्पसंख्यक मतदाता धीरे -धीरे ममता बनर्जी की ओर खिसकते चले गए। अल्पसंख्यकों के बीच के अतिवादियों के तुष्टिकरण के मामले में ममता वाम से आगे निकल गई। आम अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए दोनों में से किसी ने भी कोई खास नहीं किया। उसका राजनीतिक खामियाजा अब ममता बनर्जी भी भुगत रही हैं।

यदि हिंदी प्रदेशों में वाम दल मजबूत रहे होते तो बंगाल-केरल-त्रिपुरा के नुकसानों की क्षतिपूर्ति अखिल भारतीय स्तर पर हो सकती थी। पर नेतृत्व की अदूरदर्शी नीतियों के कारण कभी बिहार में मजबूत रही सी.पी.आई. भी समय के साथ कमजोर होती चली गई।

मंडल आंदोलन और मंदिर आंदोलन के कारण भी कम्युनिस्ट पार्टियां कमजोर हुई हैं। अनेक वर्णों  के बदले सिर्फ दो वर्गों की उपस्थिति में विश्वास करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों को हिंदी प्रदेशों में मंडल आंदोलन ने नुकसान पहुंचाया है।

लालू प्रसाद-मुलायम सिंह यादव का बिना शर्त साथ देने के कारण सवर्णों का कम्युनिस्टों के प्रति आकर्षण घटा। साथ ही, पिछड़ों का समर्थन नहीं बढ़ा क्योंकि पिछड़ों का आकर्षण राजद, सपा और जदयू की ओर अधिक रहा । बिहार में तो लालू प्रसाद के धृतराष्ट्र आलिंगन में कम्युनिस्ट चकनाचूर हो गए।

हिंदी पट्टी में अपेक्षाकृत अधिक गरीबी भी है। गरीबों के बीच कम्युनिस्टों के प्रसार की गुंजाइश अधिक रहती है। इसके बावजूद यदि कम्युनिस्ट पार्टियां मुरझा गईं तो इसके लिए इन दलों की रणनीतियां और कार्य नीतियां ही जिम्मेदार रही हैं।

क्या उनमें सुधारकी कोई गुंजाइश बची है ?

साठ- सत्तर के दशक तक कम्युनिस्ट व सोशलिस्ट दलों के नेता व कार्यकर्ता हर साल कोई न कोई आंदोलन करके जेल जाते थे। जेलों में वे अपने काॅडर का राजनीतिक शिक्षण भी करते थे।  पर, लगता है कि उनमें संघर्ष का पहले जैसा माद्दा नहीं बचा। नए लोग दल से जुड़ नहीं रहे हैं।

याद रहे कि संघर्ष और शिक्षण के कारण जनता की नई जमात पार्टी से जुड़ती है। पर, दुर्भाग्यवश भारत जैसे गरीब देश में, जहां विषमता बढ़ती जा रही है, कम्युनिस्ट पार्टियां मुरझा रही हैं।

(14 जून 2019 के प्रभात खबर में प्रकाशित)

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