सोमवार, 30 अप्रैल 2018

 उत्तर प्रदेश हाई स्कूल परीक्षा में लगभग 75 प्रतिशत और इंटर परीक्षा में लगभग 72 प्रतिशत परीक्षार्थी इस साल पास हुए।
इस नतीजे को देखने से पहली नजर में मुझे यह लगता है कि वहां शासन कोशिश के बावजूद परीक्षा में कदाचार रोकने में विफल रहा।
हालांकि परीक्षा केंद्रों में इस बार वहां सी.सी.टी.वी.कैमरे भी लगाए गए थे।
  यदि कदाचार पूरी तरह रुक गए होते तो इतने अधिक परीक्षार्थी पास नहीं करते।
यह समस्या बिहार सहित लगभग पूरे देश की है।
जिन्हें अगली पीढि़यों की चिंता है,वे अब भी मिल बैठकर गंभीर चिंतन करें कि कैसे इस देश की शिक्षा व परीक्षा की स्थिति  सुधरे। 

रविवार, 29 अप्रैल 2018

इस देश के एक अखबार के बड़े  संपादक  ने एक बार   कहा था कि अखबार का मालिक संपादक को जितनी स्वतंत्रता देता है, प्रेस की स्वतंत्रता वही है।
पर यदि संपादक उस स्वतंत्रता का सदुपयोग करे तो उतनी स्वतंत्रता भी पर्याप्त है।


शनिवार, 28 अप्रैल 2018

कुछ आंकड़े गुमराह करते हैं।
2016 में उत्तर प्रदेश में कुल 4889 हत्याएं हुईं।
अखबारों में छपा कि सर्वाधिक हत्याएं उत्तर प्रदेश में हुईंं।
क्या यह कहना सही है ?पता नहीं।
 यदि देश में सबसे अधिक  आबादी 
उत्तर प्रदेश की है तो स्वाभाविक है कि वहां का आंकड़ा अधिक होगा ।पर क्या आबादी के अनुपात में भी यह आंकड़ा 
अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक है ?
खबरों में तो यह स्पष्ट नहीं होता  है।
 उसी तरह आज के अखबार में भड़काऊ भाषणों के संबंध में 
एक आंकड़ा छपा है।
खबर के अनुसार ओवैसी के दल के कुल 9 में से पांच विधायकों के खिलाफ भड़काऊ भाषण के आरोप में मुकदमे चल रहे हैं।
 17 भाजपा  विधायकों के खिलाफ मुकदमे हैं।
ओवैसी के एक सांसद हैं।उनके खिलाफ भी ऐसे आरोप हैं।
भाजपा के लोक सभा सदस्यों की संख्या 282 है।उनमें से 
10 भाजपा लोक सभा सदस्यों के खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं।
भाजपा विधायकों की कुल संख्या में सैकड़ों में है।सिर्फ यू.पी.में सवा तीन सौ भाजपा विधायक हैं।
यानी विधायकों का आंकडा देते समय  प्रतिशत और अपराध का आंकड़ा देते समय यदि जनसंख्या का अनुपात दिया जाए तो बेहतर रहेगा। 

---वीर कंुवर सिंह के विजय की अनकही-अनसुनी कहानी ---

  
हर साल 23 अप्रैल को वीर कुंवर सिंह का विजयोत्सव मनाया जाता है।
सब जानते हैं कि उस दिन अंग्रेजों के साथ युद्ध में कुंवर
सिंह की सेना विजयी रही।पर पराजित अंग्रेजों की सेना का
क्या हाल रहा, वह एक अंग्रेज अफसर की जुबानी सुनिए।
यह विवरण पंडित सुंदर लाल ने अपनी मशहूर पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के दूसरे खंड के पेज नंबर-930 पर दर्ज किया  है।
   ‘‘वास्तव में इसके बाद जो कुछ हुआ,उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है।
लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल मंे भागना शुरू किया।शत्रु बराबर हमें पीछे से पीटता रहा।हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे।
एक निकृष्ट गंदे छोटे से पोखर को देखकर वे घबरा कर उसकी तरफ लपके।
इतने में कुंवर सिंह के सवारों ने हमें पीछे से आ दबाया।
इसके बाद हमारी जिललत की कोई हद न रही।
हमारी विपत्ति चरम सीमा को पहुंच गई।
हम में से किसी में शर्म तक न रही।
जहां जिसको कुशल दिखाई दी, वह उसी ओर भागा।
अफसरों की आज्ञाओं की किसी ने परवाह नहीं की।
व्यवस्था और कवायद का अंत हो गया।
चारों ओर आहों ,श्रापों और रोने के सिवा कुछ सुनाई न देता था।मार्ग में अंग्रेजों के गिरोह के गिरोह मारे गए।किसी को दवा मिल सकना भी असंभव था।क्योंकि हमारे अस्पतालों पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर लिया था।
कुछ वहीं गिर कर मर गए।बाकी को शत्रु ने काट डाला।
हमारे कहार डोलियां रख -रख की भाग गए।
सब घबराए हुए थे,सब डरे हुए थे।सोलह हाथियों पर सिर्फ हमारे घायल साथी लदे हुए थे।
स्वयं जनरल लीगै्रैण्ड की छाती में एक गोली लगी और वह मर गया।
हमारे सिपाही अपनी जान लेकर पांच मील से ऊपर दौड़ चुके थे।उनमें अब अपनी बंदूक उठाने तक की शक्ति नहीं रह गयी थी।
सिखों को वहां की धूप की आदत थी।
उन्होंने हमसे हाथी छीन लिए और हमसे आगे भाग गए।
गोरों का किसी ने साथ न दिया।
199 गोरों में से 80 इस भयंकर संहार से जिंदा बच सके।
हम वहंां केवल बध के लिए गए थे।इतिहास लेखक ह्वाइट लिखता है कि ‘इस अवसर पर अंग्रेजों ने पूरी और बुरी हार खाई।
अंग्रेजी सेना की सब तोपें और असबाब कुंवर सिंह के हाथ आया।
इस युद्ध की पृष्ठभूमि का वर्णन पंडित संुदर लाल ने इन शब्दों में किया है,
‘22 अप्रैल को राजा कंुवर सिंह ने फिर जगदीश पुर में प्रवेश किया।कुंवर ंिसंह के भाई अमर सिंह ने पहले से कुछ स्वयंसेवकों का एक दल कुंवर सिंह की सहायता के लिए जमा कर रखा था।
जगदीश पुर पर फिर से कुंवर सिंह का कब्जा हो गया।
आरा के अंग्रेज अफसर चकित हो गए।
23 अप्रैल को लीग्रैण्ड के अधीन कम्पनी की सेना जगदीश पुर पर दोबारा हमला करने के लिए आरा से चली।
आठ महीने कुंवर सिंह और उसकी सेना के लगातार संग्राम और कठिन यात्रा में बीते थे।
जगदीश पुर पहुंचे उसे 24 घंटे भी न हुए थे ।कुंवर सिंह का दाहिना हाथ कट चुका था।
 उसके पास सेना भी एक हजार से अधिक न थी।
,उसके मुकाबले में लीग्रैण्ड की सेना सुसज्जित और ताजा थी।
तोपें भी इस सेना के साथ थीं।
कुंवर सिंह के पास उस समय कोई तोप नहीं थी।
जगदीश पुर से डेढ़ मील के फासले पर लीग्रैण्ड और कुंवर सिंह की सेना में संग्राम हुआ।
लीग्रैण्ड की सेना में कुछ अंग्रेज और अधिकांश सिख थे।
किंतु मैदान पूरी तरह कुंवर सिंह के हाथों रहा।
@2018@
    

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

---व्यवसाय के क्षेत्र में छोटी शुरूआत से भी सफलता की अच्छी गुंजाइश--



बिहार के लोगों ने मेघालय से लेकर मारीशस तक जाकर जैसी  उद्यमशीलता दिखाई,उसकी आधी उद्यमशीलता भी यदि अपनी जन्मभूमि में पहले से ही दिखाई होती तो न सिर्फ वे खुद प्रगति करते बल्कि बिहार को भी बहुत आगे ले गए होते।हालांकि अब भी देर नहीं हुई है।
वैसे यहां उद्यमशीलता जरूर है,पर आम तौर वह सीमित समुदायों में ही अधिक है।
  हालांकि अब जहां-तहां आम उद्यमशीलता भी दिखाई पड़ने लगी  रही है,पर जरूरत के अनुसार उसमें  विस्तार की अभी काफी गुंजाइश  है।
बिहार के बांका जिले के अमर पुर प्रखंड से ऐसी ही एक खबर आई है जहां की महिलाएं दुधारू पशुओं के पालन के जरिए अच्छी कमाई कर रही है।
2007 में वहां शुरूआत एक  गाय से हुई थी।  
दूसरी ओर राज्य के  अनेक हिस्सों में  ऐसी छोटी  शुरूआत कम ही  हो पाती है।इसके कई कारण हैं।कुछ मामलों में निजी अहंकार और कुछ मामलों में जातीय श्रेष्ठता बोध भी है।
इससे  व्यवसाय के क्षेत्र में कुछ अन्य राज्यों की तरह बिहार आगे नहीं बढ़ पा रहा है।
 इसी देश के कुछ राज्यों के कुछ लोगों ने छोटे व्यवसाय शुरू करके काफी आर्थिक तरक्की की है।उनके यहां जाकर छोटी-बड़ी नौकरी करना अनेक बिहारियों को मंजूर है,पर खुद अपने यहां किसी  छोटे व्यवसाय से शुरू कर आगे बढ़ने में हिचक मौजूद  है।जबकि, यह कहानी अब आम है कि चर्चित हस्ती  धीरूभाई अम्बानी ने गैस स्टेशन के अटेंडेंट के रूप में काम शुरू करके व्यवसाय जगत में अपना अत्यंत ऊंचा स्थान बनाया।   
  बिहारियों को अम्बानी बंधुओं के यहां शान से नौकरी करना मंजूर है,पर बड़े अम्बानी की तरह मामूली शुरूआत करके अन्य लोगों को नौकरी देना लायक खुद को बनाना मंजूर नहीं है।
यह बात सच है कि सब अम्बानी नहीं बन सकते।पर कोशिश करने में क्या बुराई है ?ऐसा भी नहीं मामूली शुरूआत करके ऊंचे लक्ष्य हासिल ही नहीं किए जा सकते।
 कभी तो आलू-प्याज उपजाने से भी था परहेज --- 
आजादी के तत्काल बाद बिहार के अनेक गांवों में कई सवर्ण किसान आलू-प्याज उपजाने में भी अपनी तौहीन मानते थे।
वे सिर्फ गेहूं-मकई-धान-गन्ना  उपजाते थे।
  दूसरी ओर समय के साथ जो  आलू-प्याज-हरी सब्जी  उपजाने वालों के यहां जब अधिक  नकदी आने लगी तो परंपरागत खेती करने वालों का रुख बदलने लगा।
वे आलू-प्याज पर तो आए पर हरी सब्जी की खेती तब भी उनसे दूर थीं।
 परंपरागत खेती करने वालों में से जब कई लोगों की जमीन आलू-प्याज-हरी सब्जी तथा पशु पालन वाले लोग खरीदने लगे तो उनमें भी थोड़ी चेतना जगी।
अब वे हरी -सब्जी उगाने लगे हैं।पर यदि अपने ही गांव में कोई बाजार जम गया तो भी वे छोटी दुकानदारी से शुरूआत करने को अब भी अधिकतर लोग तैयार नहीं हैं।इसी अवसर पर धीरू भाई अम्बानी याद आते हैं।
यदि बिहार के अधिक कल्पनाशील लोग छोटे व्यवसाय से शुरू करें तो न सिर्फ देर -सवेर उनका आर्थिक विकास होगा बल्कि राज्य भी आगे बढ़ेगा।खास कर वैसे व्यवसाय के विकास की अधिक जरूरत है जो कृषि से जुड़ा हुआ है।जैसे दुधारू पशुओं का पालन।  
    आसाराम यानी ऊंट पहाड़ के नीचे--
जब आसाराम की तूती बोतली थी तो किसी ने इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि यह ऊंट भी पहाड़ के नीचे आएगा।पर कहते हैं कि ‘देर है लेकिन अंधेर नहीं है।’
 यह भी सच है कि  सारे ऊंट अब भी पहाड़ के नीचे नहंीं आ पा रहे हैं।पर कल भी नहीं आएंगे,इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।
 प्रशासन, व्यापार,राजनीति तथा अन्य क्षेत्रों के कई छोटे -बड़े आसाराम यानी ऊंट समय-समय पर पहाड़ के नीचे आते ही रहेंगे।
जो नहीं आ रहे हैं,वे सब बच ही जाएंगे,इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।आसाराम के हश्र को देखते हुए तो यही लगता है।
 इसलिए अन्य क्षेत्रों के ‘हे, आसारामो अभी से संभल जाओ ! 
पता नहीं ,कब तुम्हारी भी बारी आ जाए !’
   आरक्षण का यू.पी.फार्मूला---
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में डालने के प्रस्ताव पर काम कर रही है।
हालांकि यह पुराना प्रस्ताव है,पर कुछ कारणवश रुक गया था।
सपा-बसपा  गंठजोड़ के कारण दबाव में आई भाजपा सरकार को यह लगता है कि यदि इसे लागू कर दिया गया तो उससे बसपा कमजोर होगी।
योगी सरकार के पिछड़ा कल्याण मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने  एक अन्य प्रस्ताव मुख्य मंत्री को समर्पित  किया है।उस प्रस्ताव के अनुसार पिछड़ों के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन हिस्सों में बांट देना है ताकि कमजोर पिछड़ों को भी आरक्षण का पूरा लाभ मिल सके। 
 देखना है कि योगी सरकार की इस पहल का सपा-बसपा किस तरह से जवाब देगी।  
   एक भूली-बिसरी याद---
गांधी  जन्म शताब्दी समारोह में शामिल होने के लिए  खान अब्दुल गफ्फार खान सन 1969 में पाकिस्तान से  भारत आये थे।
उसी साल गुजरात में हुए  दंगे में करीब सात सौ लोगों की जानें गयी थीं।
   दंगे की पीड़ा कम करने ,पीडि़तों के घाव पर मलहम लगाने और सांंप्रदायिक सद्भाव कायम रखने की सलाह देने के लिए गफ्फार खान गुजरात के दंगाग्रस्त इलाकों में ग्यारह दिनों तक रहे।
 उन्होंने मुसलमानों और हिंदुओं के बीच से अविश्वास व बैमनस्य के जहर को निकालने के लिए गुजरात की दर्जनों सभाओं में भाषण किये।
  याद रहे कि बादशाह खान नहीं चाहते थे कि भारत बंटे।गुजरात में खान अब्दुल गफ्फार खान को 1969 में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच निर्भीक रूप से कुछ ऐसी बातें भी कहते सुना गया जैसी बातें भारतीय नेता कहने का साहस नहीं रखते।खान अब्दुल गफ्फार खान ने वहां  हिंदुओं से कहा कि ‘मैं मानता हूं कि आप राष्ट्रोत्थान का काम करते हैं। मगर मुझे महसूस होता है कि आपलोग यह काम सिर्फ हिंदू समाज में करते हैं। इसलिए आप लोगों से मेरी इल्तिजा है कि आप मुसलमानों की ओर भी ध्यान दें। उनमें भी नई चेतना पैदा करने की कोशिश करें।’उन्होंने  मुुसलमानों से कहा कि जो सच्चा मुसलमान है,वह कभी भी किसी पर जुल्म करने की बात नहीं सोच सकता।’उन्होंने अहमदाबाद में मुसलमानों की एक भीड़ को संबोधित करते हुए यह भी कहा कि ‘उस पर खुदा का कहर पड़ेगा जो अपने    
मुल्क के साथ वफादारी नहीं करेगा।’
   खान साहब ने गुजरात विदयापीठ में आयोजित पदवी दान समारोह में विद्यापीठ के स्नातकों व अन्य श्रोताओं से कहा कि ‘मुसलमान यदि कुछ गलत ढंग से व्यवहार करते दिखाई दे रहे हैं तो उसका मुख्य कारण यह है कि मुसलमान समाज ने कभी वास्तविक नेतृत्व पैदा ही नहीं किया।स्वतंत्रता से पूर्व विदेशियों के साथ जो संघर्ष हुआ,उसमें भी नेतृत्व हिंदुओं के पास था और मुसलमानों को मुस्लिम लीग के हवाले कर दिया गया। लीग के नेता जनता के वास्तविक नेता नहीं थे। इसलिए आज हम देखते हैं कि जो राजनीतिक चेतना इस देश के हिंदुओं में है,मुसलमानों में उसका अभाव है।’
      बादशाह खान ने कहा कि ‘ मैं आपके पास इसलिए आया हंू क्योंकि आप इस सांप्रदायिक तनाव कम करने के लिए सलाह मशविरा करने के लिए आप मेरे पास नहीं आये।’
            और अंत में---
1985 में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ओडि़सा के सूखाग्रस्त कालाहांडी गए थे।
वहां उन्होंने कहा कि हम दिल्ली से 100 पैसे भेजते हैं।पर उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जरूरतमंद लोगों तक पहुंच पाते हैं।
  राजीव जी ने जो कुछ कहा था,वैसा तो एक दिन में नहीं हुआ होगा।यानी आजादी के बाद से ही रुपये के ‘घिसने’ का काम शुरू हो गया था।कल्पना कीजिए कि सौ मेें से साठ पैसे भी पहुंच गए होते तो बिहार सहित पूरे देश का आजतक कितना अधिक विकास हो गया होता !
 @प्रभात खबर -बिहार--27 अप्रैल 2018 को प्रकाशित मेरे कानोंकान काॅलम से@


एक आदर्श शिक्षक जंगल बाबा

सारण जिले के दिघवारा का जय गोविंद उच्च विद्यालय कोई गुरुकुल तो नहीं था,एक सामान्य स्कूल था,पर उसके शिक्षक राम जंगल सिंह गुरु जरूर थे।
 मैं 1959 से 1961 तक वहां का छात्र था। तब के वहां के प्रधानाध्यापक हरिहर बाबू भी बहुत योग्य व सम्मानित शिक्षक थे,पर राम जंगल बाबू जिन्हें हम लोग 
‘जंगल बाबा’ कहते थे,की अपनी अलग एक नैतिक सत्ता थी।

 जंगल बाबा वेश भूषा और पोशाक से लेकर विषयों की जानकारी तक नीचे से ऊपर तक गुरु दिखते थे।
  स्कूल के बरामदे पर उनके पैर  रखते ही हम विद्यार्थी जल्द अपनी- अपनी कक्षाओं में प्रवेश कर जाते थे और स्कूल का वातावरण बिलकुल शांत हो जाता था।
 वे एक तरह के स्कूल के अभिभावक ही थे। इलाके एक संपन्न व्यक्ति जय गोविंद पांडेय ने जंगल बाब की प्रेरणा सेे ही हाई स्कूल की स्थापना की। पांडेय जी की शत्र्त थी कि राम जंगल बाबू को भी शिक्षक और अभिभावक स्वरूप स्कूल में कार्यरत रहना पड़ेगा।
वे रहे भी।

हमारे जमाने में एक से एक योग्य शिक्षक उस स्कूल में थे। पर जंगल बाबा सबके गुरु थे।  किसी भी अन्य शिक्षक की अनुपस्थिति में कोई क्लास खाली नहीं जाता था। क्योंकि जंगल बाबा हर ताले की चाभी थें। वे हर विषय आसानी से पढ़ा लेते थे।

बी.एच.यू. के छात्र रहे जंगल बाबा दो साल तक इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी कर चुके थे। पर स्वास्थ्य खराब रहने के कारण वे आगे पढ़ाई नहीं कर सके थे।उन्हें दिघवारा लौटना पड़ा था।

सारण जिले के दिघवारा के मूल निवासी जंगल बाबा का जन्म 1902 में हुआ था और नवंबर, 1985 में निधन हो गया। पर जब तक जीवित रहे, उन्हें सब लोग सम्मान की नजरों से देखते थे। कभी किसी विवाद में नहीं रहे। उनके नाम पर इन दिनों राम जंगल सिंह इंटर कालेज दिघवारा में चलता है। जंगल बाबा के परिवार के सदस्य अशोक कुमार सिंह के अनुसार उन्हें राहुल सांकृत्यायन का भी सानिध्य मिला था।

जंगल बाबा ने छपरा स्थित राजपूत उच्च विद्यालय  से इंट्रेंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी। उसके बाद काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में दाखिला लिया।
जंगल बाबा वहां भरूचा छात्रावास में रहते थे जहां जगजीवन राम और जयप्रकाश नारायण के छोटे भाई राजेश्वर लाल इनकी मित्र मंडली में थे।

 आईएससी करने के बाद राम जंगल सिंह ने इंजीनियरिंग काॅलेज में दाखिला लिया। पर अचानक अस्वस्थ हो जाने के कारण पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी।
चाहे गांधी की आंधी हो या जेपी का आंदोलन, जंगल बाबा ने लोगों की चेतना जगाने का काम किया।

मुझे गर्व है कि मैंने भी जय गोविंद विद्यालय में जंगल बाबा से शिक्षा पाई।उन्हें आटर््स व साइंस सभी विषयों में  समान रूप से महारत हासिल था।जंगल बाबा न सिर्फ एक आदर्श शिक्षक थे बल्कि उनका व्यक्तित्व भी आदर्श था। 
  

बुधवार, 25 अप्रैल 2018

--- डा.आम्बेडकर चाहते थे मंत्रियों को मिले पर्याप्त वेतन---



  
   डा.बी.आर.आम्बेडकर चाहते थे कि इस देश के मंत्रियों को पर्याप्त वेतन मिले तभी प्रतिभाएं इस पद के लिए सामने  आएंगी।उन्होंने बम्बई विधान सभा में सन 1937 में अपने भाषण में यह बात कहीं। तब वे बम्बई लेजिस्लेटीव एसेम्बली के सदस्य थे।
  यह हमेशा ही विवादास्पद मुददा रहा है कि इस गरीब देश में मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के लिए  कितना वेतन तय किया जाना चाहिए।
याद रहे कि विधायक और सांसद ही अपने तथा मंत्रियों के लिए  वेतन -भत्ता विधायिका में पेश तत्संबंधी विधेयक के जरिए तय करते हैं। इस सिलसिले में सदन में चर्चा होती है।इस संबंध में पेश विधेयक आम तार पर सर्वसम्मति से ही पास होता है।
    इस विषय में एक पक्ष यह कहता है कि भारत के आम लोगों की औसत आय के अनुपात में ही जन प्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते भी तय होने चाहिए।दूसरा पक्ष यह कहता है कि काम और पद की जरूरतों के अनुसार वेतन तय होने चाहिए।
   इस संबंध में डा.आम्बेडकर के विचार जानना महत्वपूर्ण है।याद रहे कि डा.आम्बेडकर बाद में संविधान सभा की ड्राफिटंग समिति के अध्यक्ष भी बनाये गये थे।
   नब्बे के दशक में ए.के.राय ने सांसदों -विधायकों के लिए धुंआधार वेतन-भत्ते बढ़ोत्तरी की प्रवृति की तीखी आलोचना की थी।धनबाद से सांसद रहे माक्र्सवादी मजदूर नेता ए.के. राय ने लिखा था कि जब देश आजाद हुआ था,उस समय औसत आय के मामले में बिहार को देश में पांचवां स्थान प्राप्त था।अभी बिहार इस मामले में देश में 26 वें स्थान पर है।उस समय देश के अन्य राज्यों की तरह ही यहां के विधायकों को भी सीमित सुविधाएं प्राप्त थीं।इसके बाद जैसे -जैसे बिहार की आम जनता की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गई,वैसे-वैसे यहां केे विधायकों की स्थिति और बेहतर होती गई।यहां राजनीतिक दलों के बीच आपसी दूरी कम हुई और जनता और विधायकों के बीच दूरी बढ़ी।राजनीतिक दलों के बीच दूरी घटने का प्रमाण यह है कि विधायकों की सुविधाओं वाले विधेयकों में मुख्य मंत्री और विरोधी दल के नेता एकमत रहे हैं।इस अपवित्र सहमति ने लोकतांत्रिक संस्था और देश के भविष्य के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है।संविधान में निहित अभिप्राय का इस प्रकार का घोर उलंघन पीडि़त जनता को हतवाक कर दिया है।’ इस महौल में विधायकों के लिए वेतन बढाना जनता के घाव पर नमक छिड़कने जैसा है।
    पर इससे ठीक विपरीत  डा.आम्बेडकर ने कहा था कि किसी मंत्री के लिए मात्र पांच सौ रुपये का वेतन समुचित नहीं है।
    डा.आम्बेडकर के भाषण और ए.के. राय के लेख के सामने आने के बाद 
 इस मामले में यह देश काफी आगे बढ़ चुका है।अर्जुनसेन गुप्त समिति की रपट के अनुसार जहां की 77 प्रतिशत आबादी की रोज की औसत आय मात्र बीस रुपये हैं,वहां के प्रति सांसद पर हर माह लाख रुपये से भी अधिक सरकार खर्च कर रही है।कई राज्यों के विधायकों को भी इस तरह की सुविधाएं मिल रही हैं।ऐसे में डा.आम्बेडकर के तर्कों को जानना -पढ़ना महत्वपूर्ण होगा।
   डा.आम्बेडकर ने कहा था कि मैं अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहता हूं।क्योंकि पांच सौ रुपये के वेतन को बहुत कम बताने से मुझे गलत समझा जा सकता है।मेरा यह कहना नहीं है कि अंतरिम मंत्रिपरिषद द्वारा सुझाया गया चार हजार रुपये अथवा तीन हजार रुपये का वेतन मानक वेतन था।मैं स्वयं को किसी आंकड़े तक सीमित नहीं करना चाहता।मैं तो केवल इतना कहना चाहता हूं कि एक मंत्री के लिए पांच सौ समुचित वेतन नहीं है।
   उन्होंने कहा कि यदि प्रशासन में लोगों का विश्वास हम जगाना चाहते हैं तो मेरे अनुसार यह उचित नहीं है कि मंत्री गलियों में अधूरे कपड़े पहन कर जाएं।अपना शरीर प्रदर्शन करें।सिगरेट के स्थान पर बीड़ी पिएं।अथवा तीसरे दर्जे या बैलगाड़ी से यात्रा करें।
@ शाजी जोसेफ के संपादकत्व में प्रकाशित पाक्षिक पत्रिका ‘पब्लिक एजेंडा’ में छपे मेरे लेख का छोटा अंश@ 
   

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

पुण्य तिथि पर ‘दिनकर’ की याद में
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 24 अप्रैल 1974 को  राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का  निधन हुआ  था।
 उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु ने तत्काल उन पर एक कविता लिखी।कविता जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखी गयी थी।
प्रस्तुत है वह ऐतिहासिक  कविता जो ‘दिनमान’ के 5 मइर्, 1974 के अंक में छपी थी। 
 ‘हां,याद है।
उच्चके जब मंचों से गरज रहे थे
हमने उन्हें प्रणाम किया था
पहनाया था हार।
भीतर प्राणों में काट रहे थे हमें
हमारे वे पाप
हमारी बुझी ज्वाला को धधका कर
हमें अग्निस्नान करा कर पापमुक्त
खरा बनाया।
पल विपल हम अवरुद्ध जले
धारा ने रोकी राह,हम विरुद्ध चले
हमें झकझोर कर तुमने जगाया था
‘रथ के घर्घर का नाद सुनो.........’.
‘आ रहा देवता जो, उसको पहचानो....’
‘अंगार हार अरपो  रेे........’.
वह आया सचमुच, एक हाथ में परशु
और दूसरे में कुश लेकर
किंतु..... तुम ही रूठ कर चले गये।
विशाल तम तोम और चतुर्दिक घिरी
घटाओं की व्याकुलता से अशनि जनमी,
धुओं और उमस में छपप्टाता हुआ प्रकाश
खुल कर बाहर आया।
किंतु तुम.........?
अच्छा ही किया , तुम सप्राण
नहीं आये।नहीं तो, पता नहीं क्या हो जाता ?
यहां,     
जवानी का झंडा उड़ाते 
कालकूट पिये और भाल पर अनल किरीट लिये
कृपाण, त्याग, तप,साधना, यज्ञ, जप को टेरते 
गरजते, तरंग से भरी आग भड़काते
तुम्हारे बाग के असंख्य अनल कुसुम 
तुम्हारी अगुआनी में आंखें बिछाकर
प्रस्तुत थे............
उनकी जवानियां लहू में तैर तैर कर
नहा रही थीं।
ऐसे में तुम आते 
तो पता नहीं, और क्या क्या होता,
पता नहीं ,अब तक क्या क्या हो जाता,
और, तब तुमको फासिस्ट और चीनी 
और अमेरिकी और देसी सेठों की दलाली
और देशद्रोह के जुर्म में 
निश्चय ही देश से बाहर निकाल दिया जाता।
पता नहीं कहां.....किस देश ..

किस हिमालय और गंगाविहीन देश में
अच्छा ही किया ,चले गये
उत्तर की दिव्य ,कंचन काया को 
दक्षिण की माटी माता की गोद में छोड़
बाहर ही बाहर ,भले गये।
हमें क्षमा करना,कविवर विराट्।
हम तुम्हारी आत्मा की शांति के बदले 
उसको अपनी काया की एकांत और पवित्र 
कोने में 
प्रतिष्ठित करने की कामना करते हैं।
ताकि ,जहां कहीं भी अनय हो उसे रोक सकें,
जो करें पाप शशि सूर्य भी,उन्हें टोक सकें
हमारे भीतर जो एक नया अंगार भर रहा है।
बस वही एक आधार है हमारा।
कपट शोकातुर मुखौटा लगा
रुआंसी आवाज में ,गले को कंप कंपा
तुमको श्रद्धांजलि देने का नाटक
हम नहीं करेंगे।
तुम तो जीवित हो,जीवित रहोगे हमारे बीच
तेजोदीप्त।
मरने को हमेशा दोपहरी के तिमिर
तुम्हारे दुश्मन ही मरेंगे।
इस बार जब गांव जाकर ,
उत्तर की ओर निहारूंगा 
हिमालय के स्वर्ण शिखरों में देखूंगा
एक और नया शिखर
निश्चय ही--दिनकर।
इसे क्या संयोग ही कहेंगे ?
तुम्हारी शव यात्रा से लौटकर बैठा ही था
कि पड़ोस में कहीं रेडियोग्राम पर
साधक गायक हरींद्रनाथ का भावाकुल कंठस्वर-
‘सूर्य अस्त हो गया
गगन मस्त हो गया,सूर्य अस्त हो गया।’ 



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सोमवार, 23 अप्रैल 2018

----कांग्रेस ने तो 1993 में महाभियोग से साफ बचा लिया था जज रामास्वामी को ----


        
1993 में जब कांग्रेस के पास संसद में बहुमत था,तब तो कपिल सिबल और कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के एक जज को   महाभियोग से साफ बचा लिया था।
पर अब जब बहुमत नहीं है तो प्रचार के लिए महाभियोग प्रस्ताव पेश कर दिया।
जबकि आज न्यायिक क्षेत्र का बहुमत मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग के पक्ष में नहीं  है।
इस बीच  राज्य सभा के सभापति ने उसे 
रिजेक्ट कर दिया है।
  आज का प्रचार भी राजनीतिक फायदे के लिए ही है।सन 1993 का बचाव भी राजनीतिक लाभ के लिए था।
सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश वी.रामास्वामी के खिलाफ संसद में पेश महाभियोग को विफल इसलिए किया गया क्योंकि  कांग्रेस को दक्षिण भारत के एक खास समुदाय के वोट से वंचित होने का खतरा था।  आरोप है कि इस बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ अभियान इसलिए चलाया जा रहा है  ताकि उससे कांग्रेस का  वोट बढ़े।   
एक तरफ जहां रामास्वामी के खिलाफ आरोप इतने गंभीर थे कि एक को छोड़कर तब सुप्रीम कोर्ट के कोई भी जज रामास्वामी के साथ बंेच में बैठने तक को तैयार नहीं थे।
आज जब मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव राज्य सभा के सभापति के समक्ष पेश किया गया तो सभापति ने यह कह कर उसे अस्वीकार कर दिया कि पहली नजर में ही देखने पर कोई केस नहीं बनता।   
 सन 1993 में रामास्वामी के बचाव में कपिल सिबल ने वकील के रूप में संसद में लगातार छह घंटे तक बहस की थी।
आज वही कपिल सिब्बल कांग्रेस नेता के रूप में मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ जारी अभियान के अगुआ हैं।
  याद रहे कि  ग्यारह मई, 1993 को लोक सभा में जस्टिस वी.रामास्वामी के खिलाफ पेश महाभियोग प्रस्ताव इसलिए गिर गया क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने सदन में चर्चा के दौरान उपस्थित रहते हुए भी मतदान में भाग ही नहीं लिया। प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 196 मत पड़े। ध्यान देने लायक बात यह रही कि महाभियोग प्रस्ताव के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा।यानी जिन सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया,वे लोग भी रामास्वामी के पक्ष में खड़े होने का नैतिक साहस नहीं रखते थे।
दरअसल अन्य कारणों से कांग्रेस ने पहले ही यह फैसला कर लिया था कि रामास्वामी को बचाना है।याद रहे कि वी.रामास्वामी के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बावजूद कांग्रेस ने उन्हें अंततः बचा ही लिया।
   माक्र्सवादी सांसद सोमनाथ चटर्जी द्वारा  प्रस्तुत महाभियोग प्रस्ताव पर लोक सभा में दस मई, 1993 को सात घंटे तक बहस चली।रामास्वामी पर लगाये गये आरोपों के बचाव में  कपिल सिब्बल ने  मुख्यतः यह बात कही कि खरीदारी का काम जस्टिस रामास्वामी ने नहीं बल्कि संबंधित समिति ने किया था। महाभियोग पर लोक सभा में इस चर्चा को दूरदर्शन के जरिए प्रसारित किया जा रहा था। ग्यारह मई को फिर इस पर नौ घंटे की बहस चली।सोमनाथ चटर्जी ने चर्चा का जवाब दिया।रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग के मामले में ऊपरी तौर पर तो कांग्रेस ने अपने सदस्यों को विवेक के आधार पर मतदान करने की छूट दे दी,पर भीतर -भीतर उन्हें कह दिया गया कि रामास्वामी को बचा लेना है।इसके कई प्रमाण सामने आये। क्या एक ही साथ सभी कांग्रेसी सांसदों के विवेक ने कहा कि रामास्वामी के खिलाफ वोट मत करो ? इतना ही नहीं,लोक सभा मंे ंजब -जब रामास्वामी के वकील कपिल सिब्बल ने कोई जोरदार तर्क पेश किया तो कांग्रेसी सदस्यों ने खुशी में मेजें थपथपाईं। विधि मंत्री हंस राज भारद्वाज टोका टोकी के बीच कपिल सिब्बल का ही पक्ष लेते रहे।
    लोक सभा तो रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव नहीं पास कर सका,पर सुप्रीम कोर्ट के अधिकतर  साथी जजों ने रामास्वामी के साथ  बेंच मेें बैठने से इनकार कर दिया। आखिरकार 14 मई 1993 को रामास्वामी ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी। 
 जिन न्यायमूत्र्ति को कांग्रेस व कपिल सिबल ने बचाया था,उनके खिलाफ  आरोपों पर गौर करें । नवंबर, 1987 और अक्तूबर 1989 के बीच पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में वी.रामास्वामी ने अपने आवास व कार्यालय के लिए सरकारी निधि से पचास लाख रुपये के गलीचे और फर्नीचर खरीदे।यह काम निविदा आमंत्रित किए बिना और नकली तथा बोगस कोटेशनों के आधार पर किया गया।दरअसल ये फर्नीचर खरीदे ही नहीं गये थे।पर कागज पर खरीद दिखा दी गई।यह खर्च राशि, खर्च सीमा से बहुत अधिक  थी।
  जस्टिस वी.रामास्वामी ने चंडीगढ़ में अपने 22 महीने के कार्यकाल में गैर सरकारी फोन काॅलों के लिए आवासीय फोन के बिल के 9 लाख 10 हजार रुपये का भुगतान कोर्ट के पैसे से कराया।मद्रास स्थित अपने आवास के फोन के बिल का भी पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट से भुगतान कराया।वह बिल 76 हजार 150 रुपये का था।इसके अलावा भी कई अन्य गंभीर आरोप वी.रामास्वामी पर थे। 
  रामास्वामी  ऐसे जज थे जिन्हें तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने आतंकवादियों के खिलाफ मुकदमे निपटाने के लिए मुख्य न्यायाधीश बनवा कर चंडीगढ़ भेजा था।ऐसा संवेदनशील काम जिसके जिम्मे हो,उस ऐसा आरोप ? पर उन्होंने वहां चीफ जस्टिस के रूप में भी आतंकवादियों के मुकदमों को लेकर कोई उल्लेखनीय काम नहीं किए।वे जब तक रहे टाडा के अभियुक्त धुआंधार जमानत पाते रहे। 
  --- सुरेंद्र किशोर--23 अप्रैल 2018 

जब वीर कुंवर सिंह से लगातार सात लड़ाइयां हार गई थीं कंपनी की फौजें


         
 ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजें  सात युद्धों में जिस  भारतीय राजा से हार गयी थी ,उस राजा का नाम था बाबू वीर कुंवर सिंह ।वीर कुंवर सिंह की याद में बिहार में बड़े पैमाने पर 23 अप्रैल को विजयोत्सव मनाया जाता है।
बिहार के जगदीश पुर के कंुवर सिंह जब अंग्रेजों से लड़ रहे थे, तब उनकी उम्र 80 साल  थी।यह बात 1857 की है।
  याद रहे कि  भोज पुर जिले के जगदीश पुर नामक पुरानी राजपूत रियासत के प्रधान  को सम्राट् शाहजहां ने  राजा की उपाधि दी थी।
  मशहूर पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के यशस्वी लेखक पंडित सुंदर लाल ने उन सात युद्धों का विस्तार से विवरण लिखा है।
  लेखक के अनुसार ‘जगदीश पुर के राजा कुंवर सिंह आसपास के इलाके में अत्यंत सर्वप्रिय थे।कुवंर सिंह 1857 के बिहार के क्रांतिकारियों का प्रमुख नेता और  सबसे ज्वलंत व्यक्तियों में थे।
बिहार में 1857 का संगठन अवध और दिल्ली जैसा तो न था,फिर भी उस प्रांत में क्रांति के कई बड़े -बड़े केंद्र थे।
 पटना में जबर्दस्त केंद्र था जिसकी शाखाएं चारों ओर फैली  थीं।पटना के क्रांतिकारियों के मुख्य नेता पीर अली को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया।
 पीर अली की मृत्यु के बाद दाना पुर की देशी पलटनों ने स्वाधीनता का एलान कर दिया।ये पलटनें  जगदीश पुर की ओर बढ़ीं।
बूढ़े कुंवर सिंह ने तुरंत महल से निकल कर शस्त्र उठाकर इस सेना का नेतृत्व सम्भाल लिया। इतिहासकार के अनुसार कुंवर सिंह आरा पहुंचे।
उन्होंने  आरा में अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया।
जेलखाने के कैदी रिहा कर दिए गए।
अंग्रेजी दफ्तरों को गिरा कर बराबर कर दिया गया।
    29 जुलाई को दाना पुर के कप्तान डनवर के अधीन करीब 300 गोरे सिपाही और 100 सिख सैनिक आरा की ओर मदद के लिए चले।
आरा के निकट एक आम का बाग था।कुंवर सिंह ने अपने कुछ आदमी आम के वृक्षों की टहनियों में छिपा रखे थे।
रात का समय था।जिस समय सेना ठीक वृक्षों के नीचे पहुंची,अंधेरे में ऊपर से गोलियां बरसनी शुरू हो गयीं।
सुबह तक 415 सैनिकों में से सिर्फ 50 जिंदा बच कर दाना पुर लौटे।डनवर भी मारा गया था।
इसके बाद मेजर आयर एक बड़ी सेना और तोपों सहित आरा किले में घिरे  अंग्रेजों की सहायता के लिए बढ़ा।
2 अगस्त को आरा के बीबी गंज में आयर और कुंवर सिंह की सेना के बीच संग्राम हुआ।
इस बार आयर विजयी हुआ।उसने 14 अगस्त को जगदीश पुर के महल पर भी कब्जा कर लिया।
कुंवर सिंह 12 सौ सैनिकों व अपने महल की स्त्रियों को साथ लेकर जगदीश पुर से निकल गए।
18 मार्च, 1858 को दूसरे क्रांतिकारियों के साथ कुंवर सिंह आजम गढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया में डेरा डाला। 
मिलमैन के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने 22 मार्च 1858 को कुंवर सिंह से मुकाबला किया।मिलमैन हार कर भाग गया।
28 मार्च को कर्नल डेम्स के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने कुंवर सिंह पर हमला किया।इस युद्ध में भी कुंवर सिंह विजयी रहे।
कुंवर सिंह ने आजम गढ़ पर कब्जा किया।किले को दूसरों के लिए छोड़कर कुंवर सिंह बनारस की तरफ बढ़े।
लार्ड केनिंग उस समय इलाहाबाद में था।
इतिहासकार मालेसन लिखता है कि बनारस पर कुंवर सिंह की चढ़ाई की खबर सुन कर कैनिंग घबरा गया।
  उन दिनों कंुवर सिंह जगदीश पुर से 100 मील दूर  बनारस के उत्तर थे।लखनऊ से भागे कई क्रांतिकारी कुंवर सिंह की सेना में आ मिले।
लार्ड कैनिंग ने लार्ड मारकर को सेना और तोपों के साथ कुंवर ंिसंह से लड़ने के लिए भेजा।
किसी ने उस युद्ध का विवरण इन शब्दों में लिखा है,‘
उस दिन 81 साल का बूढ़ा कुंवर सिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार ठीक घमासान लड़ाई के अंदर बिजली की तरह इधर से उधर लपकता हुआ दिखाई दे रहा था।’
अंततः लार्ड मारकर हार गया।
उसे पीछे हटना पड़ा।
कुंवर सिंह की अगली लड़ाई सेनापति लगर्ड के नेतृत्व वाली सेना से हुई।कई अंग्रेज अफसर व सैनिक मारे गए।
कंपनी की सेना पीछे हट गयी।
कुंवर सिंह गंगा नदी की तरफ बढ़े।वे जगदीश पुर लौटना चाहते थे।
एक अन्य सेनापति डगलस के अधीन सेना कुंवर से लड़ने के लिए आगे बढ़ी।
नघई नामक गांव के निकट डगलस और कुंवर सिंह की सेनाओं में संग्राम हुआ।
अंततः डगलस हार गया।
कुंवर सेना के अपनी साथ गंगा की ओर बढ़े।
कुंवर सिंह गंगा पार करने लगे।बीच गंगा में थे।
अंग्रेजी सेना ने उनका पीछा किया।
एक अंग्रेजी सैनिक ने गाली चलाई।गोली  कुंवर सिंह को लगी।
गोली दाहिनी कलाई में लगी।
विष फैल जाने के डर से कुंवर सिंह ने बाएं हाथ से तलवार खींच कर अपने दाहिने हाथ को कुहनी पर से काट कर गंगा में फेंक दिया।
22 अप्रैल को कंुवर सिंह ने वापस जगदीश पुर में प्रवेश किया।आरा की  अंग्रेजी सेना 23 अप्रैल को लीग्रंैड के अधीन जगदीश पुर पर हमला किया।
इस युद्ध में भी कुंवर सिंह विजयी रहे।
पर घायल कुंवर सिंह की 26 अप्रैल, 1858 को मृत्यु हो गयी।
23 अप्रैल को कुंवर की याद में विजयोत्सव मनाया जाता है।
---सुरेंद्र किशोर   
@फस्र्टपोस्ट हिंदी.. 23 अप्रैल 2018@                                      

  



आरक्षण की जगह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से सबकी भलाई---


जिन लोगों ने आरक्षण के विरोध में 10 अप्रैल को ‘भारत बंद’ का आह्वान किया था,उन्हें इसके बदले भ्रष्टाचार के खिलाफ 
इस देश में कोई बड़ा आंदोलन करना चाहिए।उनमें आंदोलन की क्षमता तो है ही।मेरी समझ से उस क्षमता का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है।
क्योंकि 10 अप्रैल के भारत बंद से ही यह लग गया कि वे कोई बड़ा आंदोलन भी चला सकते हैं।
आरक्षण के विरोध में कोई आंदोलन कई कारणों से इस देश में प्रति-उत्पादक यानी काउंटर प्रोडक्टिव ही साबित होगा।
1990 में ऐसा देखा गया।
हालांकि 10 अप्रैल को भारत बंद आयोजित करने वाले लोगों की मूल समस्याओं पर इस देश की विभिन्न सरकारों को गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा।एक बड़ी आबादी को लंबे समय तक असंतुष्ट नहीं रखा जा सकता।
उनकी मुख्य समस्या बेरोजगारी  है।
सरकार साधनों के अभाव में रोजगार के अवसर नहीं बढ़ा पा रही है।अवसर बढ़ भी रहे हैं तो जरूरतों के अनुपात में बहुत कम हैं।साधनों की कमी के कारण न तो खाली सरकारी पद भरे जा रहे हैं और न ही जरूरत रहने पर भी नये पद सृजित हो रहे हैं।
आबादी व जरूरतों के अनुसार हर जगह पदों की भारी कमी है।अधिक पद यानी रोजगार के अधिक अवसर।सबके लिए अवसर।आरक्षित व अनारक्षित सभी के लिए।
सरकार के पास साधन इसलिए भी कम हैं कि इस देश में बड़े पैमाने पर विभिन्न तरह के टैक्सों चोरी हो रही है।ऐसा भारी प्रशानिक व राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण हो रहा है।
नये -नये छोटे -बड़े उद्योगों की स्थापना की राह में भी सरकारी लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार बाधक हैं।कानून -व्यवस्था की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है।
अपवादों को छोड़ दें तो हर स्तर पर सरकारी सेवक उद्यमियों से पूछते हैं कि ‘इसमें मुझे क्या मिलेगा ?’
यदि नहीं तो फिर कहते हैं कि ‘फिर मेरा क्या,उद्योग लगे या न लगे  !’
ऐसे लोगों की ‘दवाई’ कोई बड़ा जनांदोलन ही कर सकता है।
बड़े पैमाने पर ‘स्टिंग आपरेशन’ की भी जरूरत है।
सरकार की ताकत भ्रष्टाचारियों की ताकत के सामने  कम पड़ रही है।
यदि भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ा जनांदोलन देश में शुरू होगा तो सरकार को भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए  की अतिरिक्त ताकत मिलेगी।या फिर मजबूरी होगी।यदि फिर भी सरकारों ने कड़े कदम नहीं उठाए तो सरकारें बदल जाएंगी।
   10 अ्रपैल को बंद कराने वाले आम तौर पर कृषक परिवारों से आते हैं।देश कृषि-संकट से जूझ रहा है।
खेती में मुनाफा कम, घाटा ही अधिक है।
किसानों के लिए खेती से अपना जरूरी खर्च 
चलाना भी मुश्किल हो रहा है।किसान अपनी उन शिक्षित  बेरोजगार संतानों का क्या करें जो खेती भी नहीं कर सकते ? 
सरकारों को चाहिए कि वेे खेती को कृषि आधारित उद्योगों से जोड़े।मनरेगा को किसानों से जोड़े जैसी सलाह तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने मन मोहन सरकार के कार्यकाल में दी थी।
 यानी मनरेगा के मजदूरों को आधी मजदूरी सरकार और आधी किसान दें।इससे खेती पर से लागत खर्च का बोझ घटेगा।
  आरक्षण विरोधी 1990 से सबक लें---
1990 में जब केंद्र की वी.पी.सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफरारिशों के आधार पर केंद्रीय सेवाओं में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया तो पूरे देश में कुछ लोगों द्वारा भारी विरोध किया गया।
बिहार में विरोध व प्रति-विरोध अलग ढंग का था।सघन व तीखा  था।तत्कालीन मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने आरक्षण विरोधियों का अपने दल व सरकारी साधनों के बल पर अपनी भदेस शैली में  जम कर विरोध किया।समाज में घर्षण हुआ।इसमें लालू को पिछड़ों को जगाने और उसका श्रेय लेने का  सुनहरा मौका मिल गया।
तब कुछ विवेकशील लोग आरक्षण विरोधियों से अपील कर रहे थे कि विरोध छोड़ो। गज नहीं फाड़ेगे तो थान हारना पड़ेगा।वे नहीं माने।
नतीजतन लालू प्रसाद ने सिर्फ आरक्षण विरोधियों के विरोध की अपनी एक मात्र राजनीतिक पूंजी के बल पर कारण 15 साल तक राज किया।उस ‘राज’ में सबसे अधिक नुकसान सवर्णों का ही हुआ।बाद में कुछ आरक्षण विरोधियों ने यह महसूस किया था कि उनका विरोध गलत था।वह प्रति -उत्पादक साबित हुआ।
पर आरक्षण विरोधियों की आज की नयी पीढ़ी लगता है कि उस इतिहास से अनभिज्ञ है ।इसीलिए  इतिहास को दुहराया जा रहा है।यदि आरक्षण विरोध अब भी बंद नहीं हुआ तो एक और लालू के पैदा होने का  आधार तैयार हो जाएगा।
पर भ्रष्टाचार विरोध के आंदोलन में सबको लाभ मिलेगा।
हालंाकि उसके कारण ज्यादा लाभ सवर्णों को ही होगा।क्यांेकि 
सरकारी सुविधाओं का फायदा उठाने की क्षमता,प्रतिभा, बुद्धि,कौशल और योग्यता उनमें अपेक्षाकृत अधिक है।
 याद रहे कि भ्रष्टाचार कम होने से सरकारें धनवान -साधनवान होंगी।सरकारी पैसे से विकास का लाभ गांवों तक पहुंचेगा।
   चुनाव पूर्व जातीय आंदोलन---
कांग्रेस  अनुसूचित जाति संभाग के अध्यक्ष नितिन राउत ने कहा है कि दलितों का गुस्सा अगले चुनाव के बाद राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनाएगा।
यानी कुछ नेताओं ने गुस्सा पैदा होने की  स्थिति इसीलिए  
तैयार की ताकि इसके बल पर सत्ता बदली जा सके।
पर ऐसी जातीय भावनाएं उभार कर कोई सत्ता हासिल करके देश का कितना भला कर पाएगा ?
इससे पहले भी जातीय भावनाएं उभार कर सत्ता हासिल करके लोगों ने किसका भला किया ?सब जानते हैं कि किसका भला हुआ।
आम तौर पर अपना और अपने परिवार और एक हद तक अपनी जाति कव ही तो !
 क्या इससे देश बनेगा ? न अब तक बना है और न आगे बनेगा।ऐसे आंदोलनों से खुद उस आंदोलन के मौजूदा नेताओं को कुछ लाभ भले हो जाए,पर उनकी ही आगे वाली पीढि़यां उन्हें कोसेंगी।
    एक भूली बिसरी याद---
1990 में तत्कालीन वी.पी.सिंह सरकार ने केंद्रीय सेवाओं 
में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया।
तब के आरक्षण विरोधियों में मशहूर पत्रकार अरूण शौरी प्रमुख थे।
उन्होंने मंडल आरक्षण के विरोध में अनेक लेख लिखे और जगह जगह जाकर  भाषण दिए।
उनके एक लेख का एक अंश मौजूद स्थिति में मौजूं है।
उन्होंने लिखा था कि 
‘......मेधावी नौजवान अब सरकारी सेवा से दूर रहेगा।वह ऐसे पेशों मेें जाएगा जो इस तरह के विनिमयों से भद्दे और बेतुके नहीं हुए हैं।मेधावी नौजवान के लिए तो यह उतनी बुरी बात भी नहीं होगी।
जिस पेशे को वह त्याग रहा होगा--सरकारी सेवा-अब मुश्किल से ही ऐसा पेशा है जो वह बीस साल पहले हुआ करता था।उनमें न तो जीवंतता है और न ही तरक्की की संभावनाएं और न ही वह सचमुच ऐसे अवसर देता है जो महान जिम्मेदारियां निभाने के लिए सरकारी पद कभी देते थे।
जिन पेशों की तलाश में वह निकलेगा,वे विकासमान पेशे हैं,-उनमें अभिरूचियों और कौशल के व्यापकत्तम विन्यास के अवसर हैं।वे ऐसे पेशे हैं ,जिनमें पहलकदमी और युक्ति कौशल को तुरंत -फुरत मान्यता और पुरस्कार मिल सकता है।’लेकिन राज्य के लिए यह कोई तसल्ली नहीं है।सर्वाधिक प्रतिभावानों
 के राजकाज के तंत्र से दूर रहने का नतीजा यही हो सकता है कि वह और भी कमजोर होगा।’
    और अंत में--
 हर सांसद को हर साल एक गांव को गोद लेकर उसका 
विकास करना था।प्रधान मंत्री ने इस योजना में खास रूचि ली।
उसके लिए अलग से पैसे का प्रावधान नहीं किया गया।
देश में केंद्र व राज्य सरकारों की विकास व कल्याण की सैकड़ों योजनाएं चल रही हैं।उन्हीं योजनाओं के पैसों से उन आदर्श गांवों का विकास करना था।
पर, वे पैसे भी उन आदर्श गावों में नहीं लगे।इसलिए शायद ही इस विधि से शायद  कुछ ही गांवों का विकास हो सका।क्योंकि सरकारी-गैर सरकारी बिचैलिए दशकों से उन पैसों में से अधिकांश  पैसे खा जा रहे हैं।मौजूदा सरकार व सांसदों से भी अधिक ताकतवर वे  लुटेरे
साबित हुए हैं।उन्होंने अघोषित रूप से कह दिया कि हम उन पैसों को कहीं और नहीं लगाएंगे ।वे सिर्फ हमारी पाॅकेटों की शोभा बढ़ाएंगे।
अब बताइए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी महा जन आंदोलन
की आज कितनी अधिक जरूरत है ? ऐसे आंदोलनों से किसी ईमानदार सरकार को बल ही मिलता है। 
--सुरेंद्र किशोर
@कानोंकान-12 अप्रैल 2018@
    

कई दशक पहले की बात है।
एक युवा समाजवादी नेता के साथ मैं एक सुबह पटना के र्हािर्डंग पार्क में टहल रहा था।
तब तक हार्डिंग पार्क का नाम वीर कुंवर सिंह पार्क पड़ चुका था।
पार्क के भीतर के एक वृक्ष के मजबूत तने पर टीन की एक पट्टी  ठोकी हुई थी।
उस पर लिखा था ‘वीर कुंवर सिंह पार्क।’
समाजवादी नेता उसे देखते ही आग -बबूला हो गए।‘एक सामंती के नाम पर पार्क का नाम ? मैं यह सब चलने नहीं दूंगा।’ तब तक मैंने भी कतिपय समाजवादियों का असली चेहरा नहीं देखा था,इसलिए मैंने भी उनकी हां में हां मिलाई।
उन्होंने तत्क्षण उस पट्टी को उखाड़ने की कोशिश की।पर उनके मजबूत हाथों से भी वह नहीं उखड़ सकी।
दूसरे दिन उन्होंने  अपने साथ एक लोहे का मोटा छनौटा लाया।उसकी मदद से उसे उखाड़ कर फेंक दिया।
   खैर, समय बीतता गया। नेता जी समाजवाद और कमजोर वर्ग के विकास के नारे लगाते -लगाते बारी -बारी से कई सदनों के सदस्य बने।
पैसे और प्रभाव के बल पर धीरे -धीरे खुद उनमें एक आधुनिक सामंत व व्यापारी उभरने लगा।
काफी पैसे बनाए।कभी साइकिल पर चलने वाले नेता जी ने अपने बाल -बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला कर समाज में अच्छी जगहें दिला दीं।
जिन कमजोर वर्ग की चिंता करते -करते वे आगे बढ़े थे,उन्हें यूं ही छोड़ कर खुद आधुनिक सामंत बन गए।
आज यदि वीर कुंवर सिंह के वंशज@हालांकि मैं वीर कुंवर सिंह के वंशजों के बारे में बहुत नहीं जानता।पर अनुमान जरूर लगा सकता हूं।@ और उस नेता जी के वंशज की हैसियत की तुलना की जाए,तो यह कहना कठिन होगा कि कौन कितना बड़ा सामंत है।@23 अप्रैल 2018@

  

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

---सरकारी भूमि पर कब्जा करने वालों के नाम जग जाहिर करे सरकार ---


सवाल सिर्फ पटना के गोलक पुर का ही नहीं है।देश -प्रदेश के अनेक स्थानों में कानून को ठेंगा दिखा कर अनेक लोगों ने सरकारी जमीन पर पक्का निर्माण कर रखा है।
मुकदमे चलते हैं,सुनवाई होती है,पीढि़यां बीत जाती हैं।
इस बीच जमीन के अभाव में आम सरकारी विकास व कल्याण के अनेक काम जहां तहां रुके रहते हैं।
  सरकारों को चाहिए कि वे इस बीच अतिक्रमणकारियों के नाम -पता जग जाहिर करे।
लोगों को पता तो चले कि वे महानुभाव कौन हैं।उनमें से शायद कुछ लोगों को शर्म आए।उन्हें नहीं तो उनके वत्र्तमान व भावी रिश्तेदारों को शर्म आए।सभ्य समाज में उनकी ‘महिमा’ गाई  जाए!
उनके नाम मालूम हो जाएंगे तो अनेक लोग इस बात का भी अनुमान  लगा लेंगे कि उन्हें  मदद किन नेताओं से मिल रही है।
  यदि अतिक्रमणकारियों में कोई सरकारी या अर्ध सरकारी संस्थान में कर्मचारी है तो उसका वेतन -प्रमोशन वगैरह रोका जा सकता है।कानून इजाजत दे तो पेंशन भी।यदि इस मामले में कानून की कमी है तो उसे बनाया जाना चाहिए।
 यदि पटना के गोलक पुर का ही मामला लें तो दशकों पूर्व उस तीन एकड़ जमीन का अधिग्रहण  पास के इंजीनियरिंग काॅलेज के विकास के लिए हुआ था।
पर स्थानीय प्रशासन की साठगांठ या अनदेखी से उस पर अतिक्रमण होता चला गया।
विकास चंद्र उर्फ गुड्डू बाबा का भला हो जिन्होंने अपनी जान  हथेली पर लेकर इस संबंध में कानूनी लड़ाई शुरू की।
पर पटना हाई कोर्ट के सख्त आदेश के बावजूद प्रशासन लचर साबित हो रहा है।क्या प्रशासन विकास चंद्र से भी कमजोर है ? खैर, गोलक पुर का चाहे जो हश्र हो ,पर ऐसे अन्य अतिक्रमणकारियों के भी शुभ नाम तो अखबार पढ़कर लोग जान तो लें।
दशकों से यह मांग होती रही थी कि बैंकों से भारी कर्ज लेकर दबा लेने वालों के नाम सरकार उजागर करे।नहीं किया।नतीजतन इस बीच अनेक विजय माल्या और नीरव मोदी पैदा हो गए।  
साथ चुनाव से स्थानीय मुद्दे गौण नहीं---
क्या लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होने से राज्यों से संबंधित स्थानीय मुद्दे गौण हो जाएंगेे ?
पिछला अनुभव तो यह नहीं बता रहा  है।
पर अनेक लोग इसी आधार पर इसका विरोध कर रहे हैं।
याद रहे कि 1967 में अंतिम बार लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे।उस चुनाव में  लोक सभा में तो कांग्रेस को बहुमत मिल गया था ,पर सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी थी।दो अन्य राज्यों में दल बदल के कारण गैर कांग्रेसी सरकारें बन गयीं।
बिहार के लोगों में भी स्थानीय कांग्रेसी सरकार के भ्रष्टाचार के कारण उसके खिलाफ भारी रोष था।
पर उतना ही रोष केंद्र की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ नहीं था।
नतीजतन राज्य की कुल 53 लोक सभा सीटों में से 34 सीटें कांग्रेस को मिलीं।
यानी आधी से अधिक सीटेंे।
पर बिहार विधान सभा की आधी से अधिक सीटों पर कांग्रेस हार गयी थीं।दरअसल आज के कुछ नेता और दल यह चाहते हैं कि जितनी अधिक दफा चुनाव होंगे,तो उतना ही अधिक चंदा बटोरने का उन्हें अवसर मिलेगा।
उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है कि अधिक चुनाव यानी सरकार का अधिक खर्च।
अधिक चुनाव के कारण विकास भी रुकते हैं।
संभवतः अपने देश में जिस तरह के कुछ नेता हैं,वैसे शायद ही किसी अन्य देश में होंगे ! 
भारी घाटे के बावजूद विनिवेश का विरोध-
एयर इंडिया में अब तक करीब 50 हजार करोड़ रुपए का घाटा हो चुका है।
इसके अलावा उस पर 55 हजार करोड़ रुपए का कर्ज भी है।
इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने इसके 76 प्रतिशत शेयर को बचे देने का निर्णय किया है।पर उसका भी विरोध हो रहा है।इसी तरह घाटे में चल रहे कोलकाता के ग्रेट इस्टर्न होटल को ज्योति बसु सरकार ने बेचना चाहा तो विरोध हो गया।उनके ही दल से जुड़े सीटू ने विरोध किया।बिक्री रुक गयी।पर जब स्थिति और बिगड़ी तो आखिरकार बुद्धदेव सरकार ने उसका विनिवेश कर दिया।
उसी तरह अभी जो लोग एयर इंडिया के विनिवेश का विरोध कर रहे हैं,स्थिति के और बिगड़ने पर उन्हें उसका समर्थन करना पड़ेगा।
दरअसल इस गरीब देश में होना तो यह चाहिए था कि देश के विभिन्न मजदूर और सेवा संगठन अपने संस्थान में व्याप्त भ्रष्टाचार और काहिली का कारगर विरोध करते तो कहीं विनिवेश की नौबत ही नहीं आती।
निजी क्षेत्र का विस्तार नहीं होता जैसा हो रहा है।
  दिनकर की याद को  समर्पित रेणु की कविता---
 1974 के इसी महीने की 24 तारीख को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का  निधन हुआ  था।
 उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु ने तत्काल उन पर एक कविता लिखी।कविता थोड़ी लंबी है।जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखी गयी थी।
पर उस कविता का एक अंश यहां प्रस्तुत है। 
 हा,याद है।
उच्चके जब मंचों से गरज रहे थे
हमने उन्हें प्रणाम किया था
पहनाया था हार।
भीतर प्राणों में काट रहे थे हमें
हमारे वे पाप
हमारी बुझी ज्वाला को धधका कर
हमें अग्निस्नान करा कर पापमुक्त
खरा बनाया।
पल विपल हम अवरुद्ध जले
धरा ने रोकी राह,हम विरुद्ध चले
हमें झकझोर कर तुमने जगाया था
‘रथ के घर्घर नाद सुनो..........
आ रहा देवता जो,उसको पहचानो
अंगार हार अरपो रे.........
वह आया सचमुच,एक हाथ में परशु
और दूसरे में कुश लेकर
किंतु...तुम ही रूठ कर चले गये।
विशाल तम तोम और चतुर्दिक घिरी
घटाओं की व्याकुलता से अशनि जनमी,
धुओं और उमस में छपप्टाता हुआ प्रकाश
खुल कर बाहर आया।
किंतु तुम....?
अच्छा ही किया ,तुम सप्राण
नहीं आये,नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता ?
      भूली-बिसरी याद--- 
धारावाहिक ‘रामायण’ के लिए हनुमान की भूमिका निभाने के
लिए किसी पहवान का चयन करना था।
इस किरदार के लिए कई पहलवान रामानंद सागर के पास पहुंचे थे।
इस प्रसंग का विवरण दारा सिंह ने अपनी जीवनी में कुछ इस तरह लिखा है, ‘पर रामानंद सागर के दिल-दिमाग में 
मेरी तस्वीर इस चरित्र को निभाने के लिए इस तरह दृढ़ता से जमी हुई थी कि दूसरा व्यक्ति उनको जमता ही नहीं था।
यह महाबली हनुमान की अपनी इच्छा थी जो सागर साहब को मेरे हक में प्रेरित करती रही होगी।
धारावाहिक रामायण चर्चित हो जाने के कारण सभी कलाकारों को बहुत लाभ हुआ।लोगों ने मरे चरित्र को ऐसे महसूस किया ,जैसे हनुमान जी प्रत्यक्ष आकर अदाकारी कर रहे हों।
मैं इस चरित्र को निभाने से पहले महाबली हनुमान जी आशीर्वाद मांगता था।
और मैं यह महसूस करता था कि उन्हें मुझे वरदान दिया है।तभी तो सारी जनता ने मेरे इस चरित्र को पसंद किया,वरामैं किस योग्य था !
दारा सिंह लिखते हैं कि बहुत से विद्वान और सयाने लोग मुझसे पूछते हैं कि हनुमान की भूमिका करते हुए मैंने कैसा महसूस किया ?
यह पत्रकारों ने भी पूछा।मैंने उनको महाबली में अपनी आस्था के बारे में बताया ।खास कर पहलवान लोग शक्ति के प्रतीक हनुमान जी को मानते हैं।
कुछ लोग यह भी मानते हैं कि हनुमान जी आज भी मृत्यु लोक में विचर रहे हैं।
  रामायण की शूटिंग के दौरान खान-पीने के बारे में भी 
दारा सिंह ने लिखा है कि ‘शूटिंग के दौरान खाने पीने में परहेज किया जाता था।
कई कलाकार दुःखी भी थे कि तपस्वियों वाले तौर तरीकों में रहना पड़ रहा है।पर जब वाहवाही मिलती तो खुश भी होते थे।
हालांकि बाद में कइयों ने खा-पीकर दंगे फसाद भी किए।
    और अंत में---
विवादास्पद आई.पी.एस.अधिकारी विवेक कुमार की कमाई की रफ्तार तो देखिए !
यदि इसी रफ्तार के साथ डी.जी.पी.पद तक पहुंच जाते तो 
इनके पास कितना धन संग्रह हो गया होता ?
उसका अनुमान तो मुश्किल
 है।पर एक बात जरूर होती ।हमारे देश के कुछ धन बटोरू नेतागण  ईष्र्यालु  जरूर हो गए होते।सोचते कि कहां नेता बने,आई.पी.एस.ही बन गए होते।हालांकि वह तो उनके वश में होता तो राजनीति में क्यों जाते ?  





 मशहूर पत्रकार एस.निहाल सिंह का गत सोमवार को
89 साल की उम्र में निधन हो गया।
पुरानी कार्य -संस्कृति के संपादकों की विलुप्त होती पीढ़ी की  
 आखिरी हस्तियों में से वह एक थे।
  एस.निहाल सिंह देश के संभवतः एक मात्र
प्रधान संपादक थे जिन्होंने प्रबंधन से मतभेद के कारण बारी-बारी से तीन अखबारों से इस्तीफा दे दिया था।
वे अखबार थे द स्टेट्समैन,इंडियन एक्सप्रेस और इंडियन पोस्ट।
वे संपादकीय विभाग को अखबार की  विज्ञापन शाखा से अलग रखते थे।आज के संदर्भ में तो यह असंभव काम माना जाता है।इसे अव्यावहारिक भी बताया जाता है।यह अकारण भी नहीं है।
एस. निहाल सिंह गुरूमुख निहाल सिंह के पुत्र थे जो बारी -बारी से स्पीकर,मुख्य मंत्री और राज्यपाल भी रह चुके थे।
आपातकाल के समय एस.निहाल सिंह स्टेट्समैन के संपादक के थे।
@अप्रैल 2018@
जब सेंसरशिप लगा तो उन्होंने अपने अखबार के प्रथम पेज पर ही लिख दिया कि यह अखबार संेसरशिप के तहत निकला है।
  ऐसा लिखना भी तब बड़ी  हिम्मत की बात थी।हां,कुछ अखबारों ने विरोधस्वरूप संपादकीय काॅलम खाली जरूर  छोड़ दिया था।
आपातकाल में एस.निहाल सिंह विदेशी खबरों को अधिक प्रमुखता देते थे और इस देश की खबरों को पहले पेज के निचले हिस्से में या किसी कोने में संक्षेप में छापते थे।
  सरकार के एतराज पर उन्होंने कहा था कि क्या नहीं छापना है,सरकार के इस आदेश का तो हम पालन कर ही रहे हैं।यदि सरकार ऐसा कोई आदेश निकाले कि हमें क्या -क्या छापना है तो हम उसका भी पालन करेंगे।ऐसा आदेश सरकार भला कैसे निकाल सकती थी !
  ऐसे रीढ़ वाले संपादक हमेशा याद रहेंगे। 
@19 अप्रैल 2018@
    

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

 फ्रांसीसी यात्री बरनियर ने सन 1700 में लिखा था कि 
‘यह हिन्दोस्तान एक ऐसा अथाह गड्ढा है,जिसमें संसार का अधिकाशं सोना और चांदी चारों तरफ से,अनेक रास्तों से आ -आकर जमा होता है और जिससे बाहर निकलने का उसे एक भी रास्ता नहीं मिलता।’
  याद रहे कि सन 1000 में विश्व के जी.डी.पी.में भारत का योगदान करीब 29 प्रतिशत था।
 यह प्रतिशत 1600 में घटकर 22  हो गया।
1820 में 16 प्रतिशत और 1950 में 4 दशमलव 2 प्रतिशत रहा।सन 1979 में तीन प्रतिशत और 2015 में सात प्रतिशत रहा।
‘डेक्कन हेराल्ड’ के अनुसार 2017 में यह प्रतिशत बढ़कर 17 हो गया है।
पर उससे पहले सन 1900 में ब्रिटिश लेखक विलियम डिगबी ने लिखा था कि ‘बीसवीं सदी के शुरू में करीब दस करोड़ मनुष्य ब्रिटिश भारत में ऐसे हैं ,जिन्हें किसी समय भी पेट भर अन्न नहीं मिल सकता....।इस अधःपतन की दूसरी मिसाल इस समय किसी सभ्य और उन्नतिशील देश में कहीं पर भी दिखाई नहीं दे सकती।’
  याद रहे कि विश्व बैंक की 2016 की रपट के अनुसार भारत में 24 करोड़ 40 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं।
जिनकी आय प्रतिदिन 1.90 डाॅलर से कम है,वे गरीबी रेखा से नीचे हैं।
अब यह ध्यान देने की बात है कि हमारे देश के जो हुक्मरान जो खुद को जनता का सेवक बताते  हैं,वे खुद पर कितना सरकारी धन रोज व्यय करते हैं ?
हुक्मरानों में सिर्फ नेता नहीं हैं।बल्कि उन्हें आप प्रभु वर्ग कहिए। उनमें कई क्षेत्रों के लोग शामिल हैं।हालांकि नेताओं, खास कर सत्ताधारी नेताओं की जिम्मेदारी अधिक है।उन 24.40 करोड़ लोगों के लिए वे कितना सोचते हैं ?कितना करते हैं ?
  

बुधवार, 18 अप्रैल 2018

सन 1985 में एक चीनी पत्रकार ने लिखा कि ‘आज का 
चीन बस पूंजीवाद का इस्तेमाल समाजवाद को सुदृढ़ करने
 के लिए कर रहा है।’
सन 2012 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की बैठक में निवत्र्तमान राष्ट्रपति हू जिंताओ ने पार्टी में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कड़ी चेतावनी देते हुए कहा कि ‘यह घातक साबित हो सकता है और पार्टी की चूलें हिला सकता है।’
 सन 2018 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रपति शी चिनपिंग को अनिश्चितकाल तक पद पर बने रहने की छूट दे दी।
क्रांतिकारी माओ से ‘राजशाही’ शी चिनपिंग तक का सफर , यह कैसा चीनी सफर ! ?

 आई.पी.एस.अफसर विवेक कुमार के ठिकानों पर विशेष निगरानी इकाई ने कल छापे मारे ।उस अफसर पर एक दारोगा की पत्नी ने गंभीर आरोप लगाया था।
आरोप है कि थानेदार के रूप में पोस्टिंग को लेकर उस दारोगा से विवेक ने लाखों रुपए रिश्वत ले ली थी।दारोगा ने बाद में आत्म हत्या कर ली थी। 
  दरअसल थानेदारों की मनमानी पोस्टिंग को लेकर हमेशा शिकायतें आती रहती हैं।अब राज्य सरकार को पोस्टिंग की कोई बेहतर व्यवस्था करनी चाहिए ।
क्योंकि इसका सीधा संबंध आम अपराध से है।
 कुछ दशक पहले मेरा एक करीबी परिजन बिहार पुलिस की सेवा में था।वह बारी -बारी से दस एस.पी.के तहत काम कर चुका था।एक बार उसने मुझे बताया था कि उन  दस में से 
सिर्फ एक एस.पी. डा.परेश सक्सेना को छोड़कर सभी नौ ने पोस्टिंग के लिए मुझसे रिश्वत ली थी।
दूसरी ओर बिना पैसे के सक्सेना साहब ने मुझे अपने जिले के सबसे महत्वपूर्ण थाने का प्रभारी बनाया था।  
  इस परिस्थिति में राज्य सरकार को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करे ताकि थानेदार की पोस्टिंग में एस.पी.की मनमानी न चले।क्योंकि अब तो दारोगा को आत्म हत्या तक करनी पड़ रही है।भारी घूस देकर जो थानेदार बनेगा,वह अपराध करवा कर या फिर उसे बढ़ावा देकर ही  तो नाजायज पैसे  कमाएगा।
  एक समय कहा जाता था कि राज्य में तो दो ही लोगों के पास असली ताकत है।एक दारोगा और दूसरे मुख्य मंत्री।
अंग्रेजों के जमाने में भी पूर्व मुख्य मंत्री दारोगा प्रसाद राय के पिता ने उनका नाम दारोगा इसलिए रखा था कि उनकी इच्छा थी कि उनका  बेटा बड़ा होकर दारोगा बने।यह और बात है कि वे मुख्य मंत्री बन गए।


---अपनी स्वतंत्र सोच के कारण ही दोबारा राष्ट्रपति नहीं बन सके थे डा.राधाकृष्णन---


       
सन 1967 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति पद के लिए डा.राधाकृष्णन को चुनाव में उतारने  पर सहमति नहीं दी ।तब  यह कहा गया कि ऐसा राधाकृष्णन की  स्वतंत्र सोच के कारण हुआ।
जबकि, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने मजबूती से डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का नाम आगे बढ़ाया था।
याद रहे कि सन् 1964 में लाल बहादुर शास्त्री और सन् 1966 में इंदिरा गांधी को प्रधान मंत्री बनवाने में कामराज की महत्वपूर्ण भूमिका थी।पर उधर इंदिरा गांधी अपनी पसंद के राष्ट्रपति चाहती थीं।याद रहे कि 1967 में डा.जाकिर हुसेन राष्ट्रपति बने थे।
डा.राधाकृष्णन तो जवाहर लाल नेहरू की पसंद रहे थे।
इस तरह डा.राजेंद्र प्रसाद ही एक मात्र व्यक्ति थे जिन्हें 
लगातार बारह साल तक राष्ट्रपति बने रहने का अवसर मिला।
याद रहे कि जवाहर लाल नेहरू 1957 में ही डा.राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनवाना चाहते थे।पर अबुल कलाम आजाद ने डा.राजेंद्र प्रसाद के लिए जिद कर दी और जवाहर लाल जी मान गए। 
 इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्री बनने के एक ही साल बाद  राष्ट्रपति पद का चुनाव होना था।तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के.कामराज ने इंदिरा गांधी से यह आग्रह किया था कि वह डा.राधाकृष्णन को दोबारा राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने की मंजूरी दें।कामराज का यह तर्क था कि डा.राजेंद्र प्रसाद को जब यह सुविधा दी गई थी तो राधाकृष्णन को क्यों नहीं।पर इंदिरा गांधी और उनके सलाहकार इस पक्ष में नहीं थे।कामराज को बुरा लगा था कि इंदिरा जी ने उनकी बात नहीं मानी। डा.राधाकृष्णन से इंदिरा जी का  आखिरी साल में संबंध सामान्य नहीं  रहा था। 
  1967 में इस पद को लेकर कांग्रेस के भीतर खींचतान शुरू हो गई थी।शायद कामराज को यह मालूम नहीं था कि इंदिरा गांधी ने जाकिर हुसेन को राष्ट्रपति बनाने का मन बना लिया था।डा.राधाकृष्णन को जब इस बात की भनक मिली तो उन्होंंने  इस दौर से खुद को बाहर कर लिया।  
 राधाकृष्णन उम्र में पंडितजी से एक साल बड़े भी थे।संकट की घड़ी में जवाहर लाल जी राधाकृष्णन से औपचारिक -अनौपचाारिक सलाह-मशविरा भी करते रहते थे।
 ऐसा एक महत्वपूर्ण  अवसर सन 1962 में भी आया  था।तब चीन के हाथों हुए अपमान के कारण प्रधान मंत्री क्षुब्ध थे।राधाकृष्णन की सलाह पर ही नेहरू ने वी.के.कृष्णमेनन को रक्षा मंंत्री पद से हटाया था।राष्ट्रपति ने प्रधान मंत्री से कहा था कि वह दोस्ती के बदले कत्र्तव्य को प्रमुखता दें।खुद प्रधान मंत्री कृष्ण मेनन को हटाने के पक्ष में नहीं थे ।
  सन् 1957 में कांग्रेस केे कई अन्य बड़े नेता भी राजेन्द्र प्रसाद  के पक्ष में थे।इसलिए नेहरू जी ने उनकी बात मान ली।नेहरू जी अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक मिजाज के थे।पर इंदिरा गांधी वैसी नहीं थीं।इंदिरा जी ने भी देखा था कि किस तरह पंडित जी पर भावनात्मक दबाव डालकर राधाकृष्णन ने कृष्ण मेनन को मंत्री पद से हटवा दिया था।इंदिरा गांधी की सहानुभूति भी मेनन के साथ थी।
   जब राजेन बाबू 1957 में दोबारा राष्ट्रपति चुन लिये गये तो राधाकृष्णन ने उप राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे देने का मन बना लिया  था।उन्हें नेहरू जी ने किसी तरह  इस शत्र्त पर मनाया कि उन्हें 1962 में मौका मिलेगा।
  नेहरू ने तो अपनी बात रखी,पर इंदिरा गांधी ने  डा.राधाकृष्णन के बारे में अपने दलीय सहयोगियों की बातों को नजरअंदाज कर दिया। याद रहे कि सन 1966 में राधा कृष्णन ने अपने एक भाषण में कह दिया था कि ‘सरकार अपने अनेक कत्र्तव्यों से विमुख हो रही है।’उन्होंने यह भी कहा था कि ‘समाज रसातल में जा रहा है और राज नेता गण शानो -शौकत में व्यस्त हैं।’
उन दिनों यह आम चर्चा थी कि डा.राधाकृष्णन अपने प्रधान मंत्रियों को बेबाक सलाह दिया करते हैं।उनके कार्यकाल में बारी-बारी से जवाहर लाल नेहरू,लाल बहाुदर शास्त्री और इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री रही थीं।
  याद रहे कि डा.राधाकृष्णन को दोबारा राष्ट्रपति बनवाने की कोशिश में के.कामराज की संभवतः यह भी सोच रही होगी कि उत्तर भारत के राजेंद्र बाबू को दोबारा अवसर मिला तो दक्षिण भारत के राधाकृृष्णन ही इस अवसर से वंचित क्यों रहें ?कामराज 1964 से 1967 तक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे।याद रहे कि 1969 में कांग्रेस के महा विभाजन तक कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र जिंदा था।
 डा.राधाकृष्णन ने विवादरहित परिस्थितियों में राष्ट्रपति भवन में प्रवेश किया था।पर 1967 में राजनीतिक कारणों से देश का तब तक का यह सर्वाधिक विवादास्पद पद हो गया।
खुद डा.राधाकृष्णन दोबारा इस पद के लिए चुना जाना चाहते थे या नहीं,यह तो नहीं मालूम ,पर जब उन्होेंने देखा कि इस पद के लिए विवाद हो रहा है तो उन्होंने खुद को इस झमेले से अलग कर लिया।
  डा.राधाकृष्णन 13 मई 1962 से 13 मई 1967 तक राष्ट्रपति रहे।इससे पहले वह उप राष्ट्र्रपति थे।
शिक्षा विद् डा.राधा कृष्णन का जन्म 5 सितंबर, 1888 और निधन 17 अपै्रल, 1975 को हुआ।
  @--सुरेंद्र किशोर @
@पुण्य तिथि पर@

    

सोमवार, 16 अप्रैल 2018

 हमारी सरकारें किस तरह काम करती हैं,उसका एक और नमूना मुझे 3 अप्रैल 2003 के इंडियन एक्सपे्रस  की एक खबर   से मिला।
  खबर का संबंध 4 नवंबर, 1977 को असम के जोरहाट के पास के एक गांव में हुई चर्चित विमान दुर्घटना से है।
तब तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।
देसाई जी बाल-बाल बचे थे।उनको बचाने में मुख्य भूमिका तो उन जांबाज पायलटों की थी जिन्होंने अपनी जान देकर प्रधान मंत्री को बचा लिया था।
  पर दूसरी महत्वपूर्ण भूमिका उस गांव के इंद्रेश्वर बरूआ की थी जिन्होंने मोरारजी को दुर्घटनास्थल से उस रात सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया था।
याद रहे विमान बांस के उप वन में गिर गया था।
तब मोरारजी ने उस गांव के विकास का  घटनास्थल पर ही वादा किया था।साथ ही, बरूआ को इनाम देने का भी।
 विकास का क्या हुआ,यह तो पता नहीं चला,पर इनाम की फाइल  लटक गयी ।
जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने तो प्रधान मंत्री सचिवालय में धूल खा रही संबंधित फाइल किसी संवेदनशील अफसर ने उन्हें दिखाई।अटल जी ने 2003 में यानी 26 साल बाद बरूआ को डेढ़ लाख रुपए भिजवाए थे।     

रविवार, 15 अप्रैल 2018

बिहार उप चुनाव नतीजों ने दिए राजग के लिए अच्छे संकेत


  यदि कोई गठबंधन आठ में से पांच विधान सभा सीटें जीत जाए तो उसे खुशी मनानी चाहिए या उसे खुश होना चाहिए जिसे उनमें से सिर्फ तीन ही सीटें मिलीं  ?
  बिहार में तो तीन सीटें जीतने वाला राजद  गठबंधन यानी महा गठबंधन खुशियां  मना रहा है।
अब इसे विस्तार से समझिए।
 राज्य में अररिया लोक सभा और भभुआ तथा जहानाबाद विधान सभा  क्षेत्रों के लिए 11 मार्च को  उप चुनाव हुए।
 राजद  अररिया और जहानाबाद सीटों पर काबिज रहा तो भाजपा ने अपनी भभुआ सीट बनाये रखी।
इससे पहले के आम चुनावों में यही स्थिति थी ।
यानी 2014 के लोक सभा चुनाव में अररिया से राजद के तसलीमुद्दीन विजयी हुए थे। 2015 के विधान सभा चुनाव में भभुआ
से भाजपा और जहानाबाद से राजद की जीत हुई थी ।
उप चुनाव के नतीजों को देखने से ऊपरी तौर से तो यही लगता है कि कोई गठबंधन फायदे या घाटे में नहीं रहा।
यानी दोनों की अपनी -अपनी सीटें बच गयीं।
पर उप चुनाव नतीजे के गहन अध्ययन से राजग को फायदा मिलता नजर आ रहा है।
 अररिया लोक सभा चुनाव क्षेत्र के भीतर छह विधान सभा क्षेत्र हैं।
उप चुनाव में छह में से चार सीटों पर राजग की बढ़त रही और सिर्फ दो सीटों पर राजद को बढ़त मिली।
इसमें भभुआ को मिला दें तो राजग  कुल पांच विधान सभा सीटों पर राजद से आगे रहा।
    एक सासंद और दो विधायकों के निधन के कारण बिहार की तीन सीटों पर उप चुनाव हुए थे।मृतक जन प्रतिनिधियों के परिजन ही तीनों क्षेत्रों में हुए उप चुनाव में  मैदान में थे।
उन्हें सहानुभूति मतों का लाभ भी मिला।ऐसे अवसरों पर अन्य परिजन उम्मीदवारों को पहले भी मिलता रहा है।
तीनों सीटों पर परिजनों की ही जीत हुई है।
   इस उप चुनाव में यह बात भी देखी गयी कि राजद के मुस्लिम -यादव समीकरण के मतों की एकजुटता पहले की अपेक्षा बढ गय़ी है।मतदान में आक्रामकता बढ़ी है।यानी अधिक से अधिक मतदाताओं को मतदान केंद्रों पर पहुंचाने की कोशिश राजद ने की।
अररिया लोक सभा और जहानाबाद विधान सभा चुनाव क्षेत्रों के  नतीजों  से  इस बात का संकेत मिल रहा है।जहानाबाद से 1985 में कांग्रेस से सैयद असगर हुसेन विजयी हुए थे।
यानी वहां मुसलमानों की भी उल्लेखनीय आबादी है।यादवों की अच्छी- खासी आबादी तो है ही।वहां से 2015 में राजद के मुन्द्रिका प्रसाद यादव विजयी हुए थे।उनके निधन से यह सीट खाली हुई।इस बार दिवंगत नेता के पुत्र राजद उम्मीदवार थे। 
  नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद सन 2014 के लोक सभा चुनाव में मुस्लिम-यादव  बहुल क्षेत्र अररिया से राजद के तसलीमुद्दीन विजयी हुए थे।
 इस बार तसलीमुद्दीन के पुत्र सरफराज आलम  राजद के उम्मीदवार थे।उप चुनाव में सरफराज विजयी रहे।
सरफराज हाल तक जदयू विधायक थे।उन्होंने विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया ।उसके बाद राजद की ओर अपने पिता की सीट पर उम्मीदवार बने।
अररिया लोक सभा क्षेत्र के भीतर पड़ने वाले जोकीहाट और अररिया विधान सभा चुनाव क्षेत्रों में राजद को भारी बढ़त मिली।
वहां के मतदाताओं ने आक्रामक ढंग से मतदान किया।
जोकी हाट में 70 प्रतिशत और अररिया में 59 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है।
अन्य चार विधान सभा खंडों में भाजपा के उम्मीदवार प्रदीप कमार सिंह को बढ़त मिली।याद रहे कि प्रदीप कुमार सिंह सन् 2009 में इस क्षेत्र से विजयी हुए थे।
    इसके अलावा भभुआ विधान सभा चुनाव क्षेत्र में 
भाजपा की जीत से राजग बिहार में चुनावी भविष्य के प्रति आशान्वित हो सकता है।क्योंकि वहां जातियों की दृष्टि से लगभग मिलीजुली  आबादी है।
 यानी भभुआ तथा अररिया लोक सभा चुनाव क्षेत्र के नीचे पड़ने वाले चार विधान सभा खंडों के चुनाव नतीजे को देखकर यह कहा जा सकता है कि बिहार की राजग सरकार से आम लोगों का अभी मोहभंग नहीं हुआ है।इसलिए कि ऐसी ही मिलीजुली आबादी वाले बिहार में अधिकतर विधान सभा क्षेत्र हैं।मिलीजुली आबादी यानी  जातीय दृष्टि से भी मिली जुली आबादी वाला चुनाव क्षेत्र । 
इस तरह लगता है कि कुल मिला कर  दलीय समीकरण बिहार में राजग के अब भी अनुकूल ही है।
  हां, राजद के वोट बैंक यानी एम.वार्इ. वर्चस्व वाले चुनाव  क्षेत्र  अररिया और जहानाबाद में राजद उम्मीदवारों के पहले की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन को लेकर तरह -तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं।क्या लालू प्रसाद के जेल जाने से  मतदाताओं के एक वर्ग में बढ़ी सहानुभूति के कारण उनके वोट बैंक में एकजुटता और आक्रामकता बढ़ी है ?
क्या दिवंगत जन प्रतिनिधियों के परिजन के लिए मतदाताओं में भारी सहानुभूति के कारण वोट बढ़े हैं ? या कोई और बात है ? क्या इसकी भी काट के लिए बिहार सरकार को सुशासन और विकास के अपने कार्यक्रम को और तेज करना पड़ेगा ?
क्या महिला आरक्षण विधेयक संसद से पास करवा कर राजग इसकी क्षतिपूत्र्ति करेगा ?
क्या मंडल आरक्षण के 27 प्रतिशत कोटे को तीन भाग में बांटना होगा ?
इन सवालों  पर राजग को मंथन करना ही पडेगा।
  टेबल
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अररिया लोक सभा क्षेत्र--उप चुनाव-2018
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                    राजग --- महागठबंधन
नरपत गंज--        88349 ---- 69697
रानी गंज ----     82004 ---- 66708
फरबिस गंज         93739 -----74498
सिकटी-------   87070 ----- 70400
जोकी हाट-----39517------120765
अररिया------56834 ----- 107260
----------------------------
@पाक्षिक ‘यथावत’ में प्रकाशित मेरा लेख@ 

    

 क्या प्रारंभिक शिक्षक पात्रता परीक्षा के एक ही सर्टिफिकेट के आधार पर 69 शिक्षक नौकरी कर सकते 
हैं ?
यदि किसी व्यक्ति से आप यह सवाल पूछिएगा तो वह हंस देगा।कहेगा कि ऐसा असंभव है।पर यहां तो असंभव भी संभव हो जाता है।
  दैनिक ‘आज’ के संवाददाता डा.लक्ष्मीकांत सजल 
ने आज ऐसी ही खबर दैनिक ‘आज’ में दी है।
 सर्टिफिकेट की फोटोकाॅपी के आधार पर ऐसी नटवर-लीला नवादा जिले के आधुनिक नटवर लालों ने की है।
इनके अलावा भी अनेक फर्जी शिक्षक पकड़ा रहे हैं।अन्य जिलों में भी ऐसी जांच हो रही है।
  पर, सवाल है कि इस प्रतिभा मारक फर्जीवाड़े में संबंधित शिक्षकों के साथ-साथ अन्य कितने अफसर व दलाल शामिल रहे हैं ? क्या उन सब की पहचान कर उन्हें तौल कर सजा दी जा सकेगी ? 
@ 14 अपै्रल 2018@    

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

कुछ दशक पहले की बात है।मैं संवाददाता के रूप में बिहार विधान सभा ,की प्रेस दीर्घा में मौजूद था।
  अचानक प़क्ष-विपक्ष के कई विधायक एक साथ खड़ा होकर मांग करने लगे--अध्यक्ष महोदय,हमें सुरक्षा गार्ड चाहिए।मेरी जान पर खतरा है।सरकार हमें सुरक्षा नहीं दे रही है।हुजूर, आप हस्तक्षेप करिए।
पुराने  गांधीवादी स्पीकर झुंझला गए।उन्होंने लीक से हटकर कहा कि मुझे तो कोई सुरक्षा नहीं चाहिए।मैंने किसी की हत्या नहीं करवाई है।
  ऐसी टिप्पणी पर अधिकतर  सदस्यों की बोलती बंद हो गयी। 
दरअसल जो लोग सुरक्षा की गुहार कर रहे थे,उनमें से कुछ ऐसे विधायक भी थे जिन पर हत्या के  आरोप में मुकदमे चल रहे  थे।उन्हें पुलिस आदतन अपराधी मानती थी।
  

बुधवार, 11 अप्रैल 2018

 आम भारतीय समाज फिल्मी जगत से आज भी बेहतर है।
जबकि, फिल्मी जगत अपनी फिल्मों के माध्यम से आए दिन बड़े- बड़े उपदेश और संदेश देेेेेेेेेेेेेेेेेेेेता रहता है।
सलमान खान प्रकरण से एक बार फिर यह पता चला।
  किसी भी जाति या सम्प्रदाय  का कोई भी बड़ा नेता कानून तोड़ने के गंभीरत्तम आरोप में भी फंसता है तो भी आम तौर पर उस जाति व समुदाय  के अधिकतर लोगों का समर्थन उसे मिल ही जाता है।क्योंकि उनके लिए व्यापक जनहित और कानून के शासन का कोई  मतलब नहीं है।
फिर भी उसी जाति या समुदाय के कुछ अन्य लोग जरूर यह कहते पाए जाते हैं कि ‘उसने कानून तोड़ा है तो उसे सजा होनी ही चाहिए चाहे वह मेरी ही जाति का क्यों न है।तभी देश में कानून का शासन बरकरार रहेगा।अन्यथा जंगल राज आ जाएगा।’
  पर पिछले दिनों जब जोध पुर कोर्ट ने फिल्म स्टार सलमान खान को पांच साल की सजा दी तो फिल्मी जगत से ऐसी एक भी आवाज नहीं आई कि ‘उसने कानून तोड़ा है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिए थी।’
कम से कम मैंने ऐसी कोई आवाज नहीं सुनी।किसी ने सुनी हो बताएं।
बल्कि फिल्म जगत से इस मामले में जो भी बोला,सलमान के  बचाव में ही बोला।
ऐसा लगा मानो वह कह रहा हो कि बड़ी  हस्ती कानून से बहुत ऊपर है।कानून को चाहिए कि उसे छुए तक नहीं।
ऐसा  इस बात के बावजूद हुआ कि अभियोजन पक्ष के वकील ने जोध पुर कोर्ट में कहा था कि ‘सलमान आदतन अपराधी है।’
  यानी फिल्मी जगत से अब भी हमारा आम भारतीय समाज बेहतर है, भले उसे आप कितना भी जातिवादी क्यों न कहें।


मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

 लोकपाल के चयन के लिए गत 1 मार्च को बैठक बुलाई गयी थी।उसमें  शामिल होने के लोक सभा में कांग्रेस के नेता मलिकार्जुन खडगे को ‘विशेष आमंत्रित’ के रूप में आमंत्रित किया गया  था।विशेष आमंत्रित को वोट देने का अधिकार नहीं है,ऐसा कह कर  खड़गे उस बैठक में शामिल नहीं हुए।
याद रहे कि तकनीकी तौर पर प्रतिपक्ष के नेता को ही वोट को अधिकार है।पर यदि खड़गे को बुलाया गया था तो उन्हें जाना चाहिए था।क्योंकि उम्मीदवारों के नाम पर वे अपनी राय तो दे ही सकते थे।वैसे भी सर्वसम्मति की परंपरा खुद कांग्रेस ने समाप्त कर दी है।
 वैेसे खगड़े को कोई जायज शिकायत है तो  केंद्र सरकार को चाहिए था कि उस समस्या का जल्द समाधान करती ताकि  लोकपाल की नियुक्ति का काम शीघ्र पूरा हो जाता।
खड़गे की मांग  पूरी करने में  कोई कठिनाई है तो सरकार देश को बताए।दरअसल वह नियुक्ति वर्षों से अटकी हुई है।इस देरी पर तरह- तरह की चर्चाएं हो रही हैं।यदि जल्द नियुक्ति नहीं हुई तो  लोगबाग इस नतीजेे पर पहुंचने को स्वतंत्र होंगे  कि मोदी सरकार ही लोकपाल की नियुक्ति  नहीं चाहती है।
  पर, इसके साथ ही जरा कांग्रेस भी खुद अपनी तस्वीर  आईने में देख ले। 
मन मोहन सरकार ने मुख्य सतर्कता आयुक्त के चयन के लिए 3 सितंबर 2010 को बैठक बुलाई गयी थी।बैठक में प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह,गृह मंत्री पी.चिदम्बरम और लोक सभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज उपस्थित थीं।
पी.एम. और एच.एम.  ने सुषमा स्वराज के सख्त विरोध के बावजूद विवादास्पद पी. थाॅमस का नाम बहुमत से तय कर लिया।
जबकि सुषमा ने कहा था कि थाॅमस के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप विचाराधीन है।ऐसे व्यक्ति को आप  सी.वी.सी.कैसे बना सकते हैं ?जबकि, सी.वी.सी.को भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में लगी सारी  सरकारी एजेंसियों के कामांे पर ईमानदारी से नजर रखनी है और उन्हें निदेशित करना है।
पर सब जानते है कि मनमोहन  सरकार की कार्यशैली कैसी थी !
सुषमा स्वराज को तो उस बैठक में वोट देने का अधिकार था।उस अधिकार का भी तो कोई सुफल नहीं निकला।थाॅमस साहब नियुक्त कर दिए गए।
  हां, बाद में एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने थामस की उस नियुक्ति को रद कर दिया था।  
  

सोमवार, 9 अप्रैल 2018

  कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के उपवास स्थल से सन 1984 के सिख संहार के आरोपियों सज्जन कुमार और जगदीश टाइटर को हटवा कर कांग्रेस ने आज एक अच्छा काम किया है।
कुछ साल पहले राहुल गांधी ने एक टी.वी. इंटरव्यू में यह स्वीकारा था कि उस दंगे में कांग्रेस के भी कुछ लोग शामिल थे।उस समय तो नाम नहीं लिया था,पर आज देश ने  यह जान लिया कि राहुल का इशारा किनकी ओर था।
  यह उसी तरह का अच्छा काम है जिस तरह कभी राहुल गांधी ने सजायाफ्ता नेता पक्षी अध्यादेश की काॅपी फाड़ कर किया था।
ऐसे कदमों से किसी पार्टी की छवि बेहतर बनती है।
अब कांग्रेस ने  गुजरात दंगों के ं आरोपितों और सजायाफ्ताओं के खिलाफ बोलने का नैतिक अधिकार पा लिया है।
पर सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार, घोटालों और महा घोटालों के आरोपित कांग्रेसी नेताओं  को भी इसी तरह धरना स्थलों से कभी हटाया जाएगा जब भ्रष्टाचार को लेकर धरना-अनशन  हो रहा होगा ? हालांकि इस मर्ज की व्यापकता को देखते हुए यह काम तो बड़ा कठिन लगता है।लेकिन वह काम कभी यदि हो पाया  तो कांग्रेस उड़ान भरने लगेगी।
पर सवाल यह भी है कि कोई अपने पैरों में कुल्हाड़ी कैसे मार सकता है ?
  हालांकि यदि ऐसा कभी हुआ तो उसके बाद तो  नीरव मोदी तथा दूसरे घोटालेबाजों को लेकर मोदी सरकार  के खिलाफ भी बोलने का नैतिक हक  कांग्रेस को  मिल जाएगा।
  पर इसमें एक और दिक्कत है।सी.बी.आई ने नीरव मोदी के खिलाफ गैर जमानती वारंट अदालत से जारी करवा दिया है।
पर कांग्रेस के शासन काल में सी.बी.आई.ने ऐसा  कोई वारंट कभी बोफर्स दलाल क्वात्रोचि के खिलाफ जारी नहीं करवाया था।जबकि, उसी शासन काल में इस देश के आयकर  ट्रिब्यूनल ने जनवरी, 2011 में कहा था कि क्वात्रोचि को बोफर्स की दलाली में 41 करोड़ रुपए मिले हैं।इसलिए उस पर भारत सरकार का टैक्स बनता है।

  

  पश्चिम बंगाल में वाम दलों के नेता इन दिनों यह रोना रो रहे हैं कि तृणमूल कांग्रेस के दबंग लोग पंचायत चुनाव के लिए हमें नामांकन पत्र भी नहीं भरने दे रहे हैं।उन लोगों ने बी.डी.ओ.आॅफिस, एस.डी.ओ.आॅफिस और कहीं -कहीं तो डी.एम.आॅफिस पर भी कब्जा कर लिया है।
  बंगाल से जिस तरह की सूचनाएं इन दिनों आती रहती हैं,उनसे लगता है कि वाम नेताओं का आरोप सही है।
पर जब वाम मोर्चा सत्ता में था,तो उनके लोग क्या कर रहे थे ?वही तो कर रहे थे जो काम आज टी.एम.सी. के लोग कर रहे हैं।तब खबर आती थी कि तब थाने  प्राथमिकी भी तभी  दर्ज करते थे जब लोकल वाम नेता उसकी अनुमति देते थे।
तब ‘बूथ जाम’ का चलन था।अब ‘नामांकन जाम’ हो रहा है।
 इतना ही नहीं, सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार @ 1972-77@ने नक्सलियों के सफाये के लिए गुंडा वाहिनी तैयार करवाया था।
जब 1977 में वाम सरकार बनी तो उन्हीं गुंडों में से अनेक लोग वाम मोर्चा में शामिल हो गए।
वे अब उल्टे कांग्रेसियों पर हमले करने लगे।
वर्ग संघर्ष के नाम पर भारी मारकाट होती रही।
दोनांे दलों के बीच इतनी कटुता बढ़ी कि हाल के एक चुनाव में जब कांग्रेस और सी.पी.एम.ने चुनावी समझौता किया तो उसका कोई खास लाभ इन दलों को नहीं हुआ।क्योंकि लोग पिछली आपसी मारकाट भूले नहीं हैं।
  अब हाल के कुछ चुनावों से यह लगता है कि भाजपा तृणमूल कांग्रेस का विकल्प बनने की राह पर है।अंध मुस्लिम तुष्टिकरण को यह नतीजा होना ही था।
यदि वहां कभी भाजपा की सरकार बनी तो वही बाहुबली भाजपा में शामिल हो जाएंगे जो आज वाम से आकर तृणमूल की ‘सेवा’ कर रहे हैं।
 अरे भई, सभी दल पहले राजनीति से हिंसक तत्वों को निकाल बाहर करिए अन्यथा जिस तरह आज वाम दल के नेता आज रो रहे हैं,उसी तरह अन्य दल भी कल रोएंगे।गंुडों शामिल करेगी तो भाजपा भी रोएगी।
  याद रहे कि हाल में पूर्व सांसद वासुदेव आचार्य जैसे बुजुर्ग व प्रतिष्ठित नेता को भी गुंडों ने  नहीं बख्शा।
पर सवाल है कि आचार्य जी तब क्या कर रहे थे जब 1990 में तृणमूल कांग्रेस की रैली पर घातक हमला करके सी.पी.एम. के बाहुबलियों ने ममता बनर्जी पर जान लेवा हमला किया था ? उनका सिर फोड़ दिया था।मरते -मरते बची थी।
उस हमले के संबंध में अब भी सी.पी.एम.कार्यकत्र्ता लालू आलम पर केस चल रहा है।
यह और बात है कि बंगाल की चालू राजनीतिक शैली का अनुसरण करते हुए आलम अब ममता का प्रशंसक हो गया है।
आचार्य जी,आपने और आपकी पार्टी ने जो बोया है,वही तो काट रहे हैं।@ 9 अप्रैल 2018@