पुण्य तिथि पर ‘दिनकर’ की याद में
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24 अप्रैल 1974 को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का निधन हुआ था।
उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु ने तत्काल उन पर एक कविता लिखी।कविता जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखी गयी थी।
प्रस्तुत है वह ऐतिहासिक कविता जो ‘दिनमान’ के 5 मइर्, 1974 के अंक में छपी थी।
‘हां,याद है।
उच्चके जब मंचों से गरज रहे थे
हमने उन्हें प्रणाम किया था
पहनाया था हार।
भीतर प्राणों में काट रहे थे हमें
हमारे वे पाप
हमारी बुझी ज्वाला को धधका कर
हमें अग्निस्नान करा कर पापमुक्त
खरा बनाया।
पल विपल हम अवरुद्ध जले
धारा ने रोकी राह,हम विरुद्ध चले
हमें झकझोर कर तुमने जगाया था
‘रथ के घर्घर का नाद सुनो.........’.
‘आ रहा देवता जो, उसको पहचानो....’
‘अंगार हार अरपो रेे........’.
वह आया सचमुच, एक हाथ में परशु
और दूसरे में कुश लेकर
किंतु..... तुम ही रूठ कर चले गये।
विशाल तम तोम और चतुर्दिक घिरी
घटाओं की व्याकुलता से अशनि जनमी,
धुओं और उमस में छपप्टाता हुआ प्रकाश
खुल कर बाहर आया।
किंतु तुम.........?
अच्छा ही किया , तुम सप्राण
नहीं आये।नहीं तो, पता नहीं क्या हो जाता ?
यहां,
जवानी का झंडा उड़ाते
कालकूट पिये और भाल पर अनल किरीट लिये
कृपाण, त्याग, तप,साधना, यज्ञ, जप को टेरते
गरजते, तरंग से भरी आग भड़काते
तुम्हारे बाग के असंख्य अनल कुसुम
तुम्हारी अगुआनी में आंखें बिछाकर
प्रस्तुत थे............
उनकी जवानियां लहू में तैर तैर कर
नहा रही थीं।
ऐसे में तुम आते
तो पता नहीं, और क्या क्या होता,
पता नहीं ,अब तक क्या क्या हो जाता,
और, तब तुमको फासिस्ट और चीनी
और अमेरिकी और देसी सेठों की दलाली
और देशद्रोह के जुर्म में
निश्चय ही देश से बाहर निकाल दिया जाता।
पता नहीं कहां.....किस देश ..
किस हिमालय और गंगाविहीन देश में
अच्छा ही किया ,चले गये
उत्तर की दिव्य ,कंचन काया को
दक्षिण की माटी माता की गोद में छोड़
बाहर ही बाहर ,भले गये।
हमें क्षमा करना,कविवर विराट्।
हम तुम्हारी आत्मा की शांति के बदले
उसको अपनी काया की एकांत और पवित्र
कोने में
प्रतिष्ठित करने की कामना करते हैं।
ताकि ,जहां कहीं भी अनय हो उसे रोक सकें,
जो करें पाप शशि सूर्य भी,उन्हें टोक सकें
हमारे भीतर जो एक नया अंगार भर रहा है।
बस वही एक आधार है हमारा।
कपट शोकातुर मुखौटा लगा
रुआंसी आवाज में ,गले को कंप कंपा
तुमको श्रद्धांजलि देने का नाटक
हम नहीं करेंगे।
तुम तो जीवित हो,जीवित रहोगे हमारे बीच
तेजोदीप्त।
मरने को हमेशा दोपहरी के तिमिर
तुम्हारे दुश्मन ही मरेंगे।
इस बार जब गांव जाकर ,
उत्तर की ओर निहारूंगा
हिमालय के स्वर्ण शिखरों में देखूंगा
एक और नया शिखर
निश्चय ही--दिनकर।
इसे क्या संयोग ही कहेंगे ?
तुम्हारी शव यात्रा से लौटकर बैठा ही था
कि पड़ोस में कहीं रेडियोग्राम पर
साधक गायक हरींद्रनाथ का भावाकुल कंठस्वर-
‘सूर्य अस्त हो गया
गगन मस्त हो गया,सूर्य अस्त हो गया।’
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