बिहार के लोगों ने मेघालय से लेकर मारीशस तक जाकर जैसी उद्यमशीलता दिखाई,उसकी आधी उद्यमशीलता भी यदि अपनी जन्मभूमि में पहले से ही दिखाई होती तो न सिर्फ वे खुद प्रगति करते बल्कि बिहार को भी बहुत आगे ले गए होते।हालांकि अब भी देर नहीं हुई है।
वैसे यहां उद्यमशीलता जरूर है,पर आम तौर वह सीमित समुदायों में ही अधिक है।
हालांकि अब जहां-तहां आम उद्यमशीलता भी दिखाई पड़ने लगी रही है,पर जरूरत के अनुसार उसमें विस्तार की अभी काफी गुंजाइश है।
बिहार के बांका जिले के अमर पुर प्रखंड से ऐसी ही एक खबर आई है जहां की महिलाएं दुधारू पशुओं के पालन के जरिए अच्छी कमाई कर रही है।
2007 में वहां शुरूआत एक गाय से हुई थी।
दूसरी ओर राज्य के अनेक हिस्सों में ऐसी छोटी शुरूआत कम ही हो पाती है।इसके कई कारण हैं।कुछ मामलों में निजी अहंकार और कुछ मामलों में जातीय श्रेष्ठता बोध भी है।
इससे व्यवसाय के क्षेत्र में कुछ अन्य राज्यों की तरह बिहार आगे नहीं बढ़ पा रहा है।
इसी देश के कुछ राज्यों के कुछ लोगों ने छोटे व्यवसाय शुरू करके काफी आर्थिक तरक्की की है।उनके यहां जाकर छोटी-बड़ी नौकरी करना अनेक बिहारियों को मंजूर है,पर खुद अपने यहां किसी छोटे व्यवसाय से शुरू कर आगे बढ़ने में हिचक मौजूद है।जबकि, यह कहानी अब आम है कि चर्चित हस्ती धीरूभाई अम्बानी ने गैस स्टेशन के अटेंडेंट के रूप में काम शुरू करके व्यवसाय जगत में अपना अत्यंत ऊंचा स्थान बनाया।
बिहारियों को अम्बानी बंधुओं के यहां शान से नौकरी करना मंजूर है,पर बड़े अम्बानी की तरह मामूली शुरूआत करके अन्य लोगों को नौकरी देना लायक खुद को बनाना मंजूर नहीं है।
यह बात सच है कि सब अम्बानी नहीं बन सकते।पर कोशिश करने में क्या बुराई है ?ऐसा भी नहीं मामूली शुरूआत करके ऊंचे लक्ष्य हासिल ही नहीं किए जा सकते।
कभी तो आलू-प्याज उपजाने से भी था परहेज ---
आजादी के तत्काल बाद बिहार के अनेक गांवों में कई सवर्ण किसान आलू-प्याज उपजाने में भी अपनी तौहीन मानते थे।
वे सिर्फ गेहूं-मकई-धान-गन्ना उपजाते थे।
दूसरी ओर समय के साथ जो आलू-प्याज-हरी सब्जी उपजाने वालों के यहां जब अधिक नकदी आने लगी तो परंपरागत खेती करने वालों का रुख बदलने लगा।
वे आलू-प्याज पर तो आए पर हरी सब्जी की खेती तब भी उनसे दूर थीं।
परंपरागत खेती करने वालों में से जब कई लोगों की जमीन आलू-प्याज-हरी सब्जी तथा पशु पालन वाले लोग खरीदने लगे तो उनमें भी थोड़ी चेतना जगी।
अब वे हरी -सब्जी उगाने लगे हैं।पर यदि अपने ही गांव में कोई बाजार जम गया तो भी वे छोटी दुकानदारी से शुरूआत करने को अब भी अधिकतर लोग तैयार नहीं हैं।इसी अवसर पर धीरू भाई अम्बानी याद आते हैं।
यदि बिहार के अधिक कल्पनाशील लोग छोटे व्यवसाय से शुरू करें तो न सिर्फ देर -सवेर उनका आर्थिक विकास होगा बल्कि राज्य भी आगे बढ़ेगा।खास कर वैसे व्यवसाय के विकास की अधिक जरूरत है जो कृषि से जुड़ा हुआ है।जैसे दुधारू पशुओं का पालन।
आसाराम यानी ऊंट पहाड़ के नीचे--
जब आसाराम की तूती बोतली थी तो किसी ने इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि यह ऊंट भी पहाड़ के नीचे आएगा।पर कहते हैं कि ‘देर है लेकिन अंधेर नहीं है।’
यह भी सच है कि सारे ऊंट अब भी पहाड़ के नीचे नहंीं आ पा रहे हैं।पर कल भी नहीं आएंगे,इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।
प्रशासन, व्यापार,राजनीति तथा अन्य क्षेत्रों के कई छोटे -बड़े आसाराम यानी ऊंट समय-समय पर पहाड़ के नीचे आते ही रहेंगे।
जो नहीं आ रहे हैं,वे सब बच ही जाएंगे,इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।आसाराम के हश्र को देखते हुए तो यही लगता है।
इसलिए अन्य क्षेत्रों के ‘हे, आसारामो अभी से संभल जाओ !
पता नहीं ,कब तुम्हारी भी बारी आ जाए !’
आरक्षण का यू.पी.फार्मूला---
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में डालने के प्रस्ताव पर काम कर रही है।
हालांकि यह पुराना प्रस्ताव है,पर कुछ कारणवश रुक गया था।
सपा-बसपा गंठजोड़ के कारण दबाव में आई भाजपा सरकार को यह लगता है कि यदि इसे लागू कर दिया गया तो उससे बसपा कमजोर होगी।
योगी सरकार के पिछड़ा कल्याण मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने एक अन्य प्रस्ताव मुख्य मंत्री को समर्पित किया है।उस प्रस्ताव के अनुसार पिछड़ों के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन हिस्सों में बांट देना है ताकि कमजोर पिछड़ों को भी आरक्षण का पूरा लाभ मिल सके।
देखना है कि योगी सरकार की इस पहल का सपा-बसपा किस तरह से जवाब देगी।
एक भूली-बिसरी याद---
गांधी जन्म शताब्दी समारोह में शामिल होने के लिए खान अब्दुल गफ्फार खान सन 1969 में पाकिस्तान से भारत आये थे।
उसी साल गुजरात में हुए दंगे में करीब सात सौ लोगों की जानें गयी थीं।
दंगे की पीड़ा कम करने ,पीडि़तों के घाव पर मलहम लगाने और सांंप्रदायिक सद्भाव कायम रखने की सलाह देने के लिए गफ्फार खान गुजरात के दंगाग्रस्त इलाकों में ग्यारह दिनों तक रहे।
उन्होंने मुसलमानों और हिंदुओं के बीच से अविश्वास व बैमनस्य के जहर को निकालने के लिए गुजरात की दर्जनों सभाओं में भाषण किये।
याद रहे कि बादशाह खान नहीं चाहते थे कि भारत बंटे।गुजरात में खान अब्दुल गफ्फार खान को 1969 में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच निर्भीक रूप से कुछ ऐसी बातें भी कहते सुना गया जैसी बातें भारतीय नेता कहने का साहस नहीं रखते।खान अब्दुल गफ्फार खान ने वहां हिंदुओं से कहा कि ‘मैं मानता हूं कि आप राष्ट्रोत्थान का काम करते हैं। मगर मुझे महसूस होता है कि आपलोग यह काम सिर्फ हिंदू समाज में करते हैं। इसलिए आप लोगों से मेरी इल्तिजा है कि आप मुसलमानों की ओर भी ध्यान दें। उनमें भी नई चेतना पैदा करने की कोशिश करें।’उन्होंने मुुसलमानों से कहा कि जो सच्चा मुसलमान है,वह कभी भी किसी पर जुल्म करने की बात नहीं सोच सकता।’उन्होंने अहमदाबाद में मुसलमानों की एक भीड़ को संबोधित करते हुए यह भी कहा कि ‘उस पर खुदा का कहर पड़ेगा जो अपने
मुल्क के साथ वफादारी नहीं करेगा।’
खान साहब ने गुजरात विदयापीठ में आयोजित पदवी दान समारोह में विद्यापीठ के स्नातकों व अन्य श्रोताओं से कहा कि ‘मुसलमान यदि कुछ गलत ढंग से व्यवहार करते दिखाई दे रहे हैं तो उसका मुख्य कारण यह है कि मुसलमान समाज ने कभी वास्तविक नेतृत्व पैदा ही नहीं किया।स्वतंत्रता से पूर्व विदेशियों के साथ जो संघर्ष हुआ,उसमें भी नेतृत्व हिंदुओं के पास था और मुसलमानों को मुस्लिम लीग के हवाले कर दिया गया। लीग के नेता जनता के वास्तविक नेता नहीं थे। इसलिए आज हम देखते हैं कि जो राजनीतिक चेतना इस देश के हिंदुओं में है,मुसलमानों में उसका अभाव है।’
बादशाह खान ने कहा कि ‘ मैं आपके पास इसलिए आया हंू क्योंकि आप इस सांप्रदायिक तनाव कम करने के लिए सलाह मशविरा करने के लिए आप मेरे पास नहीं आये।’
और अंत में---
1985 में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ओडि़सा के सूखाग्रस्त कालाहांडी गए थे।
वहां उन्होंने कहा कि हम दिल्ली से 100 पैसे भेजते हैं।पर उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जरूरतमंद लोगों तक पहुंच पाते हैं।
राजीव जी ने जो कुछ कहा था,वैसा तो एक दिन में नहीं हुआ होगा।यानी आजादी के बाद से ही रुपये के ‘घिसने’ का काम शुरू हो गया था।कल्पना कीजिए कि सौ मेें से साठ पैसे भी पहुंच गए होते तो बिहार सहित पूरे देश का आजतक कितना अधिक विकास हो गया होता !
@प्रभात खबर -बिहार--27 अप्रैल 2018 को प्रकाशित मेरे कानोंकान काॅलम से@
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