शनिवार, 21 अप्रैल 2018

---सरकारी भूमि पर कब्जा करने वालों के नाम जग जाहिर करे सरकार ---


सवाल सिर्फ पटना के गोलक पुर का ही नहीं है।देश -प्रदेश के अनेक स्थानों में कानून को ठेंगा दिखा कर अनेक लोगों ने सरकारी जमीन पर पक्का निर्माण कर रखा है।
मुकदमे चलते हैं,सुनवाई होती है,पीढि़यां बीत जाती हैं।
इस बीच जमीन के अभाव में आम सरकारी विकास व कल्याण के अनेक काम जहां तहां रुके रहते हैं।
  सरकारों को चाहिए कि वे इस बीच अतिक्रमणकारियों के नाम -पता जग जाहिर करे।
लोगों को पता तो चले कि वे महानुभाव कौन हैं।उनमें से शायद कुछ लोगों को शर्म आए।उन्हें नहीं तो उनके वत्र्तमान व भावी रिश्तेदारों को शर्म आए।सभ्य समाज में उनकी ‘महिमा’ गाई  जाए!
उनके नाम मालूम हो जाएंगे तो अनेक लोग इस बात का भी अनुमान  लगा लेंगे कि उन्हें  मदद किन नेताओं से मिल रही है।
  यदि अतिक्रमणकारियों में कोई सरकारी या अर्ध सरकारी संस्थान में कर्मचारी है तो उसका वेतन -प्रमोशन वगैरह रोका जा सकता है।कानून इजाजत दे तो पेंशन भी।यदि इस मामले में कानून की कमी है तो उसे बनाया जाना चाहिए।
 यदि पटना के गोलक पुर का ही मामला लें तो दशकों पूर्व उस तीन एकड़ जमीन का अधिग्रहण  पास के इंजीनियरिंग काॅलेज के विकास के लिए हुआ था।
पर स्थानीय प्रशासन की साठगांठ या अनदेखी से उस पर अतिक्रमण होता चला गया।
विकास चंद्र उर्फ गुड्डू बाबा का भला हो जिन्होंने अपनी जान  हथेली पर लेकर इस संबंध में कानूनी लड़ाई शुरू की।
पर पटना हाई कोर्ट के सख्त आदेश के बावजूद प्रशासन लचर साबित हो रहा है।क्या प्रशासन विकास चंद्र से भी कमजोर है ? खैर, गोलक पुर का चाहे जो हश्र हो ,पर ऐसे अन्य अतिक्रमणकारियों के भी शुभ नाम तो अखबार पढ़कर लोग जान तो लें।
दशकों से यह मांग होती रही थी कि बैंकों से भारी कर्ज लेकर दबा लेने वालों के नाम सरकार उजागर करे।नहीं किया।नतीजतन इस बीच अनेक विजय माल्या और नीरव मोदी पैदा हो गए।  
साथ चुनाव से स्थानीय मुद्दे गौण नहीं---
क्या लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होने से राज्यों से संबंधित स्थानीय मुद्दे गौण हो जाएंगेे ?
पिछला अनुभव तो यह नहीं बता रहा  है।
पर अनेक लोग इसी आधार पर इसका विरोध कर रहे हैं।
याद रहे कि 1967 में अंतिम बार लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे।उस चुनाव में  लोक सभा में तो कांग्रेस को बहुमत मिल गया था ,पर सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी थी।दो अन्य राज्यों में दल बदल के कारण गैर कांग्रेसी सरकारें बन गयीं।
बिहार के लोगों में भी स्थानीय कांग्रेसी सरकार के भ्रष्टाचार के कारण उसके खिलाफ भारी रोष था।
पर उतना ही रोष केंद्र की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ नहीं था।
नतीजतन राज्य की कुल 53 लोक सभा सीटों में से 34 सीटें कांग्रेस को मिलीं।
यानी आधी से अधिक सीटेंे।
पर बिहार विधान सभा की आधी से अधिक सीटों पर कांग्रेस हार गयी थीं।दरअसल आज के कुछ नेता और दल यह चाहते हैं कि जितनी अधिक दफा चुनाव होंगे,तो उतना ही अधिक चंदा बटोरने का उन्हें अवसर मिलेगा।
उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है कि अधिक चुनाव यानी सरकार का अधिक खर्च।
अधिक चुनाव के कारण विकास भी रुकते हैं।
संभवतः अपने देश में जिस तरह के कुछ नेता हैं,वैसे शायद ही किसी अन्य देश में होंगे ! 
भारी घाटे के बावजूद विनिवेश का विरोध-
एयर इंडिया में अब तक करीब 50 हजार करोड़ रुपए का घाटा हो चुका है।
इसके अलावा उस पर 55 हजार करोड़ रुपए का कर्ज भी है।
इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने इसके 76 प्रतिशत शेयर को बचे देने का निर्णय किया है।पर उसका भी विरोध हो रहा है।इसी तरह घाटे में चल रहे कोलकाता के ग्रेट इस्टर्न होटल को ज्योति बसु सरकार ने बेचना चाहा तो विरोध हो गया।उनके ही दल से जुड़े सीटू ने विरोध किया।बिक्री रुक गयी।पर जब स्थिति और बिगड़ी तो आखिरकार बुद्धदेव सरकार ने उसका विनिवेश कर दिया।
उसी तरह अभी जो लोग एयर इंडिया के विनिवेश का विरोध कर रहे हैं,स्थिति के और बिगड़ने पर उन्हें उसका समर्थन करना पड़ेगा।
दरअसल इस गरीब देश में होना तो यह चाहिए था कि देश के विभिन्न मजदूर और सेवा संगठन अपने संस्थान में व्याप्त भ्रष्टाचार और काहिली का कारगर विरोध करते तो कहीं विनिवेश की नौबत ही नहीं आती।
निजी क्षेत्र का विस्तार नहीं होता जैसा हो रहा है।
  दिनकर की याद को  समर्पित रेणु की कविता---
 1974 के इसी महीने की 24 तारीख को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का  निधन हुआ  था।
 उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु ने तत्काल उन पर एक कविता लिखी।कविता थोड़ी लंबी है।जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखी गयी थी।
पर उस कविता का एक अंश यहां प्रस्तुत है। 
 हा,याद है।
उच्चके जब मंचों से गरज रहे थे
हमने उन्हें प्रणाम किया था
पहनाया था हार।
भीतर प्राणों में काट रहे थे हमें
हमारे वे पाप
हमारी बुझी ज्वाला को धधका कर
हमें अग्निस्नान करा कर पापमुक्त
खरा बनाया।
पल विपल हम अवरुद्ध जले
धरा ने रोकी राह,हम विरुद्ध चले
हमें झकझोर कर तुमने जगाया था
‘रथ के घर्घर नाद सुनो..........
आ रहा देवता जो,उसको पहचानो
अंगार हार अरपो रे.........
वह आया सचमुच,एक हाथ में परशु
और दूसरे में कुश लेकर
किंतु...तुम ही रूठ कर चले गये।
विशाल तम तोम और चतुर्दिक घिरी
घटाओं की व्याकुलता से अशनि जनमी,
धुओं और उमस में छपप्टाता हुआ प्रकाश
खुल कर बाहर आया।
किंतु तुम....?
अच्छा ही किया ,तुम सप्राण
नहीं आये,नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता ?
      भूली-बिसरी याद--- 
धारावाहिक ‘रामायण’ के लिए हनुमान की भूमिका निभाने के
लिए किसी पहवान का चयन करना था।
इस किरदार के लिए कई पहलवान रामानंद सागर के पास पहुंचे थे।
इस प्रसंग का विवरण दारा सिंह ने अपनी जीवनी में कुछ इस तरह लिखा है, ‘पर रामानंद सागर के दिल-दिमाग में 
मेरी तस्वीर इस चरित्र को निभाने के लिए इस तरह दृढ़ता से जमी हुई थी कि दूसरा व्यक्ति उनको जमता ही नहीं था।
यह महाबली हनुमान की अपनी इच्छा थी जो सागर साहब को मेरे हक में प्रेरित करती रही होगी।
धारावाहिक रामायण चर्चित हो जाने के कारण सभी कलाकारों को बहुत लाभ हुआ।लोगों ने मरे चरित्र को ऐसे महसूस किया ,जैसे हनुमान जी प्रत्यक्ष आकर अदाकारी कर रहे हों।
मैं इस चरित्र को निभाने से पहले महाबली हनुमान जी आशीर्वाद मांगता था।
और मैं यह महसूस करता था कि उन्हें मुझे वरदान दिया है।तभी तो सारी जनता ने मेरे इस चरित्र को पसंद किया,वरामैं किस योग्य था !
दारा सिंह लिखते हैं कि बहुत से विद्वान और सयाने लोग मुझसे पूछते हैं कि हनुमान की भूमिका करते हुए मैंने कैसा महसूस किया ?
यह पत्रकारों ने भी पूछा।मैंने उनको महाबली में अपनी आस्था के बारे में बताया ।खास कर पहलवान लोग शक्ति के प्रतीक हनुमान जी को मानते हैं।
कुछ लोग यह भी मानते हैं कि हनुमान जी आज भी मृत्यु लोक में विचर रहे हैं।
  रामायण की शूटिंग के दौरान खान-पीने के बारे में भी 
दारा सिंह ने लिखा है कि ‘शूटिंग के दौरान खाने पीने में परहेज किया जाता था।
कई कलाकार दुःखी भी थे कि तपस्वियों वाले तौर तरीकों में रहना पड़ रहा है।पर जब वाहवाही मिलती तो खुश भी होते थे।
हालांकि बाद में कइयों ने खा-पीकर दंगे फसाद भी किए।
    और अंत में---
विवादास्पद आई.पी.एस.अधिकारी विवेक कुमार की कमाई की रफ्तार तो देखिए !
यदि इसी रफ्तार के साथ डी.जी.पी.पद तक पहुंच जाते तो 
इनके पास कितना धन संग्रह हो गया होता ?
उसका अनुमान तो मुश्किल
 है।पर एक बात जरूर होती ।हमारे देश के कुछ धन बटोरू नेतागण  ईष्र्यालु  जरूर हो गए होते।सोचते कि कहां नेता बने,आई.पी.एस.ही बन गए होते।हालांकि वह तो उनके वश में होता तो राजनीति में क्यों जाते ?  





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