पश्चिम बंगाल में वाम दलों के नेता इन दिनों यह रोना रो रहे हैं कि तृणमूल कांग्रेस के दबंग लोग पंचायत चुनाव के लिए हमें नामांकन पत्र भी नहीं भरने दे रहे हैं।उन लोगों ने बी.डी.ओ.आॅफिस, एस.डी.ओ.आॅफिस और कहीं -कहीं तो डी.एम.आॅफिस पर भी कब्जा कर लिया है।
बंगाल से जिस तरह की सूचनाएं इन दिनों आती रहती हैं,उनसे लगता है कि वाम नेताओं का आरोप सही है।
पर जब वाम मोर्चा सत्ता में था,तो उनके लोग क्या कर रहे थे ?वही तो कर रहे थे जो काम आज टी.एम.सी. के लोग कर रहे हैं।तब खबर आती थी कि तब थाने प्राथमिकी भी तभी दर्ज करते थे जब लोकल वाम नेता उसकी अनुमति देते थे।
तब ‘बूथ जाम’ का चलन था।अब ‘नामांकन जाम’ हो रहा है।
इतना ही नहीं, सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार @ 1972-77@ने नक्सलियों के सफाये के लिए गुंडा वाहिनी तैयार करवाया था।
जब 1977 में वाम सरकार बनी तो उन्हीं गुंडों में से अनेक लोग वाम मोर्चा में शामिल हो गए।
वे अब उल्टे कांग्रेसियों पर हमले करने लगे।
वर्ग संघर्ष के नाम पर भारी मारकाट होती रही।
दोनांे दलों के बीच इतनी कटुता बढ़ी कि हाल के एक चुनाव में जब कांग्रेस और सी.पी.एम.ने चुनावी समझौता किया तो उसका कोई खास लाभ इन दलों को नहीं हुआ।क्योंकि लोग पिछली आपसी मारकाट भूले नहीं हैं।
अब हाल के कुछ चुनावों से यह लगता है कि भाजपा तृणमूल कांग्रेस का विकल्प बनने की राह पर है।अंध मुस्लिम तुष्टिकरण को यह नतीजा होना ही था।
यदि वहां कभी भाजपा की सरकार बनी तो वही बाहुबली भाजपा में शामिल हो जाएंगे जो आज वाम से आकर तृणमूल की ‘सेवा’ कर रहे हैं।
अरे भई, सभी दल पहले राजनीति से हिंसक तत्वों को निकाल बाहर करिए अन्यथा जिस तरह आज वाम दल के नेता आज रो रहे हैं,उसी तरह अन्य दल भी कल रोएंगे।गंुडों शामिल करेगी तो भाजपा भी रोएगी।
याद रहे कि हाल में पूर्व सांसद वासुदेव आचार्य जैसे बुजुर्ग व प्रतिष्ठित नेता को भी गुंडों ने नहीं बख्शा।
पर सवाल है कि आचार्य जी तब क्या कर रहे थे जब 1990 में तृणमूल कांग्रेस की रैली पर घातक हमला करके सी.पी.एम. के बाहुबलियों ने ममता बनर्जी पर जान लेवा हमला किया था ? उनका सिर फोड़ दिया था।मरते -मरते बची थी।
उस हमले के संबंध में अब भी सी.पी.एम.कार्यकत्र्ता लालू आलम पर केस चल रहा है।
यह और बात है कि बंगाल की चालू राजनीतिक शैली का अनुसरण करते हुए आलम अब ममता का प्रशंसक हो गया है।
आचार्य जी,आपने और आपकी पार्टी ने जो बोया है,वही तो काट रहे हैं।@ 9 अप्रैल 2018@
बंगाल से जिस तरह की सूचनाएं इन दिनों आती रहती हैं,उनसे लगता है कि वाम नेताओं का आरोप सही है।
पर जब वाम मोर्चा सत्ता में था,तो उनके लोग क्या कर रहे थे ?वही तो कर रहे थे जो काम आज टी.एम.सी. के लोग कर रहे हैं।तब खबर आती थी कि तब थाने प्राथमिकी भी तभी दर्ज करते थे जब लोकल वाम नेता उसकी अनुमति देते थे।
तब ‘बूथ जाम’ का चलन था।अब ‘नामांकन जाम’ हो रहा है।
इतना ही नहीं, सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार @ 1972-77@ने नक्सलियों के सफाये के लिए गुंडा वाहिनी तैयार करवाया था।
जब 1977 में वाम सरकार बनी तो उन्हीं गुंडों में से अनेक लोग वाम मोर्चा में शामिल हो गए।
वे अब उल्टे कांग्रेसियों पर हमले करने लगे।
वर्ग संघर्ष के नाम पर भारी मारकाट होती रही।
दोनांे दलों के बीच इतनी कटुता बढ़ी कि हाल के एक चुनाव में जब कांग्रेस और सी.पी.एम.ने चुनावी समझौता किया तो उसका कोई खास लाभ इन दलों को नहीं हुआ।क्योंकि लोग पिछली आपसी मारकाट भूले नहीं हैं।
अब हाल के कुछ चुनावों से यह लगता है कि भाजपा तृणमूल कांग्रेस का विकल्प बनने की राह पर है।अंध मुस्लिम तुष्टिकरण को यह नतीजा होना ही था।
यदि वहां कभी भाजपा की सरकार बनी तो वही बाहुबली भाजपा में शामिल हो जाएंगे जो आज वाम से आकर तृणमूल की ‘सेवा’ कर रहे हैं।
अरे भई, सभी दल पहले राजनीति से हिंसक तत्वों को निकाल बाहर करिए अन्यथा जिस तरह आज वाम दल के नेता आज रो रहे हैं,उसी तरह अन्य दल भी कल रोएंगे।गंुडों शामिल करेगी तो भाजपा भी रोएगी।
याद रहे कि हाल में पूर्व सांसद वासुदेव आचार्य जैसे बुजुर्ग व प्रतिष्ठित नेता को भी गुंडों ने नहीं बख्शा।
पर सवाल है कि आचार्य जी तब क्या कर रहे थे जब 1990 में तृणमूल कांग्रेस की रैली पर घातक हमला करके सी.पी.एम. के बाहुबलियों ने ममता बनर्जी पर जान लेवा हमला किया था ? उनका सिर फोड़ दिया था।मरते -मरते बची थी।
उस हमले के संबंध में अब भी सी.पी.एम.कार्यकत्र्ता लालू आलम पर केस चल रहा है।
यह और बात है कि बंगाल की चालू राजनीतिक शैली का अनुसरण करते हुए आलम अब ममता का प्रशंसक हो गया है।
आचार्य जी,आपने और आपकी पार्टी ने जो बोया है,वही तो काट रहे हैं।@ 9 अप्रैल 2018@
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