संघ परिवार को लेकर कांग्रेसियों-कम्युनिस्टों का एक बार फिर दोहरा रवैया सामने आया है। तथाकथित ‘सेक्युलर’ जमात का कोई बड़ा नेता जब आर.एस.एस. से संपर्क साधता है तो उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती। पर कोई दूसरा नेता जब संघ मुख्यालय जाता है तो हाय -तौबा मचा दिया जाता है। कहा जाता है कि संघ परिवार को प्रतिष्ठा दी जा रही है। उसे ताकतवर बनाया जा रहा है। इससे भाजपा ताकतवर होती है।
जबकि संघ परिवार के ताकतवर बनने के कारण कुछ और होते हैं। दरअसल तथाकथित सेक्युलर जमात की कमजोरियों -विफलताओं का लाभ संघ परिवार को मिलता रहा है। पर सेक्युलर जमात उन कमजोरियों पर काबू पाने की जगह आरोप-प्रत्यारोप से ही अपना काम निकाल लेना चाहती है। इन दिनों उनका प्रयास देश में महागठबंधन बनाकर संघ परिवार यानी भाजपा यानी राजग को पराजित करने का है। संभव है कि वे उसमें सफल भी हो जाएं। पर क्या वह जीत स्थायी होेगी?
हाल के कुछ उपचुनाव नतीजों ने सेक्युलर जमात का मनोबल बढ़ाया है। पर, जब तक सेक्युलर जमात अपनी कमजोरियों पर काबू पाने की कोशिश नहीं करेगी तब तक उसे कोई स्थायी राजनीतिक लाभ नहीं मिलेगा। इस बीच वह जमात आरोप -प्रत्यारोप से ही अपना काम चला लेना चाहती है। पर उन आरोपों में भी दोहरा मापदंड नजर आता है।
एक राजनीतिक दल जब भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाता है तो उसे बुरा नहीं माना जाता।पर दूसरे दल को ऐसी छूट देने को सेक्युलर जमात तैयार ही नहीं है।
नेहरू, इंदिरा और लाल बहादुर शास्त्री
यदि 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बुलाया था तो कम्युनिस्टों व कांग्रेसियों के लिए वह कोई हर्ज की बात नहीं थी। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि बुलाने की खबर ही सही नहीं है। यदि नहीं बुलाया गया था तो बुलाने की उस खबर का कांग्रेस खंडन क्यों नहीं करती ? जबकि खुद जवाहर लाल नेहरू ने तब कहा था कि ‘मेरी पार्टी का संघ के साथ वैचारिक मतभेद हो सकता है, पर जब देश संकट में हो तो हम सबको एकजुट होकर काम करना चाहिए।’ बाद के वर्षों में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिल्ली की ट्राफिक व्यवस्था के संचालन का भार संघ को दिया था तो भी कोई एतराज नहीं हुआ।
पर, जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इस महीने नागपुर गए तो माकपा महासचिव सीताराम येचुरी को इस बात से सख्त एतराज था कि प्रणव जी ने वहां गांधी हत्याकांड की चर्चा क्यों नहीं की! कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पहले तो उन्हें जाने से ही रोकने की कोशिश की। नहीं माने तो उन लोगों ने कुछ आशंकाएं भी जाहिर कीं। पर, प्रणव मुखर्जी वहां से जब एक संतुलित भाषण देकर आए तो कांग्रेसी ठंडे पड़ गए। पर उनमें से कुछ कांग्रेसियों के मन में यह मलाल फिर भी रहा कि वे गए ही क्यों ?
ऐसा ही मलाल उन्हें इंदिरा गांधी को लेकर नहीं हुआ था जब 1977 में संघ परिवार के निमंत्रण पर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने विवेकानंद राॅक मेमोरियल का उद्घाटन किया था। तब किसी कम्युनिस्ट या कांग्रेसी नेता ने संघ की पृष्ठभूमि को लेकर कोई विवाद खड़ा करने की कोशिश नहीं की।
यह नहीं कहा गया कि इंदिरा जी ने वहां गांधी हत्याकांड का मामला क्यों नहीं उठाया।
जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को लेकर कोई कांग्रेसी या कम्युनिस्ट आज भी सवाल नहीं उठा रहा हैं। इस पर भी कोई चर्चा नहीं है कि देश के सामने जो संकट उस समय था, उतना ही बड़ा संकट आज है या नहीं।
पर प्रणव मुखर्जी की नागपुर यात्रा पर तरह -तरह की बातें की गयी। कुछ कम्युनिस्ट नेता अब भी मीन -मेख निकालने में लगे हैं। एक बड़े कम्युनिस्ट नेता यह उम्मीद कर रहे थे कि जिसके आमंत्रण पर जाओ, उसके यहां जाकर उसे ही खरी -खोटी सुना कर वापस आ जाओ। कम से कम प्रणव मुखर्जी की यह संस्कृति नहीं रही है।
इससे पहले भी संघ को लेकर कई कम्युनिस्ट नेता समाजवादियों पर भी आरोप लगाते रहे हैं।
आरोप बे सिर पैर का है। क्योंकि कम्युनिस्टों की कसौटी मानी जाए तो ऐसा ही आरोप खुद उन पर भी है। उनका आरोप यह रहा है कि सोशलिस्टों ने ही संघ परिवार के लिए इस देश में राजनीतिक जमीन तैयार की। यानी संघ -जनसंघ-भाजपा को मजबूत किया।
इस संबंध में भी उनका तर्क यह है कि जनसंघ और बाद में भाजपा के साथ मिली -जुली सरकार बनाकर सोशलिस्टों ने संघ परिवार को समाज मेंं प्रतिष्ठा भी दिला दी। उससे पहले उसे राजनीतिक तौर पर अछूत माना जाता था।
दरअसल 1966-67 में प्रतिष्ठा तो सी.पी.एम. के नेताओं को भी मिली जो 1962 में अपनी चीनपक्षी रवैये के कारण अलग -थलग पड़ गए लगते थे। दरअसल 1967 के आम चुनाव के बाद में देश के सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गयीं। बाद में अन्य दो राज्यों में कुछ कांग्रेसी विधायकों के दलबदल के कारण कांग्रेसी सरकारें गिर गयीं। वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गयीं।
बिहार और उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडलों में एक साथ सी.पी.आई. और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य शामिल किए गए थे। उन सरकारों में जनसंघ के प्रतिनिधि भी थे। देश में सोशलिस्टों व जनसंघियों ने पहली बार सत्ता में हिस्सेदारी की थी। पर उन मंत्रिमंडलों में सी.पी.आई. के प्रतिनिधि भी तो थे। यदि सोशलिस्टों ने इस तरह जनसंघ को बढ़ाया और सम्मानित किया तो उसका श्रेय सी.पी.आई. को भी तो जाता है। आखिर वे उन मंत्रिमंडलों में क्यों शामिल हो गए थे जिनमें जनसंघ भी था ?
पर सी.पी.आई. के नेता खुद को उसके लिए जिम्मेदार नहीं मानते। दोहरे मापदंड का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है ? याद रहे कि 1966 में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कुछ गैर कांग्रेसी दलों को एक साथ आने पर राजी किया था। उनका तर्क था कि गैर कांग्रेसी दलों के आपस में मिलने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि कांग्रेस प्रतिपक्ष के वोट के बंटवारे का लाभ उठाकर चुनाव—दर चुनाव सत्ता हासिल करती जा रही है।
परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से भाजपा के साथ थे कम्युनिस्ट
यही नहीं, सन 1989 में जब केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी तो भाजपा और कम्युनिस्ट उस सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे। क्या उससे भाजपा की ताकत नहीं बढ़ी ? यानी परोक्ष या प्रत्यक्ष ढंग से भाजपा के साथ काम करने के बावजूद कम्युनिस्ट खुद को जिम्मेदार नहीं मानते, पर दूसरे दल को जिम्मेदार जरूर ठहरा देते हैं।
सन 2014 के लोकसभा चुनाव में राजग की भारी जीत के बाद कांग्रेस ने पूर्व रक्षामंत्री ए.के. एंटोनी के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई। हार के कारणों की जांच का भार उसे दिया गया। जून, 2014 में एंटोनी ने अन्य बातों के साथ-साथ यह भी कहा कि ‘मुस्लिम तुष्टिकरण कांग्रेस की हार का मुख्य कारण है। जनता में संतुलित धर्म निरपेक्षता वाली हमारी साख अब नहीं रही।’
जो बात एंटोनी ने नहीं कही, वह यह है कि राजग खासकर भाजपा के उभार का दूसरा बड़ा कारण मनमोहन सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। याद रहे कि अपने शासनकाल में जांच के बदले मनमोहन सरकार उन आरोप को गलत बताती रही। इससे जनरोष बढ़ा जिसका लाभ सबसे बड़े विपक्षी गठबंधन यानी राजग को मिला। यानी राजग की जीत में राजग से अधिक यू.पी.ए. सरकार का ‘योगदान’ था।
हाल के दिनों में भी कुछ नेता यह कहते रहे कि यह सब सोशलिस्टों की ही कारस्तानी है।
अधिकतर राजग विरोधी दल आज भी उन दो प्रमुख कारणों को समाप्त करने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं जो 2014 में हार के कारण बने थे। इसके बदले वे दलीय गठजोड़ पर जोर दे रहे हैं।यानी गुण के बदले मात्रा पर जोर है। पता नहीं, यह कितना कारगर व स्थायी साबित होगा?
पर आम धारणा यही है कि अपनी हर विफलता के लिए किसी और दोषी ठहराकर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता।
(मेरे इस लेख का संपादित अंश 10 जून 2018 के दैनिक जागरण में प्रकाशित)
जबकि संघ परिवार के ताकतवर बनने के कारण कुछ और होते हैं। दरअसल तथाकथित सेक्युलर जमात की कमजोरियों -विफलताओं का लाभ संघ परिवार को मिलता रहा है। पर सेक्युलर जमात उन कमजोरियों पर काबू पाने की जगह आरोप-प्रत्यारोप से ही अपना काम निकाल लेना चाहती है। इन दिनों उनका प्रयास देश में महागठबंधन बनाकर संघ परिवार यानी भाजपा यानी राजग को पराजित करने का है। संभव है कि वे उसमें सफल भी हो जाएं। पर क्या वह जीत स्थायी होेगी?
हाल के कुछ उपचुनाव नतीजों ने सेक्युलर जमात का मनोबल बढ़ाया है। पर, जब तक सेक्युलर जमात अपनी कमजोरियों पर काबू पाने की कोशिश नहीं करेगी तब तक उसे कोई स्थायी राजनीतिक लाभ नहीं मिलेगा। इस बीच वह जमात आरोप -प्रत्यारोप से ही अपना काम चला लेना चाहती है। पर उन आरोपों में भी दोहरा मापदंड नजर आता है।
एक राजनीतिक दल जब भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाता है तो उसे बुरा नहीं माना जाता।पर दूसरे दल को ऐसी छूट देने को सेक्युलर जमात तैयार ही नहीं है।
नेहरू, इंदिरा और लाल बहादुर शास्त्री
यदि 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बुलाया था तो कम्युनिस्टों व कांग्रेसियों के लिए वह कोई हर्ज की बात नहीं थी। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि बुलाने की खबर ही सही नहीं है। यदि नहीं बुलाया गया था तो बुलाने की उस खबर का कांग्रेस खंडन क्यों नहीं करती ? जबकि खुद जवाहर लाल नेहरू ने तब कहा था कि ‘मेरी पार्टी का संघ के साथ वैचारिक मतभेद हो सकता है, पर जब देश संकट में हो तो हम सबको एकजुट होकर काम करना चाहिए।’ बाद के वर्षों में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिल्ली की ट्राफिक व्यवस्था के संचालन का भार संघ को दिया था तो भी कोई एतराज नहीं हुआ।
पर, जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इस महीने नागपुर गए तो माकपा महासचिव सीताराम येचुरी को इस बात से सख्त एतराज था कि प्रणव जी ने वहां गांधी हत्याकांड की चर्चा क्यों नहीं की! कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पहले तो उन्हें जाने से ही रोकने की कोशिश की। नहीं माने तो उन लोगों ने कुछ आशंकाएं भी जाहिर कीं। पर, प्रणव मुखर्जी वहां से जब एक संतुलित भाषण देकर आए तो कांग्रेसी ठंडे पड़ गए। पर उनमें से कुछ कांग्रेसियों के मन में यह मलाल फिर भी रहा कि वे गए ही क्यों ?
ऐसा ही मलाल उन्हें इंदिरा गांधी को लेकर नहीं हुआ था जब 1977 में संघ परिवार के निमंत्रण पर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने विवेकानंद राॅक मेमोरियल का उद्घाटन किया था। तब किसी कम्युनिस्ट या कांग्रेसी नेता ने संघ की पृष्ठभूमि को लेकर कोई विवाद खड़ा करने की कोशिश नहीं की।
यह नहीं कहा गया कि इंदिरा जी ने वहां गांधी हत्याकांड का मामला क्यों नहीं उठाया।
जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को लेकर कोई कांग्रेसी या कम्युनिस्ट आज भी सवाल नहीं उठा रहा हैं। इस पर भी कोई चर्चा नहीं है कि देश के सामने जो संकट उस समय था, उतना ही बड़ा संकट आज है या नहीं।
पर प्रणव मुखर्जी की नागपुर यात्रा पर तरह -तरह की बातें की गयी। कुछ कम्युनिस्ट नेता अब भी मीन -मेख निकालने में लगे हैं। एक बड़े कम्युनिस्ट नेता यह उम्मीद कर रहे थे कि जिसके आमंत्रण पर जाओ, उसके यहां जाकर उसे ही खरी -खोटी सुना कर वापस आ जाओ। कम से कम प्रणव मुखर्जी की यह संस्कृति नहीं रही है।
इससे पहले भी संघ को लेकर कई कम्युनिस्ट नेता समाजवादियों पर भी आरोप लगाते रहे हैं।
आरोप बे सिर पैर का है। क्योंकि कम्युनिस्टों की कसौटी मानी जाए तो ऐसा ही आरोप खुद उन पर भी है। उनका आरोप यह रहा है कि सोशलिस्टों ने ही संघ परिवार के लिए इस देश में राजनीतिक जमीन तैयार की। यानी संघ -जनसंघ-भाजपा को मजबूत किया।
इस संबंध में भी उनका तर्क यह है कि जनसंघ और बाद में भाजपा के साथ मिली -जुली सरकार बनाकर सोशलिस्टों ने संघ परिवार को समाज मेंं प्रतिष्ठा भी दिला दी। उससे पहले उसे राजनीतिक तौर पर अछूत माना जाता था।
दरअसल 1966-67 में प्रतिष्ठा तो सी.पी.एम. के नेताओं को भी मिली जो 1962 में अपनी चीनपक्षी रवैये के कारण अलग -थलग पड़ गए लगते थे। दरअसल 1967 के आम चुनाव के बाद में देश के सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गयीं। बाद में अन्य दो राज्यों में कुछ कांग्रेसी विधायकों के दलबदल के कारण कांग्रेसी सरकारें गिर गयीं। वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गयीं।
बिहार और उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडलों में एक साथ सी.पी.आई. और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य शामिल किए गए थे। उन सरकारों में जनसंघ के प्रतिनिधि भी थे। देश में सोशलिस्टों व जनसंघियों ने पहली बार सत्ता में हिस्सेदारी की थी। पर उन मंत्रिमंडलों में सी.पी.आई. के प्रतिनिधि भी तो थे। यदि सोशलिस्टों ने इस तरह जनसंघ को बढ़ाया और सम्मानित किया तो उसका श्रेय सी.पी.आई. को भी तो जाता है। आखिर वे उन मंत्रिमंडलों में क्यों शामिल हो गए थे जिनमें जनसंघ भी था ?
पर सी.पी.आई. के नेता खुद को उसके लिए जिम्मेदार नहीं मानते। दोहरे मापदंड का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है ? याद रहे कि 1966 में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कुछ गैर कांग्रेसी दलों को एक साथ आने पर राजी किया था। उनका तर्क था कि गैर कांग्रेसी दलों के आपस में मिलने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि कांग्रेस प्रतिपक्ष के वोट के बंटवारे का लाभ उठाकर चुनाव—दर चुनाव सत्ता हासिल करती जा रही है।
परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से भाजपा के साथ थे कम्युनिस्ट
यही नहीं, सन 1989 में जब केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी तो भाजपा और कम्युनिस्ट उस सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे। क्या उससे भाजपा की ताकत नहीं बढ़ी ? यानी परोक्ष या प्रत्यक्ष ढंग से भाजपा के साथ काम करने के बावजूद कम्युनिस्ट खुद को जिम्मेदार नहीं मानते, पर दूसरे दल को जिम्मेदार जरूर ठहरा देते हैं।
सन 2014 के लोकसभा चुनाव में राजग की भारी जीत के बाद कांग्रेस ने पूर्व रक्षामंत्री ए.के. एंटोनी के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई। हार के कारणों की जांच का भार उसे दिया गया। जून, 2014 में एंटोनी ने अन्य बातों के साथ-साथ यह भी कहा कि ‘मुस्लिम तुष्टिकरण कांग्रेस की हार का मुख्य कारण है। जनता में संतुलित धर्म निरपेक्षता वाली हमारी साख अब नहीं रही।’
जो बात एंटोनी ने नहीं कही, वह यह है कि राजग खासकर भाजपा के उभार का दूसरा बड़ा कारण मनमोहन सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। याद रहे कि अपने शासनकाल में जांच के बदले मनमोहन सरकार उन आरोप को गलत बताती रही। इससे जनरोष बढ़ा जिसका लाभ सबसे बड़े विपक्षी गठबंधन यानी राजग को मिला। यानी राजग की जीत में राजग से अधिक यू.पी.ए. सरकार का ‘योगदान’ था।
हाल के दिनों में भी कुछ नेता यह कहते रहे कि यह सब सोशलिस्टों की ही कारस्तानी है।
अधिकतर राजग विरोधी दल आज भी उन दो प्रमुख कारणों को समाप्त करने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं जो 2014 में हार के कारण बने थे। इसके बदले वे दलीय गठजोड़ पर जोर दे रहे हैं।यानी गुण के बदले मात्रा पर जोर है। पता नहीं, यह कितना कारगर व स्थायी साबित होगा?
पर आम धारणा यही है कि अपनी हर विफलता के लिए किसी और दोषी ठहराकर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता।
(मेरे इस लेख का संपादित अंश 10 जून 2018 के दैनिक जागरण में प्रकाशित)
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