18 दिसंबर, 1967 की बात है। बिहार के अनेक राजनीतिक तथा गैर राजनीतिक संगठनों ने राजभाषा संशोधन विधेयक के खिलाफ ‘बिहार बंद’ का आह्वान किया था। मैं उन दिनों संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े क्रांतिकारी विद्यार्थी संघ की सारण जिला शाखा का सचिव था। हम छात्रों ने इस अवसर पर छपरा में जुलूस निकालने का निर्णय किया था। उस दिन मैं सुबह सात बजे ही एक रिक्शे पर माइक लेकर राजेंद्र कालेज के गेट पर पहुंच गया।
मैं छात्रों से क्लास का बहिष्कार करके जुलूस में शामिल होने की अपील कर रहा था। जिस दिन काॅलेज में असामान्य स्थिति रहती थी, उस दिन राजेंद्र कालेज के प्राचार्य भोला प्रसाद सिंह समय से पहले ही काॅलेज पहुंच जाते थे। उस दिन भी पहंुच गए थे।
वे गेट पर मेरे पास आए और मुझसे कहा कि ‘तुम यहां से माइक लेकर चले जाओ।’ जब मैंने हटने से इनकार कर दिया तो उन्होंने कहा कि ‘तुमसे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी।’ मैंने कहा कि मैं आज आपका हुक्म नहीं मानूंगा। दरअसल मेरे साथ छात्र थे और उस काॅलेज के प्रो. राम श्रेष्ठ मिश्र का भी मुझे समर्थन हासिल था।
उसके बाद काॅलेज के अहाते में छात्रों -प्राध्यापकों की एक सभा बुलाई गयी। कई छात्रों और प्राध्यापकों ने जुलूस के खिलाफ अपनी राय जाहिर की। अंत में प्रो. रामश्रेष्ठ मिश्र बोलने को खड़े हुए। वे बोल ही रहे थे कि बगल के एक वृक्ष से एक काग कांव- कांव करता हुआ उड़ा। इस पर भोला बाबू ने कहा कि ‘ देखो काग बोल रहा है। आज जरूर कुछ बुरा होगा।’
विरोध के बावजूद हमने जुलूस निकाला। सैकड़ों छात्र जुलूस में शामिल हो गए। हमारा संगठन मजबूत था। पर इतने बड़े जुलूस की मुझे भी उम्मीद नहीं थी। मुझे कुछ शंका होने लगी। संभवतः भोला बाबू को यह लगता था छात्रों की जमात को मैं संभाल नहीं पाऊंगा।
जब जुलूस के रास्ते में नये -नये युवक जुड़ने लगे तो मेरी शंका बढ़ गयी। क्योंकि वे अनजान चेहरे थे। लगा कि जुलूस के जरिए तोड़-फोड़ करवाने की कोई बाहरी राजनीतिक साजिश थी। याद रहे कि उन दिनों बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार चल रही थी। खैर, भोला बाबू की आशंका सच होने वाली थी और हो ही गयी। जुलूस छपरा कोर्ट परिसर स्थित स्टेट बैंक के पास पहुंचा। वहां जुलूस में शामिल कुछ युवक अनियंत्रित हो गए। बैंक के गार्ड ने गोली चला दी। एक राहगीर मारा गया। जुलूस तितर -बितर हो गया।
हालांकि इसको लेकर किसी छात्र की गिरफ्तारी नहीं हुई। दरअसल उस जुलूस का आयोजन मैंने ही किया था। संभवतः भोला बाबू को यह लग गया था कि मेरे जैसे अपरिपक्व व्यक्ति के लिए जुलूस में शामिल छात्रों -युवकों को नियंत्रित कर पाना संभव नहीं होगा। उन्हें ठीक ही लगा था।
खैर, दूसरी घटना कुछ समय बाद की है।
16 जनवरी, 1968 को बिहार विधानसभा भवन के समक्ष संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का प्रदर्शन होने वाला था। उससे दो दिन पहले हमने सारण जिले में कुछ नेताओं के साथ सघन भ्रमण कर लोगों को पटना पहुंचने का संदेश दिया था। थककर चूर हो गया था। जुकाम हो गया।
इसलिए मैं खुद पटना नहीं जा सका। 16 जनवरी की शाम में जब भोला बाबू ने मुझे काॅलेज परिसर में देखा तो पूछा कि ‘तुम लोगों का प्रदर्शन है न। तुम यहां हो ?’ उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि ‘तुम जीवन में कुछ नहीं कर सकते। कभी नेता नहीं बनोगे।’
यह एक अभिभावक की फटकार थी। वे मुझे राजनीति में आगे बढ़ते देखना चाहते थे। मेरी बी.एससी. परीक्षा का रिजल्ट हो चुका था। मैं अंक पत्र लेने काॅलेज गया था। भोला बाबू अपने कक्ष के सामने खड़ा होकर उन कुछ छात्रों को समझा रहे थे जो छात्रसंघ का चुनाव कराने की जिद पर अड़े थे। मैं भोला बाबू के पीछे से गुजरा। थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्होंने मुझे वापस बुलाया। पूछा, ‘पास कर गए?’
जब मैंने ना कह दी तो उन्होंने हड़ताली लड़कों का ध्यान मेरी ओर खींचते हुए अभिनय की मुद्रा में कहा कि ‘देखो, यही था जो फाटक पर माइक लेकर कहता था, साथियों साथ दो। और आज जब फेल हो गया तो मुझसे मिले बिना ही जा रहा है। तुम लोगों की भी यही हालत होगी।’ फिर मेरी ओर मुखातिब होकर उन्होंने कहा कि ‘कोई बात नहीं। फिर परीक्षा दो। मैं तुम्हारी मदद करूंगा।’ दरअसल मैं फेल कैसे नहीं करता! पढ़ाई-परीक्षा मेरी प्राथमिकता से काफी दूर चली गयी थी।
शिक्षक के रूप में उनके अतुलनीय योगदान की चर्चा किए बिना बात पूरी नहीं हो सकती। भोला बाबू केमिस्ट्री पढ़ाते थे। मैं विज्ञान का छात्र होने के कारण उनका क्लास करता था। राजेंद्र कालेज में विज्ञान संकाय में छात्र बहुत थे। इसलिए भोला बाबू सबको एक साथ शामियाना में बैठाकर पढ़ाते थे। रसायन शास्त्र जैसे निरस और जटिल विषय को इस तरह से मनोरंजक ढंग से पढ़ा देते थे कि उसे फिर घर जाकर पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। लगातार घंटों तक पढ़ाते जाना उनके ही वश की बात थी। हमें हमेशा उनके क्लास की प्रतीक्षा रहती थी।
बी.एससी. फेल कर जाने के बाद मैं पटना रहने लगा था। समाजवादी साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकमुख’ में काम करने लगा। उसके संपादक प्रो. देवी दत्त पोद्दार थे। इस बीच मेरे एक शुभचिंतक ने मुझे सलाह दी कि पहले तुम गे्रजुएट तो हो जाओ। बाद में जीवन में जो करना हो, करो। मुझे बात अच्छी लगी।
मैं गांव लौट गया। सारण जिला संसोपा के आॅफिस सेके्रट्री के रूप में काम करने लगा। मुझे हर माह सौ रुपए मिलते थे। साथ ही राजेंद्र काॅलेज में ही हिस्ट्री आॅनर्स में दाखिला करा लिया। आॅनर्स के साथ पास भी कर गया।
इस बीच भोला बाबू से मेरा पहले जैसा संपर्क नहीं रहा। गांव से रोज ट्रेन से छपरा जाता था। क्लास करना और पार्टी आॅफिस में काम करना। इसी में समय बीत जाता था।
इस बीच 26 अप्रैल, 1971 को यह दुःखद खबर मिली कि भोला बाबू की काॅलेज परिसर में ही किसी ने हत्या कर दी। मेरे लिए तो सदमे वाली खबर थी। मैंने ‘सारण संदेश’ में उन पर संस्मरणात्मक लेख लिखा था।
किन्हीं और के लिए भोला बाबू जो कुछ भी हों, पर मेरे लिए तो भोला बाबू अभिभावक तुल्य थे। मैं उनके शिक्षक रूप से सर्वाधिक प्रभावित था। कमेस्ट्री का वैसा बढि़या टीचर मैंने नहीं देखा।
(नोट-आपने ध्यान दिया होगा। मैं उन शिक्षकों के बारे में फेसबुक पर बारी-बारी से लगातार लिख रहा हूं जिन्होंने मुझे किसी न किसी रूप से प्रभावित किया। या जिनके बारे में पढ़कर -जानकर प्रभावित हुआ हूं। अगली बार किन्हीं अन्य गुरू देव के बारे में लिखूंगा।)
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