बिहार के अविभाजित सारण जिले का एक डाकू कोई भी ताला किसी भी औजार की मदद के बिना ही खोल देता था। ताला कितना भी मजबूत हो, उसके लिए सिर्फ उस डाकू की अंगुलियां ही पर्याप्त थीं। अदालत इस आरोप पर भरोसा नहीं कर के हर बार उस डाकू को सजामुक्त कर देती थी।
चम्पारण जिले के एक दूसरे व्यक्ति ने एक ऐसा ताला बनाया था जिसे उसके परिवार का सदस्य ही खोल सकता है। वह ताला अब भी मौजूद है और खोलने वाला भी। दोनों कहानियां पिछली सदी की हैं।
जगन्नाथ मंदिर के खजाने की चाभी खो जाने की ताजा खबर के साथ ही उन तालों की कहानियां याद आ गईं।
सारण की कहानी तो वहां के एक मशहूर वकील हेमचंद्र मित्रा ने लिखी है। ‘मेरे संस्मरण’ नाम से उनकी किताब अंग्रेजी में छप चुकी है। मित्रा छपरा बार एसोसिएशन के अध्यक्ष भी थे। मित्रा ने सन 1898 में छपरा जिला अदालत में वकालत शुरू की थी। वे एक नामी व तेजस्वी वकील थे। उन दिनों अविभाजित सारण जिले के सिवान अनुमंडल के एक डाकू पर यह आरोप था कि वह मजबूत से मजबूत ताले को भी अपनी अंगुलियों से ही खोल देता था। वह इस काम के लिए किसी चाभी या किसी अन्य औजार का इस्तेमाल नहीं करता था।
सिवान के एस.डी.ओ. ने उस पर सी.आर.पी.सी की धारा -110 के तहत कानूनी कार्रवाई कर रखी थी। उसने उस कार्रवाई के खिलाफ छपरा कोर्ट में अपील की। उसने ए.एच. मित्रा को अपना वकील रखा। कोर्ट में कई गवाहों ने बताया कि वह सिर्फ अपनी अंगुलियों से ताला खोल देता हैं। मित्र ने यह दलील पेश की कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ अंगुलियों से कोई ताला खोल ही नहीं सकता है। अनेक गवाहों को गलत बताते हुए कोर्ट ने मित्र के तर्क को माना और डाकू को रिहा कर दिया।
मेरे संस्मरण में यह कहानी लिखते समय मित्र ने लिखा कि ‘ट्रूथ इज स्ट्रेंजर दैन फिक्सन।’ मित्र ने अपनी किताब में उस डकैत का नाम नहीं लिखा है। उन दिनों फोटो का आज जैसा चलन तो था नहीं। कई महीनों के बाद वह डाकू किसी अन्य केस के सिलसिले में वकील मित्र के यहां गया। मित्र ने उससे पूछा कि क्या इस आरोप में सच्चाई भी है कि तुम सिर्फ हाथ की अंगुलियों की मदद से ही ताले खोल देते हो ?
वकील ने यह सवाल इसलिए भी पूछा क्योंकि उन्हें लगा था कि सारे के सारे गवाह झूठ तो नहीं हो सकते। इस सवाल पर उस डाकू ने मुस्कराते हुए कहा कि यह आरोप सही है। उसने मित्र से कहा कि कोई ताला लाइए। मित्र ने लिखा है कि उन्होंने एक मजबूत ताले को बंद करके उस डाकू को दे दिया। उसे उसने अपने हाथ में लिया। मित्र लिखते हैं कि मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि जब उसने अपने हाथों से ही उस ताले को तुरंत खोल दिया। उसने मेरी आंखों के सामने ही यह काम इतनी जल्द कर दिया कि मैं कुछ समझ नहीं पाया।
पांच किलोग्राम का ताला, जिसे कोई खोल नहीं सकता था
कुछ इसी तरह की कहानी संदीप भास्कर ने हाल में टेलिग्राफ में लिखी है। सन 1940 में बेतिया के नारायण प्रसाद ने 5 किलोग्राम का एक ताला बनाया था। उस ताले की खूबी यह है कि उसे नारायण प्रसाद के सिवा कोई और नहीं खोल सकता था। बाद में नारायण प्रसाद ने यह हुनर अपने पुत्र लाल बाबू को सिखा दिया। अब वह अजूबा ताला सिर्फ लाल बाबू या उनके कोई परिवारीजन ही खोल सकते हैं। दरअसल उसे खोलने के लिए एक खास तरह की ‘हाथ की सफाई’ चाहिए। वह कौशल सिर्फ उस परिवार को ही हासिल है।
1940 में बेतिया के महाराजा ने एक प्रदर्शनी आयोजित की थी। नारायण प्रसाद ने उस ताले को उस प्रदर्शनी में शामिल किया। महाराजा ने घोषणा की कि जो भी उस ताले को खोल देगा, उसे चांदी के 11 सिक्के दिए जाएंगे। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला। लाल बाबू के अनुसार महाराजा ने उस ताले को खरीदने की इच्छा जाहिर की। नारायण प्रसाद ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।
इतना ही नहीं 1972 में गादरेज इंडिया लिमिटेड ने उस ताले के पेटेंट का अधिकार मांगा। उसके बदले 1 लाख रुपए देने का आॅफर दिया। पर नारायण प्रसाद को यह स्वीकार नहीं था। दरअसल नारायण का परिवार उस हुनर को अपनी संतानों तक ही सीमित रखना चाहता है।
1972 में तत्कालीन मुख्यमंत्री केदार पांडेय ने जो चम्पारण जिले के ही मूल निवासी थे, ताला व राइफल कारखाना खोलने में मदद करने का इस परिवार को आश्वासन दिया था। पर वह पूरा नहीं हो सका। लालबाबू के अनुसार कुछ पैसे तो एकत्र किए गए, पर कारखाने के लिए वे काफी नहीं थे। आश्चर्य है कि बाद के मुख्यमंत्रियों का ध्यान भी उस परिवार के इस हुनर की ओर नहीं गया!
चम्पारण जिले के एक दूसरे व्यक्ति ने एक ऐसा ताला बनाया था जिसे उसके परिवार का सदस्य ही खोल सकता है। वह ताला अब भी मौजूद है और खोलने वाला भी। दोनों कहानियां पिछली सदी की हैं।
जगन्नाथ मंदिर के खजाने की चाभी खो जाने की ताजा खबर के साथ ही उन तालों की कहानियां याद आ गईं।
सारण की कहानी तो वहां के एक मशहूर वकील हेमचंद्र मित्रा ने लिखी है। ‘मेरे संस्मरण’ नाम से उनकी किताब अंग्रेजी में छप चुकी है। मित्रा छपरा बार एसोसिएशन के अध्यक्ष भी थे। मित्रा ने सन 1898 में छपरा जिला अदालत में वकालत शुरू की थी। वे एक नामी व तेजस्वी वकील थे। उन दिनों अविभाजित सारण जिले के सिवान अनुमंडल के एक डाकू पर यह आरोप था कि वह मजबूत से मजबूत ताले को भी अपनी अंगुलियों से ही खोल देता था। वह इस काम के लिए किसी चाभी या किसी अन्य औजार का इस्तेमाल नहीं करता था।
सिवान के एस.डी.ओ. ने उस पर सी.आर.पी.सी की धारा -110 के तहत कानूनी कार्रवाई कर रखी थी। उसने उस कार्रवाई के खिलाफ छपरा कोर्ट में अपील की। उसने ए.एच. मित्रा को अपना वकील रखा। कोर्ट में कई गवाहों ने बताया कि वह सिर्फ अपनी अंगुलियों से ताला खोल देता हैं। मित्र ने यह दलील पेश की कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ अंगुलियों से कोई ताला खोल ही नहीं सकता है। अनेक गवाहों को गलत बताते हुए कोर्ट ने मित्र के तर्क को माना और डाकू को रिहा कर दिया।
मेरे संस्मरण में यह कहानी लिखते समय मित्र ने लिखा कि ‘ट्रूथ इज स्ट्रेंजर दैन फिक्सन।’ मित्र ने अपनी किताब में उस डकैत का नाम नहीं लिखा है। उन दिनों फोटो का आज जैसा चलन तो था नहीं। कई महीनों के बाद वह डाकू किसी अन्य केस के सिलसिले में वकील मित्र के यहां गया। मित्र ने उससे पूछा कि क्या इस आरोप में सच्चाई भी है कि तुम सिर्फ हाथ की अंगुलियों की मदद से ही ताले खोल देते हो ?
वकील ने यह सवाल इसलिए भी पूछा क्योंकि उन्हें लगा था कि सारे के सारे गवाह झूठ तो नहीं हो सकते। इस सवाल पर उस डाकू ने मुस्कराते हुए कहा कि यह आरोप सही है। उसने मित्र से कहा कि कोई ताला लाइए। मित्र ने लिखा है कि उन्होंने एक मजबूत ताले को बंद करके उस डाकू को दे दिया। उसे उसने अपने हाथ में लिया। मित्र लिखते हैं कि मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि जब उसने अपने हाथों से ही उस ताले को तुरंत खोल दिया। उसने मेरी आंखों के सामने ही यह काम इतनी जल्द कर दिया कि मैं कुछ समझ नहीं पाया।
पांच किलोग्राम का ताला, जिसे कोई खोल नहीं सकता था
कुछ इसी तरह की कहानी संदीप भास्कर ने हाल में टेलिग्राफ में लिखी है। सन 1940 में बेतिया के नारायण प्रसाद ने 5 किलोग्राम का एक ताला बनाया था। उस ताले की खूबी यह है कि उसे नारायण प्रसाद के सिवा कोई और नहीं खोल सकता था। बाद में नारायण प्रसाद ने यह हुनर अपने पुत्र लाल बाबू को सिखा दिया। अब वह अजूबा ताला सिर्फ लाल बाबू या उनके कोई परिवारीजन ही खोल सकते हैं। दरअसल उसे खोलने के लिए एक खास तरह की ‘हाथ की सफाई’ चाहिए। वह कौशल सिर्फ उस परिवार को ही हासिल है।
1940 में बेतिया के महाराजा ने एक प्रदर्शनी आयोजित की थी। नारायण प्रसाद ने उस ताले को उस प्रदर्शनी में शामिल किया। महाराजा ने घोषणा की कि जो भी उस ताले को खोल देगा, उसे चांदी के 11 सिक्के दिए जाएंगे। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला। लाल बाबू के अनुसार महाराजा ने उस ताले को खरीदने की इच्छा जाहिर की। नारायण प्रसाद ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।
इतना ही नहीं 1972 में गादरेज इंडिया लिमिटेड ने उस ताले के पेटेंट का अधिकार मांगा। उसके बदले 1 लाख रुपए देने का आॅफर दिया। पर नारायण प्रसाद को यह स्वीकार नहीं था। दरअसल नारायण का परिवार उस हुनर को अपनी संतानों तक ही सीमित रखना चाहता है।
1972 में तत्कालीन मुख्यमंत्री केदार पांडेय ने जो चम्पारण जिले के ही मूल निवासी थे, ताला व राइफल कारखाना खोलने में मदद करने का इस परिवार को आश्वासन दिया था। पर वह पूरा नहीं हो सका। लालबाबू के अनुसार कुछ पैसे तो एकत्र किए गए, पर कारखाने के लिए वे काफी नहीं थे। आश्चर्य है कि बाद के मुख्यमंत्रियों का ध्यान भी उस परिवार के इस हुनर की ओर नहीं गया!
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