मंगलवार, 19 जून 2018

 यहां थोड़े से अपवादों की बात नहीं कर रहा हूं।
जिस देश की मुख्य धारा की राजनीति व उसके अधिकतर राज नेताओं के समक्ष भ्रष्टाचार, जातिवाद,एकांगी  धर्मनिरपेक्षता   और वंशवाद के खिलाफ बोलना-लिखना  ईश-निंदा के समान हो  ।दूसरी ओर जहां सदाचार, ईमानदारी,जन सेवा  तथा  शुचिता के पक्ष में बोलने-लिखने  को बेवकूफी या कभी -कभी ‘अपराध’ की श्रेणी में रखा जाए,तो वहां की  लोकतांत्रिक व्यवस्था के  भविष्य को कितना सुरक्षित माना जाना चाहिए ? 
 संभव है कि यह सब अभी पूरी तरह खुलेआम नहीं हो रहा हो।पर, इसी तरह के कर्मों,बोलियों और मानसिकता  के संकेत मिलने शुरू हो चुके हैं। 
हां, इस बिगड़ती स्थिति के बावजूद अत्यंत थोड़े से अपवाद अब भी राजनीति में भी है और कुछ नेताओं में भी।क्या 1947 में किसी ने कल्पना की थी कि सौ साल पूरे होने से पहले ही इस देश की मुख्य धारा की राजनीति इतनी पतित हो जाएगी ?

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