रविवार, 17 जून 2018

पद के लिए विश्वास, सिद्धांत व पार्टी को तिलांजलि दे रहे नेता

विश्वास यानी सिद्धांतों के लिए पद को तिलांजलि देने वालों के इस देश में आज अनेक नेता पद के लिए विश्वास, सिद्धांत व पार्टी को तिलांजलि दे रहे हैं।

वे कल तक जिस दल व नेता पर अपार विश्वास करते थे, आज तनिक नहीं करते। इस देश की राजनीति में गिरावट का यह सबसे बड़ा लक्षण है। लक्षण तो और भी हैं।

जिस देश की राजनीति गिर जाती है, उसका कुपरिणाम समाज के अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ता है। पड़ भी रहा है। संभव है कि कुछ लोगों को अपने पुराने दलों से ‘ईमानदार वैचारिक मतभेद’ हों। यहां वैसे लोगों की बात नहीं की जा रही है।

पर, संकेत साफ हैं कि अधिकतर नेताओं के मामले में ऐसी बात नहीं है। वे या तो पद प्राप्ति न होने के कारण अपने मूल दल से खफा हो जाते हैं या फिर अगली बार टिकट न मिलने की आशंका में पार्टी छोड़ देते हैं।

यह कोई नया विकास नहीं है। पर इन दिनों ऐसे मामले बढ़े हैं। जबकि दल-दल विरोधी कानून चलन में है। इसलिए आम तौर पर दल-बदल चुनाव से कुछ महीने पहले होते हैं।

याद रहे कि दल-बदल विरोधी कानून की चपेट में आने के बाद सदन की सदस्यता चली जाती है। पर यह सजा सबक देने वाली साबित नहीं हो रही है। यदि कानून में ऐसा संशोधन हो जिसके तहत दल बदलुओं को चुनाव लड़ने से हमेशा के लिए रोक दिया जाए तो शायद फर्क आएगा।

खबर है कि बिहार के कम से कम चार मौजूदा सांसद 2019 में किन्हीं अन्य दल से चुनाव लड़ेंगे। यह संख्या बढ़ सकती है। पूरे देश को ध्यान में रखें तो अगले लोकसभा चुनाव तक दल बदलने वाले नेताओं की संख्या काफी होगी।

अब जरा कुछ पुराने नेताओं की चर्चा कर ली जाए जिन्होंने आजादी के बाद ऐसे मामले में भी स्वस्थ परंपरा कायम की थी। दरअसल वे आज के अधिकतर नेताओं की तरह निजी संपत्ति, वंश और अपनी जाति को आगे बढ़ाने के लिए चुनाव नहीं लड़ रहे होते थे। वे देश बनाने व राजनीति में स्वस्थ परंपरा कायम करने लिए राजनीति कर रहे थे।

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के 13 सदस्य सन 1946 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गये थे। उनमें मशहूर समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव भी थे। आजादी मिलने के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने 1948 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं से कह दिया कि आप या तो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता छोड़ दें या कांग्रेस पार्टी से अलग हो जाएं।

आचार्य नरेंद्र देव और उनके साथियों ने कांग्रेस छोड़ दी। जबकि, कांग्रेस आचार्य जी को अंतरिम सरकार में मंत्री बनाना चाहती थी। आचार्य जी
और उनके 12 साथी विधायकों ने नैतिकता के आधार पर उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्यता भी छोड़ दी। हालांकि उन दिनों दल-बदल विरोधी कानून का अस्तित्व में नहीं था।

यानी दल छोड़ने के साथ सदन की सदस्यता जाने का कोई खतरा नहीं था। वे चाहते तो विधानसभा के सदस्य बने रह सकते थे। आचार्य जी और उनके 12 साथी विधायकों ने उस ‘सुविधा’ का लाभ नहीं उठाया।

उन्होंने कहा कि चूंकि जनता ने हमें कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में विधानसभा के लिए चुना था, इसलिए अब हमें सदन का सदस्य बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।

याद रहे कि 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का पटना में गठन हुआ था। उस पार्टी के प्रमुख नेताओं में आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण और डा. राम मनोहर लोहिया थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोग आजादी की लड़ाई कांग्रेस के झंडे तले लड़ रहे थे।

आचार्य जी और उनके साथी जब सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे रहे थे तो उनके कई कांग्रेसी मित्रों ने भी ऐसा न करने की सलाह दी थी। कहा था कि आपके इस्तीफे के बाद जो उप चुनाव होंगे, उनमें आप लोग जीत नहीं पाएंगे। क्योंकि अभी काग्रेस के पक्ष में हवा है।

पर आचार्य जी नहीं माने। उन्होंने इस्तीफा दिया। उन 13 सीटों पर उपचुनाव हुए। एक सीट को छोड़ कर बाकी 12 सीटों पर वे हार गए। आचार्य जी भी उप चुनाव नहीं जीत सके। इतना ही नहीं ,उप चुनाव में आचार्य जी के खिलाफ कांग्रेस ने एक कट्टर हिंदूवादी बाबा राघव दास  को खड़ा कर दिया था। उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी ने यह प्रचार किया कि आचार्य जी नास्तिक हैं। इन्हें वोट मत दीजिए। आचार्य जी ने इस प्रचार का खंडन तक नहीं किया। क्योंकि वे नास्तिक थे। नतीजतन आचार्य जी  चुनाव हार गये। पर इस हार का आचार्य जी को कोई अफसोस नहीं था।

दरअसल वे यह स्वस्थ परंपरा कायम करना चाहते थे कि यदि कोई नेता पार्टी छोड़े तो सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे दे। पर स्वार्थी राजनीति ने इस परंपरा को बाद में चलने नहीं दिया।

समय के साथ दल-बदल का घिनौना रूप सामने आने लगा। हरियाणा के एक विधायक गया राम का नाम ‘आया राम गया राम’ पड़ गया। क्योंकि उन्होंने कई बार दल बदले।

साठ के दशक में बिहार का एक मंत्री तो सदन में सरकारी फाइल के साथ ही प्रतिपक्ष में जा बैठा था। एक नेता ने तो अपने पूरे विधायक दल के साथ दल बदल कर लिया। मुख्य मंत्री बन बैठे।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं। अंततः  दल बदल विरोधी कानून बना। पर वह कानून भी पूर्ण कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। अब तो एक दल के सांसद अपने दल के नेतृत्व के खिलाफ आए दिन बयान देते रहते हैं।

अगले चुनाव के लिए वे दूसरे दल से टिकट का जुगाड़ कर रहे हैं। दूसरा सांसद मूल दल छोड़ देने के बाद भी किसी न किसी बहाने सदन की सदस्यता नहीं छोड़ना चाहता।

एकाधिक जनप्रतिनिधि अपनी लोभजनित पहल को जारी रखने के लिए अदालत तक का समय बर्बाद करते हैं।

हर आम चुनाव से पहले अनेक सांसदों व पूर्व सांसद या विधायकों-पूर्व विधायकों के बारे में अटकलों का बाजार गर्म रहता है कि पता नहीं उन्हें इस बार किस दल से टिकट मिलेगा। ऐसे में राजनीति की विश्वसनीय कम होती है। ऐसे दलबदलू नेता सत्ता में आते हैं तो आम तौर पर सरकार की विश्वसनीयता भी नहीं रह पाती। देश ऐसे ही चल रहा है। इस मामले में अधिकतर दलों की हालत एक जैसी है।

इसलिए लगता है कि दल-बदलुओं को सबक सिखाने लायक सजा का जब तक प्रावधान नहीं होगा, तब तक दल बदल होते रहेंगे।

सबक सिखने वाली सजा यही है कि जैसे ही तकनीकी तौर दल-बदल करने का आरोप साबित हो जाए, वैसे ही दल-बदलू की सदन की सदस्यता भी चली जाए। फिर उसे आगे भी कभी कोई चुनाव लड़ने लायक न रहने दिया जाए।

क्या ऐसा हो पाएगा ?

काम तो कठिन है। क्योंकि लगभग सारे दल समय -समय पर दल बदलुओं का स्वागत करते रहे हैं। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ तो राजनीति की साख गिरती ही चली जाएगी।

(मेरा यह लेख ‘राष्ट्रीय सहारा’ के 17 जून 2018 के अंक में प्रकाशित)

 


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