शनिवार, 29 सितंबर 2018


कर्मियों के सेवांत लाभ भुगतान की प्रक्रिया में सुगमता जरूरी 
बिहार में लोक सेवा अधिकार कानून लागू है।उससे लोगों को एक हद तक लाभ भी मिल रहा है,ऐसी खबर यदा -कदा मिलती रहती है।
हाल में पटना नगर निगम ने मकान के नक्शे के मामले में भी उस कानून के इस्तेमाल का निर्णय किया है।
यह एक सराहनीय कदम है।बीस दिनों के अंदर यदि नक्शा पास नहीं होगा तो निगम के अधिकारी उसका जवाब देंगे।
कारण बताएंगे।
यदि अफसर का जवाब संतोषप्रद नहीं हुआ तो उन पर कार्रवाई हो सकती है।
  यदि इस कानून का सही व कारगर इस्तेमाल हो तो संबंधित लोगों को बड़ी राहत होगी।
महा नगर बनते पटना का विकास भी तेज होगा।
 पता नहीं,राज्य सरकार के कर्मचारियों के सेवांत लाभ के भुगतान पर भी यह कानून को लागू होता है या नहीं।
यदि लागू नहीं होता है तो तुरंत लागू किया जाना चाहिए।
सबसे दुःखद स्थिति यह है कि जो कर्मचारी वर्षों तक बगल की कुर्सी पर बैठकर काम कर चुका होता है,उसके रिटायर होते ही उस सहकर्मी का रुख भी अचानक उसके प्रति बदल जाता है।
मित्रवत संबंध व्यावसायिक रिश्ते में परिवत्र्तित हो जाता है।
अपवादों की बात अलग है।
सेवांत लाभ के मामले में इसके लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं।इस मद में भुगतान के लिए भी नजराना-शुकराना का प्रतिशत तय है।
रिटायर सरकारी सेवक भी  लाचार हो जाता है।यह और बात है कि जब तक वह खुद पावर में होता है,उससे भी इस मामले में रहम की उम्मीद कोई नहीं करता।इस मामले में भी अपवाद होते ही हैं।
  यह सिलसिला दशकों से जारी है।
  किसी सरकारी सेवक के रिटायर होने के बाद बीस दिनों या एक खास समय सीमा के  भीतर रिश्वत के बिना उसके सेवांत लाभ का भुगतान हो जाए तो उस सेवानिवृत कर्मचारी  का परिवार सरकार को दुआएं देगा।
 सेवांत लाभ भुगतान को लोक सेवा अधिकार कानून के तहत ला दिया जाए तो यह संभव हो सकेगा। 
--निजी प्रयास को सरकारी मदद जरूरी-- 
करीब दो साल पहले पटना जिले के फुलवारी शरीफ अंचल के कोरजी गांव के लोगों ने मुफ्त में अपनी जमीन देकर मिट्टी की एक सड़क बनाई। करीब 700 मीटर की सड़क पर मिट्टी डालने का खर्च भी खुद ग्रामीणों ने ही उठाया।यह सर्वजनिक काम एन.एच.-98 तक पहुंचने की ग्रामीणों की कोशिश के तहत  हुआ।
 मात्र इतने ही प्रयास के बाद मिट्टी की उस सड़क के किनारे नये -नये मकान बनने लगे।
ग्रामीणों ने उम्मीद की कि कोई सरकारी एजेंसी उस सड़क पर आगे का काम करा देगी।यानी ईंटकरण या पक्की का काम अब हो जाएगा।
पर, अब तक ऐसा नहीं हुआ।होने की कोई उम्मीद भी नजर नहीं आ रही है।हो जाता तो जिले व  राज्य के अन्य स्थानों में भी ऐसे निजी प्रयासों को बल मिलता।
  लोगबाग अपनी जमीन देकर मिट्टी का काम करा देते।बाद में सरकार उसका पक्कीकरण कर देती।इस तरह सरकार का ही काम हल्का होता।
--प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना--
प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत जमीन के अधिग्रहण का प्रावधान ही नहीं है।क्योंकि इस योजना के मद में  केंद्र सरकार इतने पैसे आवंटित ही नहीं करती जिससे सड़क भी बने और उसके लिए पहले जमीन का अधिग्रहण भी हो।माना जाता है कि इस योजना के तहत पहले से मौजूद कच्ची सड़कों का ही पक्कीकरण कर दिया जाएगा।
  इसलिए यदा- कदा जहां-तहां जबरन किसी की निजी जमीन पर कब्जा करके सड़क बना दी जाती है।
कुछ साल पहले बिहार से एक पूर्व केंद्रीय मंत्री की जमीन पर ऐसे ही कब्जा करके उस पर प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत सड़क बना दी गयी थी।न अधिग्रहण और न ही मुआवजा।
उस पूर्व मंत्री ने केस कर दिया।
हाईकोर्ट ने सरकार से कहा कि या तो मुआवजा दो या सड़क उजाड़ो।
केंद्र सरकार ने कहा कि हम उजाड़ लेंगे।
सड़क उजाड़ दी गयी।
दूसरी ओर कोरजी के किसान जब अपनी कीमती जमीन दे देते हैं तो कोई सरकारी एजेंसी मदद में नहीं आती।कोरजी की वह मिट्टी वाली सड़क बरसात में टूट रही है।अगली बरसात शायद ही झेल पाए।   
  --सरकारी उपक्रमों की हालत--
यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार इस नतीजे पर पहुंची है कि पेशेवर तरीके से होटलों को चलाना सरकार के बूते की बात नहीं है।
इसीलिए केंद्र सरकार ने पटना के होटल पाटलिपुत्र अशोक को बिहार सरकार के हवाले कर दिया है।
 यह होटल किस तरह गैर पेशेवर तरीके से चल रहा था,उसका उदाहरण एक पत्रकार ने दिया।
करीब बारह साल पहले उसने इस होटल में अपने एक परिजन की शादी आयोजित की।होटल ने  एक दिन पहले का बना बासी मुर्गा परोस दिया।
एक अतिथि ने सलाह दी कि इसे पैसे मत दीजिए।
पर,पत्रकार ने कहा कि पैसे तो दे ही दूंगा।पर आगे से लोगों को सलाह दूंगा कि वे इस होटल से दूर ही रहें।
क्योंकि पैसे नहीं देने पर वह आरोप लगाएगा  कि पत्रकार होने का गलत फायदा उठा रहे हैं।
इस तरह चल रहा था यह होटल।
1974 में स्थापित होटल शुरूआती वर्षों में तो ठीक ठाक चला।
पर, धीरे -धीरे चीजें बिगड़ने लगीं।
दरअसल सार्वजनिक उपक्रमों में जो कठोर
ईमानदारी व कत्र्तव्यनिष्ठा की जो जरूरत पड़ती है,उसका जब सरकार में ही घोर कमी है
तो उसके उपक्रमों में वह कहां से आएगी।
   -- भूली बिसरी याद--
आई.सी.एस.अफसर जगदीश चंद्र माथुर की पदस्थापना जब  संबल पुर हुई तो उन्होंने ‘कोणार्क’ नाटक लिख दिया।
वह नाटक इतना प्रभावी था कि हिन्दी रंगमंचों पर छाया रहता था।
ओडिशा -बिहार काॅडर के 1941 बैच के अफसर माथुर की हाजी पुर में तैनाती हुई तो उन्होंने वैशाली में सालाना मेला लगवाना शुरू किया।
हेड मास्टर के पुत्र माथुर जब बिहार सरकार के शिक्षा सचिव बने तो उन्होंने बिहार राष्ट्र भाषा परिषद व नेतरहाट आवासीय विद्यालय  की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आकाशवाणी के महा निदेशक हुए तो ए.आई.आर.का नाम आकाशवाणी रख  दिया।
  और न जाने कितनी उपलब्धियां हैं उनके नाम। 
उनके बारे में डा.समर बहादुर सिंह लिखते हैं कि ‘आकाशवाणी का कोई पहलू ऐसा नहीं था जिसे माथुर की प्रतिभा ने सजाया संवारा न हो।’
16 जुलाई 1917 को उत्तर प्रदेश के बुलंद शहर जिले में जन्मे 
माथुर का 14 मई 1978 को निधन हो गया।सरकारी सेवा से रिटायर होने के बाद उन्हें प्रयाग,शिमला और जयपुर विश्व विद्यालयों के कुलपति बनने का बारी -बारी से आॅफर मिला,पर उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया।
 हिन्दी के लेखक और नाटककार माथुर की कई रचनाएं चर्चित हुई।
संस्कृत-पाली के विद्वान और बौद्ध दर्शन के अध्येता जगदीश चंद्र माथुर सफल प्रशासक भी थे।
उन्होंने अपने एक अधीनस्थ से एक बार कहा था कि ‘प्रशासक को व्यावहारिक होना चाहिए । परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालते रहना चाहिए।सेवा पहले और स्वार्थवाद बाद में।प्रशासक संतुलित,मितभाषी,दक्ष और उदार हो।किंतु साथ ही अनुशासनप्रिय भी।यथासंभव वह किसी को दंडित न करें।किंतु दंड का भय जरूर सहकर्मियों पर बना रहे।’ 
बिहार की पिछली पीढ़ी के लोग आदर से माथुर साहब का नाम लेते थे।
     -- और अंत में--
 इस विकास शील देश खास कर बिहार में  कहीं भी सरकारी या निजी निर्माण होते देखना बहुत अच्छा लगता है।साथ ही, किसी सार्वजनिक जमीन से अतिक्रमण हटते देखना तो उससे भी अधिक अच्छा लगता है।पटना में ये दोनों काम इन दिनों  हो रहे हैं।जिला मुख्यालयों मंे भी अतिक्रमण हटाओ अभियान इसी तरह तेज गति से चलाने की  जरूरत महसूस की जा रही है।  
@ 28 सितंबर, 2018 को प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@ 

 कांग्रेस के संचार विभाग के प्रमुख रणदीप सुरजेवाला ने कहा है कि ‘कांग्रेस पार्टी किसी भी स्तर पर सेना की बहादुरी का राजनीतिक लाभ लेेेने का विरोध करती है।’
सुरजेवाला की बात सही है।
 पर  ऐसा विरोध कांग्रेस कब से कर रही है ?
क्या उसने 1971 के बंगला देश युद्ध में विजय का  चुनावी लाभ लेने का प्रयास नहीं किया था ?
मोदी सरकार को ‘सर्जिकल स्ट्राइक डे’ मनाने की कोई जरूरत नहीं थी।भाजपा सर्जिकल स्ट्राइक डे नहीं भी मनाती तो भी उसे उसका राजनीतिक या चुनावी लाभ मिलता।
उसी तरह कांग्रेस पार्टी बंगला देश युद्ध का चुनावी लाभ उठाने के लिए अतिरिक्त प्रचार नहीं भी करती तो भी उसे उसका लाभ मिल ही जाता।इंदिरा गांधी को तो आंध्र के एक कांग्रेसी सांसद ने ‘दुर्गा’ का दर्जा दे दिया था।
 पर धैर्य किसे है !
न तो एक दूसरे पर आरोप लगाने में कोई धैर्य है और न ही राजनीतिक लाभ उठाने में।
अब देखिए बंगला देश युद्ध के बाद तत्कालीन इंदिरा सरकार और कांग्रेस ने क्या किया था ?
उत्तर प्रदेश के प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के विरोध के बावजूद समय से दो साल पहले यानी 1972 में विधान सभा चुनाव करवा दिया गया।
उन्हें लगा था कि दो साल बाद  युद्ध में विजय का चुनावी लाभ नहीं मिल सकेगा।साथ ही प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने उन दिनों मतदाताओं के नाम जो चिट्ठी जारी की उसके अनुसार,‘देशवासियों की एकता और उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठा ने हमें युद्ध में जिताया।अब उसी लगन से हमें गरीबी हटानी है।इसके लिए हमें विभिन्न प्रदेशों में ऐसी स्थायी सरकारों की जरूरत है जिनकी साझेदारी केंद्रीय सरकार के साथ हो सके।’
  मार्च, 1972 के साप्ताहिक ‘दिनमान’ के अनुसार,‘जहां तक कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र का संबंध है,उसने यह बात छिपाने की कोशिश नहीं की है कि भारत पाक युद्ध में भारत की विजय इंदिरा गांधी के सफल नेतृत्व का प्रतीक है और इंदिरा गांधी के हाथ मजबूत करने के लिए विभिन्न प्रदेशों में अब कांग्रेेस की ही सरकार होनी चाहिए।’ 
  कोई भी बयान देने से पहले नेताओं को यह याद कर लेना चाहिए कि उसी सवाल पर उसने पहले क्या रुख अपनाया था।
भाजपा जब विरोध में थी तो उसके नेता कहा करते थे कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाना भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है।
पर जब खुद भाजपा सत्ता में है तो बाधा पहुंचाने के लिए आज यदा कदा कांग्रेस को कोसती रहती है।
इन सब बातों से पूरी राजनीति की विश्वसनीयता घटती जाती है।इसका विपरीत असर स्वस्थ लोकतंत्र पर भी पड़ता है।
    

कुछ घंटे के बाद शुरू होने वाला अक्तूबर महा पुरुषों का महीना है,यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इस महीने की 11 तारीख को जेपी का  जन्म दिन है और अमिताभ बच्चन का भी।दोनों के जन्म दिन मनाइए।
पर हर साल ऐसा देखा जाता है कि मीडिया खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक हिस्सा अमिताभ बच्चन को तो उनके जन्म दिन पर तो खूब याद करता है,पर जेपी को भूल जाता है। 
उसी तरह 2 अक्तूबर को बापू को तो याद कीजिए ही,पर उस बहादुर और ईमानदार लाल बहादुर को मत भूलिए।
यह अच्छी बात है कि 31 अक्तूबर को सरदार पटेल और इंदिरा गांधी को याद करने वाले करीब-करीब  समान संख्या में लोग इस देश में अब उपलब्ध हैं।कांग्रेसी राज में तो पटेल उपेक्षित ही थे।
याद रहे कि पटेल लौह पुरूष थे तो इंदिरा जी भी साहस की प्रतिमूत्र्ति थीं।
काश ! कांग्रेस में आज इंदिरा जी जैसी हस्ती  होती ! 
 8 अतूबर को जेपी का निधन हुआ था और 12 अक्तूबर को डा.राम मनोहर लोहिया दिवंगत हुए थे।
डा.लोहिया के जीवन काल में मीडिया के अधिकांश ने उनकी उपेक्षा की । उन्हें न समझा न लोगों को समझाया।क्योंकि लोहिया नेहरू की नीतियों के कट्टर आलोचक थे और उधर मीडिया का अधिकांश नेहरू पर मोहित था।
आज जब इस देश की राजनीति व जन नीति  का
अधिकांश अघोषित रूप से लोहिया की नीतियों यथा सामाजिक न्याय से प्रेरित है, तो नयी पीढ़ी को लोहिया से परिचित कराने वाले लोग ही अब दुर्लभ हैं।कुछ राजनीतिक लोग लोहिया का नाम तो लेते हैं,पर खुद ऐसे-ऐसे काम  करते रहते हैं जिन्हें  लोहिया कभी पसंद ही नहीं करते।उन्हें देख कर कभी- कभी लोहिया से अनजान नयी पीढ़ी के बड़े हिस्से को यह लगता होगा कि शायद  लोहिया इन्हीं लोगों जैसे थे !  
विजय दशमी 18 अक्तूबर को है जो असत्य पर सत्य की जीत  का पर्व है।हमारे दिवंगत नेताओं के सत्य लोगों तक आने चाहिए।क्योंकि ऐसे  नेता अब इस धरती पर नहीं आ रहे हैं।
  कुल मिलाकर अक्तूबर अनेक लोगों के लिए अनेक नेताओं से अनेक तरीके से  प्रेरणा लेने का  महीना है यदि कोई लेना चाहे तो ।

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

 शरद यादव ने कहा है कि विपक्ष ने यदि प्रधान मंत्री का चेहरा घोषित कर दिया तो भाजपा उसे बदरंग कर देगी। 
1989 के लोक सभा चुनाव से पहले खुद शरद यादव वी.पी.सिंह के साथ थे।
तब की सत्ता ने चेहरा को बदरंग करने के लिए वी.पी.सिंह के पुत्र अजेय सिंह के नाम से सेंट किट्स के बैंक में जाली खाता खोलवा कर उसमें पैसे जमा करा दिए थे।उसका इस देश में खूब प्रचार भी कराया गया।इसके बावजूद वी.पी.सिंह न तो बदनाम हुए और न ही मतदाताओं ने उन्हें 
प्रधान मंत्री बनने से वंचित किया।
 कांग्रेस में भी ए.के. एंटोनी जैसे अत्यंत ईमानदार नेता उपलब्ध हैं।यदि उन्हें कांग्रेस प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार बना दे तो कोई माई का लाल एंटोनी को  बदनाम नहीं कर सकता।पर ऐसा तो होने वाला है नहीं।
दरअसल बदनाम होने लायक व्यक्ति को ही कोई बदनाम कर सकता है।चाहे वह व्यक्ति सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का।
क्योंकि जनता सबकी असलियत जानती है। 

सोमवार, 24 सितंबर 2018

सन 2005 में बिहार में बिजली की खपत मात्र 1122 मेगावाट थी। 
2018 में यह बढ़कर इस राज्य में 5008 मेगावाट हो गयी है।
दूसरी तरफ बिहार जैसे गरीब राज्य में भी गांव -गांव में भी स्मार्ट फोन अब देखे जा सकते हैं।
बिजली की उपलब्धता के कारण अब मोबाइल फोन-स्मार्ट फोन  को चार्ज करने की भी कोई समस्या नहंीं रही।
इस कारण भी स्मार्ट फोन की संख्या बिहार में भी बढ़ती ही जा रही है।
  राजनीतिक रूप से अत्यंत जागरूक राज्यों में बिहार का स्थान पहले भी संभवतः सबसे ऊपर रहा है।
 अब अंदाज लगाइए कि अगले लोक सभा चुनाव में किसी भी दल को वोट देने से पहले बिहार के मतदाताओं के पास भी देश-विदेश-प्रदेश की सारी सूचनाएं उपलब्ध होंगी।इससे मतदातागण किसी खास दल या गठबंधन  के बारे में अपनी राय बनाने के मामले में बेहतर स्थिति में होंगे। 

चुनाव नजदीक है। इसलिए एक दूसरे पर आरोप लगाना जरूरी है।मान लीजिए कि कोई व्यक्ति सत्ता रहा,फिर भी उस पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं बना।फिर प्रतिद्वंद्वी  नेता क्या करेगा ?
उसे वाॅक ओवर तो नहीं दे सकता ।

हां, एक काम तो वह कर ही सकता है।
आखिर उसे चुनाव जो लड़ना है।खुद उस पर भ्रष्टाचार का आरोप लग चुका है।विरोधी के खिलाफ ऐसा कोई आरोप लगना ही चाहिए ताकि उसे भी चोर कहा जा सके।हिसाब बराबर ।
  वह पता लगाएगा कि हमारे प्रतिद्वंद्वी ने  बचपन में कोई चोरी की है या नहीं।
अरे वाह ! क्या बात है ! सबूत तो मिल गया।उसने एक बार अपने सहपाठी की टिफिन चुरा ली थी।
उसका नाश्ता खा गया था।
उसके खिलाफ स्कूल के प्रिंसिपल के यहां लिखित शिकायत गयी थी।
उसे सजा भी मिली थी।उस स्कूल में  लिखित शिकायत की वह काॅपी भी मिल गई। उसकी फोटोकाॅपी वह  यह सोच कर  ले आएगा  कि अगले चुनाव में यह बहुत काम आएगा।इसके आधार पर उसे भी तो चोर  कहा ही जा सकता है।चोर हीरे का हो या खीेरे का।चोर तो चोर ही है।
क्या हुआ जो मैंने अरबों चुराया।उसने भी तो टिफिन चुराया था ! एक ही बात हुई।जनता जरूर दूध का दूध और पानी का पानी कर देगी। 

--देवानंद पर पटना में एक मुकदमे की कहानी-


धर्मदेव अपना ! यही नाम था उनका।अस्सी के दशक में
वे पटना के जनसत्ता आॅफिस में मुझसे मिलने आए थे।
बिना किसी भूमिका के उन्होंने कहा कि ‘मैंने देवानंद पर मुकदमा कर दिया  है ।पर वह खबर कहीं छप नहीं रही है।
‘विजय कृष्ण जी ने कहा है कि आप जनसत्ता आॅफिस जाइए।जो खबर कहीं नहीं छपेगी,वह जनसत्ता में छप जाएगी।
 इसीलिए आपके पास आया हूं।’
धर्मदेव जी विजय कृष्ण के चुनाव क्षेत्र के मूल निवासी थे।
मैं समझ गया।
अन्य अखबारों ने समझा होगा कि प्रचार के लिए इन्होंने केस कर रखा होगा।उसे क्यों छापना ! ?
 उन दिनों जनसत्ता का संस्करण बंबई से भी निकलता था।मैंने सोचा कि अखबार के लिए भी अच्छा रहेगा।
फिर भी मैंने बुजुर्ग धर्मदेव जी के सामने  एक शत्र्त रखी,‘
‘मैं छापूंगा जरूर ,पर इसी शत्र्त पर कि इस केस में जब भी अदालत में कोई खास बात होगी,उसकी  सूचना आप सिर्फ मुझे देंगे।’
वे तुरंत मान गए।
बिहार सरकार के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड मेंं कार्यरत धर्म देव जी ने एक उपन्यास लिखा था।वे एक बार बंबई में देवानंद से मिले थे और अपना उपन्यास उन्हें दिया था। आग्रह किया कि इस पर आप फिल्म बनाएं।
 याद रहे कि तब तक  मुम्बई का नाम बंबई ही था।
नब्बे के दशक में नाम बदला।
देवानंद ने उसे रख लिया और कहा कि देखेंगे।
कई साल बीत गए। ‘अपना’ जी को कोई सूचना नहीं आई।पर जब ‘स्वामी दादा’ फिल्म आई तो धर्मदेव जी ने माना कि उनके ही उपन्यास पर यह फिल्म बन गयी और उनका नाम स्टोरी राइटर के रूप में नहीं दिया गया।
  उन्होंने पटना जिला अदालत में देवानंद तथा अन्य संबंधित 
व्यक्तियों के खिलाफ केस कर दिया।
पटना कोर्ट से देवानंद को  पहले समन गया, फिर वारंट और बाद में गैर जमानती वारंट।
  गैर जमानती वारंट की खबर जब जनसत्ता के बंबई संस्करण के पहले पेज पर फोल्ड के ऊपर छपी तो देवानंद जी बंंबई छोड़कर लोनवाला चले गए।
 इधर पटना में देवानंद ने एक बड़े वकील को रखा और वे केस लड़ने लगे।
  पर जब उन्हें लगा कि इस केस को अदालत में जल्द समाप्त नहीं कराया जा सकता है तो धर्म देव जी से समझौते के लिए कल्पना कात्र्तिक के भाई को पटना भेजा।
जब देवानंद समझौते को मजबूर  हुए तो मुझे लगा कि धर्मदेव अपना की बात में दम है। हालांकि मैंने न तो उनका उपन्यास पढ़ा था और न ही ‘स्वामी दादा’ फिल्म देखी थी। मुझे तो सिर्फ इस खबर से मतलब था कि देवानंद जैसी बड़ी हस्ती पर पटना में केस हुआ है।वह भी अपने आप में समाचार का विषय बनता था।
संभवतः पटना के मशहूर पत्रकार भूपंेद्र अबोध के जरिए समझौता हुआ।
अबोध जी को अक्सर बंबई भेज कर मनोहर श्याम जोशी फिल्मी खबरें साप्ताहिक  हिन्दुस्तान के लिए लिखवाते थे।
इसलिए फिल्म जगत की बड़ी हस्तियां भी अबोध जी को जानती थीं।बता दें कि दैनिक हिन्दुस्तान,पटना  के चर्चित  कार्टूनिस्ट पवन, अबोध जी के पुत्र हैं।
 खैर समझौते में यह तय हुआ कि धर्मदेव जी, देवानंद के खर्चे पर  बंबई में कुछ दिन रह कर कोई नयी कहानी लिखेंगे और उस पर देवानंद फिल्म बनाएंगे।वे वहां रहे भी।
जब धर्म देव जी पटना आते थे तो मुझसे मिलते थे।वे बताते थे कि देवानंद जी कभी -कभी पूछते हैं  कि आपके जनसत्ता वाले मित्र का क्या हाल है ? क्यों नहीं पूछते ! जनसत्ता के कारण उन्हें थोड़ी परेशानी तो हो ही गयी थी।
हालांकि मैं बता दूं कि मैं देवानंद का बहुत बड़ा फैन रहा हूं।
देवानंद ने ही धर्मदेव जी को बताया था कि जब -जब वारंट की खबर छपती थी तो मैं लोनावाला चला जाता था।
लगा कि अपना जी का सपना पूरा नहीं हो सका।अन्यथा वे बताते कि मेरी फलां कहानी पर देवानंद जी फिल्म बना रहे हैं।
 बाद में मेरा संपर्क धर्म देव जी से टूट गया।
वे पटना के हनुमान नगर पानी टंकी के पास रहते थे।
एक -दो बार मैं उनके घर भी गया था।यदि उनको जानने वाले कोई मित्र हों तो उनके बारे में जरूर बताइए। 

  

चारा घोटाले के कई अभियुक्त अफसरों के जीवन में छा रहा अंधेरा



   ‘मेरे जीवन में अंधेरा छा गया।’यही कहा था कि आयुक्त स्तर के  आई.ए.एस.अफसर रहे के. अरुमुगम ने ।करीब दस साल पहले की बात है।वे चारा घोटाले से संबंधित  मुकदमे की सुनवाई के सिलसिले में अपने गृह राज्य तमिल नाडु से रांची अदालत में पहुंचे थे।
   बिहार सरकार के पशुपालन विभाग के सचिव रहे अरूमुगम को चारा घोटाले में 2013 में तीन साल की सजा हुई।ढाई साल तक जेल में रहे और अर्थाभाव व उपेक्षा के बीच कुछ ही साल पहले चीफ सेके्रट्री बनने का सपना लिए इस दुनिया से चले  गए।
अब भी इस घोटाले में जेल में बंद अनेक नेता, अफसर, आपूत्र्तिकत्र्ता खुद और उनके परिजन  कष्ट ,अर्थाभाव व उपेक्षा झेल रहे हैं।फिर भी आश्चर्य है कि बिहार में या यूं कहिए कि पूरे देश में भ्रष्टाचार कम ही नहीं हो रहा है।
कभी सृजन घोटाला सामने आ रहा है तो कभी मुजफ्फर पुर आसरा गृह घिनौना कांड।ताजा खबर यह है कि बिहार के खगडि़या जिले के एक मजदूर बलराम साह के बैंक खाते में करीब 99 करोड़ रुपए पाए गए।
किसी दलाल ने कुछ समय पहले बैंक लोन दिलाने के बहाने बलराम से पास बुक ले लिया था।तब उसके खाते में मात्र 59 रुपए थे।
  सवाल है कि घोटालेबाजों को अपना धंधा जारी रखने की यह ताकत कहां से मिल रही है ? नेताओं से,अफसरों से या फिर पूरा सिस्टम ही इसके लिए जिम्मेदार  है ?
 ऐसे में बिहार के चर्चित चारा घोटाले की एक बार फिर चर्चा मौजू है।
चारा घोटाले में अनेक बड़े नेताओं के साथ -साथ करीब आधा दर्जन आई.ए.एस.अफसरों को निचली अदालत से सजा हो चुकी है।इस संबंध में दायर अन्य मुकदमांे की सुनवाई हो ही रही है।
  इसके बावजूद अन्य मामलों में बाद के वर्षों में  अन्य आई.ए.एस.अफसर भी जेल जाते रहे हैं।यानी कई लोग कोई सबक लेने को तैयार ही नहीं हंै।
भ्रष्टाचार से मिल रहे आसान पैसों का आकर्षण तो देखिए !
 चारा घोटाले के सिलसिले में जितने लोग अभी जेल में हैं,उनमें से कुछ लोग बीमार हैं।उनमें से कुछ लोग चारों तरफ से उपेक्षा के भी शिकार है।
 कुछ अन्य लोगों के परिवार बिखर गए।
कुछ आरोपी असमय गुजर गए।कुछ ने आत्म हत्या कर ली।
 घोटाले के मुख्य अभियुक्त के पुत्र की असमय मृत्यु हो गयी क्योंकि जांच एजंेसी की पूछताछ वह बर्दाश्त नहीं कर सका।
पुत्र के शोक में  मुख्य अभियुक्त का भी असमय निधन हो गया।
 कई आरोपितों व सजायाफ्ताओं के परिवार की शादियां टूट गयीं।परिवार बिखर गए।
मित्र कन्नी काटने लगे।
नाजायज ढंग से कमाए धन अदालती चक्कर में समाप्त हो गए।
 इसमें अरूमुगम की कहानी दर्दनाक रही।
निधन से पहले उन्होंने कहा था कि चारा घोटाले में नाम आते ही मेरी दुनिया बदल गयी।
 अरूमुगम को  तीन साल की सजा हुई थी।
बाद में जमानत पर छूटे थे।
अरूगुगम ने  बताया था कि लंबे कारावास के कारण  मोतियाबिंद का समय पर आपरेशन नहीं हो सका।नतीजतन मेंरी एक आंख जाती रही।
रख रखाव के अभाव में मेरी निजी कार रखी -रखी सड़ गयी।
मेरे पास उसे रखने की कहीं जगह नहीं थी।
कबाड़ी में बेचना पड़ा।
जेल से बाहर आने के बावजूद मेरा निलंबन नहीं उठा।
यह सब कतिपय बड़े अफसरों के द्वेषवश हुआ जो मुझे मुख्य सचिव नहीं बनने देना चाहते थे।
रिटायर होने के बाद केस की सुनवाई के लिए मुझे अक्सर तमिलनाडु से रांची आना पड़ता था।
रांची में एक छोटे से कमरे में रहता था जो मेरे एक मित्र से मिला था।ढाबे में खाना खाता था।
कभी- कभी चूड़ा दूध खाकर काम चला लेता था।मुकदमों ने धन और चैन दोनों छीन लिए।मेरे जीवन में अंधेरा छा गया।
  याद रहे कि पूर्व मुख्य मंत्री द्वय लालू प्रसाद व डा.जगन्नाथ मिश्र सहित कुछ अन्य आइ.ए.अफसरों को भी सजाएं हुई हैं।
उनकी भी दुनिया बदल चुकी है।नेता लोग तो ऐसे भी राजनीतिक आंदोलनों के सिलसिले में जेल यात्राओं  के अभ्यस्त होते हैं। 
पर किसी आई.ए.एस. के तो सपने ही कुछ और होते हैं।
उनके ईर्दगिर्द एक अजीब प्रभामंडल रहता है।खुद अरूमुगम भी मुख्य सचिव बनने के सपना देख रहे थे।पर उनकी गलतियों ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा।
 चारा घोटालेबाजों के कष्टों को देखते हुए पहले यह माना जा रहा था कि अब गलत ढंग से सरकारी खजाने से पैसे निकालने से पहले कोई हजार बार सोचेगा।
पर नहीं।पिछले वर्ष भागल पुर से यह खबर आई कि वहां के सरकारी खजाने से अरबों रुपए इधर से उधर कर दिए गए।
आरोप है कि प्रभावशाली नेताओं के संरक्षण में ही वह घोटाला हुआ जो सृजन घोटाले के नाम से जाना जाता है।सी.बी.आई.उसकी भी जांच कर रही है।
  ऐसी घटनाओं से  एक महत्वपूर्ण सवाल  उठता है ।सवाल यह कि नये घोटालेबाज उन सजाओं से भी नहीं डर रहे हैं जो पिछले घोटालों के आरोपितों को मिलती जा रही है ? 
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?
@मेरा यह लेख फस्र्टपोस्ट हिन्दी में 24 सितंबर 2018 को प्रकाशित हुआ@

जब मैंने रजनीश का आॅटोग्राफ लिया !


संभवतः बात 1970 की है।पक्के तौर पर साल बता देता यदि नरेंद्र घायल से संपर्क हो पाता।
 तब चर्चित आचार्य रजनीश पटना आए थे।
गांधी मैदान में धर्म महा सम्मेलन हो रहा  था।
रजनीश सम्मेलन  मंच पर आए और अपनी पहली ही दो -चार पंक्तियों के बाद छा गए।
 मैं भी मंच के सामने वाले हिस्से में नीचे बैठा हुआ था।
रजनीश शुरू हुए,‘ मेरे आत्मन ! चांदनी रात थी। कुछ लोग नौका विहार को निकले।
गए नदी किनारे।नाव पर बैठ गए।लगे नाव खेने।
जब आधी रात हुई तो सोचा कि देखें हम कहां पहुंचे हंै तो वे हैरान रह गए।
नाव तो फिर भी किनारे खंूटे में ही बंधी थी।
 उसी तरह हम लोगों की बुद्धि की नाव आज धर्म के खूंटे से बंधी हुई है ।
इस तरह हम कहां पहुंचेंगे ?
मंच पर बैठे शंकराचार्य इस पर गरम हुए।उनके कुछ अनुयायियों ने रजनीश को बोलने से रोकने की कोशिश भी की।
 पर, शंकराचार्य ने जोर से कहा कि ‘बोलने दो !’
श्रोताओं के बीच से हम लोग ‘रजनीश जिन्दाबाद’ के नारे लगाने लगे।युवा समाजवादी मन जो था !
इस पर मंच पर बैठे अन्य धार्मिक गुरूओं को और भी खराब लगा।
शंकराचार्य के बोलने की बारी आई तो रजनीश ने कहा कि मैं आपके तर्कों का जवाब दूंगा।
आयोजक ने कहा कि अब आपको मौका नहीं मिलेगा।
इस पर रजनीश ने कहा कि फिर तो मैं आपका भाषण सुनने यहां नहीं बैठूंगा।
वे मंच से उतर गए।हमलोग भी सामने से पीछे गए और रजनीश को घेर कर खड़े हो गए।वे अपनी कार के पास थे।
कई लोग मांग करने लगे कि 
आपको कल से यहां प्रवचन करना चाहिए।
नरेंद्र घायल उनके साथ थे।तय हुआ कि कल से सिन्हा
लाइब्रेरी के प्रांगण में रजनीश का प्रवचन होगा।
होने लगा।कई दिनों तक चला।उन्हें सुनने कुछ बड़े नेता
भी जाते थे।
उनमें से मैं दारोगा प्रसाद राय और महेश प्रसाद सिन्हा को पहचानता था।मैं भी रोज जाता था।
कोई भीड़-भाड़ नहीं।कोई सुरक्षा नहीं।रजनीश करीब 45 मिनट बोलते थे।प्रवचन समाप्त होने के बाद हम अतृप्त रह जाते। ऐसा लगता था जैसे कोेई व्यक्ति सुस्वादु भोजन के बाद अंगूठा चाटता हुआ उठे।
एक दिन मैं उनके पास चला गया।मैंने अपना आॅटोग्राफ बुक उनके सामने बढ़ा दिया।उन्होंने उस पर कुछ लिख दिया जिसे मैं पढ़ नहीं पा रहा था।मैंने पूछा,यह आपने  क्या लिख दिया ?उन्होंने कहा,‘रजनीश का  प्रणाम !’
मैंने उसे संजो कर रखा था।
सोचा आपसे शेयर करूं।
आचार्य रजनीश की उस पटना यात्रा के जो प्रत्यक्षदर्शी हमारे बीच उपलब्ध  हांे और वे कुछ और बता सकें तो मैं आभारी रहूंगा।
 संभवतः आचार्य रजनीश राजेंद्र नगर में किन्हीं वरीय प्रोफेसर के अतिथि थे।मेरे काॅफी हाउस के परिचित नरेंद्र घायल भी वहीं आसपास रहते थे।वे रजनीश का साथ दे रहे थे।
मुझे लगता था कि घायल जी भाग्यशाली हैं।  
 उस घटना के बाद तो मैं रजनीश पर मोहित हो गया था।पर बाद में उम्र बढ़ने और कई तरह की बातें सुनने के बाद मैं तटस्थ हो गया।पर प्रशंसा के भाव आज भी हैं।
उनके खिलाफ प्रकाशित गोविन्द सिंह की भी एक पुस्तक पढ़ी।एकतरफा है।
पर, कुल मिलाकर यह जरूर कहूंगा कि रजनीश ऐसा विलक्षण व तार्किक वक्ता मैंने अन्यत्र नह देखा न सुना।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

परीक्षाओं में कदाचार रोकने के लिए नोडल एजेंसी जरूरी-सुरेंद्र किशोर



माफिया-नेता-अफसर गंठजोड़ पर वोहरा समिति की रपट 1993 में आई  थी।उस रपट में समिति  ने  केंद्र सरकार को एक महत्वपूर्ण  सलाह दी थी।सलाह यह थी कि  गृह मंत्रालय के तहत एक  नोडल एजेंसी  बननी चाहिए। देश मेंे जो भी गलत काम हो रहे हैं ,उनकी सूचना वह एजेंसी एकत्र करे।ऐसी व्यवस्था की जाए ताकि सूचनाएं लीक नहीं हों।क्योंकि सूचनाएं लीक होने से राजनीतिक दबाव पड़ने लगता हैं ।इससे  ताकतवर लोगों के खिलाफ कार्रवाई खतरे में पड़ जाती है।
वोहरा समिति की सिफारिश को तो लागू नहीं किया गया।नतीजतन उसका खामियाजा यह देश आज भी भुगत रहा है। 
पर कम से कम इसी तरह की एक गंभीर समस्या से लड़ने के लिए नोडल एजेंसी बननी चाहिए।कम से कम बिहार में पहले बने।
  माफिया-नेता-अफसर गंठजोड़ की तरह ही एक देशव्यापी ताकतवर व शातिर गंठजोड़ बिहार सहित देश भर की परीक्षाओं में  चोरी करवाने के काम में निधड़क संलिप्त  है।
 अपवादों कोछोड़ दें तो आज शायद ही किसी बड़ी या छोटी  परीक्षा की पवित्रता बरकरार है।चाहे मेडिकल, इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिले के लिए परीक्षाएं हो रही हों या छोटी -बड़ी नौकरियों के लिए।
सामान्य परीक्षाओं का तो कचरा बना दिया गया है।अपवादों की बात और है।
कदाचार परीक्षाओं का अनिवार्य अंग है।
उसकी रोक थाम के लिए एक ताकतवर नोडल एजेंसी तो बननी ही चाहिए। एजेंसी  हर परीक्षा की निगरानी  करे।एजेंसी का अपना खुफिया तंत्र हो।साथ में अर्ध सैनिक बल भी।
सामान्य दिनों में भी एजेंसी सक्रिय रहे।
एजेंसी के पास अपना धावा दल हो।
इस पर जो भी खर्च आएगा,वह व्यर्थ नहीं जाएगा।
कल्पना कीजिए कि चोरी से  पास करके कोई व्यक्ति सरकारी,अफसर,डाक्टर या इंजीनियर बन जाए।
वैसे अयोग्य लोग जहां भी तैनात होंगे तो वे निर्माण योजनाओं और मानव संसाधन को  नुकसान ही तो पहुंचाएंगे ।
 उस भारी नुकसान को बचाने के लिए किसी ताकतवर व सुसज्जित नोडल एजेंसी पर होने वाले खर्चे का बोझ उठाया जा सकता है।
 आए दिन यह खबर आती रहती है कि परीक्षा केंद्रों पर परीक्षा के समय सी.सी.टी.वी.कैमरा काम ही नहीं कर रहे थे।
कहीं जैमर बंद थे तो कहीं से गार्ड गायब।कहीं परीक्षा केंद्र के आसपास अवांछित तत्वों का जमावड़ा है।
नोडल एजेंसी के धावा दल परीक्षा केद्रों पर दौरा कर उस बिगड़ी स्थिति को संभाल सकते हंै।
 मान लीजिए कि राज्य में प्रतियोगिता परीक्षाएं सौ केंद्रों में हो रही हैं।
उनमें से दस केंद्रों पर भी नोडल एजेंसी के धावा दल अचानक पहुंच जाएं तो बाकी नब्बे केंद्रों पर भी हड़कंप मच जाएगा।
क्योंकि तब तक सचेत करने के लिए मोबाइल फोन अपना कमाल दिखा चुके होंगे।
 ़--यौन अपराधियों को लेकर गोपनीयता--   
इस देश में एक नया काम हो रहा है।काम तो बहुत अच्छा है।
यौन अपराधियों की नेशनल रजिस्ट्री तैयार की जा रही है।
नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो को यह जिम्मेदारी दी गयी है।
देश भर के सजायाफ्ता यौन अपराधियों के बारे में पूरा विवरण एक जगह उपलब्ध रहने पर देश की जांच एजेंसियों के काम आसान हो जाएंगे।
यौन अपराधियों के नाम,फोटो,पता,फिंगर प्रिंट,डी.एन.ए.नमूना,पैन और आधार नंबर क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के पास होंगे।
 पर इसमें एक कमी रहेगी।
इस विवरण को सार्वजनिक नहीं किया जा सकेगा।हालांकि अमेरिका में ऐसी सूचनाओं को सार्वजनिक कर दिया  जाता है।
 सार्वजनिक करने से कई लाभ हैं।एक तो ऐसे अपराधी जब सजा भुगत कर जेल से बाहर आएंगे तो उनसे लोगबाग सावधान रहेंगे।
दूसरी बात यह भी होगी कि उस अपराधी घर के  आसपास के लोगों का उसके परिवार पर मानसिक दबाव पड़ेगा।
उससे ऐसी सामाजिक शक्तियां भी सामने आ सकती हैं जो सामाजिक दबाव बना कर ऐसे अपराधों को रोकने में शायद मदद करें।
बदनामी के डर से ऐसी प्रवृति वालों के परिजन ऐसे अपराधियों का बहिष्कार भी कर सकते हैं।
अब केंद्र सरकार बताएगी कि ऐसी सूचनाएं सार्वजनिक करने का नुकसान किसे होगा।
दरअसल हमारे यहां ऐसी बातों में भी गोपनीयता बरती जाती है जिनमें बरतने की कोई जरूरत नहीं है।
 राजनीतिक दल अपने  चंदे का पूरा विवरण जनता को नहीं देते हैं। चंदे के एक हिस्से का तो देते हैं ,पर  बाकी का छिपा लेते हैं।
1967 में आई.बी.की रपट थी कि भारत के अधिकतर राजनीतिक दलों ने यहां चुनाव लड़ने के लिए विदेशों से पैसे लिए।
पर उस रपट को केंद्र सरकार ने सार्वजनिक नहीं होने दिया।
माफिया-नेता-अफसर गंठजोड़ पर वोहरा कमेटी की  1993 की रपट  भी गोपनीय ही रही।
यहां तक कि 2002 में जब चुनाव आयोग ने कहा कि उम्मीदवार  शैक्षणिक योग्यता,आपराधिक रिकाॅर्ड और संपत्ति का विवरण नोमिनेशन पेपर के साथ पेश करें तो तत्कालीन सरकार ने उसका विरोध कर दिया। पर सुप्रीम कोर्ट ने जब सख्त आदेश दिया तो वैसा करना पड़ा।     
   --‘टिस’ पर ही निर्भरता-- 
मुम्बई स्थित टाटा इंस्टीच्यूट आॅफ सोशल साइंसेस यानी ‘टिस’ की फील्ड एक्शन टीम ने हाल में बिहार के आसरा गृहों की जांच रपट पेश करके तहलका मचा दिया।
उस इंस्टीच्यूट में ‘सोशल वर्क’ विषय  की भी पढ़ाई होती है।
वहां समाज व लोगों के प्रति निष्ठावान होना सिखाया जाता है।
 सोशल वर्क की पढ़ाई बिहार में भी होती है।पर बहुत कम स्थानों में ।वह भी आधे मन से। 
 इस राज्य के एक नामी विश्व विद्यालय में तो सोशल वर्क विभाग के प्रधान पद पर सोशियोलाॅजी के शिक्षक तैनात हैं।
  हाल में बिहार लोक सेवा आयोग ने काॅलेज शिक्षकों की नियुक्ति के लिए जो विज्ञापन निकाले, उसमें सोशल वर्क विषय शामिल ही नहीं था।
   बिहार सरकार अन्य विभागों की भी सोशल आॅडिट कराना चाहती है।
 यहां तो सोशल आॅडिट की अधिक जरूरत है भी।
इसलिए इस बात की भी जरूरत है कि ‘टिस’ की तरह बिहार के विश्व विद्यालयों में  भी सोशल वर्क विभागों को स्थापित किया जाए।जहां विभाग पहले से हैं,उन्हें मजबूत किया जाए।
इन संस्थानों से डिग्रियां लेकर जन सेवा की भावना से ओतप्रोत होकर जब विद्यार्थी निकलेंगे तो सोशल आॅडिट के लिए बिहार को मुम्बई के टिस का रुख नहीं करना पड़ेगा। 
    -- भूली बिसरी याद--
 आजादी के तत्काल बाद विश्व विद्यालय में किस तरह खोज-खोज कर विद्वान 
प्राध्यापकों की बहाली की गयी,उसका वर्णन डा.नागेश्वर प्रसाद शर्मा ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘बिहार के ढहते विश्व विद्यालय’ में की है।
उन्होंने लिखा है कि ‘सर सी.पी.एन.सिंह की  नेपाल के राजदूत पद पर नियुक्ति के बाद सारंगधर सिंह पटना विश्व विद्यालय के वाइस चांसलर बने।वे 1949 से 1952 तक वाइस चांसलर रहे।
सारंगधर बाबू जमींदार परिवार से आते थे और पटना के खड्ग विलास प्रेस के मालिक भी थे।इसी प्रेस ने  भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएं छापी थीं।
सारंगधर बाबू  स्वतंत्रता सेनानी  थे।कांग्रेस  से जुड़े हुए  थे।
1952 और 1957 में वे पटना से लोक सभा के सदस्य भी चुने गए थे।
सारंगधर बाबू ख्यातिप्राप्त शिक्षाविद् नहीं होते हुए भी ,विश्व विद्यालय के शैक्षणिक स्तरोन्नयन के प्रति सजग और दृढप्रतिज्ञ थे।
उनकी दूरदर्शिता,कर्मठता और पटना विश्व विद्यालय के प्रति सत्यनिष्ठता का प्रमाण है कि उनके कार्यकाल में उनके द्वारा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वानों की नियुक्ति यहां  हुई।जिनकी नियुक्ति हुई,उनके नाम हैं डा.ए.एस.अल्टेकर, डा.बी.आर.मिश्र, वी.के.एन.मेनन, पी.एस.मुहार, एम.जी.पिल्लई, डा.के.सी.जकारिया और डा.एम.एम.फीलिप।’
       --और अंत में-
उत्तर प्रदेश के पूर्व लोक निर्माण मंत्री शिवपाल यादव  प्रदेश में सपा से  अलग एक समानांतर राजनीतिक शक्ति खड़ी करना चाहते हैं।
 पर संकेत हैं कि सपा के अधिकतर लोग अखिलेश के साथ ही रहेंगे।
क्योंकि मुलायम सिंह यादव  का आशीर्वाद अखिलेश को ही मिलता रहा है।नेता जी  का दिमाग शिवपाल के साथ है,पर  दिल अखिलेश के साथ।
 बिहार में भी ऐसा होगा।जिसे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद का आशीर्वाद मिला है,उनके वोटर भी अंततः उसे ही  उत्तराधिकारी मानेंगे।
तमिलनाडु में भी स्टालिन को ही करूणानिधि का आशीर्वाद मिला था।
दूसरे पुत्र को अंततः  आत्म समर्पण करना पड़ा।ऐसे अन्य उदाहरण भी हैं।
@कानोंकान-प्रभात खबर-बिहार-21 सितंबर 2018@


  


   

1974 के बिहार छात्र आंदोलन के संचालन के लिए 
बिहार राज्य छात्र संघर्ष संचालन समिति का गठन किया गया था।जेपी के नेतृत्व में आंदोलन चल रहा था।
संचालन समिति के सदस्यों की सूची नई दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ के 18 अगस्त 1974 के अंक में छपी थी।
वह इस प्रकार है-
1.-लालू प्रसाद यादव-पटना विश्व विद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष,
2.-सुशील कुमार मोदी-पटना विश्व विद्यालय छात्र संघ के महा मंत्री,
3.-राम बहादुर राय-अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के महा मंत्री,
4.-वशिष्ठ नारायण सिंह-बिहार प्रदेश युवा कांग्रेस @संगठन@,
5.-शिवानंद तिवारी-समाजवादी युवजन सभा,
6.-रघुनाथ गुप्त-समाजवादी युवजन सभा,
7.-मिथिलेश कुमार सिंह-युवा कांग्रेस-संगठन के राज्य संयोजक,
8.-राम जतन सिन्हा-पटना विश्व विद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष,
9.-नरेन्द्र कुमार सिंह-पटना विश्व विद्यालय छात्र संघ के पूर्व महा मंत्री,
10.-भवेश चन्द्र प्रसाद-छात्र संघर्ष समिति के कार्यालय सचिव,
11.-नीतीश कुमार-पटना इंजीनियरिंग काॅलेज छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष,
12.-विक्रम कुंवर-बिहार युवा संघ के अध्यक्ष,
13.-गोपाल शरण सिंह-पटना शहर के निर्दलीय युवा नेता,
14.-अक्षय कुमार सिंह,
15.-विजय कुमार सिन्हा,
16.-रघुवंश नारायण सिंह,
17.-उदय कुमार सिन्हा,
18.-अरूण कुमार वर्मा,
19.-रवीन्द्र प्रसाद 
20.- अशोक कुमार सिंह।
सवाल उठ सकता है कि आज यह सूची देने का क्या
 औचित्य है।
दरअसल समय- समय पर कुछ लोग पूछते रहते हैं कि छात्र आंदोलन के नेता कौन -कौन थे ?
वैसे राज्य में नेता तो इनके अलावा भी अनेक लोग थे।पर इस सूची से कम से कम प्रमुख नेताओं की एक झलक तो मिल ही जाती है।
‘प्रतिपक्ष’ की काॅपी पुराने कागजों में आज मिल गयी तो सोचा कि आपसे शेयर करूं।
पर यह अगस्त, 1974 की स्थिति थी।बाद के महीनों में संचालन समिति में कोई फेरबदल हुआ होगा तो वह इसमें शामिल नहीं है।  

पटना में जारी ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ के संदर्भ में
करीब छह साल पहले का सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय प्रासंगिक है।
महा नगरों में अवैध निर्माण की समस्या पर वह निर्णय था।
न्यायाधीश जी.एस.सिंघवी और न्यायाधीश एस.जे.मुखोपाध्याय के खंडपीठ ने 10 अक्तूबर, 2012 को कहा कि ‘अवैध निर्माण रोकने के लिए इसे ध्वस्त करने का आदेश ही काफी नहीं है,बल्कि ऐसे लोगों को दंडित करना भी जरूरी है।
अवैध निर्माण न सिर्फ योजनागत विकास की अवधारणा को चैपट करता है बल्कि पानी, बिजली और सिवरेज की बुनियादी सुुविधाओं पर भी असहनीय बोझ डालता है।
खंडपीठ ने अपना कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि इससे सिर्फ कानून का ही उलंघन नहीं होता बल्कि कई संवैधानिक और मौलिक अधिकारों का भी हनन होता है।ऐसी इमारतें लोगों के लिए खतरा तो है ही ,इनसे ट्राफिक की समस्या भी पैदा होती है।महा नगरों की आॅथरिटीज का यह फर्ज है कि वे न केवल ऐसी इमारतें ध्वस्त करंे ,बल्कि उन्हें बनाने वालों पर कठोर जुर्माना भी लगाए।
@20 सितंबर 18@

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

उस पर हमले कम होंगे यदि पुलिस अपना नैतिक बल बढ़ाए--सुरेंद्र किशोर



मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने ठीक ही कहा है कि असामाजिक तत्वों द्वारा पुलिस पर हमला असहनीय है और हमलावरों के खिलाफ सख्त व त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए।
 जब मुख्य मंत्री ने ऐसी चिंता जताई है तब कार्रवाई तो होगी ही।
पर ऐसी  कार्रवाइयों में स्थायित्व आए,इसके बारे में भी अलग से सोच - विचार होना चाहिए।
 दरअसल  पुलिस पर माफिया तत्व कभी- कभी दिन -दहाड़े भी हमला कर  देते हैं । कई बार तो वे पुलिस बल को  खदेड़ भी देते हंै। 
पर, जब वे ऐसा करते हैं तो अनेक शांतिप्रिय  लोगों को यह लगता है कि माफिया ‘सत्ता के तख्त’ पर हमला कर रहे हैं।
क्योंकि गांव-गांव में तैनात चैकीदार से लेकर थानेदार तक को पटना सचिवालय से ताकत मिलती है।वे सरकार के ही तो प्रतिनिधि हैं।
जब पुलिस का ही यह हाल हो जाता है तो जो निरीह जनता पुलिस को अपना रक्षक मानती है,उसका क्या हाल होता होगा ! इस बात को वे लोग समझें जिन पर कानून -व्यवस्था कायम रखने का भार है।अन्यथा सत्ता का इकबाल समाप्त हो जाएगा।इसका असर दूसरे क्षेत्रों पर भी पड़ेगा।
 कई साल पहले की बात है।आशियाना-दीघा रोड पर पुलिस अतिक्रमण हटाने गयी  थी।
अतिक्रमणकारियों ने पुलिस पार्टी पर हमला कर दिया।
बाद में एक अतिक्रमणकारी से मैंने पूछा कि आपने ऐसा क्यों किया ?
उसने कहा कि इस पुलिस का चरित्र आप नहीं जानते।एक दिन तो वह रिश्वत वसूलने आती है और वही पुलिस दूसरे दिन अतिक्रमण हटाने आ धमकती  है।
  हमारी धारणा बनती है कि रिश्वत की राशि बढ़ाने के लिए ही वह अतिक्रमण हटाने का नाटक करती है।इसलिए हमें गुस्सा आ जाता है।
  आशियाना -दीघा रोड के उस अतिक्रमणकारी की बात बालू माफिया,शराब माफिया तथा इस तरह के कुछ अन्य कानून तोड़कों पर भी लागू होती है।
 इस स्थिति को कैसे बदला जाए ? इसे बदलना तो कठिन है,पर इसकी गंभीर कोशिश तो होनी ही चाहिए।
   अक्सर अधूरी तैयारी के साथ ही पुलिस व प्रशासन के लोग माफियाओं पर धावा बोल देते हैं।
इस स्थिति को बदलना पड़ेगा।क्योंकि जब -जब ऐसे माफियाआंें द्वारा हमारी पुलिस खदेड़ दी जाती है तब -तब शांतिप्रिय लोगों का दिल बैठ जाता है।  
 --माल्या और संसद की सदस्यता--
केंद्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा है कि ‘विजय माल्या ने राज्य सभा सदस्य के रूप में अपने विशेषाधिकार का गलत इस्तेमाल करके संसद भवन के गलियारे में मुझे रोक कर बात करने की कोशिश की थी।’
  जेटली साहब को भी मालूम है कि दरसल ये अरबपति लोग सांसद बनते ही हैं मुख्यतः इसी काम के लिए।संसद की सदस्यता का इस्तेमाल करके वे कभी अपने व्यापार को बढ़ाते हैं तो कभी अपने  व्यापार पर आए संकट को दूर करने की कोशिश करते हैं।
  ऐसे अरबपतियों को सांसद बनाने में अधिकतर दल उन्हें समय-समय पर मदद करते हैं।जेटली जैसे नेताओं को यह बात पहले ही सोचनी चाहिए थी।
 इस मामले में  माल्या अकेले नहीं हंै।हां, अपने काम में अनोखा जरूर हंै।माल्या प्रकरण के बाद राजनीतिक दल सोच -विचार करे। अधिकतर  दलों को इस   प्रश्न पर विचार करना होगा कि  व्यापारिक हितों के लिए पैसे के बल पर सासंद बनने वालों को राज्य सभा तक पहुंचने से कैसे रोका जाए ?
 माल्या ने मन मोहन  शासन काल में ऐसा कुछ कर दिया था जैसा पहले नहीं हुआ ।
 माल्या नागरिक उड्डयन मंत्रालय की  संसदीय सलाहकार समिति के सदस्य बन गए थे।
नियम  है कि जिस सदस्य का जिस मंत्रालय से व्यापारिक हित जुड़ा  हो ,वह उस मंत्रालय की समिति का सदस्य नहीं बनेगा।
उस समिति के अन्य सदस्यों में  कुलदीप नैयर भी थे।
दिवंगत नैयर के अनुसार माल्या की पहल पर संसदीय समिति ने अभूतपूर्व प्रस्ताव पारित किया।
समिति ने  सरकार से  सिफारिश 
की थी कि आंतरिक उड़ानों में भी विमानों में शराब परोसी जानी चाहिए।
  याद रहे कि माल्या का विमान और शराब दोनों मामलों में व्यापारिक हित निहित था।यह और बात है कि मन मोहन सरकार ने उस सिफारिश को नहीं माना। 
   --बड़े नेताओं के स्वास्थ्य-- 
जिन बड़े नेताओं की ओर लाखों-करोड़ों लोग उम्मीद भरी 
नजरों से देखते हैं,उन्हें खुद कोशिश करनी चाहिए कि वे दीर्घायु हों।
 खानपान और आहार -विहार में संयम बरतने से दीर्घायु हुआ जा सकता है।
 नेताओं के साथ दिक्कत यह होती है कि उनसे मिलने वाले अनेक समर्थक व सहकर्मी नेता गण अपने सर्वोच्च नेता के दैनिक रूटीन को भंग करने की कोशिश करते रहते हैं।
कुछ बड़े नेता तो खुद ही भंग करते हैं।यदि प्रशंसक,समर्थक और सहकर्मी चाहते हैं कि हमारे नेता दीर्घायु हों तो वे उनके खाने -पीने और सोने के समय में उन्हें डिस्टर्व करने की कोशिश न करें।
आजादी की लड़ाई में गांधी जी के साथ काम कर चुके अनेक नेता दीर्घायु हुए।
क्योंकि खुद गांधी की प्रेरणा से वे भरसक संयमित जीवन जीते थे।
  पर आजादी के बाद खासकर ‘अर्थ युग’ की शुरूआत के साथ स्थिति बदलने लगी।
आम लोगों के बीच के भी अनेक धनी -मानी लोगों के आहार -विहार में बदलाव आया।शारीरिक श्रम कम होने लगे।
नेताओं के लिए भी आर्थिक सुविधाएं बढ़ने लगीं।
उसका असर भी खान पान पर पड़ा।  
  देश के ऐसे कई नेताओं को हमने असमय दिवंगत होते देखा जिनकी अधिक जरूरत देश या फिर उनके समाज को थी। 
 एक बड़े कम्युनिस्ट नेता से मिलने की मेरी  बड़ी इच्छा रहती थी।
पर जब जाओ तो वे सिगरेट पीते रहते थे।जब मैं अपनी नाक पर रूमाल रख लेता था तो वे बुझा देते थे।पर पांच मिनट के बाद फिर सुलगा लेते थे।यानी चेन स्मोकर थे।
वे असमय गुजर गए।
यदि वे जीवित रहते तो कम्युनिस्ट आंदोलन को ढीला -ढाला नहीं होने देते।वे इस देश की कुछ बुनियादी समस्याओं को भी बेहतर ढंग से पहचानते थे।वैसी समझ कम ही कम्युनिस्टों में होती है। 
      --भूली बिसरी याद--
 अपनी जिन्दगी के बारे में बताते हुए फिल्मों के हास्य अभिनेता महमूद ने हनीफ झवेरी से कहा था कि ‘ अगर सिनेमा की दुनिया को स्वार्थों की दुनिया कहें तो  गलत नहीं होगा।लोग आपके साथ तभी तक हैं जब तक आप स्टार के रूप में चमक रहे हों।जैसे ही आपकी चमक खत्म हुई ,आप अंधेरे में धकेल दिए जाते हैं।’
  महमूद जिस क्षेत्र में  थे,वहां के बारे में वे कह रहे थे।अन्य क्षेत्रों का भी कमोवेश वही हाल है।खैर, महमूद के मुंह से यह सब सुनना दिलचस्प है।
  महमूद ने यह भी कहा कि ‘अगर इस उद्योग में कहीं मानवीयता होती तो किसी जमाने के मशहूर कैमरामैन राजेन्द्र मलोनी और शकीला बानू भोपाली जैसे लोग दर्दभरी और दुखी मौत नहीं मरते।कई लोगों ने मेरा कैरियर बर्बाद कर देने की कोशिश की ।स्टार कुछ और तरह से जीते हैं,पर मैंने वैसा कभी नहीं किया।
कई स्टार्स ने मेरे साथ काम करने से इनकार कर दिया था,पर इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा।मैंने अपना पूरा ध्यान अपने काम में लगाया।
  धर्मों की चर्चा करते हुए महमूद ने कहा था कि मैं सभी धर्मों का आदर करता हूं सिर्फ मेरे धर्म इस्लाम का ही नहीं।
मैंने अपने मन में संकल्प लिया था कि मेरी फिल्म ‘कंुवारा बाप’ हिट हो गयी तो मैं वैष्णो देवी जाउंगा और मैं गया भी। 
     ---और अंत में--
 खबर है कि पटना रेलवे स्टेशन के पास के  न्यू मार्केट की भीतरी सड़क की चैड़ाई अब 
40 फीट हो गयी है।अतिक्रमण हटाए जाने के बाद ऐसा संभव हुआ है।
 उसी सड़क पर मैंने 1972 में पूर्व मुख्य मंत्री भोला पासवान शास्त्री को रिक्शा पर चलते हुए देखा था।उस समय अतिक्रमण नहीं था। 
 पर, बाद के वर्षों में पुलिस व नगर निगम के धन लोलुप लोगों ने अपनी नाजायज आय के लिए अतिक्रमण करवाना शुरू कर दिया।
@ कानोंकान-14 सितंबर 2018-प्रभात खबर-बिहार@




‘विजय माल्या भगाओ अभियान’ में दो सरकारी संगठनों के कुछ अफसरों  की भूमिका संदिग्ध लग रही है।
वे संगठन हैं सी.बी.आई.और स्टेट बैंक आॅफ इंडिया।
 इनके संबंधित अफसरों का नार्को टेस्ट हो जाए तो पता चल जाएगा कि किस बड़ी हस्ती के कहने से या खुद अपने से उन अफसरों ने ऐसा काम किया ताकि विजय माल्या आसानी से देश छोड़ सके जिस पर बैंक का हजारों करोड़ रुपए लेकर नहीं लौटाने का आरोप है।
या फिर उन अफसरों का मात्र ‘एरर आॅफ जजमेंट’ था।
  पर कठिनाई यह है कि नार्को टेस्ट ,ब्रेन मैपिंग और लाई डिटेक्टर जांच पर सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में ही रोक लगा रखी है।
 मुख्य न्यायाधीश के.जी.बालकृष्णन और न्यायमूत्र्ति आर.वी.रवीन्द्रण के पीठ ने 6 मई 2010 को यह कहा कि ऐसी जांच व्यक्तिगत स्वतंत्रता के खिलाफ है और इस तरह गैर संवैधानिक है।
  सवाल है कि कोई व्यक्ति इस देश के खजाने का हजारों करोड़ रुपए लूट ले।उन रुपयों की कमी के कारण  देश के अनेक लोग भूख से व दवा के बिना मर जाएं।उनकी जीने की स्वतंत्रता की अपेक्षा  क्या माल्या जैसे लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता अधिक मूल्यवान है ?
सुप्रीम कोर्ट का ध्यान इस ओर दिलाया जाए तो शायद पुराने जजमेंट को वह उलट दे।सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई जजमेंट को हाल में पलटा भी है।
इस 2010 के आदेश में संशोधन के लिए किसी को सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करनी चाहिए।क्योंकि 2010 के निर्णय ने क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को इस देश में बहुत नुकसान पहुंचाया है।
भले नार्को टेस्ट वगैरह की रिपोर्ट को कोर्ट सबूत के रूप में स्वीकार नहीं करता ,पर ऐसे टेस्ट से अन्य अपराधियों व सबूत तक पहुंचने  की राह कई बार जांच एजेंसी को मिल जाती है।
  अब इन सरकारी संगठनों के कारनामे देखिए।
1.-28 फरवरी, 2016 को स्टेट बैंक के विधि सलाहकार ने बैंक को सलाह दी कि एस.बी.आई.को चाहिए कि वह माल्या को देश छोड़ने से रोकने के लिए कोर्ट की शरण ले ।
 लेकिन स्टेट बैंक ने इस संबंध में कुछ नहीं किया।
उधर 2 मार्च 2016 को माल्या ने देश छोड़ दिया।
2.-सी.बी.आई.ने 16 अक्तूबर 2015 को लुक आउट सर्कुलर जारी करते हुए मुम्बई पुलिस को कहा कि वह विजय माल्या को भारत छोड़ने से रोके।
 पर,पता नहीं क्यों , 24 नवंबर 2015 को उसी सी.बी.आई.ने  मुम्बई पुलिस के स्पेशल ब्रांच को कहा कि वह माल्या के सिर्फ आगमन-प्रस्थान की सूचना दे।
इस बारे में बाद में कभी सी.बी.आई ने कहा कि एरर आॅफ जजमेंट था तो कभी कहा कि माल्या को गिरफ्तार करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं थे।
यह अच्छी बात है कि भारत सरकार माल्या को लंदन से वापस लाने के लिए ब्रिटेन के कोर्ट में जी- जान से लड़ रही है।
ऐसा कांग्रेस सरकार ने क्वत्रोचि के केस में कत्तई नहीं किया था जबकि उस पर आयकर भी बाकी था।
फिर भी नरेंद्र मोदी सरकार इस बात की कठोरता से  जांच कराए कि सी.बी.आई.और स्टेट बैंक को किस राजनीतिक या गैर राजनीतिक हस्ती ने  प्रभावित करके माल्या को भाग जाने की भूमिका तैयार की।
यदि सही जांच हो जाएगी तो मोदी सरकार की साख बढ़ेगी अन्यथा अगले चुनाव में जनता को जवाब देना कठिन होगा।

राज्य सभा का उप सभापति बनने के बाद भी
हरिवंश जी अपने शैक्षणिक गुरु सुरेश गिरि से मिलने उनके  यहां गोदना मठिया गए।
बिहार के सारण जिले की  रिविलगंज नगर पंचायत के गोदना मठिया मुहल्ले में कबीर की पंक्ति दुहराते हुए हरिवंश ने कहा कि ‘गुरु का स्थान भगवान से भी ऊपर है।’ उप सभापति ने यह भी कहा कि ‘मैं पहले भी आशीर्वाद लेने यहां आता रहा हूं।आगे भी आता रहूंगा।
मेरे जीवन में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है।’
 हरिवंश जी का वहां जाना एक साथ कई संदेश देता है।
 सभी क्षेत्रों के एहसान फरामोश लोगों को यह संदेश है कि वे हरिवंश से सीखें।
शिष्यों को यह संदेश है कि वे गुरु को न भूलें।
गुरुओं को भी संदेश है कि वे ऐसा आदर्श गुरु बनें जिनको याद कर बड़े पदों पर पहुंचे  शिष्यों के सिर भी आदर से झुक जाएं। 

  

बुधवार, 19 सितंबर 2018

बिहार के राज्यपाल सह विश्व विद्यालयों के चांसलर मान्यवर लालजी टंडन का आज के ‘प्रभात खबर’ में इंटरव्यू छपा है।
 राज्यपाल महोदय ने कहा है कि बिहार में उच्च शिक्षा की हालत ठीक नहीं है।
जरूरत पड़ी तो वे इसके लिए कड़वी दवा देने से भी नहीं हिचकेंगे।
उन्होंने जो कुछ कहा है,उससे लग रहा है कि राज्यपाल को इस राज्य की उच्च शिक्षा को लगी असली बीमारी का पता चल गया है।
अब कड़वी दवा देने की बारी उनकी है।इसलिए कि साधारण दवा से काम चलने वाला नहीं है।इस इलाज में राज्यपाल को  नीतीश सरकार का पूरा सहयोग मिलेगा ,ऐसी
 उम्मीद की जाती है।
 कड़वी दवा से शिक्षा क्षेत्र के कत्र्तव्य विमुख लोगों को बड़ी पीड़ा होगी।पर उन्हें जितनी पीड़ा होगी,उसी अनुपात में 
आम लोग खुश होंगे।राज्यपाल को दुआ देंगे।
 दरअसल अमीर लोग तो अपने बाल -बच्चों को बिहार से बाहर भेज कर अच्छे शिक्षण संस्थानों में पढ़ा ही लेते हैं,पर यहां के सरकारी शिक्षण संस्थानों की दुर्दशा का सर्वाधिक नुकसान उन गरीब व पिछड़े वर्ग के परिवारों के विद्यार्थियों को होता है जो शिक्षा पर अधिक पैसे खर्च नहीं कर सकते।
  यदि यहां के उच्च सरकारी शिक्षण संस्थानों में पठन पाठन का माहौल बन गया तो न सिर्फ गरीबों को उसका लाभ मिलेगा ,बल्कि यहां के स्कूलों के लिए योग्य शिक्षक भी पैदा होने लगेंगे।
  ऐसा नहीं है कि यहां की शिक्षा में सुधार नहीं हो सकता। 1972 में तत्कालीन मुख्य मंत्री केदार पांडेय ने उच्च शिक्षा में सुधार किया था।
1996 में पटना हाई कोर्ट के सख्त आदेश से मैट्रिक व  इंटर की पूर्ण कदाचारमुक्त परीक्षाएं हुई थीं।उन सुधारों को तब आम लोगों का भारी समर्थन भी मिला था।
1972 में भी केंद्र व राज्य में एक ही दल की सरकारें थीं,इसलिए सुधार में कोई बाधा नहीं आई।आज भी दोनों जगह एक ही गठबंधन की सरकारें हैं।

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

अगले लोक सभा चुनाव के रिजल्ट को लेकर छिटपुट भविष्यवाणियां अभी से होने लगी हंै।
मेरी राय में ऐसी किसी भविष्यवाणी के लिए कम से कम जनवरी तक का इंतजार कर लेना चाहिए।
 वैसे तो उन लोगों के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता जो अपनी इच्छा को भविष्यवाणी के रूप में पेश करते रहते हैं।वे लोग तो अपना काम करते ही रहेंगे जिन्हें भविष्यवाणियां करके खास तरह की हवा बनानी है।
 किन्तु वस्तुपरक व तार्किक भविष्यवाणी के लिए अभी अवसर परिपक्व नहीं है।क्योंकि  दोनों परस्पर विरोधी राजनीतिक जमातों के तरकस से अभी कई तीर निकलने बाकी हैं।तब तक कुछ राज्यों के चुनाव नतीजे भी सामने आ चुके होंगे।
  एक बात और। राजनीतिक विश्लेषकों व अन्य लोगों को अपना पिछला रिकाॅर्ड खुद ही एक बार देख लेना चाहिए।उन्होंने पिछले दो -तीन लोक सभा चुनावों में किसकी जीत की भविष्यवाणी  की थी और जीता कौन ? उनमें से कितनों ने अपनी साख की कीमत पर भविष्यवाणी की थी ?
कितने खरे उतरे थे ?
   किसी नेता,पार्टी या दल की आलोचना और प्रशंसा जो करनी हो ,करते रहिए।पर  चुनावी भविष्यवाणी करनी हो तो राजदीप सरदेसाई बन जाइए।
राजदीप ने पिछले  उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटका विधान सभा चुनावों के रिजल्ट की लगभग सटीक भविष्यवाणियां की थीं।
 मेरा राजदीप से कोई परिचय नहीं।उसकी जरूरत भी नहीं।पर, जो किसी एक क्षेत्र में भी ठीक काम कर रहा हो तो उसकी प्रशंसा होनी ही चाहिए।



   

गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कल देश की पश्चिमी सीमा पर दो हिस्सों में 11 किलो मीटर लेजर फेंस का समारंभ किया।
यह कंप्रहेंसिव इंट्रीग्रेटेड बोर्डर मैनेजमेंट सिस्टम है।देर आए दुरूस्त आए।
यह सिस्टम इजरायल में बहुत कारगर है।
सीमा पर  बाड़ लगाने का काम  आजादी के बाद से ही शुरू हो जाना चाहिए था क्योंकि तभी से पाकिस्तानी हमले व घुसपैठ शुरू हो चुके थे।
  पर तब की सरकार की राय थी कि बाड़ लगाने से विदेशों में भारत की छवि खराब हो जाएगी।@भले करोड़ों घुसपैठिए
भारत नामक धर्मशाला में घुस
कर इस देश को कचरा बना दे ? @
 इस राय का पता तब पता चला जब एक पूर्व विदेश सचिव ने कुछ दशक पहले टी.वी.डिबेट में ऐसा ही  तर्क पेश भी कर दिया।मैं वह डिबेट सुन रहा था।
  शिव सेना के एक सांसद व पचास के दशक में विदेश सेवा में गए एक रिटायर अफसर के बीच बहस  चल रही थी।
 शिव सेना के सांसद बंगला देश सीमा पर बाड़ की कमी की चर्चा कर रहे थे।
उस पर रिटायर अफसर ने कहा कि बाड़ नहीं लगाया जाना चाहिए।बाड़ लगाने से विदेशों में हमारी छवि खराब हो जाएगी।इस पर शिव सेना के नेता ने उनसे पूछा कि ‘आप भारत के विदेश सचिव थे या बंगला देश के ?’इस पर वे चुप हो गए थे।@ 18 सितंबर 2018@
  

रविवार, 16 सितंबर 2018

एक नए अध्ययन के अनुसार तेजी से फैलने वाले कुछ पर्यावरणीय प्रदूषक आपके गुर्दों के स्वास्थ्य पर नुकसानदेह असर डाल सकते हैं।
लोग  दूषित मिट्टी ,पानी,भोजन और हवा के जरिए पर्यावरणीय प्रदूषक के संपर्क में आते हैं।
इस बीच ‘प्रभात  खबर’ का ‘पाॅलीथिन मुक्ति अभियान’ सराहनीय है।अखबार के प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी ने ठीक  ही लिखा है कि ‘सामान्य सी दिखने वाली और बहु उपयोगी पाॅलीथिन हम सबके जी का जंजाल बन गयी है।’
चूंकि लोगों को जागरूक करने में मीडिया का बड़ा रोल है, इसलिए संपूर्ण  मीडिया को खुद, अपने परिजन ,अपने पाठकों -श्रोताओं व पूरे समाज के भले के लिए हर तरह के प्रदूषण के खिलाफ लोगों में जागरूकता पैदा करनी चाहिए। 

गुरुवार, 13 सितंबर 2018

कांग्रेस के प्रमुख नेता  संजय निरूपम ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को अनपढ़ और गंवार कहा है।
निरूपम जी आखिर इतना गुस्से में क्यों हैं ?
क्या यह उनका अपना गुस्सा है या कांग्रेस का गुस्सा है ?
क्या ऐसी टिप्पणी से कांग्रेस को अगले चुनाव में लाभ होगा ?
क्या दिग्विजय जी और मणि शंकर जी पर्याप्त नहीं थे जो संजय जी को इस मैदान में आना पड़ा ?
@12 सितंबर 2018@

 आज की कुछ महत्वपूर्ण खबरों को ध्यान में रखते हुए मैंने 
टी.वी.खोली।एक चैनल पर गया।वहां ‘आदमी भुकाओ कार्यक्रम’ चल रहा था।
  दूसरे चैनल पर गया।वहां भी  झांव -झांव हो रहा था।
यानी एक साथ कई माननीय अतिथि बोल रहे थे।किसी की कोई बात समझ मंे नहीं आ रही थी।एंकर लाचार !
तीसरे चैनल पर नहीं गया कि वहां भी
तो कांव -कांव ही हो रहा होगा ! अब सोने जा रहा हूं।
मुझे आश्चर्य सिर्फ इस बात पर होता है कि बारी से पहले बोलने वाले की माइक डाउन क्यों नहीं की जाती ?
ऐसी नाकामी के कारण एंकर के बारे में लोगों में अच्छी राय नहीं बनती।
जो लचर हाल इस देश की विधायिकाओं के पीठासीन पदाधिकारियों का है, वही हाल महत्वपूर्ण चैनलों के चर्चित एंकरों का भी है।वहां मार्शल का इस्तेमाल नहीं तो यहां माइक डाउन नहीं।देश ऐसे ही चल रहा है।
@ 12 सितंबर 2018@

बुधवार, 12 सितंबर 2018

कैसा लगेगा जब कोई सरकारी कर्मचारी आपके घर पहुंच कर 
ड्राइविंग लाइसेंस और जन्म प्रमाण पत्र के लिए आपसे फार्म भरवाए और एक खास समय सीमा के अंदर उसे आपके घर पहुंचा दिया जाए ? पर इसके लिए आपको सरकारी आॅफिस में सिर्फ फोन करना होगा। और मिलने का समय तक करना होगा।
 होम डिलवरी के लिए 40 सेवाओं का चयन किया गया है।
   यह तो एक सपना लगता है,पर दिल्ली सरकार ने यह काम 10 सितंबर से शुरू भी करवा दिया है।
 मंगलवार की शाम तक दिल्ली के 74 लोगों के घर पर पहुंच कर सरकारी कर्मचारी फार्म भरवा चुके हैं।अन्य  624 लोगों से मुलाकात का समय भी कर्मचारी तय कर चुके हैं।
  मुख्य मंत्री केजरीवाल व हर संबंधित मंत्री इस अनोखी योजना की सख्त निगरानी कर रहे हैं।
 नियम बना है कि कोई भी फार्म मंत्री की सहमति के बिना रिजेक्ट नहीं किया जा सकता है।
 देखना है कि देश के सरकारी आफिसों के रग- रग में रचे-बसे  भ्रष्टाचार में लिप्त घाघ अफसर व कर्मचारी इस योजना को कैसे विफल करते हैं ?
   

समझौते के समय सरकार को खबरदार करने के लिए अटल जी गए थे शिमला



शिमला समझौते के समय जनसंघ के अध्यक्ष  अटल बिहारी वाजपेयी और स्वतंत्र पार्टी के अध्यक्ष पीलू मोदी अपनी ओर से शिमला पहुंच गए थे।
  अटल जी जहां भारतीय प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी को  खबरदार करने गए  थे कि वे पाकिस्तानी राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ नरम  रुख नहीं अपनाएं। दूसरी ओर पीलू मोदी अपने दोस्त ‘जुल्फी’ के साथ के अपने पुराने दिन याद कर रहे थे ।साथ ही यह घोषणा कर रहे थे कि मैं जुल्फी पर किताब लिखूंगा।
अगले साल पीलू की किताब आ भी गई ।उसका नाम है ‘जुल्फी माई फ्रंेड।’
 याद रहे कि अमरीका में पढ़ाई के दौरान जुल्फी और पीलू एक ही आवास में रहते थे।भारतीय सेना ने 1965 के युद्ध में जो उपलब्धि हासिल की,उसे 1966 के ताशकंद समझौते मेंं गंवा दिया  था।उसके विरोध में तब के केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।त्यागी का आरोप था कि हमने जीती हुई ऐसी जमीन पाकिस्तान को लौटा दी जिसके रास्ते पाकिस्तानी हमलावर अक्सर कश्मीर को निशाना बनाते हैं।
कहा गया कि वह इस्तीफा लाल बहादुर शास्त्री के रेल मंत्री पद से इस्तीफे से भी बड़ा था।
 ताशकंद की गलती न दुहराई जाए ,इस कोशिश में अटल जी लगे हुए थे।पर अंततः वे विफल ही रहे।
  हालांकि उससे पहले  अटल बिहारी वाजपेयी ने तब शिमला के जैन हाॅल में बैठक की।प्रेस सम्मेलन भी किया।उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी से अपील की कि वे सैनिकों के बलिदान को न गवाएं।
पर ऐसा न हो सका। अटल जी को शिमला में तब  जन सभा की इजाजत नहीं मिली थी। 2 जुलाई 1972 की रात में हुए समझौते के बाद अटल जी ने कहा कि हमारी सरकार ने पाकिस्तान  के सामने आत्म समर्पण कर दिया।क्योंकि दोनों देशों के बीच विद्यमान विवादों पर कोई समझौता न होने पर भी भारतीय सेना हटा लेने का निर्णय हो गया।कश्मीर समस्या तो सजीव बनी ही रहेगी।
युद्ध में हुई क्षति,विभाजन  के समय के कर्ज ,विस्थापितों की संपत्ति के मामले भी फिर टाल दिए गए।
इसके विपरीत राष्ट्रपति भुट्टो दो लक्ष्य लेकर वात्र्ता में शामिल हुए थे।एक, युद्ध में खोए भूभाग की वापसी और दूसरा युद्धबंदियों की रिहाई।दोनों में वे सफल रहे।
हालांकि विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह ने कहा कि पाकिस्तान 69 वर्ग मील भारतीय क्षेत्र खाली करेगा।भारत 5139 वर्ग मील पाकिस्तानी इलाका।हमने उदारता का परिचय दिया है।साथ ही यह तय हुआ कि अब दोनों देश अपने विवाद परस्पर बातचीत से हल करेंगे।
पर उधर चर्चा रही कि इंदिरा जी भुट्टो के सिर्फ मौखिक आश्वासनों पर ही मान गयीं।भुट्टो ने कहा था कि हम कश्मीर के बारे में बाद में ठोस कदम उठाएंगे।पर पाकिस्तान लौट कर भुट्टो बदल गए।याद रहे कि 1971 के बंगला देश युद्ध के बाद शिमला समझौता हुआ था।
पाकिस्तान के करीब 90 हजार युद्धबंदी भारत में थे।उन्हें छुड़ाना भुट्टो का सबसे बड़ा उद्देश्य था।इसको लेकर पाकिस्तान में वहां की सरकार की जनता  फजीहत कर रही थी। 
 पर पीलू मोदी अपनी पुस्तक लायक सामग्री हासिल करने में सफल रहे।उन्होंने टुकड़ों में अपने लंगोटिया यार ‘जुल्फी’ से कुल 11 घंटे तक बातचीत की।
दिल्ली लौटने के बाद पीलू मोदी ने भुट्टो के बारे में कई बातें बताईं।पत्रकारों ने पीलू से भुट्टो के बारे में जो सवाल किए ,उनमें अधिकतर सवाल गैर राजनीतिक थे।
 पीलू के अनुसार शिमला शिखर वात्र्ता के बारे में उन दिनों किसी को यह पता नहीं चल रहा था कि भीतर क्या हो रहा है।दोनों देशों के नेताओं ने शिमला से वापस जाने के बाद ही अपने मुंह खोले।
पीलू मोदी ने बताया कि भुट्टो बुद्धिमान,तीखा और जज्बाती इनसान है।तैश में आ जाने की उसकी पुरानी आदत है।
लेकिन वह दिल का बुरा नहीं है।
भुट्टो के सिर पर समाजवाद का भूत सवार है।वह हमारी यानी स्वतंत्र पार्टी की नीतियों में विश्वास नहीं करता।पर अमल हमारी नीतियों पर ही करता है।मोदी ने कहा कि दोस्ती और राजनीति अलग -अलग पटरियां हैं। 11 घंटे की मुलाकात दो दोस्तों की बेमिसाल दास्तान है।
  उधर इंदिरा सरकार ने शिमला शिखर वात्र्ता के लिए आए पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल को देखने के लिए जो भारतीय कथा फिल्में भेजी थीं,उन पर भी तब इस देश में विवाद उठा था।
वे फिल्में थीं-चैदहवीं का चांद,मिर्जा गालिब,पाकिजा,साहब बीवी और गुलाम तथा  मुगल ए आजम।
कुछ लोगों ने तब सवाल किया था कि इस चयन का आधार क्या था ?
भारत की प्रतिनिधि कथा फिल्में क्यों नहीं भेजी गयीं ?
 उधर वात्र्ता के समय अपने पिता के साथ आई बेनजीर भुट्टो जब शिमला की सड़कों पर घुमती थीं तो उसे देखने के लिए बड़ी भीड़ लग जाती थी।
एक दिन तो इंदिरा गांधी की भी  सड़क पर संयोगवश बेनजीर से मुलाकात हो गयी।दोनों साथ-साथ घूमीं।
पीलू मोदी ने विनोदपूर्ण ढंग से कहा था कि यदि बेनजीर यहां से चुनाव लड़ जाए  तो यहां के मुख्य मंत्री वाई.एस.परमार को भी हरा देगी।--सुरेंद्र किशोर    
@फस्र्टपोस्ट हिन्दी से@


     

1.-तमिलनाडु की अन्ना द्रमुक सरकार ने राज्यपाल से राजीव गांधी हत्या के मामले में उम्र कैद की सजा काट रहे सभी  सात कैदियों को रिहा करने की सिफारिश की है।
  मेरी समझ से ऐसी रिहाई गलत संदेश देती है।
किसी पूर्व प्रधान मंत्री के हत्यारे राजनीतिक कारणों से  बचा लिए जाएंगे तो ऐसी राजनीतिक हत्याएं करने की योजना बना रहे लोगों का मनोबल बढ़ जाएगा।
2.-1948 में इस देश में जीप खरीद घोटाला हुआ था।जिस नेता पर उसका आरोप लगा,उसे बाद में केंद्रीय मंत्री बना दिया गया था।
वह गलत परंपरा थी।उससे भ्रष्टाचारियों को यह संदेश मिला कि उन्हें  चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।यहां मारने वालों से बड़ा बचाने वाला व्यक्ति उपलब्ध है।
3.-पचास के दशक में एक केंद्रीय मंत्री के पुत्र ने हत्या कर दी।
उस समय की केंद्र सरकार के एक प्रमुख मंत्री ने उस  मंत्री पुत्र को जेल से छुडव़ा कर उसके लिए पासपोर्ट बनवाया और उसे विदेश भिजवा दिया।
उससे कैसा संदेश गया ?
4.-डा.राम मनोहर लोहिया जैसी बड़ी हस्ती के प्रोस्टेट का दिल्ली के वेलिंगटन अस्पताल में 1967 में आपरेशन हुआ।
डाक्टरों की आपराधिक लापरवाही से उनकी मौत हो गयी।
मोरारजी देसाई सरकार के कार्यकाल में उस लापारवाही की जांच की रपट आई।जो डाक्टर दोषी पाया गया,वह एक बड़ी सत्ताधारी हस्ती का अत्यंत करीबी निकल गया।उसका कुछ नहीं बिगड़ा ।
5.-1967 की बिहार की महामाया प्रसाद सिन्हा  सरकार ने पिछली कांग्रेसी सरकार  के छह  पूर्व सत्ताधारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए अययर कमीशन बनाया। 1970 में पेश रपट मंे कमीशन ने सभी छह नेताओं को किसी न किसी मामले में दोषी पाया था।
पर जिन गैर कांग्रेसी दलों की सरकार ने  आयोग बनाया था,उनमें से कुछ प्रमुख दलों ने उन्हीं आरोपित नेताओं के दल के साथ मिल कर बिहार में 1970 में ही   सरकार बना ली। 
उन में से एक आरोपित को तो सरकारी पद भी दे दिया गया।
 वह गैर कांग्रेसी राजनीति की पहली नैतिक पराजय थी।
6.-1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग प्रस्ताव आया।
पर राजनीतिक कारणों से मतदान में भाग नहीं लेकर कांगेस ने रामास्वामी को बचा लिया।उससे न्यायपालिका के बीच के भ्रष्ट तत्वों को कैसा संदेश मिला ?
7.- सन 1999 में आतंकवादियों ने विमान  का अपहण कर लिया।उन लोगों ने विमान यात्रियों को बंधक बना कर उनके बदले आतंक वादी मौलाना मसूद अजहर तथा दो अन्य आतंकवादियों को भारतीय जेल से रिहा करवा लिया।
अटल सरकार ने कहा कि विमान यात्रियों के ‘बहुमूल्य जीवन’ को बचाने के लिए ऐसा किया । पर दुनिया के कुछ देश ऐसा समझौता नहीं करते।उसका उन्हें लाभ भी मिलता है।
अजहर और अन्य दो आतंकवादियों ने रिहा होने के बाद न जाने कितने ‘बहुमूल्य जीवन’  को मारा और मरवाया।
  राजनीति में राजीव जैसे अपेक्षाकृत एक भले इनसान के हत्यारांे की रिहाई कोशिश की खबर के बीच पिछले सात दशक में किए गए इन  सात मुख्य ‘समझौतो’ं की याद आ गयी।आप ऐसे समझौतों की सूची लंबी भी कर सकते हैं।
 मैंने तो विभिन्न क्षेत्रों के नमूने भर दिए हैं।
जाहिर है कि इन ‘समझौतो’ं से देश में कानून का शासन लागू करने में दिक्कत आती रही है।जबकि, किसी गरीब देश के लिए कानून का शासन अत्यंत जरूरी होता है।




सोमवार, 10 सितंबर 2018

यादें और अनुुभव


  
           -- एक ---
यह एक पूर्व जमींदार की कहानी है।
उनके पास कभी अपना हवाई जहाज भी 
 हुआ करता था।
 आजादी के बाद वह परिवार राजनीति में भी अच्छा -खासा दखल रखता था।
अब वे नहीं रहे।मत पूछिएगा कि वे किस राज्य के थे।
  मेरे परिचित थे।
करीब दो दशक पहले की बात है।एक दिन अकेले में मिल गए।
 उनकी बढ़ती उम्र देखकर  जब मैंने उनका हालचाल पूछा तो वे फट पड़े।
बोले ,सुरेंद्र जी मैं आपसे उम्र में बड़ा हूं।इसलिए बिना मांगे एक सलाह देता हूं। आपको अपने परिवार से छुपा कर कुछ पैसे रखने चाहिए।भगवान करे न आए, पर आएगी तो वे पैसे विपत्ति में आपके काम आएंगे।’
उन्होंने कहा कि मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि तो आप जानते ही हैं।पर 
मेेरे साथ जो बीता,वह किसी के साथ न बीते,ऐसी कामना मैं भगवान से करता हूं।
मेरा लीवर खराब हो गया था।उसे अमेरिका जाकर बदलवाना था।
उसके लिए मुझे करीब 60 लाख रुपए की जरूरत थी।हमारे परिवार के पास पैसे की  कमी नहीं है।
फिर भी पत्नी व बेटे ने कह दिया कि उससे कोई लाभ नहीं होगा।इतने पैसे बेकार जाएंगे।
बदलवाने पर भी आप कितने दिन बचेंगे ?
मुझे झटका लगा।ऐसा सोचा तक नहीं था।पर मेरे पास फिर भी एक  उपाय बचा था।रांची में मेरी एक ऐसी कीमती जमीन थी जिसकी खबर परिवार में  किसी को नहीं थी।
मैंने उसे बेच दिया।
लीवर ट्रांसप्लंाट करा कर लौटा हूं।
           --दो--
  दूसरी कहानी मेरे एक सहपाठी की है।
मैं जब स्कूल में पढ़ता था,उन दिनों छात्रों को  एसेसमेंट लिखना पड़ता था।
उसमें 20 प्रतिशत अंक स्कूल से ही मिलता था।मैट्रिक की बोर्ड परीक्षा में वह नंबर जुड़ता था।
 एसेसमेंट लिखने के लिए दस-दस आने की कई मोटी काॅपियां खरीदनी पड़ती थीं।वे कापियां साल भर चलती थीं।
पर, मेरे सहपाठी के अभिभावक के पास  उतने पैसे होते नहीं थे कि वह एक साथ सभी विषयों के लिए दस -दस आने की  कापियां खरीद सकें।
वह तीन आने वाली काॅपियां ही खरीदते थे।साल में तीन बार।
 मेरा सहपाठी पढ़ने में बहुत तेज था।उसका इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला हो गया।
वह पढ़-लिख कर विदेश चला गया।उसने धीरे- धीरे अपने परिवार और मित्रों से  संबंध तोड़ लिए।
बड़ी मुश्किल से उसे पढ़ा पाने  वाले अभिभावक उससे आर्थिक मदद क्या पाते ,उसके दर्शन भी दुर्लभ हो गए।
अभिभावक अभी जीवित हैं।आर्थिक परेशानियों में रहते हैं। 
उधर सुना कि उस इंजीनियर के पास अपना कारखाना है और निजी विमान भी।विदेशी पत्नी और बाल-बच्चे।
यानी, यदि आपको अपने बाल-बच्चों को विदेश में पढ़ाना हो या विदेश में नौकरी करने लायक बनाना हो तो बिना किसी उम्मीद के ऐसा करिए।आपके लिए कुछ करे तो भी ठीक,नहीं भी करे तो भी ठीक।सिर्फ यह देख-सुनकर  संंतोष कर लीजिए
कि आपकी संतान ने अपने जीवन में काफी तरक्की कर ली है।हालांकि सारे बेटे ऐसे नहीं होते।कुछ तो  अपने मां-बाप की देखभाल करते ही हैं।
इधर कई अभिभावकों को इसी बात से संतोष करते देखा है कि वह खुद सुखी तो है।संतोष कुछ लोग भीतर से कर लेते हैं तो कुछ बाहर से।
           ---तीन---
अपवादों की बात और है।पर,आम तौर पर हर पुत्र अपने पिता के जीवन काल में उनके महत्व व योगदान को नहीं समझ पाता।
  पर हां, पिता के निधन  के बाद छिपकर उनकी तस्वीर अपने हाथों में लेकर कुछ पुत्र उन्हें याद करते हंै और रोते हंै।
अपवादस्वरूप मैंने कई ‘श्रवण कुमार’ भी देखे हैं।मैंने एक ऐसा पुत्र भी देखा कि जिसने विपरीत परिस्थिति में पिता और परिवार की जिम्मेदारियां  बांटने के लिए खुद अपनी शादी तक नंहीं की। 
पर, अपवादों से तो समाज नहीं चलता।
आम तौर पर वयस्क पुत्र यह मानता है कि मैंने जीवन में जितनी सफलता पाई है,वह सब मेरी अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर है।किंतु जितनी कमी रह गयी,वह पिता की कमी के कारण।
 पर पिता के निधन के बाद अधिकतर पुत्रों  की राय बदल जाती है।क्योंकि तब तक वे खुद पिता बन चुके होते हैं।वे देखते हंै कि  खुद अपने पुत्र की देखभाल में कितना कुछ करना पड़ता है।
इसलिए यदि पुत्र पिता से  शिकायत करे तो पिता को चाहिए कि वह मुस्करा कर रह जाएं। कोई सफाई न दें।अपने योगदान न गिनाएं।क्योंकि कोई बात वह अभी नहीं सुनेगा।
 पिता यह मान कर चलें कि मेरे नहीं रहने के बाद तो मेरे प्रति इसकी  राय  बदलने ही वाली है।
हां, यह और बात है कि जब राय बदलेगी उस समय मैं नहीं रहूंगा।
 अपने छात्र जीवन में मैंने एक बार अपने पिता को जवाब दे दिया था।
मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मुझे तो जवाब दे रहे हो,पर जब तुम्हारा पुत्र तुम्हें जवाब देगा, तब तुम्हें यह महसूस होगा कि जब कोई पुत्र जवाब देता है तो पिता के कलेजे पर कैसी चोट पहुंचती है।उन्होंने ठीक ही कहा था।पर, अन्य अनेक पुत्रों की तरह अपने छात्र जीवन में वह बात मैं भी नहीं समझ सकता था।
किसी को समझाने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए।कोई फायदा नहीं।हालांकि यहां मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सारे पुत्र अपने पिता को जवाब ही देते हैं।  
     --दैनिक जागरण समूह की ओर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘बागवान’  के प्रवेशांक में प्रकाशित मेरा लेख ।        

नेहरू के कहने पर मेनन के पक्ष दिलीप कुमार ने किया था धुआंधार चुनाव प्रचार



    संभवतः चुनाव प्रचार के लिए  हिन्दी फिल्मों के किसी शीर्ष अभिनेता का  पहली बार 1962 में इस्तेमाल किया गया था। 
  तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने वी.के.कृष्ण मेनन के पक्ष में मशहूर फिल्मी कलाकार  दिलीप कुमार को चुनाव प्रचार में उतारा था।
 उत्तरी बंबई लोक सभा सीट पर मेनन का पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष जे.बी.कृपलानी से सीधा मुकाबला था।वह चुनाव देश में काफी चर्चित हुआ था।
 1984 के लोक सभा चुनाव में तो कांग्रेस ने इलाहाबाद में 
हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ अमिताभ बच्चन को उम्मीदवार ही बना दिया था।बहुगुणा जी हार भी गए थे।
कहा गया कि राजीव गांधी ने  स्वतंत्रता सेनानी बहुगुणा जी को एक फिल्म अभिनेता से हरवा कर राजनीति में गलत परंपरा शुरू की।पर कम ही लोग जानते हैं कि यह काम तो 
जवाहरलाल नेहरू 1962 में ही शुरू कर चुके थे ।
संकेत मिल रहे हैं कि 2019 के लोक सभा चुनाव में पूरे देश में जितनी बड़ी संख्या में फिल्मी हस्तियां उतरेंगी ,उतनी संख्या में पहले कभी नहीं उतरी थीं। 
 दिलीप कुमार के अनुसार, ‘मैंने पहली बार 1962 में लोक सभा चुनाव में किसी उम्मीदवार के लिए प्रचार किया था।
पंंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुझे खुद फोन करके कहा था कि ‘क्या मैं समय निकाल कर बम्बई में कांग्रेस आॅफिस में जाकर वी.के.कृष्ण मेनन से मिल सकता हूं ?
वे उत्तरी मुम्बई से चुनाव लड़ रहे हैं।
उनके खिलाफ एक बड़े नेता जे.बी.कृपलानी लड़ रहे थे।’
मैंने पंडित जी की बात का सम्मान किया।क्योंकि आगा जी के बाद मैं सबसे ज्यादा आदर व सम्मान उन्हीं का करता था।
आत्म कथा ‘वजूद और परछाई’  में दिलीप साहब लिखते हैं कि ‘जैसा कि पंडित जी ने कहा मैं जुहू में कांग्रेस आॅफिस गया।मैं मेनन का इंतजार कर  रहा था कि  एक आदमी तेजी से अंदर आया और अपना परिचय देते हुए बोला कि ‘मेरा नाम रजनी है और मैं रोजी-रोटी के लिए वकालत करता हूं।’
मैं उठ खड़ा हुआ और कहा कि ‘मेरा नाम युसुफ है और मैं रोजी-रोटी के लिए कुछ नहीं करता हूं।’
उसी समय कृष्ण मेनन आ गए।मुझे देख कर मुस्कराते हुए हाथ बढ़ाया तो रजनी यानी रजनी पटेल हैरान रह गए।
कृष्ण मेनन ने पंडित जी के फोन के बारे में बताया और कहा कि मुझे मालूम हुआ कि आप यहां आॅफिस में आने वाले हैं।
बाद में मेनन ने रजनी का दिलीप कुमार से परिचय कराया तो वे माफी मांगने लगे कि उन्होंने मुझे पहचाना नहीं था।
उन्होंने कहा कि ‘मैं  फिल्में नहीं देखता।’
मेनन ने दिलीप कुमार से कहा कि चुनाव मुकाबला कड़ा है।
वे चाहते थे कि मैं फिल्म उद्योग के लोगों को चुनाव रैली में आने के लिए कहूं।
  1962 का वह चुनाव शहर का सबसे नाटकीय चुनाव था।
मैंने सबसे बड़ी राजनीतिक सभा  बम्बई के कूपरेज मैदान में संबोधित किया।रजनी और मैं कार से जा रहे थे।मुझे इसके बारे में बिलकुल पता नहीं था कि मुझे भाषण देना है।मेरीन ड्राइव के पास रजनी ने मुझसे कहा कि मौजूद लोगों के सामने आपको भाषण देना है।
मैं कुछ खीज गया।मैंने कहा कि मैं कोई नेता नहीं हूं कि बिना किसी तैयारी के जनता के सामने बोल पाउं।
उन्होंने मेरे हाथ को थपथपाते हुए कहा कि ‘आपसे राजनीतिक भाषण की उम्मीद किसे है ? उसे नेताओं के लिए छोड़ दीजिए।आप तो लोगों के सामने दिलीप कुमार की तरह बोलिए।’
दिलीप लिखते हैं कि ‘मौके पर पहुंचते ही देखा कि लोग दिलीप कुमार का नाम ले रहे थे और शोर मचा रहे थे।
मैं जब जनता के सामने आया तो उनकी खुशी और जोश भरी चीख -पुकार और साफ सुनाई देने लगी।
मैंने गहरी सांस ली और दस मिनट बोला।
जब मेरा भाषण खत्म हुआ तो तालियों की आवाज बहरा कर देने वाली थी।
इस तरह मैंने मेनन के लिए चुनाव प्रचार करते हुए कई भाषण दिए।
बाद में कांगेेस के लिए चुनाव प्रचार करना एक मेरा एक नियमित काम बन गया क्योंकि कृष्ण मेनन जीत गए थे।’
  दरअसल वह एक ऐसा चुनाव था जहां दक्षिणपंथ और वाम पंथ आमने -सामने था।
अखबारों खास कर साप्ताहिक पत्रिकाओं ने जबर्दस्त  भूमिका निभाई।
पर दिलीप कुमार तो दिलीप कुमार ही थे।
 कृष्ण मेनन 1957 में उसी क्षेत्र से लोक सभा चुनाव जीत चुके थे।पर 1962 के चुनाव में दिग्गज कृपलानी  के उम्मीदवार
बन जाने के कारण जवाहर लाल जी अपने मित्र मेनन के लिए चिंतित हो उठे थे।वे कोई कसर छोड़ना नहीं चाहते थे।इसीलिए उन्होंने फिल्म अभिनेता की मदद ली। 
जब देश को स्वतंत्रता मिल रही थी,तब जे.बी.कृपलानी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे।
पर कृपलानी को जब लगा कि प्रधान मंत्री देश के महत्वपूर्ण 
मुद्दों पर कांग्रेस अध्यक्ष से राय नहीं लेते तो उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया।
 1948 में  महात्मा गांधी की हत्या  के बाद तो उन्होंने कांग्रेस को ही छोड़ दिया।
 जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1946 में अंतरिम सरकार बनने के बाद जे.बी.कृपलानी कांग्रेस अध्यक्ष बने थे।
पर प्रधान मंत्री से मतभेद के कारण उन्होंने नवंबर ,1947 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
याद रहे कि नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद कार्य समिति ने कृपलानी को अध्यक्ष बनाया था।ऐसा गांधी जी के कहने पर हुआ था अन्यथा नेहरू और कृपलानी के विचार नहीं मिलते थे।लगभग परस्पर विरोधी विचार वाले ये दोनों नेता थे।
दूसरी ओर मेनन वामपंथी थे।ब्रिटेन में भारत के हाई कमिश्नर रहे चुके थे।
1953 में राज्य सभा के सदस्य बने।
बाद में रक्षा मंत्री बने।
चीन के हाथों भारत की पराजय के बाद मेनन को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था।1967 में तो कांग्रेस ने उन्हें टिकट तक नहीं दिया।सन 1969 में वामपंथियों की मदद से पश्चिम बंगाल से एक उप चुनाव के जरिए लोक सभा पहुंचे थे।@फस्र्टपोस्ट हिन्दी में 10 सितंबर 2018 को प्रकाशित मेरा लेख@



आज के ‘हिन्दुस्तान’ के पहले पेज की पहली खबर का 
शीर्षक है-‘आलस्य से एक तिहाई भारतीय बीमार।’
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट के आधार पर यह खबर दी गयी है।
सबसे बड़ी बात यह है कि स्वास्थ्य से संबंधित ऐसी खबर को किसी दैनिक अखबार में लीड बनाया गया है।
अखबार का यह काम अत्यंत सराहनीय है।
जब आलस्य देश की एक तिहाई आबादी को बीमार बनाए तो 
ऐसी खबर लीड बननी ही चाहिए।
अगर आप कम शारीरिक श्रम कर रहे हैं तो जान लें कि आप गंभीर बीमारियों को न्योता दे रहे हैं।
 मैंने सिर्फ आलस्य और अति भोजन के कारण कई लोगों को गंभीर रूप से बीमार होते और असमय गुजर जाते देखा है।
कुछ लोगों को तो कहते -कहते आप थक जाएंगे किन्तु वे टहलने नहीं निकलेंगे।
  मैंने खुद कभी ऐसी गलती की और उसका कुपरिणाम भुगता।पर, जब जान पर आई तो मैंने अपनी गलती को सुधारने की कोशिश की।कुछ सफल भी हुआ।उसका सुफल पाया।आज मैं बिना थके लंबे घंटे तक काम करता हूं।फिर भी मानता हंू कि मैंने खुद में अभी उतना सुधार नहीं लाया है जितना होना चाहिए।कोशिश जारी है।यदि नहीं करते हों तो थोड़ी कोशिश आप भी करके देखें ! यह सलाह उनके लिए है जो साठ पार कर चुके हैं।नौजवान तो मेरी इस बिन मांगी सलाह पर हंसेंगे।
  हंसने दीजिए।कुछ होशियार लोग दूसरों को गलती करते देख सीख लेते हैं।पर अधिकतर लोग गलतियों को खुद पर आजमाए बिना नहीं सीखते।कई लोग तो अंत -अंत तक नहीं सीखते। 
- 6 सितंबर 2018 -