करीब दस साल पहले की बात है।
बिहार के एक पूर्व सांसद ने मुझे गंगा पार से फोन किया।
कहा कि ‘‘मैं आज शाम चार बजे (पटना के )स्टेट गेस्ट हाउस में रहूंगा।आपसे वहीं मिलना चाहता हूं।’’
मैं पौने चार बजे ही वहां पहुंच गया।
जब छह बजे तक नहीं आए तो मैं घर लौट आया।
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दिवंगत नेता जी को कहीं देर हो गई होगी।
किंतु उनके हाथ में हमेशा मोबाइल रहता था।
फोन कर देते
कि मैं नहीं आ पाऊंगा।
तो, मेरा समय बर्बाद नहीं होता।
किंतु उन्होंने वह काम नहीं किया।
जब वे एक व्यस्त पत्रकार के साथ ऐसा कर सकते थे तो आम आदमी के साथ क्या करते होंगे आप कल्पना कर लीजिए।
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कुछ महीने पहले एक चैनल के पटना संवाददाता ने मुझे फोन किया,‘‘हमारे चैनल हेड दिल्ली से आए हैं।
आपसे मिलना चाहते हैं।
मैंने उन्हें हतोत्साहित करने के लिए कहा कि मैं मुख्य नगर से दूर रहता हूं।
आने -जाने में उनका बहुत समय लग जाएगा।
उनसे फोन पर ही बात करा दीजिए।
उन्होंने जिद की,‘‘नहीं, नहीं आपसे मिलना चाहते हैं।’’
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चैनल हेड साहब किसी अन्य अधिक जरूरी काम में व्यस्त हो गए होंगे।
नहीं आए।
कोई बात नहीं।
किंतु उनके संवाददाता जी मुझे सूचित कर देते कि हम नहीं आ पा रहे हैं तो मैं मानता कि उन्हें दूसरे के समय की भी चिंता है।
याद रहे कि यदि कोई अतिथि आपके यहां आने वाले होते हैं तो आपके पूरे परिवार का ध्यान उधर ही रहता है जब तक वे आकर चले न जाते।
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यह कोई इक्की-दुक्की घटना नहीं है।
ऐसा अक्सर होता रहता है।
अरे भाई !
जरा जिम्मेदार व्यक्ति बनिए।
लोग मिलते हैं तो मुझे अच्छा लगता है।
यदि नहीं मिलते हैं तो और भी अच्छा लगता है।
किंतु जब कह कर भी नहीं आते तो बहुत बुरा लगता है।
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मेरे पास समय कम है और करने योग्य काम बहुत बचा हुआ है।
साथ ही, घर खर्च चलाने के लिए अखबारों व वेबसाइट के लिए मुझे बहुत लिखना पड़ता है।
मेरे पास किसी को देने के लिए मेरा सिर्फ अच्छा-बुरा लेखन है।
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मैं आम तौर पर किसी के यहां नहीं जा पाता तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं उस व्यक्ति की उपेक्षा करता हूं।
दरअसल मेरे पास अब समय बहुत कम बचा है।
पता नहीं, कितना बचा है।
वह तो सिर्फ ईश्वर जानता है।
पर, जो भी बचा है,उसका बेहतर इस्तेमाल करना चाहता हूं।
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सुरेंद्र किशोर
30 मार्च 22
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