बुधवार, 31 जनवरी 2018

मानवेद्र जी ने इच्छा जाहिर की है कि मैं ‘दिनमान’ पर कुछ लिखूं।
दिनमान पर लिखना या बात करना मुझे बहुत अच्छा
 लगता है।दरअसल राजनीतिक रूप से जागरूक बनाने और पत्रकारिता की ओर प्रेरित करने में दिनमान का मेरे जीवन में बड़ा योगदान है।
1965 में साप्ताहिक के रूप में दिनमान का प्रकाशन शुरू हुआ था।
सच्चिदानंद वात्स्यायन उसके संस्थापक संपादक थे।
उनके बाद रघुवीर सहाय संपादक बने।
फणीश्वर नाथ रेणु दिनमान के प्रथम बिहार संवाददाता थे।
दिनमान जैसी पत्रिका हिन्दी में न उससे  पहले कभी  आयी और न ही बाद में।आएगी भी नहीं।
टाइम्स आॅफ इंडिया ने उसे प्रकाशित किया था। दुर्भाग्य है कि दिनमान की पुरानी प्रतियां टाइम्स आॅफ इंडिया के स्टाॅक में भी नहीं है। 
मुझे जनसत्ता के पूर्व प्रधान संपादक ओम थानवी ने बताया था कि जापान में दिनमान के सारे पुराने अंक उपलब्ध हैं।
थानवी जी को इस देश में शायद कहीं नहीं मिला था।
  आज के इंडिया टूडे की साइज में 48 पेज का दिनमान निकलता था।
 दिनमान के प्रति मेरी दीवानगी का नमूना पढि़ए।
1967 या 68 की बात है।दिनमान खरीदने के लिए मैं गांव से एक सुबह में दिघवारा पहुंचा।ट्रेन पकड़ कर छपरा कचहरी स्टेशन।वहां के व्हीलर स्टाॅल पर  नहीं आया था।
मैं छपरा जंक्शन गया।वहां भी नहीं आया था।
सिवान चला गया।वहां भी नहीं।लौटकर घर जाने के बदले सोन पुर चला गया।वहां मिल गया।
घर लौटते -लौटते रात के 12 बज चुके थे।
दिनमान मिल जाने के बाद पहले पेज से आखिरी पेज तक पढ़े बिना मैं अपने कमरे से बाहर नहीं निकलता था।
है कोई वैसी पत्रिका अब ?
@ 30 जनवरी 2018@
  




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