सोमवार, 1 जनवरी 2018


अवस्थी जी,
रंजन जी को दिए जवाब में मैंने जो कुछ  लिखा है,उसे पोस्ट कर रहा हूं।
रंजन जी, आपने सही कहा।
चूंकि राज्य सभा के सभापति ने यह बात उठाई है, इसीलिए 
मैंने राज्य सभा से इसकी शुरूआत की बात की।
जब राज्य सभा में सत्ताधारी दल का बहुमत नहीं है, तो  
कार्य संचालन नियमावली में संशोधन का प्रस्ताव पास ही नहीं होगा।
यानी नायडु साहब चाहते हुए भी फिलहाल वह काम नहीं कर सकते जिसका सुझाव  उन्होंने दिया है।
मेरा मानना है कि सदन की गरिमा लौटाने की जरूरत को लेकर देश में चर्चा तो होनी ही चाहिए।नायडु साहब ने इस चर्चा का मौका दिया।
मैं इस मामले में खुद भाजपा का रवैया भी जानता हूं।
मन मोहन सिंह के कार्य काल मंे 2012 में लोक सभा में प्रतिपक्ष की नेता  सुषमा स्वराज ने कहा था कि ‘सदन को नहीं चलने देना भी एक लोकतंात्रिक तरीका है।तहलका और काॅफिन घोटाले पर कांग्रेस ने भी तो सदन नहीं चलने दिया था।’
  मेरा मानना है कि जब तर्को में दम नहीं होता तो लोग शोर मचाने लगते हैं।
इस देश की आजादी के बाद के नामी,  सम्मानित और कारगर सांसदों को वेल में जाकर शोर मचाने की जरूरत  नहीं पड़ती थी।क्या हीरेन मुखर्जी, ज्योतिर्मय बसु, मधु लिमये और सुरेंद्र नाथ द्विवेदी को वेल में जाते किसी ने देखा था ?
    इस देश की विभिन्न विधायिकाओं के सदनों के भीतर हंगामे के कई नये -नये आयाम अब सामने आ रहे हैं।उनमें गाली गलौज,मारपीट,खून- खराबा,स्पीकर का सरेआम अपमान,कागज फाड़ना आदि आदि।एक बार तो सदन में जय ललिता की साड़ी तक खोलने की कोशिश हुई थी।
नयी पीढ़ी का इसलिए भी लोकतंत्र के प्रति सम्मान घट रहा है।
बीमारी बढ़ जाने पर कड़वी दवा की जरूरत होती है अन्यथा शरीर नष्ट हो जाता है।   

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