मंगलवार, 16 जनवरी 2018

  शिक्षा के मौजूदा स्तर को लेकर पटना के दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में आज एक बड़ी खबर छपी है।मैं तो अन्य किसी खबर से भी इसे बड़ी खबर मानता हूंं।क्योंकि शिक्षा की  बुनियाद पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है।
यह खबर  बिहार के सरकारी माध्यमिक विद्यालयों के 
प्राचार्यों के बारे में है।
वेतन वृद्धि के लिए हाल में आयोजित विभागीय परीक्षा में
148 में से सिर्फ 4 प्राचार्य ही पास कर सके।
 हालांकि  प्रश्न पत्र उनके विषय से संबंधित ही थे।
फेल होने वाले प्राचार्यों में सबसे अधिक पटना स्थित विद्यालयों के  प्राचार्य हैं।
  अब इस खबर पर रोया जाए या हंसा जाए ?
हालांकि शिक्षा की ऐसी दुर्गति सिर्फ बिहार में ही नहीं है।
अन्य कई राज्यों में भी है । 148 में से सिर्फ 4 प्राचार्यों का पास होना एक गंभीर रोग का लक्षण मात्र है।
 ऐसी बातें सोशल मीडिया में आने के बाद कुछ शिक्षकों की ओर से बचाव के अनेक तर्क दिए जाते हैं।इस पर भी दिए जाएंगे।मेरी तीव्र और अशालीन आलोचना भी हो सकती है।
 पर मैं अगली पीढि़यों के भले के लिए वह अपमान भी सह लूंगा।
  पर, ऐसी समस्या को सिर्फ शिक्षकों ,शिक्षा विभाग और बिहार सरकार पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।ऐसी गिरावट न तो एक दिन में आई  है और न ही इसके लिए कोई शिक्षक , एक व्यक्ति या संस्थान जिम्मेदार है।शिक्षा को इस स्तर पर ला देने के लिए  कई क्षेत्रों के अनेक निहितस्वार्थी  लोग जिम्मेदार रहे हैं।इसी देश में साठ के दशक में जब मैं हाई स्कूल का छात्र था, तब तो प्राचार्यों की हालत ऐसी   नहीं थी ? क्यों ? तब से अब में क्या अंतर आ गया ? किसने वह अंतर लाया ? उसे कैसे ठीक किया जा सकता है ?
 क्या पूरे देश के राजनीतिक हुक्मरान इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर विशेषज्ञों का एक बड़ा सम्मेलन बुलाकर इसका उपाय खोजेंगे ? या, अगली पीढि़यों को भी ऐसे ही शिक्षकों के हवाले सौंपे रहेंगे ?
ध्यान रहे कि जब प्राचार्यों का यह हाल है तो अन्य  शिक्षकों का क्या हाल होगा ?
  
  


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