कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष डी.संजीवैया ने सन 1963 में ही इन्दौर के अपने भाषण में कह दिया था कि ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।
गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने तब यह भी कहा कि ‘झोपडि़यों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’
आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री रहे संजीवैया का वह भाषण एक गंभीर चेतावनी की तरह था।
पर सत्ताधारियों द्वारा उसे भी गंभीरता से नहीं लिया गया।
नतीजतन समय बीतने के साथ इस देश में भ्रष्टाचार बढ़ता ही चला गया।और अब जब लालू प्रसाद जैसे नेताओं पर छिटपुट कार्रवाइयां हो रही हैं, तो वह सामाजिक तनाव बढ़ाने का कारण भी बन रही है।सवाल उठाया जा रहा है कि जब आजादी के तत्काल बाद से ही सत्ताधारियों ने देश को लूटना शुरू कर दिया था,तब शासन की ओर से इतनी बड़ी कार्रवाइयां क्यों नहीं की गयीं थीं।अब अघोषित कारणों से ये कार्रवाइयां हो रही हैं।मंशा पर भी सवाल उठाया जा रहा है।
खैर इस आरोप में तो कोई खास दम नहीं है।पर आरोप तो है।आरोप से अधिक यह प्रचार है।उस प्रचार में कुछ लोग आ भी जा रहे हैं।पर इसका मौका आखिर किसने दिया ?
ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद के वर्षों में भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाइयां नहीं हुईं।
ऐसा भी नहीं है कि कार्रवाइयों में सिर्फ भेदभाव ही किया गया।
पर यदि भेदभाव थोड़े भी हुए तो उसे बढ़ा-चढ़ाकर आज पेश किया जा रहा है।ऐसा करने में कुछ लोगों को राजनीतिक यानी चुनावी लाभ नजर आ रहा है।
लालू प्रसाद के मामले में निशाने पर मौजूदा केंद्र सरकार है।हालांकि चारा घोटाले पर अदालती आदेश से सी.बी.आई.ने कार्रवाई तब शुरू की जब खुद लालू प्रसाद की पार्टी की केंद्र में सरकार थी।जाहिर है कि जब आदेश सुप्रीम कोर्ट का हो तो कोई सरकार भला क्या करती !
हां, इधर नरेंद्र मोदी की सरकार ने इन दिनों पूरे देश में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाइयां तेज कर दी है।
ऐसा इससे पहले किसी अन्य सरकार ने नहीं किया था।
ये कार्रवाइयां जब और तेज होंगी तो पूरे देश में यह सवाल उठाया जाएगा कि बदले की भावना से यह काम हो रहा है।
ऐसे सवाल उठाने वालों में कांग्रेस प्रमुख है और होगी।
पर आजादी के बाद खुद कांग्रेस की सरकारों का भ्रष्टाचार के मामले कैसा रिकाॅर्ड रहा है ?
कौन नहीं जानता कि 2014 में कांग्रेस की अभूतपूर्व चुनावी हार में भी उसकी सरकार के भ्रष्टाचार की ही मुख्य भूमिका थी।
मोदी सरकार कांग्रेस की उस पराजय से भी सबक लेकर कार्रवाइयों में लगी हुई है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाइयों से आम जनता खुश होती है।
भाजपा की हाल की चुनावी जीत का वह भी एक कारण है।
क्या कांग्रेस अब भी अपनी पिछली गलतियों से सबक लेगी ?
लगता तो नहीं है।ऐसे में उसकी सरकारों की गलतियों को गिना देना मौजू होगा।
प्रशासनिक सुधार के लिए गठित संथानम समिति की रपट के अनुसार 1 अप्रैल से 31 दिसंबर 1956 तक की अवधि में केंद्र सरकार को भ्रष्टाचार से संबधित 4676 शिकायतें मिली थीं।
सन 1962 में यह संख्या बढ़ कर 20 हजार 461 हो गयी।1962 के अंत तक भारत सरकार के पास 4283 मामले जांच के लिए लंबित थे।
राज्य सरकारों को मिलने वाली शिकायतें इनसे अलग थीं।
ध्यान रहे कि जितने भ्रष्टाचार होते हैं,उनमें से बहुत कम की शिकायतें ही ऊपर तक पहुंच पाती हैं।
यह भी ध्यान रहे कि उन वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों की
राजनीतिक कार्यपालिका के शीर्ष पदों पर आजादी की लड़ाई के योद्धा ही बैठे हुए थे।पर उनमें से अधिकतर ने भ्रष्टाचार से सह अस्तित्व की रणनीति अपना ली थी।
उसका सबसे बड़ा प्रमाण वी.के.कृष्ण मेनन प्रकरण था।
मेनन ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त थे तो उन पर जीप खरीद घोटाले का आरोप लगा।पर उन्हें ही बाद में रक्षा मंत्री बना दिया गया।वे जीपें सेना के लिए ही थीं।
तब आरोप लगने पर सरकार की ओर से यह कहा जाता था कि सरकारी भ्रष्टाचार पर अंकुश के कड़े उपाय किए जाएंगे तो उससे प्रशासन में पस्तहिम्मती आएगी।
नतीजतन भ्रष्टाचार बढ़ता ही चला गया।
जिस तरह नाले का पानी जैसे -जैसे नीचे की ओर बहता जात है,उसकी रफ्तार बढ़ती जाती है,उसी तरह समय बीतने के साथ भ्रष्टाचार, घोटालों और महा घोटालों में परिणत होते चले गये।जिसने चाहा ,भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाई।बाद के वर्षों में तो सबने समझा कि जब आजादी के तत्काल बाद के भ्रष्ट सत्ताधारियों में से अधिकतर कानूनी गिरफ्त में आने से बच गए तो हम भी बच ही जाएंगे।
पर, लगता है कि अब समय थोड़ा बदल रहा है।
बीच के वर्षों में भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ही कई सरकारें चुनावों में हारती गयीं।पर किसी ने उससे भी सबक नहीं लिया।
आंशिक तौर पर ही सही,पर लगता है कि मौजूदा सरकार ने सबक लिया है। अब देखना है कि मन मोहन सरकार के भ्रष्टाचार के कारण देश में पैदा हुए जनरोष की लहर पर सवार होकर 2014 में सत्ता में आयी मोदी सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में कितना सफल होती है।सफल जितनी भी हो,यदि सिर्फ लड़ती हुई भी नजर आएगी तो वह अगला चुनाव जीतेगी।
चुनाव नतीजा काफी हद तक उसी पर निर्भर करेगा।
इसीलिए मोदी सरकार कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती है। चुनाव विश्लेषण के नतीजे बताते हैं कि जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक के दायरे के कुछ लोगों को बात छोड़ दीजिए तो आम लोग भ्रष्टाचार को बहुत बुरा मानते हैं।
@मेरा यह लेख फस्र्टपोस्ट हिंदी में 3 जनवरी 2018 को प्रकाशित@
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