कई दशक पहले की बात है।कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष जे.बी.कृपलानी एक बीमार स्वतंत्रता सेनानी को देखने पटना आए थे।
लौटते समय पटना हवाई अड्डा के रास्ते में साथ के एक व्यक्ति से उन्होंने कहा कि ‘यह बहुत बड़ा क्रांतिकारी था।पर लोभ ने इसे बर्बाद कर दिया।’
दरअसल वह क्रांतिकारी पहले भगत सिंह और चंद्र शेखर आजाद के साथ थे।
बाद में कांग्रेस में शामिल हुए।विधायक बने और ‘दुनियादारी’ में लिप्त हो गए।
लालू प्रसाद पर भी यह बात फिट बैठती है।
लालू प्रसाद ने बिहार में सामाजिक स्तर पर युगांतरकारी काम किया था।भूतो न भविष्यति !
मंडल आरक्षण विवाद की पृष्ठभूमि में तत्कालीन मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने सवर्ण सामंती धाक वाले राज्य बिहार में पिछड़ों और कमजोर वर्ग के लोगों को सीना तान कर चलना सिखाया।
याद रहे कि 1990 में जब आरक्षण विरोधियों ने मंडल आरक्षण का बिहार में तीखा विरोध करना शुरू किया तो तत्कालीन मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने अपनी पूरी सरकारी ताकत के साथ वैसे लोगों का उससे भी अधिक तीखा प्रतिरोध किया।
पिछड़ों को लगा कि लालू के रूप में हमें एक मसीहा मिल गया है। 1991 के लोक सभा चुनाव में लालू प्रसाद को मिला भारी जन समर्थन उसका गवाह बना।उनमें पिछड़ों का आम्बेडकर बनने की संभावना देखी गयी।
पर बाद में यह मसीहा अपनी राह से भटक गया।
आज यदि लालू प्रसाद जेल में हैं तो उसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है।उन्होंने खुद ही पिछड़ों का आम्बेडकर बनने का अवसर गंवाया। याद रहे कि रांची कोर्ट में गत माह दोषी ठहराये जाने के बाद लालू प्रसाद ने अपनी तुलना आम्बेडकर, नेलसन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग से की थी।
अब नयी परिस्थिति में राजद का क्या भविष्य होगा,यह देखना दिलचस्प होगा।हांलाकि राजद के नेतागण कह रहे हैं कि अब राजद का जन समर्थन और बढ़ेगा।क्योंकि लालू जी को सपरिवार प्रताडि़त किया जा रहा है।इससे पिछड़ों में नाराजगी है।
पर खुद लालू प्रसाद के दल का पिछला चुनावी इतिहास इस दावे की पुष्टि नहीं करता।
मुख्य मंत्री बनने के बाद 1990 में लालू प्रसाद ने कहा था कि ‘बिहार की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है।’
पर 1991 के लोक चुनाव में भारी विजय के बाद लालू प्रसाद ने अपनी प्राथमिकता बदल ली।
बिहार की सत्ता हाथ से निकल जाने के बाद 2007 में लालू प्रसाद ने अवश्य यह स्वीकार किया था कि ‘चापलूसों से घिरे रहने और धन की भूूख हमें ले डूबी।’
समय -समय पर उन्होंने अपनी गलतियंा सार्वजनिक रूप से स्वीकारी,पर उसे सुधारने की कोशिश नहीं की।
सचमुच धन की भूख नहीं होती तो आज लालू प्रसाद की राज्य भर में मूत्र्तियां लगतीं जितना बड़ा काम उन्होंने पिछड़ों को जगाने के लिए किया ।
पर अब कानूनी परेशानियों से बचने के लिए उनके और उनके दल के पास भावनात्मक नारे ही बचे हुए हैं जिनका अदालतों पर कोई असर नहीं हो रहा हैं।जांच एजेंसियों को भी प्रभावित करना लालू प्रसाद के लिए मुश्किल है क्योंकि केंद्र में उनके प्रभाव वाली सरकार नहीं है।ं
हालंाकि नब्बे के दशक में जब चारा घोटाले की जांच शुरू हुई थी तब केंद्र में लालू प्रसाद के दल की ही सरकार थी।पर वह सरकार भी अदालत के सामने लाचार थी।क्योंकि पटना हाईकोर्ट ने 1996 में चारा घोटाले की सी.बी.आई. से जांच कराने का आदेश दिया और सुप्रीम कोर्ट ने उसी साल उस पर अपनी मुहर लगा दी।
लोकहित याचिका में शामिल सबूतों को देख कर कोर्ट को वैसा आदेश देना पड़ा।
कुछ नमूने यहां पेश हैं।
पशुपालन विभाग का सालाना बजट लगभग 75 करोड़ रुपए का था।पर उसकी जगह जाली बिल के आधार पर करीब सवा दो सौ करोड़ रुपए सरकारी कोषागरों से निकाल लिए गए।
जब कुछ कोषागारों ने निकासी पर रोक लगायी तो पटना सचिवालय से वित्त विभाग के संयुक्त सचिव और कोषागार निदेशक ने कोषागारों को लिखा कि आप निकासी पर रोक मत लगाइए।
इसके अलावा भी उच्चस्तरीय साजिश के कई सबूत सी.बी.आई.ने अदालत के सामने पेश किए हैं।ऐसे में कोई अदालत कैसा निर्णय कर सकती है ?
तत्कालीन सी.बी.आई.निदेशक जोगिंदर सिंह के अनुसार ‘तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदर कुमार गुजराल ने चारा घोटाले में आरोपी के प्रति जब नरमी बरतने के लिए मुझसे कहा तो मैंने लिख कर मांगा।पर वह नहीं मिला।’
संभवतः प्रधान मंत्री जानते थे कि जांच हाईकोर्ट की निगरानी में हो रही है,इसलिए लिख कर देना सही नहीं होगा।
जोगिंदर सिंह ने तत्कालीन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्त के बारे मंे लिखा है कि ‘ हमें उस समय के गृह मंत्री की भूमिका को नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने सी.बी.आई.को मुक्त रूप से काम करने का मौका दिया।
इसके बावजूद सी.बी.आई पर इस मामले में राजनीतिक दबाव
कभी कम नहीं हुआ।’
दरअसल अदालत की रोज ब रोज की निगरानी और सबूतों के भंडार के कारण रांची की अदालत ने चारा घोटाले के एक अन्य मामले में 2013 में भी लालू प्रसाद और डा.जगन्नाथ मिश्र सहित कई आई.ए.एस.अफसरों को भी सजा सुनाई।इस बार डा.जगन्नाथ मिश्र क्यों और कैसे बरी हो गए,इस बात पर कई लोगों को जरूर आश्चर्य हुआ है।हालांकि इसमें कुछ लोग जातीय तत्व देख रहे हैं,पर उन्हें शायद नहीं मालूम कि संबंधित जज सवर्ण नहीं हैं।
1997 में लालू प्रसाद जब पहली बार चारा घोटाला के आरोपी के रूप में जेल गए, तभी से उनके दल का जन समर्थन घटने लगा था ।
बिहार विधान सभा के 1995 के चुनाव में जहां लालू प्रसाद के दल को पूर्ण बहुमत मिल गया था,वहीं सन 2000 के विधान सभा चुनाव में उनका बहुमत समाप्त हो गया।
1991 में ंबिहार के लगभग सारे पिछड़े लालू प्रसाद के साथ थे।पर वही स्थिति सन 2000 में नहीं रही।उस समय लालू प्रसाद के दल को राज्य में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस का सहारा लेना पड़ा।गठबंधन सरकार बनी थी।
सन 2005 के विधान सभा चुनाव में राजद के हाथ से बिहार की सत्ता निकल गयी।
2010 के विधान सभा चुनाव में तो लालू प्रसाद और राम विलास पासवान मिल कर लड़े थे।फिर भी उन्हें कुल 243 में से सिर्फ 25 सीटें ही मिलीं।
पर राजद नेताओं को यह उम्मीद है कि जिस तरह लालू परिवार को अब प्रताडि़त किया जा रहा है,उससे पूरी पिछड़ी जातियों में आक्रोश है और इसलिए राजद की ताकत बढ़ेगी।
इस दावे की परीक्षा किसी अगले चुनाव में ही हो सकेगी।
इस बीच लालू प्रसाद का यदि राजनीतिक अवसान होता है तो एक सवाल तो रह ही जाएगा।
इस सवर्णी धाक की पृष्ठभूमि वाले बिहारी समाज में पिछड़ों के पक्ष में उस तरह मजबूती से आवाज कौन उठा पाएगा जिस तरह लालू प्रसाद समय -समय पर उठाते रहे हैं।
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के अधूरे कामों को काफी हद तक पूरा किया है।लालू प्रसाद ने यदि सीना तान कर चलना सिखाया तो नीतीश कुमार ने सीने के नीचे वाले पेट में कुछ अन्न के दाने देने शुरू कर दिए।
पर कुछ नेता जब समय -समय पर आरक्षण पर पुनर्विचार की जरूरत बताने लगते हैं तो पिछड़ों को लालू प्रसाद की याद आती है।
ऐसे में सत्ताधारी राजग के नेताओं की जिम्मेदारी बढ़ गयी है।
उन्हें यह देखना होगा कि सामाजिक न्याय के उनके नारे के साथ कभी कोई धोखाधड़ी नहीं हो।
@ मेरे इस लेख का संपादित अंश 8 जनवरी 2018 के दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित@
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