बुधवार, 24 जनवरी 2018

चारा घोटाला ः गाय भैंस मर रही थीं ,लोग सरकारी खजाने से पैसे लूट रहे थे 
                  
गत पांच साल में लालू प्रसाद को चारा घोटाले के आरोप में आज तीसरी बार यह सजा मिली है।पहली बार सी.बी.आई. के जज ने 2013 में 5 साल की सजा  दी।
दूसरी सजा इसी जनवरी में साढ़े तीन साल की हुई।
आज पाचं साल की सजा सुनाई गयी।
तीनों मामलों  में अलग -अलग तीन जज थे।क्या इस केस को समझने में तीन -तीन जजों ने लगातार असावधानी  बरती ?No . फिर साजिश का आरोप क्यों ?
 बल्कि उल्टे इससे यह बात साफ हुई कि सी.बी.आई. ने इन मामलों में पोख्ता सबूत अदालतों में पेश किए थे ।उन सबूतों की काट लालू प्रसाद के वकील  पेश नहीं कर सके। 
अभी लालू प्रसाद के खिलाफ अन्य मामलों में भी  अदालत के निर्णय आने बाकी हैं।
  एक बार फिर राजद नेता गण साजिश के तहत लालू प्रसाद को फंसाने का आरोप लगा रहे हैं।उन लोगों का आरोप है कि मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा से मिलकर लालू प्रसाद को फंसा दिया।
  पर  इन आरोपों को कम ही लोग गम्भीरता  से ले रहे हैं।
 दरअसल सत्ता में रहते समय लालू प्रसाद ने कायदे कानून की परवाह किए बिना काम किए।वे  कहा करते थे कि  ‘मैं खुद ही कानून बनाता हूं और तोड़ता हूंं।’
सी.बी.आई.का यही आरोप था कि मुख्य मंत्री और वित्त मंत्री के रूप में  लालू प्रसाद ंने बिहार सरकार के पशुपालन विभाग के पैसों को लेकर भी वही रुख अपनाया था।पशुपालन विभाग के माफियाओं को संरक्षण दिया और उसके बदले लाभ हासिल किया।
अदालत में यह आरोप साबित हो गया।
वर्षों पहले चारा घोटाले में आरोपित हो जाने के बावजूद लालू प्रसाद ने कानून की कभी परवाह नहीं की।
 कुछ साल पहले एक आपराधिक मामले में जब मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने यह कहा कि कानून अपना काम करेगा तो उस पर नीतीश का मजाक उड़ाते हुए लालू ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि  ‘जब कानून ही अपना काम करेगा तो आप किस काम के लिए मुख्य मंत्री बने हुए हंै ?’
  1990 में मुख्य मंत्री बनने के साथ ही लालू प्रसाद ने चारा घोटालेबाजों के साथ असामान्य रूप से नरमी दिखाई।
उनके पशुपालन मंत्री राम जीवन सिंह ने जब पशुपालन घोटाले की सी.बी.आई.जांच की सलाह दी तो मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने श्री सिंह से वह विभाग छीन  लिया।
  यह संयोग नहीं था कि  राम जीवन सिंह के  बाद के सभी पशुपालन मंत्री इस घोटाले में जेल गए।
  ’सी.ए.जी.ने  सितंबर, 1989 में टेस्ट अंकेक्षण के आधार पर यह  आपत्ति उठाई  कि पशुओं के परिवहन में जो ट्रक उपयोग में लाए गए ,वे दरअसल  ट्रक नहीं थे।बल्कि उनके नंबर कार,स्कूटर, स्टेशन वैगन और टैक्टर के थे।
  27 मई 1992 को रांची स्थित निगरानी निरीक्षक विद्या भूषण द्विवेदी ने निगरानी विभाग के तब के महा निदेशक गजेंद्र नारायण को एक रपट भेजी।
रपट के अनुसार रांची के पशुपालन विभाग से जुड़े अफसरों और ठेकेदारों ने भ्रष्टाचार के जरिए करोड़ों की संपत्ति बनाई है।पर उस रपट को महा निदेशक ने ठंडे बस्ते में डाल दिया।कहा गया कि ऐसा उन्होंने ऊपरी दबाव में किया।
 1991 के अप्रैल में मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने राज्य के सभी जिलाधिकारियों और कोषागार पदाधिकारियों की पटना में बैठक बुलाई।
तब बिहार अविभाजित था।बैठक में मुख्य मंत्री को यह सूचना दी गयी कि चाईबासा जिला पशुपालन पदाधिकारी ने 50 लाख रुपए की अवैध निकासी की है।
मुख्य मंत्री ने जिला पशुपालन पदाधिकारी को तत्काल मुअत्तल कर देने का आदेश  दे दिया।
सरकारी आदेश जारी भी हो गया।
पर 15 दिनों में ही मुअत्तली का आदेश वापस हो गया।इतना ही नहीं उस पदाधिकारी को बेहतर पोस्टिंग मिल गयी।
इतना ही नहीं,इस विभाग के अफसरों की पहुंच और ताकत का पता इसी से चलता है कि पशुपालन विभाग के क्षेत्रीय संयुक्त  निदेशक डा.श्याम बिहारी सिंहा लगातार तीस साल तक रांची में ही पदास्थापित  रहा।
  लालू प्रसाद के मुख्य मंत्री बनने के बाद किस तरह  पूरी राज्य सरकार पशुपालन माफियाओं के चंगुल में थी,उसके कुछ Saboot  सी.बी.आई. के हाथ लग गए थे।  
  एक तरफ उचित भोजन के अभाव में पशुपालन विभाग के सरकारी वीर्य तंतु उत्पादन केंद्रों के 44 में से 22 सांड चारा के बिना मर गए,दूसरी ओर बिहार के  पशुपालन माफिया नाजायज तरीके से जाली बिल के आधार पर अरबों रुपए सरकारी खजानों से निकाल ले गए।
  पटना हाईकोर्ट ने 1996 में चारा घोटाले की जांच का भार सी.बी.आई.को सौंपते समय कहा भी था कि ‘उच्चस्तरीय साजिश के बगैर यह घोटाला संभव नहीं था।’सी.बी.आई.जांच के आदेश को लालू  सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।पर पहली नजर में सबूत देखने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी लालू को कोई राहत नहीं दी।
याद रहे कि जांच के लिए लोकहित याचिका दायर की गयी थी।उन दिनों लालू प्रसाद के दल के ही देश में प्रधान मंत्री थे।पर अदालती आदेश के सामने वे भी लाचार थे।
 उससे पहले बिहार सरकार ने चारा घोटाले को लेकर  अपनी ओर से लीपापोती के लिए जो तीन सदस्यीय जांच कमेटी बनाई थी, उनमें से दो अफसर बाद में उसी चारा घोटाले के ही आरोप में सी.बी.आई.द्वारा गिरफ्तार किए गए । 
    सन 1991-92 में इस  विभाग का कुल बजट 59 करोड़ 10 लाख रुपए का था।पर उस अवधि में घोटाले बाजों ने 129 करोड़ 82 लाख रुपए सरकारी खजानों से निकाल लिए। ऐसा उन लोगों ने जाली बिलों के आधार पर किया।
उच्चस्तरीय संरक्षण के कारण यह संभव हो सका।
सन 1995-96 वित्तीय वर्ष में 228 करोड़ 61 लाख रुपए निकाल लिए गए।जबकि, उस साल का पशुपालन विभाग का बजट मात्र 82 करोड़ 12 लाख रुपए का था।
 डोरंडा @रांची@के कोषागार पदाधिकारी ने भारी निकासी देख कर ऐसे बिलों के भुगतान पर रोक लगा दी तो पटना सचिवालय से  वित्त विभाग के संयुक्त सचिव ने  1993 में  लिखी थी।संयुक्त सचिव ने भुगतान जारी रखने का कोषागार पदाधिकारी को निदेश दिया।साथ ही 17 दिसंबर 1993 को राज्य कोषागार पदाधिकारी ने भी डोरंडा कोषागार अधिकारी को ऐसी ही चिट्ठी लिखी।
जाहिर है कि ऐसी चिट्ठियां वित्त मंत्री यानी लालू प्रसाद के निदेश पर लिखी गयी थीं।
ऐसी चिट्ठियों के बाद कोषागार पदाधिकारी  अपनी रोक हटा लेने को मजबूर हो गए।
नतीजतन  फर्जी निकासी और भी तेज हो गयी।
 बिहार  सरकार ने अपने विभागों को यह  आदेश दे रखा था कि हर महीने वे पूरे साल के बजट का सिर्फ आठ प्रतिशत राशि की ही निकासी करें।पर पशुपालन विभाग को इस बंधन से छूट मिली हुई थी।बहाना था  कि पशुओं की जान बचाने के लिए 
जिस अवधि में पशुपालन विभाग के अरबों रुपए निकाले जा रहे थे,उस अवधि  में प्शुपालन विभाग ने कोई नयी विकास योजना नहीं शुरू की।
इतना ही नहीं,पहले से जारी योजनाएं भी एक -एक करके अनुत्पादक होती चली गयीं।
सन 1990 से 1995 के बीच अनावश्यक मात्रा में दवाएं खरीदी गयीं।पर साथ -साथ पशुओं की बर्बादी भी होती गयीं।
राज्य के मवेशी प्रजनन केंद्रों में मवेशियों की संख्या कम होती चली गयी।उस अवधि में उनकी संख्या 354 से घटकर 229 रह गयी। 
आलोच्य अवधि में दूध नहीं देने वाली गाय -भैंस की संख्या 30 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हो गयी।सरकारी मवेशी प्रजनन केंद्रों में बछड़ों की मृत्यृ दर 30 प्रतिशत से बढ़कर 100 प्रतिशत हो गयी।ऐसे में अदालतों से ऐसे ही निर्णय की उम्मीद थी। 
@मेरा यह लेख  24 जनवरी 2018 को फस्र्टपोस्ट हिंदी पर प्रकाशित@


  

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