रविवार, 28 जनवरी 2018

  बाकी लोग तो पद्मावत को  भी फिल्म की तरह ही ले रहे हैं।अपने देश में यही होता रहा है।
फूलन पर मैंने इस संदर्भ लिखा कि पद्मावती@पद्मावत विवाद पर बार -बार जहां -तहां फूलन देवी का नाम आ रहा है।कहा जा रहा है कि उस पर फिल्म बनी तब तो किसी ने विरोध नहीं किया।
दरअसल कड़ा विरोध  खुद फूलन को ही करना पड़ा था। क्योंकि बाकी लोगों के लिए तो वह एक फिल्म ही थी।यानी दिल्ली हाई कोर्ट में फूलन की ओर से शेखर कपूर और चैनल .-4 पर केस हुआ था।बाद में फूलन ने समझौता कर लिया।
 यानी फूलन की सहमति से फिल्म चली।
 पद्मावती एक ऐतिहासिक पात्र है।उसके वंशज मौजूद हैं।
उसके साथ एक जातीय समूह की भावना विशेष रूप से जुड़ी हुई है।
उस पर कोई फिल्म बनी तो उसके लिए उसके वंशज से अनुमति ली जानी चाहिए थी जिस तरह अंततः फूलन से ली गयी।वंशज व समर्थक फिल्म में कुछ परिवत्र्तन भर चाहते थे।
पर वंशजों से अनुमति नहीं ली गयी ।कुछ परिवत्र्तन हुआ भी तो वह अधूरा। हालांकि खबर यह भी है कि देश के बाहर  जो
‘पद्मावत’ दिखाया जा रहा है,उसमें ड्रीम सीन भी है जिस पर वंशजों को सर्वाधिक एतराज रहा है।
खैर, नतीजतन यहां कुछ लोगों को आंदोलन का अवसर दे दिया गया।
 ऐसे भावनात्मक आंदोलनों के गर्भ से कई बार गलत तत्व भी शीर्ष पर आ जाते हैं।उससे कुल मिलाकर देश-राज्य-समाज का नुकसान ही होता है।दूरदर्शी लोग ऐसे आंदोलन  का अवसर नहीं देना चाहते।
  बिहार में हमने देखा है कि 1990 में मंडल आरक्षण के अतार्किक विरोध के कारण लालू प्रसाद जैसे नेता महा बली बन गए।आरक्षण पक्षी  आंदोलन ने भी तब एक भावनात्मक आंदोलन का रूप ले लिया था।सवाल पिछड़ों के मान -सम्मान का बन गया  था।क्या लालू के महा बली बनने से समाज का भला हुआ ?

  

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