सोमवार, 1 जनवरी 2018

जब जेपी ने लिखा राज नारायण को पत्र

  
यह सत्तर के दशक की बात है।लोहियावादी नेताओं में फूट पड़ 
गयी थी। 1967 में डा.राम मनोहर लोहिया के असामयिक निधन के 
बाद लोहियावादी समाजवादी मुख्यतः राज नारायण और मधु लिमये 
के खेमों  में बंट गये थे।
 जार्ज फर्नांडिस मधु लिमये के साथ थे।
पूर्व मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर समाजवादियों की एकता के पक्षधर थे।उन्होंने एकतावादी-समतावादी नाम से एक पार्टी भी बना ली  थी।
 जब एकता का कर्पूरी जी का प्रयास सफल नहीं हुआ तो वह जय प्रकाश नारायण से मिले।
कर्पूरी जी ने जय प्रकाश जी से कहा कि आप पार्टी में एकता के लिए राज 
नारायण को व्यक्तिगत पत्र लिख दें।
 जेपी राजी हो गये।
उन्होंने लिख दिया।पत्र अंग्रेजी में था।
दूसरे दिन मैं वह पत्र लेने पटना के कदम कुआं स्थित जेपी के आवास पर गया था।
जेपी के निजी सचिव सच्चिदानंद ने चिट्ठी तैयार रखी थी।
चिट्ठी लिफाफे रखी थी।पर लिफाफा बंद नहीं था।
स्वाभाविक उत्सुकता के तहत मैंने उसे खोल कर पढ़ा।उस पत्र की कुछ ही  बातें मुझे याद हैं।उस पत्र से 
राज नारायण यानी नेता जी के प्रति जेपी के स्नेह का पता चला।
फिर समाजवादी आंदोलन में राज नारायण के महत्व का भी पता चला।साथ ही, जेपी ने उस पत्र में राजनारायण से यह उम्मीद की थी कि वे समाजवादियों की एकता बनाये रखने में अपनी भूमिका निभाएं।
 जेपी की चिट्ठी उनके आवास से लाने का यह मौका मुझे  इसलिए मिला था क्योकि मैं समाजवादी कार्यकत्र्ता  के नाते  उन दिनों कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।कर्पूरी ठाकुर उन दिनों बिहार विधान सभा मंे प्रतिपक्ष के नेता थे।
उससे पहले वह 1970 में बिहार के मुख्य मंत्री और 1967 में उप मुख्य मंत्री रह चुके थे।
 वह 1952 से ही लगातार विधायक थे और समाजवादी आंदोलन में उनका 
बड़ा मान था।
पर, मुझे बाद में लगा कि जेपी की चिट्ठी भी समाजवादियों की खेमेबाजी पर  कोई सकारात्मक  असर नहीं डाल  सकी।
 उन्हीं दिनों  बांका में हुए लोक सभा  उप चुनाव में राज नारायण जी का मुकाबला मधु लिमये से हो गया।दरअसल कर्पूरी ठाकुर ने ही लोक सभा के उस उप चुनाव में राज नारायण जी को उम्मीदवार बनवा दिया था।
संभवतः राजनारायण जी वहां की चुनावी संभावना के बारे मंे पहले से ही सशंकित थे।
 यह बात मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर  कह रहा हूं।मैं राज नारायण जी से पहले से परिचित था।पर शायद उन्हें इस बात की खबर नहीं थी कि मैं इस बीच कर्पूरी जी का निजी सचिव बन चुका था।
 राज नारायण जी बांका जाने के लिए पटना रेलवे स्टेशन से गुजरने वाले थे।वह वहां नामांकन दाखिल करने जा रहे थे।कर्पूरी जी के साथ मैं
भी नेता जी यानी राज नारायण जी से मिलने पटना जंक्शन गया था।
 मुझे देखा तो नेता जी मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे सबसे अलग ले गये।अपने कमजोर कंधे पर उनके भारी हाथ का दबाव मुझे आज भी याद है।उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मेरा बांका में उप चुनाव लड़ना सही रहेगा ?
मैं क्या कहता ! कर्पूरी जी का मैं निजी सचिव था।हालांकि एक राजनीतिक कार्यकत्र्ता के रूप मैं यह महसूस कर रहा था कि सही नहीं रहेगा।फिर भी मुझे कहना पड़ा कि आपका लड़ना ठीक रहेगा।
नेता जी लड़े  और हारे।मधु लिमये जीत गये।समाजवादी आंदोलन के लोगों के बीच पहले ‘नेता जी’ राजनारायण ही थे।मुलायम सिंह यादव तो बाद में नेता जी कहलाए।
   राज नारायण से मेरी थोड़ी लंबी  मुलाकात एक बार छपरा में हुई थी जहां वह एक राजनीतिक कार्यक्रम के सिलसिले में आए थे।
उससे पहले 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के गया राष्ट्रीय सम्मेलन में मैं उनसे आॅटोग्राफ के लिए मिला था।उन्होंने मेरे आॅटोग्राफ बुक पर एक अच्छा सा दोहा लिख दिया था।मैंने तब कई अन्य राष्ट्रीय समाजवादी नेताओं के भी आॅटोग्राफ लिये थे।वह आॅटोग्राफ बुक अब भी मेरे पास है। 
छपरा वाली मुलाकात  संभवतः 1969 में हुई।
 तब मैं वहां छात्र था और लोहियावादियों की पार्टी के छात्र संगठन क्रांतिकारी विद्यार्थी संघ का जिला सचिव था।उसके प्रदेश स्तर के नेता नरेंद्र सिंह थे।
 बिहार में युवजन सभा से हटकर  छात्रों का भी एक संगठन था जिसका नाम था क्राांतिकारी विद्यार्थी संघ।
 छपरा में  नेता जी के सबसे करीबी थे रवींद्र वर्मा ।ठीक उसी तरह, जिस तरह पटना में भोला प्रसाद सिंह ।वर्मा जी वकील थे और इलाहाबाद विश्व विद्यालय के छात्र रह चुके थे।वहीं वे समाजवादियों के प्रभाव में आए थे।
  वर्मा जी अब नहीं रहे।पर इस अवसर पर इतना जरूर कहूंगा कि समाजवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने में अपने छोटे दायरे में ही सही, पर,उनका जितना योगदान था,उस अनुपात में न तो उनकी पार्टी और न  ही समाजवादी सरकारों ने उन्हें कुछ  दिया।खैर उसकी चिंता उन्हें नहीं थी।तब देश के अन्य अधिकतर समाजवादी भी उसकी चिंता नहीं करते थे।
  खैर वर्मा जी राज नारायण जी को लेकर टैक्सी से सारण जिले के एक सुदूर गांव में जा रहे थे।मैं भी साथ था।
 वर्मा जी ने राजनारायण जी से मेरा परिचय कराया, ‘ये हैं सुरेंद्र अकेला।
अच्छे कार्यकत्र्ता हैं।’ नेता जी ने अपने लहजे में सवाल किया, ‘का हो अकेला ? अभी अकेले हउ अ ? शादी नइख कइले ?’ मैंने कहा कि जी नहीं।इस पर नेता जी ने वर्मा जी से कहा कि ‘रवींदर, फलां .......की छोटी बहन से इसकी शादी करा दूं ? वह मेडिकल में पढ़ती है।’ उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय की एक समाजवादी महिला का नेता का  नाम लिया था।जानबूझ कर मैं उनका नाम नहीं लिख रहा हूं।
मैंने कहा कि ‘नेता जी , बहुत गैप है।कहां वह मेडिकल छात्रा और कहां मैं जो बी.एससी. की परीक्षा छोड़कर कार्यकत्र्ता बना हुआ हूं।’
 नेता जी ने कहा कि ‘मैं सारा गैप पाट दूंगा।’
 पता नहीं, वह मजाक कर रहे थे या वह सिरियस थे।पर मुझे उनके चेहरे के भाव से लगा कि वे सिरियस थे।पता नहीं वे चाहते हुए भी ऐसी शादी करा पाते या नहीं,पर उनका आत्म विश्वास देखने लायक था।साथ ही  धर्म निरपेक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता। 
  तब सांप्रदायिक माहौल आज जैसा बिगड़ा हुआ भी नहीं था।
तब समाजवादी आंदोलन के नेता यह चाहते थे कि राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं की पत्नियां नौकरी वाली हों ताकि परिवार चलाने के लिए पैसे की तंगी नहीं हो।
 देश के कई समाजवादी नेताओं की पत्नियां ऐसी थीं भी।
 आज तो राजनीति में इतना पैसा है कि किसी को इसकी चिंता नहीं।
कुल मिलाकर मैं राज नारायण जी को मैं एक निःस्वार्थ, निर्भीक  और जुझारू नेता के रूप मंे याद करता हूं।
 वह अपने साथियों और कार्यकत्र्ताआंे का बड़ा ध्यान रखते थे।
एक बार समाजवादी आंदोलन के सिलसिले में दिल्ली के संसद भवन के पास  हुए प्रदर्शन में मैं भी था।
गिरफ्तारियां हो गयीं।अनेक नेताओं और कार्यकत्र्ताओं के साथ मैं भी तिहाड़ जेल पहुंच गया।
उस समय जेल जाने वालों में मधु लिमये,राज नारायण ,जनेश्वर मिश्र, किशन पटनायक ,शिवानंद तिवारी ,राजनीति प्रसाद सहित अनेक छोटे- बड़े नेता-कार्यकत्र्ता  थे।कुछ दिनों तक जेल में रहना पड़ा।
कड़ाके की जाड़ा थी।वह भी दिल्ली की जाड़ा।फिर भी नेता जी सुबह-सवेरे सभी बंदियों के पास जाते थे।सबका हाल चाल पूछते थे।किसे चाय मिली या नहीं, इसका बड़ा ध्यान रखते थे।मैंने महसूस किया कि व्यक्तिगत रूप से कार्यकत्र्ताओं का ध्यान  रखने में राज नारायण जी अन्य बड़े नेताओं से थोड़ा अलग थे।



   


  
  
  


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