मंगलवार, 31 मार्च 2020

कोरोना : मौत के साथ गिद्ध भी तो आएंगे ही !

नये -पुराने ‘गिद्धों’ की संक्षिप्त कहानी

कई दशक पहले की बात है। उत्तर बिहार में भारी बाढ़ आई हुई थी। प्रजा में हाहाकार मचा था।
आसपास के राज्यों से राहत सामग्री पटना पहुंच रही थी। स्वाभाविक है कि गिद्ध भी खूब सक्रिय हो उठे थे। इधर का माल उधर हो रहा था।

उधर सभी बाढ़पीड़ितों तक राहत सामग्री जरूरत से कम पहुंच पा रही थी। कैसे पहुंचेगी? इस बीच मंत्री बना एक गिद्धराज ‘राजा’ से नाराज हो गया। ‘गिद्धराज’ को शिकायत थी कि उन्हें कम ‘मौके’ नहीं मिल पा रहे थे। राजा ने किसी को आदेश दिया-दो ट्रक माल मंत्री जी के घर पहुंचा दिया जाए। पहुंचा दिया गया।

मंत्री जी ने उसे औने -पौने दाम में व्यापारियों को बेच दिया। उन्हीं व्यापारियों ने फिर अधिक दाम पर उसे अत्यंत जरूरतमंद बाढ़पीड़ितों तक पहुंचवा दिया।

मौजूदा कोरोना विपत्ति में जब पता चला कि पटना के पास के एक गांव में शासन ने एक्सपायरी डेट का डेटाॅल बंटवा दिया तो कुछ जागरूक लोग नाराज हो गए। स्वाभाविक ही है। जान से खिलवाड़ ???

अरे भई, अभी तो जानकारियों की शुरुआत हुई है। आगे-आगे देखते जाइए गिद्धो-महा गिद्धों
की चोंच का कमाल !! पक्षीराज गिद्ध की भले कमी हो रही है। पर मनुष्य के रूप में गिद्धों की संख्या तो बढ़ती ही जा रही है।

अन्यथा, आजादी के बाद इस देश को एक बार फिर सोने का चिड़िया बनने से भला कौन रोक सकता था! सिर्फ 1947 से 1985 के बीच में सौ पैसे घिसकर 15 पैसे नहीं हो गये होते तो आज स्वास्थ्य संबंधी आधारभूत संरचना की जो भारी कमी महसूस की जा रही है, वह कमी रहती ?!!

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---सुरेंद्र किशोर--31 मार्च 2020

सोमवार, 30 मार्च 2020

एक खास सबक

जो लोग रोजी-रोटी के लिए अपने गांव छोड़ कर शहर
जाते हैं, उनके लिए कोराना महामारी की ओर से 
एक खास सबक !!

जब तक शहर में आपका अपना घर न हो जाए, दुर्दिन में भी खाने -पीने का वहां पक्का साधन न हो जाए, तब तक गांव की जमीन मत बेचिए।

दुर्दिन में वही जमीन, वही गांव काम आएंगे। गांव के पड़ोसी को पता चल जाए कि बगल के किसी के घर में अभाव के कारण चूल्हा नहीं जल रहा है तो उसकी मदद के लिए आज भी कई सामने आ जाएंगे। गांव की हालत इधर थोड़ी बिगड़ी जरूर है, बुजुर्गों के सामूहिक अभिभावकत्व को युवकों द्वारा कई जगह नकारा जा रहा है। फिर भी इतनी नहीं बिगड़ी है कि कोई भूखा सोए।

कोरोना संकट को भारत सरकार और अनेक लोगों ने 
मिलकर सीमित साधनों के बावजूद यहां आंधी नहीं बनने दिया है। कुछ अन्य देशों में महामारी की आंधी चल रही है।  इसलिए हम देर -सवेर कोरोना से तो निपट ही लेंगे, यदि सारे लोग संयम बरतें। अधिकतर लोग बरत भी रहे हैं। पर,मेरा अनुमान है कि आगे एक अन्य बड़ा संकट आ सकता है !

उस संकट के बारे में सार्वजनिक चर्चा अभी ठीक नहीं।
हां, वह संकट भी शहर केंद्रित ही अधिक होगा। 
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---सुरेंद्र किशोर --30 मार्च 2020

रविवार, 29 मार्च 2020

    85 पैसे बनाम 15 पैसे की याद !!
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जब मनुष्य या देश के जीवन में विपत्ति आती है ,
 यदि उस विपत्ति को पार पाने में कठिनाइयां होने लगती हैं,
तो,  अनायास कई नई-पुरानी बातें भी याद आने लगती हैं।
  उसी तरह की एक बात की एक बार फिर याद दिला दूं।
1985 में कालाहांडी की सभा में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि 
सरकार दिल्ली से तो 100 पैसे भेजती है ,पर लोगों तक उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं।
   कल्पना कीजिए कि यदि आजादी के बाद और 1985 तक सौ में से 
कम से कम 85 पैसे भी सही ढंग से खर्च होते तो क्या देश में स्वास्थ्य तथा अन्य संरचनाओं का वही
हाल रहता जैसा आज है ?
क्या लाखों की संख्या में हर साल मजदूर रोजी-रोटी के लिए एक राज्य से दूसरे राज्यों में पलायन करते ?
क्या करोड़ों लोग आज भी एक शाम भूखे सोते ?
आदि आदि..........?
मैंने 1985 तक की ही याद इसलिए दिलाई क्योंकि 1985 से अब तक इस मामले में क्या होता रहा है,यह आज की पीढ़ी भी खुद देख-समझ  रही है। 
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि अब 85 बनाम 15 वाला अनुपात नहीं है।
क्योंकि अब हम गरीबों को सीधे बैंकों के जरिए पैसे भेज रहे हैं।
मोदी जी की बात काफी हद तक सच है।
पर, पूरा सच नहीं है।
 मेरा एक सवाल है।
जो पैसे सरकारी बैंकों के जरिए नहीं भेजे जाते,उन पैसों का आज भी कितना सदुपयोग हो रहा है ?
सांसद-विधायक फंड में से कौन कितना ‘पा’ रहा है ? 
सासंद-विधायक फंड के भ्रष्टाचार ने आई.ए..एस.नामक ‘‘स्टील फे्रम’’ में 
कितना जंग लगाया है और लगा रहा है ?
राजनीति का स्वरूप कितना बदल दिया है ?
परिवार नियोजन को विफल करने में धार्मिक अंध विश्वास के अलावा भ्रष्टाचार ने कितना योगदान किया है ? 
    बैंक शाखाओं के आसपास यदि खुफिया एजेंसियों को लगा दिया जाए तो पता चल जाएगा कि 100 पैसों में से आज भी बिचैलिए कितना हड़प रहे हैं।
हां, यह बात सच है कि वे 85 पैसे तो नहीं ही हड़प पा रहे हैं।
पर दस-बीस पैसे भी वे क्यों हड़पेंगे ?
हालांकि कुल मिलाकर राजनीतिक कार्यपालिका के सर्वोच्च स्तर पर स्थिति पहले से आज बहुत बेहतर है।
  पर, स्थिति में और भी अधिक सुधार होगा जब सांसद-विधायक फंड बंद हो जाएगा।
पर यह देख कर दुख होता है कि उसे जारी रखने के लिए कई ईमानदार मुख्य मंत्री और ईमानदार प्रधान मंत्री भी बाध्य रहे हैं।
यह देश की बहुत बड़ी त्रासदी है।
सांसद-विधायक फंड की बुराइयों के बारे में बहुत सारी बातें कही जा चुकी हैं।
  मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार इस देश की सबसे बड़ी समस्या रही है।
आज भी उस पर कायम हूं।
भ्रष्टाचार ही अन्य अधिकतर समस्याओं पर काबू पाने नहीं देता।
 अन्य  समस्याओं का स्थान दूसरा, तीसरा और चैथा 
आदि ही है..........।
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     ---सुरेंद्र किशोर - 29 मार्च 20

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

 21 दिवसीय घर वास !
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21 दिवसीय ‘घर वास’ का प्रथम सात दिन 
अति महत्वपूर्ण है।
आज तो सिर्फ तीसरा दिन है।
बस चार दिन और !
इस बीच तनिक भी इधर-उधर ताकझाक
 मत कीजिए।
पड़ोस में भी नहीं।
इसे वनवास की जगह खरमास समझ कर इसका 
पालन कीजिए।
   अन्यथा.......!!!
विदेश में तो घर से 200 मीटर दूर जाने पर भी
 गिरफ्तारी हो जा रही है।
ऐसा नहीं कि सात दिनों के बाद लापारवाह हो जाना है।
बताया गया संयम 21 वें दिन तक जारी रहे।
बाद के बारे में बाद में निदेश आएगा।
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  --सुरेंद्र किशोर--27 मार्च 20 

    बाढ़ भगवान ने भेजा,पर राहत 
     तो सरकार ने ही दी।
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     --सुरेंद्र किशोर-
1971 में बिहार में भारी बाढ़ आई हुई थी।
मैं उन दिनों अपने पुश्तैनी गांव में ही रहता था।
बाढ़ में लोगों की भारी तबाही हुई।
तब की सरकार ने भरसक राहत कार्य चलाए।
मैं भी गांव के एक सहयोगी विश्वेश्वर भाई के साथ दिघवारा के 
रामचंद्र प्रसाद के गोदाम से सरकारी राहत का 
गेहूं नाव पर लाद कर
ले जाता था।
अपने गांव में बांटता था।
दिघवारा के सिनेमा हाॅल के पास से नाव खुलती थी और
 करीब तीन
किलोमीटर चल कर मेरे दालान के पास जाकर ही नाव रुकती थी।
  1972 में बिहार विधान सभा का चुनाव हुआ।
मुझे लगता था कि सोनपुर क्षेत्र में कांग्रेस बुरी तरह हारेगी।
पर जीत गई।
जबकि, प्रतिपक्ष के उम्मीदवार राम सुंदर दास अच्छी छवि वाले नेता थे।
मैंने दिघवारा के एक व्यक्ति से पूछा कि आपने कांग्रेस 
को वोट क्यों दिया ?
उसने कहा कि ‘‘बाढ़ तो भगवान ने भेजा।
पर राहत तो कांग्रेस ने ही दी।’’
  आज की स्थिति से तुलना कीजिए।
देश-प्रदेश की सरकारें कोरोना से लड़ने के लिए भरसक जी -जान से लगी हुई हैं।
सिस्टम में कमियों के बावजूद सरकारों की नीयत पर कुछ ही लोगों को छोड़कर कोई शक नहीं कर रहा है।
प्रतिपक्ष के एक हिस्से का भी
सरकार के साथ पहले की अपेक्षा अधिक सहयोगात्मक रुख है।
अगले किसी चुनाव के समय मतदाताओं को यदि यह लगेगा कि कोराना तो भगवान ने भेजा,पर उससे लड़ने के सिलसिले में सरकारों ने कुछ उठा नहीं रखा तो समझिए 1972 दुहरा जाएगा।
--27 मार्च 20 

  ---सुरेंद्र किशोर  

  सुबह में मेरे यहां जो नौजवान अखबार पहुंचाता है,वह दिन में राज मिस्त्री का काम करता है।
 वह यहीं पास के किसी गांव का निवासी है।
इसलिए मुझे तो अधिकतर अखबार अब भी मिल जा रहे हैं।
पटना और आसपास के अधिकतर न्यूजपेपर्स हाॅकरों का यही हाल है।
जो हाॅकर पटना का ही है,वह तो फिर भी अखबार पहुंचाता रहेगा।
पर, जो सुदूर गांवों से काम करने यहां आया है,उसका तो मूल काम  इन दिनों बंद है।
सिर्फ अखबार बांटने से उसका काम नहीं चलेगा।
इसलिए उनमें से अनेक  अपने गांव लौट गए हैं।
  अनेक पाठकों को  अखबार न मिलने का यह भी एक कारण हे।
  अभी तो कोरोना के कारण ‘बंदी’ चल रही है।
कल होकर किसी अन्य गंभीर कारणों से लंबी बंदी हो जाए !
फिर अखबार सबके पास तक कैसे पहुंचाए जा सकेंगे  ?
अखबार प्रबंधन, थोक न्यूज पेपर्स बिक्रेता
और खुदरा अखबार बिक्रेताओं को मिलजुल कर इस समस्या पर अभी से  विचार करना होगा।
--सुरेंद्र किशोर--26 मार्च 2020

गुरुवार, 26 मार्च 2020

हिन्दी अखबारों में लाॅकडाउन,क्वारेंटाइन और
सेनेटाइजर शब्द देख कर पंडित बाबूराव विष्ण पराड़कर 
और प्रभाष जोशी जैसे महान संपादक याद आते हैं।
कहां गए वे लोग !!?
  क्रिकेट की दुनिया को ‘फटाफट’ शब्द देने वाले जोशी जी यदि हमारे बीच होते तो उपर्युक्त तीनों अंग्रेजी शब्दों के लिए फटाफट कोई हिन्दी नाम दे देते।
याद रहे कि पंडित बाबूराव विष्णु पराड़कर ने ही संसद और संविधान शब्द दिए थे। 
  पराड़कर जी दैनिक ‘आज’ और जोशी जी ‘जनसत्ता’ के संपादक थे। 
     ---सुरेंद्र किशोर--26 मार्च 2020


गांव में अनाज पहंुचाने के क्रम में ट्रक ने हमारे इलाके 
के टी.वी.केबल को आज तोड़ दिया।
  उसकी मरम्मत के लिए पटना से तकनीशियन को 
फुलवारी शरीफ अंचल स्थित गांव कोरजी-मोहम्मदपुर पहुंचना है।
केबल आपरेटर ने बताया  कि तकनीशियन को लाॅकडाउन के कारण पुलिस शहर से गांव जाने नहीं दे रही है।
 नतीजतन हमारे इलाके के लोगबाग केंद्रीय वित्त मंत्री की घोषणाओं को आज दोपहर नहीं सुन सके।
जबकि प्रधान मंत्री चाहते हैं कि संचार माध्यमों के जरिए
सरकार का पक्ष जनता तक पहुंचता रहे ताकि अफवाहों को बल न मिले।
 इसलिए स्थानीय प्रशासन को चाहिए कि मीडिया के पत्रकारीय और गैर पत्रकारीय कामों से जुड़े लोगों की आवाजाही को न रोके।
  इस बीच यह भी खबर मिल रही है कि दूरदर्शन पर रामायण -रामानंद सागर -और महा भारत -बी.आर.चोपड़ा धारावाहिकों के तुरंत पुनर्प्रसारण शुरू किए जाने की  योजना बन रही है ताकि 21 दिनों वाली आपत्बंदी में लोगबाग बोर न हों।
 कल्पना कीजिए कि रामायण धारावाहिक के दौरान 
कोई केबल टूट जाए तो क्या होगा ?
क्या तब वे लोग सड़कों पर नहीं आ जाएंगे जो सरकार की सलाह पर अभी घरों में हैं ?
जब पहली बार यह धारावाहिक प्रसारित हो रहा था तो उतने समय तक सड़कों पर कफ्र्यू जैसा दृश्य होता था।
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----सुरेंद्र किशोर--26 मार्च 2020

बुधवार, 25 मार्च 2020

प्रधान मंत्री के हाथ जोड़कर प्रार्थना
 करने का असर पटना 
 के पास के गांव के दूध वाले पर भी !
   --सुरेंद्र किशोर--
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोगों ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते
टी.वी.पर कल देखा।
लगता है कि उसका चमत्कारिक असर हुआ है।
वे कल कह रहे थे कि 
‘‘मैं हाथ जोड़ के प्रार्थना करता हूं 
कि आप इस समय देश में जहां भी हैं,वहीं रहें।’’
  इस प्रार्थना का असर हमारे दूध वाले पर भी पड़ा है।
आज सुबह आते ही उसने पूछा कि 
‘‘क्या दूध जरुरी है ?
मुझे रोज लाना पड़ेगा ?
मोदी जी ने हाथ जोड़कर कहा है कि 
आप लोग घर से बाहर मत निकलिए।
कुछ लोग बीमारी से मर भी जाएं 
तो उनके प्रधान मंत्री पद पर तो 
कोई असर नहीं पड़ेगा।
वे तो हम लोगों के लिए ही हाथ जोड़ रहे हैं।’’
  दूधवाला जब यह बोल रहा था,तब उसके चेहरे पर 
सच्चाई झलक रही थी।
हम पति-पत्नी अचंभित थे।
पर,उसकी बात खत्म होने के बाद मेरी पत्नी ने उससे कहा कि प्रधान मंत्री जी ने दूध लाने की छूट दे रखी है।
  इस पर वह दूध देकर चला गया।
याद रहे कि सावधानीवश उसने अपने मुंह को गमछे 
से ढंक रखा था।
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वह दूध नहीं देगा तो उसे पैसे नहीं मिलेंगे।
फिर भी वह प्रधान मंत्री की बात का हवाला देकर 
दूध देने से बचना चाहता है।
ऐसे भी कह सकता था कि हालात ठीक नहीं है,मैं नहीं आ पाऊंगा।  


हाल में अपराध की घटनाओं में काफी कमी आई है।
कोरोना महामारी का असर उधर भी है।
  अपराधियों को आशंका है कि जिसे लूटने या मारने जाएंगे,वह कहीं कोरोना का अघोषित मरीज न हों !
   इसके विपरीत अनेक सामान्य लोगों को उनके घरों तक सीमित करने के लिए पुलिस-प्रशासन को बल प्रयोग करना पड़ रहा है।
  कफ्र्यू लगाना पड़ रहा है।
क्यों भई, तुम तो अपराधियों से भी ज्यादा बुरबक-बकलोल  निकले !!
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--सुरेंद्र किशोर-24 मार्च 20

मंगलवार, 24 मार्च 2020

1962 के बाद कितना बदले हैं हमारे हुक्मरान ?
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  सन् 2020
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आज के दैनिक भास्कर,पटना की खबर का शीर्षक है-  
‘‘जू.डाॅक्टरों ने कहा हमें भी क्वारेंटाइन में भेजिए।
मास्क,ग्लब्स न मिलने से पीएमसीएच और एनएमसीएच 
के जूनियर डाक्टर नाराज।’’
अब जरा सन् 1962 याद कीजिए जब चीन ने भारत पर हमला किया था।
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सन 1962
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युद्ध संवाददाता मन मोहन शर्मा के शब्दों में पढ़िए--
  ‘‘मुझे याद है कि हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।
 हमारी सेना के पास अस्त्र,शस्त्र की बात छोड़िये,कपड़े तक नहीं थे।
 नेहरू जी ने कभी सोचा ही नहीं था कि 
चीन  हम पर हमला करेगा।
एक दुखद घटना का उल्लेख करूंगा।
अंबाला से 200 सैनिकों को एयर लिफ्ट किया गया था।
उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं।
उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया
जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था।
वहां पर उन्हें गिराए जाते ही ठंड से सभी बेमौत मर गए।
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     बदलाव
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हां, इस बीच एक बदलाव जरुर आया है।
1962 की अपेक्षा इस देश-प्रदेश के हमारे अधिकतर सत्ताधारी-प्रतिपक्षी नेता-अफसर गण कथित जायज -नाजायज पैसों से काफी सुखी-संपन्न
हो चुके हैं।
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    कोरोना से जंग
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चीन के खिलाफ जंग के समय तो कोई देश मदद को भी 
आ सकता था।
पर, कोरोना के खिलाफ जंग में तो सारे देश खुद ही परेशान हैं।
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उपाय
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सांसद क्षेत्र विकास फंड पर अभी हर साल 1795 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं।अधिकांश राशि लूट में चली जाती है।
उसे तत्काल बंद कर उन पैसों को इस देश की स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करने में लगाइए।
 सांसद फंड इस देश में न खत्म होते भ्रष्टाचार के लिए 
‘‘रावणी अमृत कुंड’’ साबित हो रहा है।
यदि इसे अब भी बंद नहीं कीजिएगा तो यह संशोधित नारा लगेगा कि 
‘‘मोदी है तो सब कुछ मुमकिन है,
पर सांसद फंड की समाप्ति की बात छोड़कर।’’
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 ----सुरेंद्र किशोर--24 मार्च 2020

सोमवार, 23 मार्च 2020

तीस साल पहले बिहार आकर नरभसा गए थे शरद जोशी !!
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1 अप्रैल, 1990 के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित व्यंग्यकार शरद जोशी का उस चर्चित ‘आइटम’ का एक छोटा अंश यहां प्रस्तुत किया जा रहा है जिसे आज भी कुछ लोग पढ़ना चाहते हैं।
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 तब पटना रेलवे स्टेशन पर कुली ने शरद जोशी से 
पूछा था,
‘‘आप इतने नरभस क्यों हो रहे हैं ?’’
फिर क्या था नवभारत टाइम्स ने जोशी जी के संबंधित लेख का शीर्षक ही लगा दिया। अखबार का डिसिजन सही ही था !!
‘बिहार पहुंच कर नरभसा गए शरद जोशी।’
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उस व्यंग्य लेख का एक पोरशन पढ़िए--
पूरा लेख यहां देने पर शायद नभाटा काॅपीराइट का दावा कर दे !
थोड़ा देने पर शायद एपोलाॅजी करके मैं बच जाऊं !
 लोहा मानना पड़ेगा राजेंद्र माथुर के संपादकत्व में निकल रहे तब के नभाटा की संपादकीय टीम की कल्पनाशीलता व श्रेष्ठ पत्रकारिता का।
रज्जू बाबू ने इंदौर के नईदुनिया से दिल्ली पहंुचकर न सिर्फ एक उदास अखबार को ताजगी व जीवंतता से भर दिया,बल्कि अपने साथ अपने कल्पनाशील मित्र शरद जोशी से  भी रोजाना काॅलम लिखवाया।
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जोशी जी की बेजोड़ कलम की बानगी देखिए--
जिन चीजों के हम बिहारी अभ्यस्त हो चुके हैं और हमें 
उनमें कोई प्राब्लम नहीं लगती,उसी में से जोशी जी ने एक 
कालजयी व्यंग्य लेख निकाल ही लिया।
‘‘ ........बड़ा प्राब्लम है।मैं जब पटना उतरा तो मुझसे पूछा गया कि 
‘क्या आप टूल डाउन से आ रहे हैं ?’
मैंने हड़ताल के अर्थ में टूल डाउन मुहावरा सुना था इसलिए मुझे यह समझने में बड़ी कठिनाई हुई कि यहां टूल डाउन से तात्पर्य ट्वेल्व डाउन से है जो ट्रेन के लिए कहा जाता है।
वहीं कुली के मुख से नरभस शब्द सुना।
इन्क्वायरी की खिड़की पर मेरे प्रश्न के उत्तर में बिहारी अंग्रेजी के वाक्य का अर्थ निकालने का प्रयत्न करते हुए बार -बार मेरी नजर अपनी अटैची पर जा रही थी।
मुझे डर लग रहा था कि जल्दबाज प्रवृत्ति का वह कुली चल न दे।
तब इत्मिनान दिलाते हुए उस कुली ने मुझे कहा , ‘‘आप इतने नरभस क्यों हो रहे हैं ?’’
नरवस शब्द नरभस हो वहां की बोली में समा जाएगा,मैंने सोचा न था।
जब मैंने यह किस्सा पटना में एक सज्जन को सुनाया तो उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ।
वे बोले,आप नरभसाए रहे होंगे,तभी कुली ने देख कर कहा होगा।
  यह सुन अंग्रेजी के सुरक्षित भविष्य को लेकर मेरे मन में कोई संदेह नहीं रह गया।
जहां अंग्रेजी का नरवस नरभसाए होकर जीवित है ,वहां अंग्रेजी के लिए नरवस होने का सवाल ही नहीं उठता।
  बिहार बिलकुल बदल गया है।पटना में अब भवन या मंजिल नहीं बनते 
वहां अब अपार्टमेंट और काम्पलेक्स बन गए हैं।
  आदमी बहुत व्यावहारिक और स्पष्ट वक्ता हो गया है।
अतीत से लेकर भविष्य तक को एक मिनट में गड्डमड्ड करके वह अपनी बात कह सकता है।
जैसे उसके मुख से यह वाक्य सुनकर चैंकना नहीं चाहिए कि राम ने रावण का मर्डर किया था।
.........कुछ वाक्य मैंने सुने,वे ऐसे थे।
‘‘नौभारत टाइम्स को शुरू में डिफिकल्टी रहा,पर बाद में पब्लिक उसे लाइक करने लगा।’’
‘‘सी.एम.आजाद बड़े आनेस्ट थे, पर जब वे रांग आदमी का पाइंट आॅफ व्यू सुनने से रिफ्यूज करने लगे तब उन्हें बदलना पड़ा।’’
  ‘‘लगता है कि आप प्राब्लम में बहुत इन्भाल्ब हो गए हैं।’’
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 मुझे लगता है कि यदि मैं अधिक दिनों तक बिहार में रहता तो वहां की भाषा की प्राब्लम में सचमुच बहुत इन्वाल्व हो जाता और यह लेख मुझे अंगेजी में लिखना सरल पड़ता।
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दिवंगत जोशी जी का लेख बहुत लंबा है।
यूं इसे इस तरह अंडरस्टैंड कीजिए कि समथिंग इज बेटर दैन नथिंग...।  


शनिवार, 21 मार्च 2020

राज्य सभा नहीं, भारत रत्न !
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        --सुरेंद्र किशोर --
सुना था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर जज जगमोहन लाल सिन्हा को मोरारजी देसाई सरकार के शासनकाल में राज्यपाल पद का आॅफर मिला था।
पर,उन्होंने उसे ठुकराते हुए कहा था कि 
‘‘किताबें पढ़ने और अपनी बागवानी में बढ़ते हुए पौधों को देखने में जो सुख है,वह अन्यत्र नहीं।’’
   याद रहे कि इंदिरा गांधी के चुनाव को 1975 में इसी जज ने रद किया था।
आरोप भ्रष्ट तरीके अपनाने का था।
आरोप गंभीर नहीं थे।
एन.पालकीवाला ने तो कहा था कि
‘‘प्रधान मंत्री ने ट्रैफिक नियम भंग करने जैसा मामूली अपराध किया था।’’
 पर, जज जगमोहन तो 24 कैरेट के सोना थे।
उन्हें नियम -भंग तनिक भी मंजूर नहीं था।
   अब माननीय रंजन गोगई पर आइए।
मेरी समझ से उन्होंने ‘भारत रत्न’ पाने लायक काम किया था।
पर,  राज्य सभा स्वीकार कर  न्यायपालिका की गरिमा नहीं बढ़ाई।
  कम से कम सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायाधीश को ऐसा कोई पद स्वीकार नहीं करना चाहिए।ऐसा नियम बने।
  पिछले कुछ दशकों में कुछ विचलनों के बावजूद आम तौर पर हमारे सुप्रीम कोर्ट ने समय -समय पर सकारात्मक हस्तक्षेप  किया है।
नहीं किया होता,तो इस देश का क्या होता ?
यही होता कि    
पक्ष-विपक्ष की राजनीति में सक्रिय आधुनिक चंगेज खानों और वारेन हेस्टिंग्सों  ने अब तक इस देश को पूरी तरह लूट लिया होता।
वैसे भी अब तक जितना लूटा है और बेहतर निगरानी के बावजूद अब भी लूट रहे हैं ,वह भी कोई कम नहीं है।
इस देश में तो इन दिनों असल लड़ाई लुटेरे नेताओं आदि बनाम  लूट को रोकने की कोशिश करने वालों के बीच ही हो रही है।
   इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका कुल मिलाकर सही रही है।
 राजनीति के इस कलियुग में इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठा रहे सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को यह शोभा नहीं देता जो काम रंजन बाबू ने किया।
  मैं एक संपादक को जानता हूं जिसे एक चतुर मुख्य मंत्री ने 
राज्य सभा पद का झूठा आॅफर दे दिया था।
उस आॅफर के बाद तो वह संपादक उस विवादास्पद मुख्य मंत्री के पक्ष में ‘‘ओवर एक्टिव’’ हो गया था।
  उसे न तो वह पद मिलना था और न मिला। 
उसी तरह यदि सुप्रीम कोर्ट के किसी  जज को कोई चतुर सत्ताधारी नेता राज्य सभा या गवर्नर पद का आॅफर दे दे तो कितने जज लोभ संवरण कर पाएंगे ?
फिर इस देश की जनता की उम्मीदों का क्या होगा जो वह  सबसे बड़ी अदालत से लगाए रहती है ?
   अब यह जानिए कि मैं रंजन बाबू को  भारत रत्न के काबिल क्यों मानता हूं।
  गत  कई सदियों में बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद को लेकर दोनों समुदायों  के हजारों लोगों की जानें गईं।
  यदि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट का निर्णय नहीं आया होता तो आगे भी न जाने क्या- क्या होता !
 पर सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद-142 का प्रयोग करते हुए इस विवाद को हल कर दिया।
जिस बेंच ने इसे हल किया,उसके प्रमुख क्या भारत रत्न के काबिल नहीं ?
अब तक के दर्जनों भारत रत्नों में से कितनों ने ऐसा ऐतिहासिक काम किया है ?
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21 मार्च 2020  
   

सार्वजनिक धन लूटने वाले सफेदपोशों 
के लिए भी फांसी की सजा का प्रावधान हो।   
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यू.पी.के पूर्व डी.जी.पी.प्रकाश सिंह ने कुछ साल 
पहले लिखा था कि किसी एक व्यक्ति को फांसी पर लटका दिए जाने पर हत्या के लिए उठे सात अन्य हाथ अपने- आप रुक  जाते हैं।
संभवतः उन्होंने किसी विदेशी रिसर्च के आधार पर यह बात कही थी।
   यदि सचमुच यहां भी ऐसा होता हो तो फांसी की सजा का प्रावधान भ्रष्टों के लिए भी होना ही चाहिए।
यह संयोग नहीं है कि फांसी की सजा का विरोध करने वालों में वे तत्व अधिक हैं जो आर्थिक लुटेरों,राष्ट्रद्रोहियों व अतिवादियों की भी किसी न किसी बहाने वकालत करते रहते हैं।या, उनके हमराही हैं। 
  भ्रष्टाचार के मामले में भी फांसी की सजा का प्रावधान चीन में मौजूद है।
 अमीर देश का भ्रष्टाचार वहां के लोगों की सुविधाओं में थोड़ी कमी करता है।
पर भारत का भ्रष्टाचार कई बार गरीब लोगों की जान तक ले लेता है।
 आम तौर पर सरकारी अस्पतालों में भीषण भ्रष्टाचार के कारण ही मरीजों के उचित इलाज के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं रहते।
  10 करोड़ रुपए या उससे अधिक के किसी तरह के घोटालेबाज के लिए फांसी की सजा का प्रावधान हो।
  यह इसलिए भी जरुरी हो गया है क्योंकि राजनीतिक
कार्यपालिका के शीर्ष पदों पर इक्के- दुक्के अत्यंत ईमानदार व्यक्ति के असीन हो जाने के बावजूद भ्रष्ट लोग बाज नहीं आ रहे  हैं।
  वे समझते हैं कि पैसे के बल पर सजा से बच जाएंगे।
 या, हल्की सजा ही तो होगी।
यानी वे मानते हैं कि भ्रष्टाचार के ‘‘व्यापार’’ में घाटा कम और मुनाफा अधिक है।
अब उनमें फांसी का भय पैदा करके तो देखिए।
दरअसल सत्तर के दशक से ही राजनीति व सरकारों में भ्रष्टाचार को जिस पैमाने पर संस्थागत रूप दे दिया गया,उससे उसके निर्मूलीकरण का काम आज  काफी कठिन हो गया है।
खबर है कि भ्रष्टाचार की जड़ सांसद फंड की समाप्ति के लिए मुट्ठी भर सांसदों  को छोड़कर कोई सांसद आज तैयार नहीं है।
जबकि वह भ्रष्टाचार का ‘‘रावणी अमृत कुंड’’ बन चुका है।
  एक नोबल विजेता को भी मोदी राज के बारे में गत साल यह कहने की हिम्मत हो गई  कि  
‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,शायद भ्रष्टाचार अर्थ व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था,इसे काट दिया गया है।
मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’
क्या इस देश की किस्मत में 1971 के नागरवाला बैंक घोटाले से लेकर आज के माल्या बैंक घोटाले ही लिखे हुए हंै ?
क्या फांसी से कम सजा से घोटालेबाज डरेंगे ?
   ---सुरेंद्र किशोर --20 मार्च 20



शुक्रवार, 20 मार्च 2020

   1977-1980 और 2019 के बीच का फर्क !!
  विधान सभाओं को भंग करने  और न करने का मामला
.............................................................................
         --सुरेंद्र किशोर--
मान लीजिए कि 2019 में इंदिरा गांधी ,नरेंद्र मोदी की 
जगह प्रधान मंत्री होतीं !!
फिर क्या होता ?
वही होता जो 1980 में हुआ।
यदि मोरारजी देसाई 2019 में प्रधान मंत्री होते तो क्या होता ?
वही होता जो 1977 में हुआ।
पर, नरेंद्र मोदी ने 2019 में ऐसी  हिम्मत नहीं दिखाई ।
या फिर 
लोकलाज में पड़ गए ? !!!
पता नहीं।
खैर ,जो हो।
मोदी की गलती सिंधिया गुट ने ‘‘सुधार’’ दी। 
मध्य प्रदेश ,राजस्थान और छत्तीस गढ़ की अधिकतर सीटों पर 
2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा जीत गई थी।
पर, उन राज्यों में 2018 में कांग्रेस की सरकारें बन चकी थीं।
‘‘नए जनादेश को ध्यान में रखते हुए’’ राजग की केंद्र सरकार इन 
तीन राज्यों की सरकारों को बर्खास्त करके वहां फिर से चुनाव करवा सकती थी।
ऐसा इस देश में पहले हो चुका था।
पर मोदी सरकार ने वह काम नहीं किया।
  1977 के लोक सभा चुनाव में मिले जनादेश को आधार बना कर 1977 में ही नौ राज्यों की कांग्रेस सरकारों को भंग कर दिया गया था।
मामला सुप्रीम कोर्ट गया।
सबसे बड़ी अदालत ने देसाई सरकार के इस निर्णय को संविधान सम्मत बताया।
  अब बारी इंदिरा गांधी सरकार की थी। 
 1980 में सत्ता में आने बाद इंदिरा सरकार ने भी नौ राज्य मंत्रिमंडलों को भंग कर दिया।
विरोध होने पर  इंका ने कहा कि ‘‘जो काम 1977 में संविधान सम्मत था,वह 1980 में गलत कैसे हो गया ?’’
हां, नरेंद्र मोदी सरकार की बात ही अलग है।
मोदी राजनीतिक नैतिकतावादी निकले या अधकचरे खिलाड़ी !!
..................................
20 मार्च 2020

गुरुवार, 19 मार्च 2020

‘‘शाहीन बाग में बैठी भीड़ अब आत्मघाती दस्ता बन चुकी है।
कोर्ट,पुलिस,सरकार ,डाक्टर्स किसी की बात नहीं मान रही ।
कल्पना कीजिए।
अगर इन्होंने जाफराबाद और चांदबाग में भी शाहीन बना लिया होता तो।’’
                               --कपिल मिश्र
                    राष्ट्रीय सहारा,19 मार्च, 2020

बुधवार, 18 मार्च 2020

जांच एजेंसियों को मिलें और अधिकार 
     सुरेंद्र किशोर
यदि नार्को टेस्ट की अनुमति आसानी से मिले तो 
न सिर्फ भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में ,बल्कि अन्य 
अपराधों में भी सजा का प्रतिशत बढ़ेगा
...............................................
दिल्ली दंगों पर संसद में चर्चा का जवाब देते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट किया कि इन दंगों के दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा।
देश भी यह उम्मीद करता है।
लेकिन, किसी भी तरह के अपराध में शामिल लोगों को उनके किए की सजा देने के लिए यह आवश्यक है कि जांच एजेंसियों को सामान्य अपराधों में भी नार्को इत्यादि टेस्ट कराने 
की छूट मिले।
 इससे सजा का प्रतिशत बढ़ सकता है।
 अभी सिर्फ अदालती अनुमति से ही ऐसी जांच संभव है।
ऐसे में जरुरी नहीं कि जांच एजेंसी को जिस आरोपी के नार्को टेस्ट की जरुरत लगे,उसकी आवश्यकता अदालत भी समझे। 
सजा का प्रतिशत बढ़ने से हर तरह के अपराधों की संख्या घटेगी।
   जिस देश में आम अपराधों में औसतन  46 प्रतिशत आरोपितों  को ही सजा मिल पाती है,वहां अपराधियों में 
भला कितना भय रहेगा ! 
वे समझते हैं कि  किसी न किसी तरकीब से सजा से बच जाएंगे।
कई बच भी जाते हैं। 
अभी तो सजा का प्रतिशत दयनीय है।
साधारण  अपराध के मामलों में भारत  में 54 प्रतिशत आरोपित  सजा से बच जाते  हंै।
दूसरी ओर, जापान में 99 प्रतिशत,कनाडा में 97 , अमरीका और इजरायल में 93 प्रतिशत आरोपित कोर्ट से सजा पा जाते हंै। 
  भारत में अधिकांश आरोपितों के बच निकलने के कारण वे  जेल से निकल कर दोबारा अपराधों में लिप्त हो जाते हैं।
यदि किसी राज्य में हत्या के अधिकांश अभियुक्तों को सजा न हो  पाती है तो वहां हत्याओं पर काबू कैसे 
पाया जा सकता है ?
 सजा के डर से किस तरह अपराधियों के हाथ रुक जाते हैं,उसका उदाहरण उत्तर प्रदेश ने पेश किया है।
राज्य सरकार ने दंगों में तोड़फोड़ करने वालों से वसूली की प्रक्रिया शुरू की।
नतीजतन दंगे और संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटनाओं में वहां कमी आने की उम्मीद है।
     जहां तक नार्को टेस्ट की उपयोगिता का सवाल है,तो इससे जुड़ी तमाम मिसालें हैं।
जैसे समझौता एक्सप्रेस विस्फोट के मामले को ही लें।
उसमें आरोपित और सिमी के मुखिया सफदर नागोरी  का जब नार्को टेस्ट हुआ तो पता चला कि उसके पीछे पाकिस्तान का हाथ था।
इसी तरह भ्र्रष्टाचार के बड़े मामलों में यदि नार्को टेस्ट कराने की  अनिवार्यता हो जाए तो भ्रष्टाचारियों की चोरी-छिपे मदद करने वालों को भी कानून की गिरफ्त में लिया जा सकेगा।
अन्य अनेक सबूत भी मिल सकते हैं जो सामान्य जांच में आम तौर पर नहीं मिल पाते हैं।
  अभी तो ऐसे बड़े मामलों में कई
बार छोटे अपराधी सजा पा जाते हैं और उनके मददगार  बच निकलते हैं।
साम्प्रदायिक दंगों के मामलों में तो सजा दिलाना और ज्यादा  जरुरी है ,क्योंकि दंगाइयों के बच निकलने से देश को कई तरह से नुकसान होता है।
    जिस टेस्ट के जरिए बड़ी -बड़ी घटनाओं की तह तक पहुंचा जा सकता है,आश्चर्य है कि उस टेस्ट की अनुमति अभी अदालत ही दे सकती है।
बेहतर यही होगा कि ऐसी स्थिति बने कि पुलिस तथा अन्य जांच एजेंसियां इसे अपने स्तर पर अंजाम दे सके।
इसके लिए संसद पहल कर सकती है।
यदि ऐसी छूट  मिली तो न सिर्फ भ्रष्टाचार के मामलों में,बल्कि अन्य  अपराधों में सजा का प्रतिशत बढ़ेगा।
इससे सार्वजनिक जीवन में शुचिता और कानून एवं व्यवस्था की स्थिति में सुधार होगा।
   नार्को टेस्ट पर यदि सुप्रीम कोर्ट अपना पिछला निर्णय ही बदले  तो आपराधिक न्याय -व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सकता है।
इसके लिए केंद्र शीर्ष अदालत से पुनर्विचार के लिए अनुरोध कर सकता है।
     यह देखा गया है कि जिन मुकदमों की 
 जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एन.आई.ए.करती है,उनमें सजा की दर का स्तर फिर भी संतोषजनक है।
ऐसा इसलिए क्योंकि उन मामलों में नार्को आदि टेस्ट की अनुमति आसानी से  मिल जाती है।
परंतु सामान्य अपराध के मामलों में ऐसा नहीं होता।
हत्या के मामलों में अधिकतर आरोपियों का छूट जाना चिंता की बात बनी हुई है।
    22 मई, 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 
‘‘आरोपित या फिर संबंधित व्यक्ति की सहमति से ही उसका नार्को एनालिसिस टेस्ट हो सकता है।
किसी की इच्छा के खिलाफ  ब्रेन मैपिंग भी नहीं हो सकती।
पाॅलीग्राफ टेस्ट के बारे में भी यही बात लागू होगी।’’
   यदि सुप्रीम कोर्ट  2010 का अपना यह निर्णय  बदलने को तैयार नहीं  तो इस संबंध में संसद कानून बनाए। 
  ऐसा कानून, जिसके तहत जांच एजेंसी जरुरत समझने पर किसी भी आरोपित  का नार्को आदि टेस्ट करवा सके।
उसे कोर्ट भी साक्ष्य के रूप में स्वीकारे।
 याद रहे कि ऐसी जांच के अभाव में न जाने कितने अपराधी सजा से बच जाते हैं।
  यह अच्छी बात है कि बिहार सरकार ने पिछले दिनों गवाहों की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाने की घोषणा की है,मगर  वही काफी नहीं है।
जांच का तरीका भी बदलने की  जरुरत है।
  क्योंकि अपराध के तरीके भी समय के साथ बदलते जा रहे हैं।
  1960  के दशक तक भारत  में 65 प्रतिशत आरोपितों को  सजा मिल जाती थी।
  परंतु 1970  के दशक से राजनीति और प्रशासन में जो गिरावट शुरू हुई,उसका सीधा असर आपराधिक न्याय -व्यवस्था पर पड़ा।
इसका ही नतीजा है कि आज दुष्कर्म के मामलों में  सौ आरोपितों में से औसतन 73 बच निकलते  हैं।सौ में से 
64 हत्यारे सजा से बच जाते हैं।
सामान्य अपराधों में केवल  46 प्रतिशत सजा पाते हैं।
बिहार में सामान्य  अपराध के आरोपितों में से 90 प्रतिशत 
 को  सजा नहीं होती तो  बंगाल में मात्र 11 प्रतिशत को सजा हो पाती है।
इससे स्थिति की भयावहता का अंदाजा लग सकता है।
आखिर कौन अपराधी चाहेगा कि उसकी ऐसी वैज्ञानिक जांच हो  जिससे उसका अपराध पकड़ में आ जाए ?
इसलिए किसी  अपराधी से यह उम्मीद करना बेमानी ही होगा कि वह खुशी- खुशी ऐसी जांच के लिए राजी हो जाएगा।कुछ 
 साल पहले एक  दोहरा हत्याकांड  देश भर में चर्चित हुआ था।
आरोपित  की पहचान भी हो चुकी थी,पर उसने सी.बी.आई. को डी.एन.ए.जांच के लिए  खून का नमूना  देने से  इनकार कर दिया था।
नतीजतन वह बच निकला। 
  याद रहे कि ऐसी जांच के अभाव में न जाने कितने खूंखार अपराधी और देशद्रोही आए दिन सजा से बच जा रहे  हैं।
 सभी गवाहों को सरकार की ओर से सुरक्षा मिलना शायद व्यावहारिक रूप से संभव न हो,पर नार्को टेस्ट तो संभव है।
   --लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं।
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दैनिक जागरण-18 मार्च 2020    



18 मार्च 1974 
..............................
उस दिन भ्रष्टाचार.... आदि के खिलाफ बिहार से 
देश का सबसे बड़ा आंदोलन शुरू हुआ था।
बाद में उसका नेतृत्व जेपी  ने संभाला था।
..............................................
आज  18 मार्च 2020 है।
.......................
इस अवसर पर एक चर्चित किताब की याद !
........................................  
साठ के दशक में अमरीकी प्रोफेसर पाॅल आर.ब्रास ने एक किताब लिखी थी।
नाम था-
 ‘फैक्सनल पाॅलिटिक्स इन एन इंडियन स्टेट्स।’
ब्रास ने उत्तर प्रदेश में अपने गहन रिसर्च के आधार पर अन्य बातों के अलावा यह भी पाया कि भ्रष्टाचार सत्ताधारी नेताओं ने ही ऊपर से नीचे की ओर फैलाया-अपने-अपने  गुटों को मजबूत करने के लिए।
................................................
 --सुरेंद्र किशोर --18 मार्च 2020

समय की जरुरत !
........................
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-319 के अनुसार,
संघ लोक सेवा और राज्य लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष या संदस्य 
केंद्र या राज्य सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा। 
  इस प्रावधान का विस्तार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान व सामान्य 
जजों और अन्य महत्वपूर्ण सेवाओं के लोगों
तक किया जाना चाहिए।
    वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने गत साल सांसदों व विधायकों को ‘पब्लिक सर्वेंट’ 
मानने से इनकार कर दिया।
ऐसा करने की मांग जनहित याचिका के जरिए
अश्विनी उपाध्याय ने की थी।
फिर भी ऐसा करने का संवैधानिक उपाय जरुर 
होना चाहिए।
यह समय की जरुरत है।
..................................
---सुरेंद्र किशोर --18 मार्च 2020   

      एक राजनीतिक कार्यकत्र्ता के लिए 
       कम से कम दुआ तो करें !
       ..................................................
 कल के दैनिक जागरण के अनुसार अनिल पाठक के बेहतर इलाज
की जरुरत है।
इलाज के लिए उन्हें बाहर जाना पड़ सकता है।
बिहार नागरिक परिषद के पूर्व महा सचिव श्री पाठक की किडनी 
रोगग्रस्त हो चुकी है।
पटना के आई.जी.आई.एम.एस.में उनकी डायलिसिस चल रही  है।
थोड़ा सुधार तो है !
  पाठक जी आपको अच्छे लगे या नहीं, अभी यह मसला नहीं है।
वे अभी कष्ट में हैं।
वे लंबे समय तक राजनीतिक 
कार्यकत्र्ता रहे हैं।
एक राजनीतिक कार्यकत्र्ता के रूप में मैंने भी 1966 से 1976 तक वह ‘‘जूता’’ 
पहन कर खुद देखा कि वह 
कहां -कहां काटता है।
बहुत कुछ देखने-झेलने के बाद 1977 में मैं सक्रिय राजनीति से भाग खड़ा हुआ।
मैं तो भाई कायर निकला ! 
फिर कभी उधर पलट कर देखने की मेरी कोई इच्छा ही नहीं हुई।
चाहे जितने अनुमान के घोड़े कुछ लोग मेरे बारे में दौड़ाते रहंे !!
यह जानते हुए भी कि जन सेवा का सर्वाधिक सशक्त माध्यम राजनीति ही है,
यदि उसका सदुपयोग हो।
  किसी साधनहीन राजनीतिक कार्यकत्र्ता का यदि समाज ध्यान रखता है तो 
वह राजनीति में बना रहता है।
और, उससे अन्य कार्यकत्र्ताओं का भी मनोबल बढ़ता है।
अन्यथा, राजनीतिक कार्यकत्र्ता के नाम पर इन दिनों फंड के ठेकदारों की 
भला कहां कमी है ?!
.....................................
   ----सुरेंद्र किशोर
       16 मार्च, 2020
   



शनिवार, 14 मार्च 2020

 जड़ों की ओर लौटने की मजबूरी !!
...................................................
 हाल के वर्षों में पहले ‘योग’ दुनिया में और अधिक फैला,
फिर नमस्ते का प्रचलन बढ़ा !
अब ताजा खबर यह है कि दाल-भात दुनिया
का सबसे अच्छा भोजन है।
यह मैं नहीं कह रहा हूं।
मशहूर पत्रिका ‘नेचर’ में दाल-भात के बारे में यह बात 
कही गई है।
इस पर रिसर्च हुआ था। 
यह खबर आज के ‘राष्ट्रीय सहारा’ में है।
  असली ‘‘आइडिया आॅफ इंडिया’’ तो यही सब है न !!
गाय, गंगा और पीपल-नीम असली आइडिया आॅफ इंडिया ही है।
मुगलों और अंग्रेजों ने भी गंगा की  निर्मलता-अविरलता 
पर चोट नहीं पहुंचाई थी।
अकबर तो रोज ही गंगा जल पीता था।
पर, आजादी के बाद हमारे हुक्मरानों ने धीरे -धीरे गंगा को नाला में 
परिवत्र्तित कर दिया।
औषधीय गुणों वाली ऐसी नदी दुनिया में कहीं 
और होती तो वहां के शासक 
सचमुच उसे मां की तरह रखते ।
पर, जिन भारतीय शासकांे ने भारत की सारी मूल चीजों-बातों  को 
हिकारत भरी नजरों से 
देखा,उनके बारे में क्या कहा जाए !
यहां तक कि सरकारी खर्चे पर पीपल का पौधा 
लगाने पर भी आजादी के बाद 
प्रतिबंध था।
हाल में वह प्रतिबंध हटा है।
जबकि, वह 24 घंटे आॅक्सीजन देता है।
टोप की जगह टांेपी पहन कर आए हमारे नए शासकों
 को संभवतः यह डर था
 कि हर पीपल की पूजा होने लगेगी !
फिर ‘वैज्ञाानिक सोच’ का क्या होगा ?
विशेष गुणों वाली देसी गाय
की जगह हाइब्रिड गायों का प्रचलन बढ़ा।
जैविक खेती की जगह रासायनिक खाद और कीटनाशकों 
के भारी इस्तेमाल से 
इस देश के बड़े इलाकों में मिट्टी -खेती नष्ट हो रही है।
कैंसर के मरीज बढ़ रहे हैं।
 और भी बहुत सारी बातें हैं।
थोड़ा कहना, अधिक समझना !!
 ................................................
---सुरंेद्र किशोर --14 मार्च 2020

  


शुक्रवार, 13 मार्च 2020

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए चिंता की खबर
......................................
एक वंशवादी राजनीतिक 
दल दो -तीन खास 
कारणों से दुबला  
होता जा रहा है।
वे कारण हैं--
1.-योग्य व कल्पनाशील नेतृत्व का नितांत अभाव।
2.-शीर्ष नेतृत्व पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप। 
3.-अल्पसंख्यकों के बीच के 
अतिवादियों का इस दल की ओर से अंध समर्थन।
...............
प्रश्न-सुधार की कितनी गुंजाइश ?
उत्तर-बहुत कम।
न के बराबर।
क्यों- ???
उत्तर--खुद को सुधारने की क्षमता लगभग समाप्त।
जिस तरह कम्बल से रोएं को अलग नहीं किया जा सकता,
उसी तरह से 
इस दल से उसकी कमजोरियों को निकाल- 
बाहर नहीं किया जा सकता।
....................
--सुरेंद्र किशोर--13 मार्च, 2020
......................
‘‘वैधानिक चेतावनी‘‘ -
कृपया किसी दल का नाम न लिखें।
क्योंकि एक जैसे 
लक्षण वाले इस देश में 
एक से अधिक दल मौजूद हैं।





ब्लादिमीर लेनिन ने कहा था कि
‘‘सभी क्रांतिकारी पार्टियां, जो अब मिट चुकी हैं,
इसीलिए मिटी कि वे 
घमण्ड से भर गयीं।
वे यह न देख पायी कि उनकी शक्ति कहां है और
अपनी कमजोरियां 
बताने से डरीं।
  लेकिन,हम नहीं मिटेंगे, 
क्योंकि हम अपनी कमजोरियों को 
बताने से डरते 
नहीं हैं।
और, उन्हें दूर करना सीखेंगे।
....................................
   --लेनिन ग्रंथावली,
     रूसी संस्करण 
     खंड -27,  पृष्ठ-260
....................................................
भारत की कई कम्युनिस्ट और गैर कम्युनिस्ट पार्टियों 
पर लेनिन की बात लागू होती है।
यहां के अधिकतर राजनीतिक दल और नेता खुद अपनी गलतियों 
के बदले दूसरे 
दलों और नेताओं की गलतियां निकालने में ही 
अधिकांश समय लगाते हैं।
नतीजे सामने हैं। 
.............................
--सुरेंद्र किशोर,
13 मार्च, 2020  


   हरिवंश के लिए शुभकामनाएं
  ..................................
हरिवंश को दुबारा राज्य सभा के लिए उम्मीदवार
बनाने को लेकर कई लोग
आशंकित थे।
ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि नीतीश कुमार ऐसी घोषणाएं 
समय से पहले नहीं करते।
इसलिए संभवतः उनके आसपास भी ऐसी 
कोई चर्चा तक नहीं होती। 
पर, मुझे हमेशा यह लगा कि हरिवंश दुबारा वहां जाएंगे।
हाल में मैंने दो -तीन पत्रकार मित्रों से ऐसा कहा भी था।
उप सभापति बनाने का मतलब ही था कि उन्हें आगे 
भी अवसर मिलेगा ।
क्योंकि नीतीश कुमार आगे देखकर 
ही कोई निर्णय करते हैं।
वैसे भी राजनीति में हरिवंश जैसे नेता कम हैं।
ऐसे लोगों की तलाश में नीतीश कुमार रहते हैं।
यह और बात है कि वैसे कम ही लोग मिलते हैं जिनका 
कोई निजी एजेंडा न हो।
मिलते भी हैं तो कई बार नेता को निराश करते हैं।
मेरा नीतीश कुमार से कोई निरंतर संपर्क नहीं है।
फिर भी उन्हें मैं  दशकों से  जानता रहा हूं।
मुख्य मंत्री के रूप में उनकी राजनीति व प्रशासनिक 
कार्य शैली को भी दूर से देखता रहा हंू।
  उसमें हरिवंश फिट बैठते हैं।
हरिवंश योग्य व्यक्ति हैं।
अच्छे वक्ता हैं।
अत्यंत सफल संपादक रहे हैं।
मृदुभाषी हैं।
बारी से पहले नहीं बोलते।
बिना मांगे कोई सलाह नहीं देते।
  मीडिया में गैर जरूरी बयान नहीं देते।
  सांसद फंड को लेकर कई बार कई अच्छे से अच्छे सांसद
 भी विवादों में पड़ जाते हैं।
उससे बचने के लिए हरिवंश ने अपना पूरा फंड आर्यभट्ट 
विश्व विद्यालय को दे दिया।
  हरिवंश में और भी गुण हैं।,
बाकी बातें उनके जीवनी लेखक के लिए छोड़ता हूं।
मुझे लगता है कि वे और भी ऊपर जाएंगे।
 उनका जीवन कई लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन सकता है,
यदि कोई ऐसा चाहे।
कमियां हर मनुष्य में है।
मुझमें, आपमें और हरिवंश में भी।
पर, जिनमें सबसे कम कमियां होती हैं,
उन्हें लोग पसंद करते हैं।
मैं भी हरिवंश को पसंद करता हूं।
प्रभाष जोशी भी उन्हें पसंद करते थे।
इसलिए भी कि हम एक पेशे में रहे हैं।
हरिवंश के उज्ज्वल भविष्य के लिए शुभकामना 
और आशीर्वाद देता हूं।
वे मुझसे कद में भले बहुत बड़े हैं,
पर उम्र में तो छोटे ही  हैं।
उन्होंने अपनी मेहनत और प्रतिभा से ही उपलब्धियां 
हासिल की हैं।
पत्रकार के रूप में उनसे मुझे भी कभी -कभी ईष्र्या 
होती रही है।
पर, मेरा उनसे भला क्या मुकाबला !
---सुरेंद्र किशोर--12 मार्च 2020 


    

गुरुवार, 12 मार्च 2020

 यूं ही एक विचार,
एक जानकारी  !
.........................................
किसी बड़ी हस्ती ने कभी कहा था,
‘‘अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर,
दुनिया में हर व्यक्ति की कीमत तय है।
बस, आपको वह कीमत मालूम होनी चाहिए।’’
..........................
वैसे कम से कम पांच साल तक इस देश में प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री 
रह चुका व्यक्ति वैसे बड़े -बड़े लोगों की कीमत को अच्छी तरह जान
चुका होता है ।
शुक्र है कि उनमें से अधिकतर सत्ताधारी नेता शालीनतावश उन सब बातों को 
भंडाफोड़ नहीं करता। 

बुधवार, 11 मार्च 2020

ऐसा क्यों है ? !!
इस देश के कुछ पूर्व राजा-महाराजा-जमींदार परिवार 
आज भी
मतदाताओं के बीच लोकप्रिय हैं।
सिंधिया के साथ इतने विधायक !
आश्चर्य होता है।
पर, दूसरी ओर कुछ अन्य राजे-महराजे-जमींदार 
आजाद भारत में अपना चुनाव तक नहीं जीत सके।
आखिर ऐसा क्यों है ? 
कुछ दशक पहले दिवंगत प्रभाष जोशी के पुत्र की शादी में जोध पुर 
गया था।
वहां हमारा ड्रायवर मौजूदा ‘‘हीज हाईनेस’’ की तारीफ किए 
जा रहा था।
साथ ही, वह कह रहा था कि हमने 
‘‘हिज हाइनेस’’ यानी गज सिंह के पूर्वज का शासन देखा था।
आज के शासक यानी निर्वाचित शासक उनके सामने फेल हैं।
वह ‘‘जोध पुर नरेश’’ गज सिंह के बदले उन्हें हिज हाईनेस ही 
बोल रहा था।
गज सिंह भी उस शादी में आए थे।
आम लोगों को उनका विशेष सम्मान करते मैंने देखा।
लोकतंत्र में वैसा आम तौर पर नहीं देखा जाता।
याद रहे कि हमारे पूर्वज जोध पुर से ही बिहार आए थे।
इसलिए उस जगह को देखने की इच्छा थी।
इसलिए भी वहां गया था।
 ---सुरेंद्र किशोर,
11 मार्च 2020

‘‘देश में कुछ लोग खुलेआम कह रहे हैं कि वे 
राष्ट्रीय पाॅपुलेशन 
रजिस्टर तैयार करने के सिलसिले में 
अपना दस्तावेज नहीं दिखाएंगे,
लेकिन भगवान राम का सबूत जरुर मांगेंगे।’’
    ---- केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद 

मंगलवार, 10 मार्च 2020

इंदिरा गांधी और बाबर का मकबरा

देश के सबसे बुजुर्ग पत्रकार माननीय मनमोहन शर्मा जब कुछ लिखते हैं तो मैं उसे बहुत ध्यान से पढ़ता हूं। मेरे एक पोस्ट पर उनकी एक टिप्पणी देखकर मैंने नटवर सिह की किताब निकाली।पढ़कर देखा तो पाया कि शर्मा जी सही हैं।

‘‘एक ही जिंदगी काफी नहीं’’ नामक पुस्तक के पेज नंबर -118 पर नटवर सिंह ने लिखा है, ‘‘श्रीमती इंदिरा गांधी के एक दोपहर थोड़ा समय खाली था और उन्होंने तय किया कि वे मेरे साथ ड्राइव पर चलेंगीं। काबुल से बाहर, कुछ मील की दूरी पर उन्हें एक जीर्ण -शीर्ण इमारत दिखाई दी जो कुछ पेड़ों से घिरी थी।

उन्होंने अफगान सुरक्षा अधिकारी से पूछा कि वह क्या है? उसने बताया कि वह बाबर का मकबरा है। श्रीमती गांधी ने वहां जाने का निर्णय किया। प्रोटोकाॅल विभाग के लिए मुसीबत हो गई। क्योंकि उन्होंने वहां कोई सुरक्षा प्रबंध नहीं किए थे। हम बाबर के मकबरे की ओर चल दिए। वे मकबरे के सामने खड़ी हुईं और हल्का सा सिर झुकाया। मैं उनके पीछे खड़ा था। वे बोलीं, ‘‘मैं इतिहास को महसूस कर रही थी।’’
15 जुलाइर्, 2004 को मनमोहन सरकार के गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश
 जायसवाल ने राज्य सभा में कहा था कि 1 करोड़ 20 लाख 53 हजार 
950 अवैध बंगलादेशी इस देश के  17 राज्यों और केंद्र शासित राज्यों में 
रह रहे हैं।
जायसवाल के अनुसार यह संख्या 31 दिसंबर, 2001 तक की है।
...........................
अब सवाल यह है कि यह संख्या किसने गिन कर बताई थी ?
गिनती हुई  तभी तो किसी ने राज्य मंत्री तक यह संख्या पहुंचाई ।
यानी, यह संख्या कहीं किसी सरकारी फाइल में अब भी होगी।
अब सवाल है कि गत दो दशकों में इनकी संख्या बढ़ कर कितनी हो चुकी है ?
---सुरेंद्र किशोर--10 मार्च 2020

    

सोमवार, 9 मार्च 2020

अपने देश में नौकरशाही काम को रोकर घूस लेती है
जबकि चीन में नौकरशाही कार्य को संपन्न कराने के लिए 
घूस लेती है।
--डा.भरत झुनझुनवाला,
  दैनिक आज 
  8 मार्च 2020 

रविवार, 8 मार्च 2020

सन 1962 से पहले चीन के असली इरादों के बारे में 
प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू भारी गलतफहमी में थे।
उस गलतफहमी का भारी खामियाजा इस  देश को भुगतना 
पड़ा था।
  आज सी ए ए -एन.पी.आर.-एन.आर.सी. के खिलाफ देसी-विदेशी मदद से 
पी,एफ.आई. की ओर से जारी हिंसक-अहिंसक आंदोलन के असली इरादों के बारे में 
इस देश के अनेक
लोगों व संगठनों को भारी गलतफहमी है।
या फिर उनमें से या तो कुछ लोग अनजान हैं या फिर बेईमान।
इसका भी खामियाजा यह देश न भुगते ,इसका इंतजाम 
समय रहते कैसे होगा ?
कौन करेगा ?
यह एक यक्ष प्रश्न है।
--सुरेंद्र किशोर
8 मार्च 2020

शनिवार, 7 मार्च 2020

   
   पुलिस विफल तो लोकतंत्र पर खतरा !
      --सुरेंद्र किशोर--- 
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राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर अजित डोभाल ने कहा है कि 
‘‘अगर पुलिस कानून 
लागू करने में नाकाम रहती है तो 
लोकतंत्र नाकाम होता है।’’
अच्छी मंशा वाले डोभाल इससे अधिक और क्या कह सकते हैं !
   सिस्टम के महत्वपूर्ण अंग रहे अजित डोभाल देख रहे हैं कि एक ईमानदार 
प्रधान मंत्री के रहते कानून लागू होने में भारी दिक्कत हो रही है।
  पहले यह माना जाता था कि शीर्ष राजनीतिक कार्यपालिका के पदों पर 
रुपए-पैसों के मामले में
शब्द के सही अर्थ में ईमानदार व्यक्ति बैठे तो बहुत 
सारी चीजें अपने -आप ठीक हो जाएंगी।
पर, ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है।
लगता है कि ‘दीमक’ ने सिस्टम को खोखला बना दिया है।उसे  
ठीक करना किसी पी.एम.या सी.एम.के
वश की बात नहीं रह गई है।  
  मनमोहन सिंह के शासन काल में यह आरोप लगा था कि गृह मंत्री दिल्ली 
के पुलिस थाने में खास 
एस.एच.ओ.तैनात कराने में भी रूचि रखते हैं। 
मोदी राज के गृह मंत्रियों के बारे में तो ऐसा नहीं सुना गया।
फिर भी आज दिल्ली के थानों में बिना पैसे जनता के कितने काम होते हैं ?  
  ऐसे में क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत में लोकतंत्र विफल 
होने के कगार पर है ? इसके अन्य अनेक लक्षण सामने आते रहे हैं। 
पर ,अभी ऐसा कहना अभी जल्दीबाजी होगी।
 फिर भी सरजमीनी स्तर पर इस देश में क्या हो रहा है,उसके कुछ नमूने देखिए।
 दिल्ली से पटना आइए।
   कई दिनों बाद आज मैं सुबह -सुबह घर से निकला।
एन.एच.पर पहुंचते ही देखा कि बालू लदे दर्जनों ट्रैक्टर हाईवे पर खड़े थे।
सड़क पर ही बालू की बिक्री जारी थी।
उन ट्रैक्टरों के कारण हाईवे पर वाहनों की गति निर्बाध नहीं रह गई थी।
फिर भी उन्हें रोकने -टोकने वाला वहां कोई नहीं था।
पता चला कि स्थानीय थाने को रोज प्रति ट्रैक्टर 1000 रुपए मिलते हैं।
  मन क्षोभ से भर उठा।
 उसके बाद एक विकासशील मुहल्ले में गया।
वहां सींमेंटी सड़क और नाले का निर्माण चल रहा था।
निर्माण कार्य पटना नगर 
निगम के जिम्मे है।
सड़क निर्माण में किसी भी मानक का ध्यान नहीं रखा जा रहा था।
नाला एक तरफ से बनता जा रहा था और दूसरी ओर से टूटता जा 
रहा था।
लगा कि इस निर्माण कार्य को देखने कोई अफसर उधर ताकता तक नहीं। 
 ये तो मात्र छोटे नमूने हंै।
जहां हाथ डालिए, देश में कमोवेश एक ही हाल है।
लूट सके सो लूट !!
हालांकि शुक्र है कि आम तौर पर महा घोटाले अब नहीं हो रहे हैं।
विकास व कल्याण के कार्य भी अब पहले से अधिक हो रहे हैं।
  फिर भी स्थानीय स्तर के लोगबाग ‘सरकार’ से परेशान हंै।
सरकारी अफसरों-कर्मचारियों की घूसखोरी जीवन शैली बन चुकी है।
ऐसे में लोकतंत्र कब तक बचेगा ?
फिर इस देश का क्या होगा ?
 अनुमान के घोड़े दौड़ाते रहिए ।
 जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है,वहां क्या है !
वैसे भी धर्मांध लोगों से लड़ाई ठन चुकी है।
 ऐसी लड़ाई में लोकतंत्र कितना कारगर साबित होता है,
 यह भी देखना दिलचस्प होगा !!
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6 मार्च 2020

    

 फांसी की सजा का प्रावधान क्यों नहीं  ???
         सुरेंद्र किशोर 
केंद्रीय एजेंसी एक कारपोरेट समूह को कर्ज दिए जाने के मामले में 
यस बैंक के संस्थापक 
राणा कपूर की भूमिका की जांच कर रही है।
दैनिक जागरण के अनुसार यह कर्ज दिए जाने के बाद कथित रूप से राणा
 कपूर की पत्नी के खातों में 
रिश्वत की रकम पहुंची थी।
  उधर यह खबर भी आई है कि यस बैंक का एक बड़ा खातेदार कैंसर 
से पीड़ित है।
हर माह दवा के लिए उसे 15 लाख रुपए चाहिए।
पहले तो वह उतने पैसे अपने खाते से निकाल रहा था।
पर अब नहीं।
    यदि वह खातेदार दवा के अभाव में मर गया तो राणा कपूर पर हत्या का
 मुकदमा क्यों नहीं चलना चाहिए ?
यदि ऐसा कानून नहीं है तो कानून क्यों नहीं बनना चाहिए ?
इस देश में जगह- जगह फैले भारी भ्रष्टाचार के कारण असंख्य गरीब सरकारी 
अस्पतालों में 
समुचित इलाज के बिना मर रहे हैं।
फिर भी भ्रष्टों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान क्यों नहीं  ? 
    ---सुरेंद्र किशोर-
      7 मार्च 2020

बुधवार, 4 मार्च 2020

सोशल मीडिया अकाउंट को ‘आधार’ से जोड़ दीजिए।
ट्विटर पर पहचान गुप्त रखना बंद करा दीजिए।
फर्जी खबरों और वीडियो के लिए व्हाट्सऐप को कटघरे 
में खड़ा कर दीजिए।
   बहुत सारी चीजें ठीक हो जाएंगी।
दिल्ली हिंसा ने सोशल के एक बड़े खतरे को 
सामने ला दिया है।
---अखिलेश शर्मा,वरिष्ठ पत्रकार

हमारे नेता वोट के लिए 
 कुछ भी करेंगे !!!!!
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--सुरेंद्र किशोर--
जब अवैध घुसपैठियों के वोट वाम 
मोरचा को मिलते थे
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4 अगस्त, 2005 को ममता बनर्जी ने लोक सभा के स्पीकर
के टेबल पर कागज का पुलिंदा फेंका।
उसमें अवैध बंगला
देशी घुसपैठियों को  मतदाता बनाए जाने के सबूत थे।
उनके नाम गैरकानूनी तरीके से मतदाता सूची में शामिल करा दिए गए थे।
ममता ने कहा कि घुसपैठ की समस्या राज्य में महा विपत्ति बन चुकी है।
इन घुसपैठियों के वोट का लाभ वाम मोर्चा उठा रहा है।
उन्होंने  उस पर सदन में चर्चा की मांग की।
चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता
 से इस्तीफा भी दे दिया था।
 चूंकि एक प्रारूप में विधिवत तरीके से इस्तीफा तैयार नहीं था,
इसलिए उसे मंजूर नहीं किया गया।
दृश्य -2
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जब घुसपैठियों के वोट ममता 
बनर्जी को मिलने लगे
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3 मार्च 2020
..............पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि 
जो भी बंगला देश से यहां आए हैं,बंगाल में रह रहे हैं ,
चुनाव में वोट देते रहे हैं, वे सभी भारतीय नागरिक हैं।
इससे पहले सीएए,एनपीआर और एन आर सी के विरोध में 
ममता ने कहा कि इसे लागू करने पर गृह युद्ध हो जाएगा । 
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पिछले दिनों पश्चिम बंगाल से भाजपा सांसद ने संसद में कहा 
कि पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में हिंदुओं को त्योहार मनाने के 
लिए अब स्थानीय इमाम से अनुमति लेनी पड़ती है।
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कई साल पहले इंडियन एक्सप्रेस में एक खबर छपी थी।
उसमें एक गांव की कहानी थी।
वह गांव बंगला देशी मुस्लिम घुसपैठियों के कारण
 मुस्लिम बहुल बन चुका था।
वहां हिंदू लड़कियां हाॅफ पैंट पहने कर 
हाॅकी खेला करती  थी।
पर, अब मुसलमानों ने उनसे कहा कि फुल पैंट 
पहन कर ही खेल सकती हो।
खेल रुक गया है।
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यह बात तब की है जब बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्य मंत्री थे।
उनका एक बयान जनसत्ता में छपा।
उन्होंने कहा था कि घुसपैठियों के कारण सात जिलों में 
सामान्य प्रशासन चलाना मुश्किल हो गया है।
बाद में उन्होंने उस बयान का खुद ही खंडन कर दिया।
पता चला कि पार्टी हाईकमान
के दबाव में कह दिया कि मैंने वैसा कुछ कहा ही नहीं था।
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कई दशक पहले मांगने पर वाम मोरचा सरकार ने केंद्र
 सरकार को 
सूचित किया था कि 40 लाख अवैध बंगलादेशी पश्चिम 
बंगाल में रह रहे हैं।
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अनुमान लगाइए कि अब 2020 में वह संख्या
 कितनी बढ़ चुकी होगी !!!! 
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4 मार्च 2020

  


सोमवार, 2 मार्च 2020

‘‘जब बांग्लादेश में हिंदू पर हमला होता है तो कोई मुस्लिम ही उन्हें पनाह देता है।
वहीं भारत में किसी मुसलमान पर हमले की स्थिति में हिंदू और
सिख ही उसे बचाने के लिए आगे आते हैं।
मैं आशा करती हूं कि ऐसे उदार लोगों की संख्या बढ़े और यह नफरती लोगों के आंकड़ों को पार कर जाए।’’
  ---तसलीमा नसरीन
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‘‘सी. ए. ए. में मुसलमानों को न जोड़ने को लेकर सवाल उठाने वाले पाकिस्तानियों से पूछना चाहता हूं कि क्या वे चाहते हैं कि मुसलमान पाकिस्तान छोड़ दें ?
अगर ऐसा है तो फिर पाक का वजूद और उसका मकसद ही खत्म हो
जाएगा।
 दूसरा सवाल यही कि अगर भारतीय मुसलमानों की इतनी फिक्र है तो क्या उनके लिए अपनी सीमाएं खोल दोगे ?’’
        --अदनान सामी 
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