जांच एजेंसियों को मिलें और अधिकार
सुरेंद्र किशोर
यदि नार्को टेस्ट की अनुमति आसानी से मिले तो
न सिर्फ भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में ,बल्कि अन्य
अपराधों में भी सजा का प्रतिशत बढ़ेगा
...............................................
दिल्ली दंगों पर संसद में चर्चा का जवाब देते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट किया कि इन दंगों के दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा।
देश भी यह उम्मीद करता है।
लेकिन, किसी भी तरह के अपराध में शामिल लोगों को उनके किए की सजा देने के लिए यह आवश्यक है कि जांच एजेंसियों को सामान्य अपराधों में भी नार्को इत्यादि टेस्ट कराने
की छूट मिले।
इससे सजा का प्रतिशत बढ़ सकता है।
अभी सिर्फ अदालती अनुमति से ही ऐसी जांच संभव है।
ऐसे में जरुरी नहीं कि जांच एजेंसी को जिस आरोपी के नार्को टेस्ट की जरुरत लगे,उसकी आवश्यकता अदालत भी समझे।
सजा का प्रतिशत बढ़ने से हर तरह के अपराधों की संख्या घटेगी।
जिस देश में आम अपराधों में औसतन 46 प्रतिशत आरोपितों को ही सजा मिल पाती है,वहां अपराधियों में
भला कितना भय रहेगा !
वे समझते हैं कि किसी न किसी तरकीब से सजा से बच जाएंगे।
कई बच भी जाते हैं।
अभी तो सजा का प्रतिशत दयनीय है।
साधारण अपराध के मामलों में भारत में 54 प्रतिशत आरोपित सजा से बच जाते हंै।
दूसरी ओर, जापान में 99 प्रतिशत,कनाडा में 97 , अमरीका और इजरायल में 93 प्रतिशत आरोपित कोर्ट से सजा पा जाते हंै।
भारत में अधिकांश आरोपितों के बच निकलने के कारण वे जेल से निकल कर दोबारा अपराधों में लिप्त हो जाते हैं।
यदि किसी राज्य में हत्या के अधिकांश अभियुक्तों को सजा न हो पाती है तो वहां हत्याओं पर काबू कैसे
पाया जा सकता है ?
सजा के डर से किस तरह अपराधियों के हाथ रुक जाते हैं,उसका उदाहरण उत्तर प्रदेश ने पेश किया है।
राज्य सरकार ने दंगों में तोड़फोड़ करने वालों से वसूली की प्रक्रिया शुरू की।
नतीजतन दंगे और संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटनाओं में वहां कमी आने की उम्मीद है।
जहां तक नार्को टेस्ट की उपयोगिता का सवाल है,तो इससे जुड़ी तमाम मिसालें हैं।
जैसे समझौता एक्सप्रेस विस्फोट के मामले को ही लें।
उसमें आरोपित और सिमी के मुखिया सफदर नागोरी का जब नार्को टेस्ट हुआ तो पता चला कि उसके पीछे पाकिस्तान का हाथ था।
इसी तरह भ्र्रष्टाचार के बड़े मामलों में यदि नार्को टेस्ट कराने की अनिवार्यता हो जाए तो भ्रष्टाचारियों की चोरी-छिपे मदद करने वालों को भी कानून की गिरफ्त में लिया जा सकेगा।
अन्य अनेक सबूत भी मिल सकते हैं जो सामान्य जांच में आम तौर पर नहीं मिल पाते हैं।
अभी तो ऐसे बड़े मामलों में कई
बार छोटे अपराधी सजा पा जाते हैं और उनके मददगार बच निकलते हैं।
साम्प्रदायिक दंगों के मामलों में तो सजा दिलाना और ज्यादा जरुरी है ,क्योंकि दंगाइयों के बच निकलने से देश को कई तरह से नुकसान होता है।
जिस टेस्ट के जरिए बड़ी -बड़ी घटनाओं की तह तक पहुंचा जा सकता है,आश्चर्य है कि उस टेस्ट की अनुमति अभी अदालत ही दे सकती है।
बेहतर यही होगा कि ऐसी स्थिति बने कि पुलिस तथा अन्य जांच एजेंसियां इसे अपने स्तर पर अंजाम दे सके।
इसके लिए संसद पहल कर सकती है।
यदि ऐसी छूट मिली तो न सिर्फ भ्रष्टाचार के मामलों में,बल्कि अन्य अपराधों में सजा का प्रतिशत बढ़ेगा।
इससे सार्वजनिक जीवन में शुचिता और कानून एवं व्यवस्था की स्थिति में सुधार होगा।
नार्को टेस्ट पर यदि सुप्रीम कोर्ट अपना पिछला निर्णय ही बदले तो आपराधिक न्याय -व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सकता है।
इसके लिए केंद्र शीर्ष अदालत से पुनर्विचार के लिए अनुरोध कर सकता है।
यह देखा गया है कि जिन मुकदमों की
जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एन.आई.ए.करती है,उनमें सजा की दर का स्तर फिर भी संतोषजनक है।
ऐसा इसलिए क्योंकि उन मामलों में नार्को आदि टेस्ट की अनुमति आसानी से मिल जाती है।
परंतु सामान्य अपराध के मामलों में ऐसा नहीं होता।
हत्या के मामलों में अधिकतर आरोपियों का छूट जाना चिंता की बात बनी हुई है।
22 मई, 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि
‘‘आरोपित या फिर संबंधित व्यक्ति की सहमति से ही उसका नार्को एनालिसिस टेस्ट हो सकता है।
किसी की इच्छा के खिलाफ ब्रेन मैपिंग भी नहीं हो सकती।
पाॅलीग्राफ टेस्ट के बारे में भी यही बात लागू होगी।’’
यदि सुप्रीम कोर्ट 2010 का अपना यह निर्णय बदलने को तैयार नहीं तो इस संबंध में संसद कानून बनाए।
ऐसा कानून, जिसके तहत जांच एजेंसी जरुरत समझने पर किसी भी आरोपित का नार्को आदि टेस्ट करवा सके।
उसे कोर्ट भी साक्ष्य के रूप में स्वीकारे।
याद रहे कि ऐसी जांच के अभाव में न जाने कितने अपराधी सजा से बच जाते हैं।
यह अच्छी बात है कि बिहार सरकार ने पिछले दिनों गवाहों की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाने की घोषणा की है,मगर वही काफी नहीं है।
जांच का तरीका भी बदलने की जरुरत है।
क्योंकि अपराध के तरीके भी समय के साथ बदलते जा रहे हैं।
1960 के दशक तक भारत में 65 प्रतिशत आरोपितों को सजा मिल जाती थी।
परंतु 1970 के दशक से राजनीति और प्रशासन में जो गिरावट शुरू हुई,उसका सीधा असर आपराधिक न्याय -व्यवस्था पर पड़ा।
इसका ही नतीजा है कि आज दुष्कर्म के मामलों में सौ आरोपितों में से औसतन 73 बच निकलते हैं।सौ में से
64 हत्यारे सजा से बच जाते हैं।
सामान्य अपराधों में केवल 46 प्रतिशत सजा पाते हैं।
बिहार में सामान्य अपराध के आरोपितों में से 90 प्रतिशत
को सजा नहीं होती तो बंगाल में मात्र 11 प्रतिशत को सजा हो पाती है।
इससे स्थिति की भयावहता का अंदाजा लग सकता है।
आखिर कौन अपराधी चाहेगा कि उसकी ऐसी वैज्ञानिक जांच हो जिससे उसका अपराध पकड़ में आ जाए ?
इसलिए किसी अपराधी से यह उम्मीद करना बेमानी ही होगा कि वह खुशी- खुशी ऐसी जांच के लिए राजी हो जाएगा।कुछ
साल पहले एक दोहरा हत्याकांड देश भर में चर्चित हुआ था।
आरोपित की पहचान भी हो चुकी थी,पर उसने सी.बी.आई. को डी.एन.ए.जांच के लिए खून का नमूना देने से इनकार कर दिया था।
नतीजतन वह बच निकला।
याद रहे कि ऐसी जांच के अभाव में न जाने कितने खूंखार अपराधी और देशद्रोही आए दिन सजा से बच जा रहे हैं।
सभी गवाहों को सरकार की ओर से सुरक्षा मिलना शायद व्यावहारिक रूप से संभव न हो,पर नार्को टेस्ट तो संभव है।
--लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं।
------------
दैनिक जागरण-18 मार्च 2020
सुरेंद्र किशोर
यदि नार्को टेस्ट की अनुमति आसानी से मिले तो
न सिर्फ भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में ,बल्कि अन्य
अपराधों में भी सजा का प्रतिशत बढ़ेगा
...............................................
दिल्ली दंगों पर संसद में चर्चा का जवाब देते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट किया कि इन दंगों के दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा।
देश भी यह उम्मीद करता है।
लेकिन, किसी भी तरह के अपराध में शामिल लोगों को उनके किए की सजा देने के लिए यह आवश्यक है कि जांच एजेंसियों को सामान्य अपराधों में भी नार्को इत्यादि टेस्ट कराने
की छूट मिले।
इससे सजा का प्रतिशत बढ़ सकता है।
अभी सिर्फ अदालती अनुमति से ही ऐसी जांच संभव है।
ऐसे में जरुरी नहीं कि जांच एजेंसी को जिस आरोपी के नार्को टेस्ट की जरुरत लगे,उसकी आवश्यकता अदालत भी समझे।
सजा का प्रतिशत बढ़ने से हर तरह के अपराधों की संख्या घटेगी।
जिस देश में आम अपराधों में औसतन 46 प्रतिशत आरोपितों को ही सजा मिल पाती है,वहां अपराधियों में
भला कितना भय रहेगा !
वे समझते हैं कि किसी न किसी तरकीब से सजा से बच जाएंगे।
कई बच भी जाते हैं।
अभी तो सजा का प्रतिशत दयनीय है।
साधारण अपराध के मामलों में भारत में 54 प्रतिशत आरोपित सजा से बच जाते हंै।
दूसरी ओर, जापान में 99 प्रतिशत,कनाडा में 97 , अमरीका और इजरायल में 93 प्रतिशत आरोपित कोर्ट से सजा पा जाते हंै।
भारत में अधिकांश आरोपितों के बच निकलने के कारण वे जेल से निकल कर दोबारा अपराधों में लिप्त हो जाते हैं।
यदि किसी राज्य में हत्या के अधिकांश अभियुक्तों को सजा न हो पाती है तो वहां हत्याओं पर काबू कैसे
पाया जा सकता है ?
सजा के डर से किस तरह अपराधियों के हाथ रुक जाते हैं,उसका उदाहरण उत्तर प्रदेश ने पेश किया है।
राज्य सरकार ने दंगों में तोड़फोड़ करने वालों से वसूली की प्रक्रिया शुरू की।
नतीजतन दंगे और संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटनाओं में वहां कमी आने की उम्मीद है।
जहां तक नार्को टेस्ट की उपयोगिता का सवाल है,तो इससे जुड़ी तमाम मिसालें हैं।
जैसे समझौता एक्सप्रेस विस्फोट के मामले को ही लें।
उसमें आरोपित और सिमी के मुखिया सफदर नागोरी का जब नार्को टेस्ट हुआ तो पता चला कि उसके पीछे पाकिस्तान का हाथ था।
इसी तरह भ्र्रष्टाचार के बड़े मामलों में यदि नार्को टेस्ट कराने की अनिवार्यता हो जाए तो भ्रष्टाचारियों की चोरी-छिपे मदद करने वालों को भी कानून की गिरफ्त में लिया जा सकेगा।
अन्य अनेक सबूत भी मिल सकते हैं जो सामान्य जांच में आम तौर पर नहीं मिल पाते हैं।
अभी तो ऐसे बड़े मामलों में कई
बार छोटे अपराधी सजा पा जाते हैं और उनके मददगार बच निकलते हैं।
साम्प्रदायिक दंगों के मामलों में तो सजा दिलाना और ज्यादा जरुरी है ,क्योंकि दंगाइयों के बच निकलने से देश को कई तरह से नुकसान होता है।
जिस टेस्ट के जरिए बड़ी -बड़ी घटनाओं की तह तक पहुंचा जा सकता है,आश्चर्य है कि उस टेस्ट की अनुमति अभी अदालत ही दे सकती है।
बेहतर यही होगा कि ऐसी स्थिति बने कि पुलिस तथा अन्य जांच एजेंसियां इसे अपने स्तर पर अंजाम दे सके।
इसके लिए संसद पहल कर सकती है।
यदि ऐसी छूट मिली तो न सिर्फ भ्रष्टाचार के मामलों में,बल्कि अन्य अपराधों में सजा का प्रतिशत बढ़ेगा।
इससे सार्वजनिक जीवन में शुचिता और कानून एवं व्यवस्था की स्थिति में सुधार होगा।
नार्को टेस्ट पर यदि सुप्रीम कोर्ट अपना पिछला निर्णय ही बदले तो आपराधिक न्याय -व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सकता है।
इसके लिए केंद्र शीर्ष अदालत से पुनर्विचार के लिए अनुरोध कर सकता है।
यह देखा गया है कि जिन मुकदमों की
जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एन.आई.ए.करती है,उनमें सजा की दर का स्तर फिर भी संतोषजनक है।
ऐसा इसलिए क्योंकि उन मामलों में नार्को आदि टेस्ट की अनुमति आसानी से मिल जाती है।
परंतु सामान्य अपराध के मामलों में ऐसा नहीं होता।
हत्या के मामलों में अधिकतर आरोपियों का छूट जाना चिंता की बात बनी हुई है।
22 मई, 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि
‘‘आरोपित या फिर संबंधित व्यक्ति की सहमति से ही उसका नार्को एनालिसिस टेस्ट हो सकता है।
किसी की इच्छा के खिलाफ ब्रेन मैपिंग भी नहीं हो सकती।
पाॅलीग्राफ टेस्ट के बारे में भी यही बात लागू होगी।’’
यदि सुप्रीम कोर्ट 2010 का अपना यह निर्णय बदलने को तैयार नहीं तो इस संबंध में संसद कानून बनाए।
ऐसा कानून, जिसके तहत जांच एजेंसी जरुरत समझने पर किसी भी आरोपित का नार्को आदि टेस्ट करवा सके।
उसे कोर्ट भी साक्ष्य के रूप में स्वीकारे।
याद रहे कि ऐसी जांच के अभाव में न जाने कितने अपराधी सजा से बच जाते हैं।
यह अच्छी बात है कि बिहार सरकार ने पिछले दिनों गवाहों की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाने की घोषणा की है,मगर वही काफी नहीं है।
जांच का तरीका भी बदलने की जरुरत है।
क्योंकि अपराध के तरीके भी समय के साथ बदलते जा रहे हैं।
1960 के दशक तक भारत में 65 प्रतिशत आरोपितों को सजा मिल जाती थी।
परंतु 1970 के दशक से राजनीति और प्रशासन में जो गिरावट शुरू हुई,उसका सीधा असर आपराधिक न्याय -व्यवस्था पर पड़ा।
इसका ही नतीजा है कि आज दुष्कर्म के मामलों में सौ आरोपितों में से औसतन 73 बच निकलते हैं।सौ में से
64 हत्यारे सजा से बच जाते हैं।
सामान्य अपराधों में केवल 46 प्रतिशत सजा पाते हैं।
बिहार में सामान्य अपराध के आरोपितों में से 90 प्रतिशत
को सजा नहीं होती तो बंगाल में मात्र 11 प्रतिशत को सजा हो पाती है।
इससे स्थिति की भयावहता का अंदाजा लग सकता है।
आखिर कौन अपराधी चाहेगा कि उसकी ऐसी वैज्ञानिक जांच हो जिससे उसका अपराध पकड़ में आ जाए ?
इसलिए किसी अपराधी से यह उम्मीद करना बेमानी ही होगा कि वह खुशी- खुशी ऐसी जांच के लिए राजी हो जाएगा।कुछ
साल पहले एक दोहरा हत्याकांड देश भर में चर्चित हुआ था।
आरोपित की पहचान भी हो चुकी थी,पर उसने सी.बी.आई. को डी.एन.ए.जांच के लिए खून का नमूना देने से इनकार कर दिया था।
नतीजतन वह बच निकला।
याद रहे कि ऐसी जांच के अभाव में न जाने कितने खूंखार अपराधी और देशद्रोही आए दिन सजा से बच जा रहे हैं।
सभी गवाहों को सरकार की ओर से सुरक्षा मिलना शायद व्यावहारिक रूप से संभव न हो,पर नार्को टेस्ट तो संभव है।
--लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं।
------------
दैनिक जागरण-18 मार्च 2020
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें