शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

    बिहार की सत्ता के समीकरण 

        -- सुरेंद्र किशोर --

    बिहार के आगामी विधान सभा चुनाव के नतीजों को लेकर

अटकलों का बाजार अभी से गर्म है।

तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं,पर, राज्य के चुनावी राजनीतिक गणित को समझने वालों के लिए यह कोई पहेली नहीं है।

   पिछले कुछ चुनावों के नतीजों से यह साफ है कि राज्य के अधिकतर मतदाता राजनीतिक शक्तियों जदयू, भाजपा और राजद के साथ प्रमुखता से जुड़ चुके हैं।

   इनमें से कोई भी दो दल मिलकर तीसरे को हरा देते हैं।

   सन 2010 के बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा और जदयू ने मिलकर कुल 243 में से 206 सीटें हासिल कर ली थीं तो 2015 के विधान सभा चुनाव में  जदयू और राजद  मिलकर विजयी रहे थे।

  दरअसल असली ताकत जदयू- राजद की ही थी,

लेकिन कांग्रेस ने इस गठबंधन में शामिल होकर 27 सीटें हासिल कर लीं।

  आगामी चुनाव में जदयू,भाजपा और लोजपा साथ-साथ रहेंगेे,इसकी संभावना है।

ऐसी स्थिति में राजद के लिए कोई संभावना नहीं बनती प्रतीत हो रही है।

  2010 के विधान सभा चुनाव में राजद और लोजपा ने साथ

मिलकर चुनाव लड़ा था।

दोनों को मिलाकर विधान सभा की मात्र 25 सीटें ही मिल पाई थीं।

   हां, लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी तत्व अधिक प्रभावकारी रहता है।

2014 के लोक सभा चुनाव में जदयू भाजपा के साथ नहीं था।

इसके बावजूद राजग को बढ़त मिली।

  2019 के लोक सभा चुनाव में तो भाजपा-जदयू-लोजपा ने मिलकर बिहार में कमाल ही कर दिया।

मुस्लिम बहुल क्षेत्र किशनगंज को छोड़कर बाकी सभी 39 सीटें 

राजग को मिल र्गइं।

उसी मोदी लहर की पृष्ठभूमि में बिहार विधान सभा का अगला आम चुनाव होने जा रहा है।

राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश बिहार में राष्ट्रीय स्तर की घटनाओं का भी असर पड़ता रहता है।

हाल के महीनों में इस तरह की कुछ ऐसी बड़ी घटनाएं हुई हैं जिनका श्रेय नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार  को मिला है।

  राम विलास पासवान ने लोजपा की कमान  पुत्र चिराग पासवान को सौंप दी है।

उन्हें भाजपा से तो नहीं किंतु मुख्य मंत्री नीतीश कुमार से कई शिकायतें हैं।

  चिराग के ऐसे  बयान आते रहते हैं जिनसे लगता है कि शायद उनकी पार्टी राजग से अलग हो जाएगी।

लेकिन लगता यही है कि विधान सभा की अधिकाधिक सीटों पर लड़ने के लिए लोजपा का नया नेतृत्व दबाव बना रहा है।

नीतीश विरोधी बयान उसी रणनीति का हिस्सा है।

 अंततः क्या होगा,यह तो आने वाले कुछ सप्ताह बताएंगे,पर यदि महत्वाकांक्षी लोजपा राजग से अलग भी हो जाए तो 

उसका कोई खास असर नतीजे पर नहीं पड़ेगा।

   लोजपा के विकल्प के जुगाड़ में भी बिहार राजग का नेतृत्व लगा हुआ है।

  असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ए.आई.एम.आई.एम. भी राजग को चुनावी लाभ पहंुचा सकती है।

  गत लोक सभा चुनाव में किशनगंज में भले कांग्रेस उम्मीदवार की जीत हुई,फिर भी ओवैसी की पार्टी  के उम्मीदवार को 2 लाख 95 हजार वोट मिल गए।

 2019 में हुए किशनगंज विधान सभा उप चुनाव में ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार की जीत हो गई।

इससे  ए.आई.एम.आई.एम. का मनोबल बढ़ गया है।

ओवैसी ने  देश में  अपनी पार्टी के फैलाव की महत्वाकांक्षी योजना बना रखी है।

   बिहार विधान सभा चुनाव में उनके दल ने 32 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने का निर्णय किया है।

जाहिर है कि वे 32 सीटें वैसी होंगी जहां मुसलमानों की अच्छी -खासी आबादी है।

  मुख्यतः एम.-वाई. यानी मुस्लिम-यादव वोट समीकरण पर निर्भर राजद की राह में ओवैसी का दल रोड़ा बनने वाला  हैं।

 इसका  सीधा लाभ राजग को मिलेगा।

    वैसे तो बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने अपनी पिछली गलतियों के लिए मतदाताओं से सार्वजनिक रूप से माफी मांगी है,

किंतु राजद ने सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण के

विधेयक का जो विरोध कर दिया था ,उसके लिए उन्होंने कोई माफी नहीं मांगी है।

इस विरोध के कारण  गत लोक सभा चुनाव में राजद के कम से कम दो जीतने योग्य सवर्ण उम्मीदवार  हार गए थे।

   अब सवाल है कि विधान सभा चुनाव में अपवादों को छोड़कर सवर्ण मतदाताओं के मत राजद को

 कैसे मिल पाएंगे ?

 राजद के समक्ष यह एक बड़ी चुनौती है।

 बीते दिनों  राजद से जुड़े  विधान परिषद के पांच सदस्य जदयू में शामिल हो गए।

 छह बिहार विधान सभा सदस्यों ने भी राजद छोड़कर 

जदयू का दामन थाम लिया।

  आश्चर्यजनक रूप से छह में तीन यादव थे ।

 राजद छोड़ने वाले 5 एम.एल.सी. में भी यादव व मुस्लिम शामिल थे ।

     इतने कम समय में इतनी बड़ी संख्या में विधायकों के राजद छोड़ने का हाल के वर्षों में एक रिकाॅर्ड है।

  अब सवाल है कि ये विधायक राजद में अपना राजनीतिक भविष्य क्यों नहीं देख पा रहे थे ?

क्या उन्होंने हवा का रुख पहचान लिया है ?

    अपने चुनावी भविष्य के प्रति चिंतित कांग्रेस व राजद के विधायकों में से कुछ अन्य विधायक भी आने वाले दिनों में दल छोड़ दें तो कोई अचम्भे की बात नहीं होगी।

    कोरोना काल में हो रहे चुनाव में अधिक से अधिक मतदाताओं को मतदान केंद्रों पर पहुंचाना भी राजनीतिक दलों के लिए एक चुनौती होगी।

ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि  अल्पसंख्यक और यादव मतदाता पहले की अपेक्षा अधिक उत्साह से मतदान केंद्रों पर पहुंचेंगे,

 किंतु राजग के मतदाता खासकर शहरी मतदाता आलस्य व ‘कोरोना ग्रंथि’ के शिकार हो सकते हैं।

  वैसे चुनावी मुकाबले में राजद जब- जब अपनी 

 अधिक ताकत दिखाने लगता है,तब -तब  लालू विरोधी मतदाता भी  सक्रिय हो जाते हैं।

याद रहे कि लालू प्रसाद का परंपरागत यादव -मुस्लिम वोट 

अपवादों को छोड़कर राजद के साथ हैं।

पर साथ ही 15 साल का ‘जंगल राज’ झेल चुके लालू विरोधी

मतदाताआंे में इस बार भी उत्साह की कमी नहीं होगी,ऐसी उम्मीद राजग जाहिर कर रहा है।

  आगामी विधान सभा चुनाव में राजग का पलड़ा भारी जरूर नजर आ रहा है,पर कई कारणों से बिहार का यह चुनाव पहले की तरह ही दिलचस्प और तनावपूर्ण रहेगा, भले पहले की तरह हिंसक न हो।

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दैनिक जागरण-1 सितंबर 2020


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