कल्पना कीजिए उस दिन की जब
देश की विधायिकाएं वंशजों-परिजनों
से भर जाएंगी
आज के लोकतंत्र का कोई ‘महाराजा’ प्रधान मंत्री
और ‘राजा’ मुख्य मंत्री बन जाएगा !
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--सुरेंद्र किशोर-
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और कितने दशक लगेंगे ?
कब तक बिहार विधान सभा की सभी 243 सीटों पर
वंशवादी-परिवारवादी नेताओं के वंशज काबिज हो जाएंगे ?
कितने दशकों में लोक सभा की सभी 543 सीटों का भी यही हश्र होगा ?
अनुमान लगा लीजिए।
रफ्तार देख लीजिए।
मोतीलाल नेहरू परलोक में इस बात पर खुश होंगे कि उन्होंने जो काम 1928 में शरू किया,उसे कांग्रेस तथा अन्य दलों के नेतागण तेजी से तार्किक परिणति तक पहुंचा रहे हैं।
यह तो तथ्य है कि शुरू मोतीलाल जी ने किया और उसे संस्थागत रूप जवाहरलाल जी ने दिया।
इस संबंध में ‘जनसत्ता’ में 2012 में प्रकाशित लखनऊ के चर्चित पत्रकार के.विक्रम राव की चिट्ठी की स्कैन काॅपी प्रस्तुत है।
साथ ही, टाइम्स आॅफ इंडिया में प्रकाशित एक रपट भी।
उस रपट में इस बात का जिक्र है कि मोतीलाल नेहरू ने महात्मा गांधी पर किस तरह भारी दबाव डाल कर किस तरह 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया था।
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पहले के अधिकतर नेता अपने वंशज-परिजन को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने के पक्ष में नहीं थे।
बिहार में डा.श्रीकृष्ण सिंह और कर्पूरी ठाकुर इसके उदाहरण हैं।
पर बाद के वर्षों में पुत्र के दबाव में पिता आने लगे।
हालांकि बिहार व देश में अब भी कई नेता मौजूद हैं जो अपने परिजन के दबाव में नहीं आ रहे हैं।
पर उनके निधन के बाद क्या होगा ?
उनके परिजन-वंशज को कोई दल विधायिका में पहुंचा देगा।
कई दशक पहले एक बड़े नेता ने तो अपने घर में परिवारवाद को रोकने के क्रम में अपना बलिदान ही दे दिया।
उस आदर्शवादी नेता ने बड़े पुत्र ने कहा कि मुझे विधायिका का सदस्य बनवा दीजिए।
नेता जी राजी नहीं थे।
लोकलाज वाले थे।
इसी क्रम में उनके छोटे पुत्र ने कहा कि उसे नहीं, मुझे बनाइए।
इस पर दोनों भाइयों में मारपीट होने लगी।
पिता ने झगड़ा छुड़ाने की कोशिश की।
इस क्रम में शरीर व मन पर जो दबाव पड़ा,उसे वे झेल नहीं सके।
हार्ट अटैक हो गया।
वे गुजर गए।
आज के अनेक नेता वैसी नौबत नहीं आने देना चाहते।
इसलिए वे जल्द से जल्द अपने परिजन को विधायिका में प्रवेश करा देना चाहते हैं।
चूंकि इस देश के लोकतंत्र के आधुनिक राजे-महाराजे भी अपना पाप छिपाने के लिए वही चाहते हैं,इसलिए विधायिकाओं में वंशवाद की भरमार होती जा जा रही है।
चिंताजनक बात यह है कि जो दलीय सुप्रीमो खुद वंशवादी नहीं हैं,वे भी अपने दल में वंशवाद को नहीं रोक पा रहे हैं।
अंततः इसका नतीजा क्या होगा ?
जिस दिन बिहार विधान सभा की 200 से अधिक सीटों और लोक सभा की 500 से अधिक सीटों पर वंशज और परिजन काबिज हो जाएंगे,जिस दिन लोकतंत्र के नए ‘महाराजा’ के परिवार का कोई सदस्य प्रधान मंत्री और कोई ‘राजा’ राज्य में मुख्य मंत्री बन जाएगा,उस दिन इस लोकतंत्र को कौन सा नाम देंगे आप ?
दरअसल सांसद-विधायक फंड इस वंशवाद को बढ़ाने में सहायक है।
फंड के ठेकेदारों ने राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं की जगह ले ली है।
भाड़े की भीड़ का भी प्रबंध होने लगा है।
वह दिन दूर नहीं जब वास्तविक राजनीतिक कार्यकत्र्ता विलुप्त प्राणी हो जाएंगे।
जिस तरह ईमानदार नेता विलुप्त होते जा रहे हैं।
बिहार में करीब 10 साल पहले विधायक फंड समाप्त कर
दिया गया था।
पर विधायकों के भारी दबाव में आकर फिर से शुरू कर दिया गया है।
पता लगाइए कि कितने साल से विधायक फंड के खर्चे का हिसाब नहीं मिल रहा है ?
सांसद फंड के बारे में मोदी सरकार ने हाल में राय शुमारी कराई।
करीब आठ सौ में से मात्र एक दर्जन से भी कम सांसदों ने कहा कि फंड को समाप्त कर दीजिए।
बाकी ने इसकी राशि जारी रखने या बढ़ा देने की सलाह दी।
खबर है कि प्रधान मंत्री अब इस मामले में द्विविधा में हंैे।
जबकि, अन्य मामलों में कहा जाता है और ठीक भी है कि ‘‘मोदी है तो मुमकिन है।’’
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कहां जा रहा है अपना देश ? !!
उन्हें इस पर चिंतन करना चाहिए जिनका कोई स्वार्थ नहीं है और जो अपने वंशजों के आम जीवन में सिर्फ बेहतरी चाहते हैं।
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--सुरेंद्र किशोर-6 अक्तूबर 20
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