अखबारों में छप रही कुछ गलतियां
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चुनाव के समय पिछले चुनावी आंकड़े
व विजयी-पराजित नेताओं के नाम छापने की परंपरा रही है।
पाठकों को यह सब जानने में रूचि भी रहती है।
इस सिलसिले में तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए।
शंका होने पर मूल स्त्रोत पर जाना चाहिए।
वह काम कम ही हो रहा है।
श्रमसाध्य जो है !
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बिहार विधान सभा के पूर्व स्पीकर दिवंगत राधानंदन झा ने एक बहुत
अच्छा काम किया है।
उन्होंने ‘‘ओरिजिन एंड डेवलपमेंट आॅफ बिहार लेजिस्जेचर’’
नाम से एक पुस्तक संपादित की।
उसमें बहुत सारी सूचनाएं हैं।
उसकी काॅपी अब उपलब्ध नहीं है।
पत्रकारों को चाहिए कि वे अगले स्पीकर साहब से आग्रह करके
उसका संशोधित संस्करण छपवाएं।
वह जानकारी का एक मूल स्त्रोत है।
अत्यंत थोड़ी सी गलतियां उसमें भी है।
जिन्हें अगले संस्करण में सुधारा जा सकता है।
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हाल में बिहार के एकाधिक अखबारों ने यह लिख दिया कि सन 1972 में एक भी महिला बिहार विधान सभा चुनाव नहीं जीत सकीं।
जबकि 12 आम चुनाव में व एक उप चुनाव में विजयी हुई थीं।
मुझे लगा कि इस मामले में एक अखबार की गलती दूसरे ने उतार ली।
पहले ने तो भूल सुधार भी छापा।
पर दूसरे ने ?
पता नहीं ।
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एक अखबार ने लिखा कि सत्येंद्र नारायण सिंह ने नबी नगर से विधान सभा का उप चुनाव जीता था।
जबकि सच यह है कि उन्होंने गोपाल गंज से विधान सभा का उप चुनाव 1961 मंें जीता था।
डा.अनुग्रह नारायण सिंह के निधन से जो नबीनगर सीट खाली हुई थी,उसके उप चुनाव में 1957 में पी.एन.सिंह विजयी हुए थे।
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हाल की गलती
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1967 में गोपाल गंज से हरिशंकर सिंह विधायक बने थे न कि सिया बिहारी शरण।
शरण साहब उसी साल मीरगंज से विजयी हुए थे।
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ऐसी गलतियां इसलिए होती हंै क्योंकि हमारे अधिकतर अखबारों के पास कोई संदर्भालय नहीं है।
अनेक लेखक और पत्रकार भी सुनी -सुनाई बातों पर ही अधिक भरोसा करने लगे हैं।
जो व्यक्ति आपको बता रहा है,उसकी स्मरण शक्ति पर तो भरोसा कीजिए ही नहीं,अपनी पर भी नहीं।
मैं भी नहीं करता।
इसीलिए मैंने पिछले 50 साल से तिनका -तिनका जोड़कर
अपना निजी पुस्तकालय-सह संदर्भालय बनाया है।
एक ने हाल में मुझे फोन किया।
कहा कि आपके पास तो बहुत अच्छा संदर्भालय है।
मैं उसका इस्तेमाल करना चाहता हूं।
मैंने उन्हें विनम्र्रतापूर्वक कहा कि वह तो है,पर मैं लाइब्रेरियन नहीं हूं।
मैं खुद चीजें खोज-खोज कर देने लगूंगा तो अपना काम कब और कैसे कर पाऊंगा ?
जीवन छोटा है,काम अधिक।
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यह भी कहा कि आप रोज जो अखबार मंगाते हैं,उसमें से जो सामग्री विश्वसनीय लगे,उसकी कटिंग करके विषयवार लिफाफे में रखते जाइए।
कुछ साल के बाद आपको कुछ बातें तो किसी से पूछनी ही नहीं पड़ेंगी।
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यह सब मेरे लिखने का आशय यह है कि अनेक इतिहास लेखक भी ऐसे ही अखबारों से सूचनाएं उठाते हैं।
वे कई बार धोखा खा जाते हैं।
इस तरह वे अनजाने में अगली पीढियों को भी गलत इतिहास पढ़ाते हैं।
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--सुरेंद्र किशोर-7 अक्तूबर 20
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