रविवार, 4 अक्टूबर 2020

 


 मतदान केंद्रों पर इस बार कम मतदाता जुटने की आशंका निराधार--सुरेंद्र किशोर

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बिहार के विभिन्न हिस्सों से मिल रही सूचनाओं के अनुसार 

सड़कों,बाजारों तथा अन्य जगहों में अब भारी भीड़ देखी जा रही है।

 ऐसे में यह आशंका निर्मूल लग रही है कि मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की इस बार कमी रहेगी।

हां, कुछ दलों ने चुनाव आयोग से यह मांग की है कि वह मतदाताओं को अधिक से अधिक संख्या में मतदान केंद्रों तक पहुंचाने का उपाय करे।

अधिक उम्मीद इसी बात की है कि  आयेाग अपनी वह भूमिका इस बार अधिक गंभीरता से  निभाएगा ।

किंतु राजनीतिक दलों के कार्यकत्र्ताओं की भी जिम्मेदारी इस बार बढ़ी हुई है।वे मतदाताआंे को मतदान केंद्रों तक जाने के लिए प्रेरित करें। 

 संकेत मिल रहे हैं कि जो मतदातागण इस चुनाव को ऐतिहासिक और निर्णायक मानते हैं,वे पहले की तरह इस बार भी मतदान करेंगे ही।

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  कमजोर पंखों से ऊंची उड़ान ?

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कमजोर पंखों से ऊंची उड़ान करने की जिद करने वाले कुछ नेतागण चुनावी मैदान में आए दिन धराशायी होते रहते हैं।

गत लोक सभा चुनाव में बिहार के वैसे ही कुछ नेताओं को हास्यास्पद पराजय का तीखा स्वाद चखना पड़ा था।

लगता है कि अब भी वे उस सदमे से उबर नहीं पाए है।

वैसे ही कुछ अन्य अति महत्वाकांक्षी नेतागण बिहार विधान सभा के इस चुनाव में मुंह की खाएंगे,राजनीतिक प्रेक्षक ऐसा अनुमान लगा रहे हंै।

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   मुख्य मंत्री पद के उम्मीदवार !

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कई साल पहले की बात है।

एक पूर्व केंद्रीय मंत्री से मैंने पूछा कि ‘क्या आप

बिहार में मुख्य मंत्री पद के उम्मीदवार हैं ?’

उन्होंने कहा कि ‘कत्तई नहीं।’

‘फिर आपकी पार्टी ऐसा प्रचार क्यों कर रही है ?’

मेरा दूसरा  सवाल था।

उन्हांेने कहा कि ‘‘मेरे बारे में जब यह प्रचार होगा कि मैं मुख्य मंत्री का उम्मीदवार हूं,तभी  मेरे ‘खास वोटर’ अधिक  उत्साह से हमारे उम्मीदवारों को वोट देंगे।’’

  बिहार विधान सभा के मौजूदा चुनाव में भी शायद इसी रणनीति के तहत कुछ नेता मुख्य मंत्री पद के उम्मीदवार बताए जा रहे हैं ।

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एक सलाह जो शायद ही मानी जाए !

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विधायिकाओं में पांच प्रतिशत सीटें ऐसे लोगों के लिए रिजर्व 

होनी चाहिए जिन्होंने इस देश का संविधान ध्यान से पढ़ा हो।

जिन्होंने  विधायिकाओं की कार्य संचालन नियमावली का अध्ययन किया हो।

जो  स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास जानते हांे।

जिन्होंने विभिन्न विचारधाराओं के राष्ट्रीय नेताओं की जीवनियां पढ़ी हों।

जिन्हें देश के मुख्य कानूनों का मोटा-मोटी ज्ञान हो।

ऐसा नहीं कि ऐसे जानकार लोग खोजने पर आज नहीं मिलेंगे।

हां,उनकी तलाश राजनीतिक क्षेत्र से बाहर भी करनी पड़ेगी।

यह सब मैं क्यों कह रहा हूं ,वह बात तो समझ में आ ही गई होगी।

  यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि संसद और विधान मंडलों में अभी ऐसे जानकार लोग नहीं हैं।

अब भी हैं।

पर उनकी संख्या बढ़नी चाहिए। 

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  सड़कों पर टहलना जानलेवा !

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गत सोमवार को कन्हैया पांडेय पटना के दीघा-एम्स एलिवेटेड रोड पर टहल रहे थे।

मोटर साइकिल पर स्टंट कर रहे युवकों ने उन्हें टक्कर मार दी।

वे बुरी तरह घायल हो गए।

अंततः वे बच नहीं सके।

कई साल पहले भागल पुर में बिहार विधान सभा के पूर्व

स्पीकर प्रो. शिवचंद्र झा भी इसी तरह उदंड मोटर साइकिल चालक के शिकार हो गए थे।

  वे सड़क पर टहल रहे थे।

इस तरह की घटनाएं आए दिन होती रहती हैं।

  दरअसल नगरों और महा नगरों में टहलने की जगहों का नितांत अभाव होता जा रहा है।

  लोगबाग सड़कांे पर टहलने को मजबूर हैं।

पार्कों की संख्या सीमित हैं।

बड़े पार्क और मैदान हैं भी तो अधिकतर लोगों के आवासों से दूर हंै।

  पटना के आसपास अनेक बस्तियां विकसित हो रही हैं।

अपवादों को छोड़कर कोई ‘डेवलपर’ पार्क के लिए जगह नहीं छोड़ता।

अपने नक्शे में भले डेवलपर पार्क का स्थान ग्राहकों को दिखा देता है।

किंतु अंततः वे पार्क की जमीन भी बेच देते हैं।

   सरकारी एजेंसी यदि इस मामले में डेवलपर्स पर नकेल कसे तो भविष्य में कन्हैया पांडेय जैसे लोगों की जानें बचाई जा सकती हैं।

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भूली बिसरी याद

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सन 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान 

प्रमुख नेताओं की कुछ उक्तियां यहां प्रस्तुत हैं।

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने दरभंगा में कहा कि आतंक के तार महा स्वार्थ बंधन के नेताओं के घर तक पहुंचने लगे थे।

प्रधान मंत्री पुणे-मुम्बई धमाकों के सिलसिलमें में दरभंगा माॅड्यूल का जिक्र कर रहे थे।   

कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि आपलोग मोदी जी से कहें कि जाएं और दिल्ली में काम देखें।

  राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने कहा कि बिहार में अगर जंगल राज है तो मोदी नहीं, लालू यहां का शेर है।

जंगल में एक ही शेर रहता है।मोदी को लालू के जंगल में नहीं आना चाहिए।

मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि हमने तो 10 साल का हिसाब दे दिया है।मोदी जी 17 महीनों का हिसाब दें।

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     और अंत में

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 कुछ दलों व नेताओं को उम्मीदवारों से ‘चंदे’ की अच्छी-खासी राशि मिलती रही है।इस बार भी मिल रही है।

वह राशि राजनीतिक,चुनावी और गैर -राजनीतिक खर्चों के लिए इन दिनों कुछ अधिक ही उपयोगी साबित हो रही है।

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कानोंकान,प्रभात खबर,पटना,2 अक्तूबर 20


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