कानोंकान
सुरेंद्र किशोर
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दोहरे शासन की समाप्ति के बिना विश्व विद्यालयों में सुधार कठिन
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बिहार के विश्व विद्यालयों में शिक्षा-परीक्षा की हालत दयनीय है।
इसके लिए राज्य सरकार, राज भवन को और राज भवन राज्य सरकार को जिम्मेवार मानता रहा है।
चूंकि विश्व विद्यालयों पर द्वैध शासन है ,इसलिए एक दूसरे पर जिम्मेदारी थोपना आसान हो गया है।
ऐसे में अब यह जरूरी हो गया है कि विश्व विद्यालयों की पूरी जिम्मेदारी, संबंधित कानून में संशोधन करके, बिहार सरकार खुद अपने हाथों में ले ले।
राजनीतिक कार्यपालिका के लोग चुनाव लड़ते हैं,जनता के पास उन्हें जाना पड़ता है।उनसे मतदातागण सवाल पूछते हैं कि शिक्षा क्यों चैपट होती जा रही है ?
इस देश के कुछ राज्यों में वहां की राज्य सरकारों ने राज्यपालों को, कुलाधिपति के पद से मुक्त कर दिया है।शायद ऐसा करने का उनका उद्देश्य अलग है।
पर,यहां तो शिक्षा-परीक्षा को पटरी पर लाने की समस्या है।
लालजी टंडन जब बिहार के राज्यपाल थे तो मीडिया से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था कि
‘‘विश्व विद्यालय ठीक से चलें,यह अधिकार और जिम्मेदारी मेरे पास हैं।’’
पर, उससे पहले के पहले के राज्यपाल देवानंद कुंवर के कार्यकाल में एक शर्मनाक घटना हो गई थी।
जब कुंवर जी बिहार विधान मंडल के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित कर रहे थे तो कांग्रेस की ही विधान पार्षद श्रीमती ज्योति ने अपनी ऊंची आवाज में सदन में ही राज्यपाल से पूछ दिया कि ‘‘आजकल आपके यहां वी.सी.बहाली का क्या रेट चल रहा है ?’’
एक अन्य मामले में जब राज्य सरकार ने एक भ्रष्ट वी.सी.के खिलाफ कार्रवाई की तो राज भवन ने राज्य सरकार को लिख दिया कि आपने हमारी अनुमति के बिना उस वी.सी.के खिलाफ कार्रवाई क्यों की ?
दशकों पहले इस देश में जब राज्यपालों को विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति बनाने का निर्णय हुआ था तो इस बात की कल्पना तक नहीं थी कि कोई व्यक्ति, किसी राज्यपाल से पूछेगा कि ‘‘क्या रेट चल रहा है।’’
अब समय आ गया है कि राज्य सरकार खुद विश्व विद्यालयों की जिम्मेदारी ले अन्यथा बिहार की शिक्षा देर-सबेर पूरी तरह चैपट हो जाएगी।
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समझ में आने वाला अनुवाद
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सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड़ ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की प्रतियां शीघ्र ही हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय
भाषाओं में मिलेंगी।
यह सराहनीय व उपयोगी कदम है।
किंतु इस सिलसिले में एक खास बात पर ध्यान रखने की जरूरत पड़ेगी।
वह यह कि अनुवाद इतना सरल हो जो आसानी से समझ में आ जाए।
यहां यह इसलिए कहा जा रहा है कि भारतीय संविधान का हिन्दी अनुवाद सरल भाषा में नहीं हो सका है।
कानून की किताबों के अनुवाद भी ऐसे जटिल हैं कि उन्हें समझ पाना कठिन होता है।
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भूली-बिसरी याद
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सन 1973 में इलाहाबाद नगर महा पालिका ने डा.राम मनोहर लोहिया की आदमकद प्रतिमा स्थापित कर दी।
पूर्व मुुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर को अनावरण के लिए आमंत्रित किया गया था।
कर्पूरी जी वहां जाने ही वाले थे।
किंतु उस बीच उत्तर प्रदेश के कुछ लोहियावादियों ने, जिन्होंने डा.लोहिया के साथ काम किया था,कर्पूरी जी से अपील की कि आप यह काम मत कीजिए।
क्योंकि यह काम खुद डा.लोहिया की इच्छा के खिलाफ है।
डा.लोहिया ने कहा था कि किसी व्यक्ति की मूर्ति या उसके नाम पर स्मारक स्थापित करने का काम उसके निधन के तीन सौ साल बाद ही होना चाहिए।
तब तक उस व्यक्ति के बारे में आम लोग पूर्वाग्रह रहित होकर इस नतीजे तक पहुंच चुके होते हैं कि उस व्यक्ति का वास्तविक योगदान क्या था।
निधन के तत्काल बाद तो ख्याति से लोगबाग मोहित रहते हैं।समय बीतने के बहुत बाद यह तय हो पाता है कि उसकी ख्याति क्षणिक थी या स्थायी।उसका वास्तविक योगदान क्या था ?
याद रहे कि डा.लोहिया की मृत्यु सन 1967 में हुई थी।
डा.लोहिया की मूर्ति की स्थापना का विरोध करने वालों को यह नहीं पता था कि मूर्ति की स्थापना में लगे नेता व अन्य लोग लोहिया को उनकी मूर्ति तक ही सीमित कर देना चाहते थे।क्योंकि लोहिया की जीवन शैली,नीतियों और कार्य शैली का अनुकरण करना तो उनके वश में नहीं था।
ऐसे में कम से कम वे मूर्ति स्थपित करके उनको याद करने की औपचारिकता पूरी कर रहे थे।याद रहे कि विरोध के कारण कर्पूरी ठाकुर मूर्ति का अनावरण करने इलाहाबाद नहीं गए थे।
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और अंत में
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बिहार में करीब आठ साल पहले जैविक खेती की शुरूआत हुई थी।
अब तो ऐसी खेती का काफी विस्तार हुआ है।
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने अब मोटे अनाज के उत्पादन पर भी जोर दिया है।मोटे अनाज को सुपर फूड कहा जाता है।
पर,जैविक खेती में एक समस्या आ रही है।
व्यावसायिक ढंग से शुद्ध जैविक खेती करने पर उत्पाद काफी महंगा
पड़ता है।
उदाहरणाथर्, एक लीटर शुद्ध जैविक सरसांे तेल की कीमत 389 रुपए है जबकि सामान्य सरसों तेल 225 रुपए प्रति लीटर की दर से बिक रहा है।अन्य उत्पाद की कीमत भी इसी तरह है।
सरकारी सब्सिडी की जरूरत महसूस हो रही है।अन्यथा,ऐसा न हो कि जैविक खेती के प्रति किसानों का उत्साह समय के साथ कम हो जाए।
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