सोमवार, 2 जनवरी 2023

 


विधायिकाओं की बैठकों में शांति बहाल करने की भाजपा करे पहल  

.............................................

सुरेंद्र किशोर

................................

  अलग-अलग की बातचीत में हर दल के जिम्मेवार नेता यह कहते रहे हैं कि संसद और विधान सभाओं की बैठकें शांतिपूर्वक चलनी चाहिए।

पर,कोई नेता इसे संभव बनाने के लिए सामूहिक रूप से कारगर पहल करने को तैयार नहीं होता।

ऐसे में सत्ताधारी दल भाजपा पर ऐसी पहल करने की जिम्मेदारी बनती है।

जो राजनीतिक माहौल आज है,उसमें भाजपा सदन की गरिमा बढ़ाने के लिए प्रतिपक्षी दलों को राजी नहीं कर सकती। 

किंतु खुद पहल तो कर ही सकती है।

 जिन राज्यों में भाजपा प्रतिपक्ष में है,वहां की विधान सभाओं की बैठकों में शांति की पहल वह चाहे तो कर ही सकती है।

आज स्थिति यह है कि संसद में तो भाजपा चाहती है कि प्रतिपक्षी दल हंगामों के जरिए सदन की गरिमा न गिराएं।

पर, खुद भाजपा उन राज्य विधान सभाओं की बैठकों में क्या करती है ?

वह वहां खूब हंगामा करती है।

भाजपा राज्य विधान सभाओं में वैसी ही गरिमा कायम करे जिस तरह की गरिमा पचास और साठ के दशकों में देश की विधायिकाओं में बनी रहती थी। 

यदि यह संभव हुआ तो सत्ताधारी भाजपा को संसद में आए दिन हंगामा करने वाले सदस्यों को टोकने के लिए नैतिक बल हासिल हो जाएगा।

फिर भी यदि संसद में प्रतिपक्षी दल हंगामा करते रहेंगे तो वे जनता के बीच कसूरवार माने जाएंगे।

इसका राजनीतिक लाभ भाजपा को मिल सकता है।

----------------

 सदन में अराजकता से चिंता

............................. 

राज्य सभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने गत माह 

बड़ी पीड़ा के साथ सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा कि राज्य सभा में अस्त -व्यस्तता देखकर पूरा देश हम लोगों पर हंस रहा है।

राज्य सभा सदस्य कोई स्कूली बच्चे नहीं हैं।जब सभापति की कोशिशों 

के बावजूद सदन में शांति नहीं लौटी तो उन्होंने कहा कि हम लोग बहुत ही गलत उदाहरण पेश कर रहे हैं।

  सभापति धनखड़ प्रथम पीठासीन पदाधिकारी नहीं हैं जो सदन में शांति लाने की कोशिश कर रहे हैं।दशकों से ऐसी कोशिश होती रही है।

किंतु स्थिति सुधरने की जगह बिगड़ती जा रही है।संसद में अराजकता के खिलाफ सन 1997 में करीब एक हफ्ते तक दोनों सदनों में भावपूर्ण चर्चाएं हुई थीं।शालीनता कायम करने के लिए सर्वसम्मत प्रस्ताव भी पास किया गया।पर उसका भी कोई नतीजा नहीं निकला।

..............................

 गुठली का भी दाम

.....................................

खबर है कि भारत सरकार अगले तीन साल में देश के गावों में करीब दो लाख प्राथमिक डेयरी स्थापित करने जा रही है।

इससे न सिर्फ दूध का उत्पादन बढ़ेगा बल्कि खेती के लिए गोबर भी अधिक उपलब्ध होगा।

उससे जैविक खेती का विस्तार हो सकता है।

  इन दिनों तो रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के धुआंधार इस्तेमाल से दो तरह की समस्याएं पैदा हो रही हंै। एक तो मिट्टी की गुणवत्ता पर विपरीत असर पड़ रहा है।दूसरे अनाज में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ रही है।इससे कैंसर का फैलाव हो रहा है।

इस पृष्ठभूमि में दूध के उत्पादन को बढ़ाने से दोहरा लाभ होगा।

.....................

 घटता-बढ़ता चुनावी चंदा

................................

सन 2007 से 2012 तक कांग्रेस को व्यापारिक घरानों से 1662 करोड़ रुपए चंदा के रूप में मिले थे।

भाजपा को तब 852 करोड़ रुपए मिले।

लोक सभा में तब कांग्रेस की 206 सीटें थीं।भाजपा की सीटों की तब संख्या 116 थी।

2017-18 में भाजपा को 2977 करोड़ रुपए मिले।

कांग्रेस को 777 करोड़ रुपए मिले।

इस अवधि में लोक सभा में भाजपा के 282 सदस्य थे।

कांग्रेस की सीटें घटकर 44 रह गई थी।

दरअसल चंदा देने वाली हस्तियां विभिन्न दलों की राजनीतिक ताकत के अनुपात में ही चंदा देती हैं।

यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है।

.....................................

 भूली-बिसरी याद

..................................

   इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहनलाल सिन्हा का नाम कौन नहीं जानता ?

किंतु यह बात कम ही लोग जानते हैं कि वे

 गरिमा,निष्पक्षता और निर्भीकता के प्रतीक थे।

उन्होंने 1975 में जब प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की लोक सभा सदस्यता रद की तो वे चर्चित हो गए।

मुकदमे की सुनवाई के दौरान इंदिरा गांधी न्यायालय में हाजिर हुई थीं।उस वक्त भी न्यायाधीश सिन्हा ने न सिर्फ न्यायालय कक्ष की गरिमा बनाए रखी बल्कि अपनी और प्रधान मंत्री की भी।प्रधान मंत्री को कुर्सी दी गई थी।

जगमोहन लाल सिंहा सन् 1982 में रिटायर हुए।

सन 2008 में उनका निधन हो गया।अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होेंने कोई पद स्वीकार ही नहीं किया।

 यहां तक सन 1977 की मोरारजी सरकार के विधि मंत्री उनका हिमाचल प्रदेश तबादला करना चाहते थे ताकि सिन्हा साहब मुख्य न्यायाधीश बन सकें।

क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बनने की उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।

किंतु सिन्हा ने तबादला स्वीकार नहीं किया।

चर्चा थी कि उन्हें राज्यपाल पद का आॅफर दिया गया था।उस पर उनकी प्रतिक्रिया थी कि किताबें पढ़ने और अपनी बागवानी में बढ़ते हुए पौधों को देखने में जो सुख मिलता है,वह किसी अन्य काम में नहीं मिलेगा।यानी, जज हो तो जगमोहन लाल सिन्हा जैसा। 

...........................

और अंत में

..................

राजनीतिक क्षेत्र में पक्ष-विपक्ष के बीच जारी कटु 

संवादों को देख-सुनकर बशीर बद्र की यह रचना

एक बार फिर पेश करना जरूरी लगता है।

‘दुश्मनी जम कर करो लेकिन इतनी गुंजाइश रहे, 

जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों।’

..............................

‘कानोंकान’

प्रभात खबर

पटना

2 जनवरी 23


कोई टिप्पणी नहीं: