शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

    नटवर सिंह को पाक राजनयिक की नसीहत

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बात तब की है जब भारतीय विदेश सेवा के सदस्य नटवर सिंह की इस्लामाबाद में तैनाती हो रही थी।

वहां जाने से पहले भारत में पाकिस्तान के हाई कमिश्नर 

अब्दुल सत्तार ने उन्हें बुलवाया।

नटवर सिंह ने, जो बाद में भारत सरकार के मंत्री भी बने,

सत्तार से कहा कि

 ‘‘मैं जानता हूं कि मुझे अपने सीमा पार के दोस्तों से क्या कहना है।

पर, मुझे यह बता दें कि मुझे क्या नहीं कहना चाहिए ?’’

सत्तार ने बेझिझक अंदाज में कहा कि 

‘‘यह कभी मत कहना कि हम सब एक जैसे हैं।

यदि हम एक जैसे होते तो 1947 में अलग क्यों होते ?’’

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--नटवर सिंह की आत्म कथा-

‘‘एक ही जिंदगी काफी नहीं’’ से।


शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020

   कल्पना कीजिए उस दिन की जब 

  देश की विधायिकाएं वंशजों-परिजनों

   से भर जाएंगी 

आज के लोकतंत्र का कोई ‘महाराजा’ प्रधान मंत्री 

 और ‘राजा’ मुख्य मंत्री बन जाएगा ! 

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  --सुरेंद्र किशोर-

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और कितने दशक लगेंगे ?

कब तक बिहार विधान सभा की सभी 243 सीटों पर

वंशवादी-परिवारवादी नेताओं के वंशज काबिज हो जाएंगे ?

कितने दशकों में लोक सभा की सभी 543 सीटों का भी यही हश्र होगा ?

   अनुमान लगा लीजिए।

रफ्तार देख लीजिए।

मोतीलाल नेहरू परलोक में इस बात पर खुश होंगे कि उन्होंने जो काम 1928 में शरू किया,उसे कांग्रेस तथा अन्य दलों के नेतागण तेजी से तार्किक परिणति तक पहुंचा रहे हैं।

 यह तो तथ्य है कि शुरू मोतीलाल जी ने किया और उसे संस्थागत रूप जवाहरलाल जी ने दिया।

  इस संबंध में ‘जनसत्ता’ में 2012 में प्रकाशित लखनऊ के चर्चित पत्रकार के.विक्रम राव की चिट्ठी की स्कैन काॅपी प्रस्तुत है।

साथ ही, टाइम्स आॅफ इंडिया में प्रकाशित एक रपट भी।

  उस रपट में इस बात का जिक्र है कि मोतीलाल नेहरू ने महात्मा गांधी पर किस तरह भारी दबाव डाल कर किस तरह 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया था।

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पहले के अधिकतर नेता अपने वंशज-परिजन को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने के पक्ष में नहीं थे।

बिहार में डा.श्रीकृष्ण सिंह और कर्पूरी ठाकुर इसके उदाहरण हैं।

पर बाद के वर्षों में पुत्र के दबाव में पिता आने लगे।

हालांकि बिहार व देश में अब भी कई नेता मौजूद हैं जो अपने परिजन के दबाव में नहीं आ रहे हैं।

पर उनके निधन के बाद क्या होगा ?

उनके परिजन-वंशज को कोई दल विधायिका में पहुंचा देगा।

  कई दशक पहले एक बड़े नेता ने तो अपने घर में परिवारवाद को रोकने के क्रम में अपना बलिदान ही दे दिया।

उस आदर्शवादी नेता ने बड़े पुत्र ने कहा कि मुझे विधायिका का सदस्य बनवा दीजिए।

नेता जी राजी नहीं थे।

लोकलाज वाले थे।

इसी क्रम में उनके छोटे पुत्र ने कहा कि उसे नहीं, मुझे बनाइए।

इस पर दोनों भाइयों में मारपीट होने लगी।

पिता ने झगड़ा छुड़ाने की कोशिश की।

इस क्रम में शरीर व मन पर जो दबाव पड़ा,उसे वे झेल नहीं सके।

हार्ट अटैक हो गया।

वे गुजर गए।

  आज के अनेक नेता वैसी नौबत नहीं आने देना चाहते।

इसलिए वे जल्द से जल्द अपने परिजन को विधायिका में प्रवेश करा देना चाहते हैं।

  चूंकि इस देश के लोकतंत्र के आधुनिक राजे-महाराजे भी अपना पाप छिपाने के लिए वही चाहते हैं,इसलिए विधायिकाओं में वंशवाद की भरमार होती जा जा रही है।

चिंताजनक बात यह है कि जो दलीय सुप्रीमो खुद वंशवादी नहीं हैं,वे भी अपने दल में वंशवाद को नहीं रोक पा रहे हैं।

अंततः  इसका नतीजा क्या होगा ?

जिस दिन बिहार विधान सभा की 200 से अधिक सीटों और लोक सभा की 500 से अधिक सीटों पर वंशज और परिजन काबिज हो जाएंगे,जिस दिन लोकतंत्र के नए ‘महाराजा’ के परिवार का कोई सदस्य प्रधान मंत्री और कोई ‘राजा’ राज्य में मुख्य मंत्री बन जाएगा,उस दिन इस लोकतंत्र को कौन सा नाम देंगे आप ?

 दरअसल सांसद-विधायक फंड इस वंशवाद को बढ़ाने में सहायक है।

फंड के ठेकेदारों ने  राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं की जगह ले ली है।

भाड़े की भीड़ का भी प्रबंध होने लगा है।

वह दिन दूर नहीं जब वास्तविक राजनीतिक कार्यकत्र्ता विलुप्त प्राणी हो जाएंगे।

जिस तरह ईमानदार नेता विलुप्त होते जा रहे हैं। 

  बिहार में करीब 10 साल पहले विधायक फंड समाप्त कर

दिया गया था।

पर विधायकों के भारी दबाव में आकर फिर से शुरू कर दिया  गया है।

पता लगाइए कि कितने साल से विधायक फंड के खर्चे का हिसाब नहीं मिल रहा है ?

सांसद फंड के बारे में मोदी सरकार ने हाल में राय शुमारी कराई।

करीब आठ सौ में से मात्र एक दर्जन से भी कम सांसदों ने कहा कि फंड को समाप्त कर दीजिए।

बाकी ने इसकी राशि जारी रखने या बढ़ा देने की सलाह दी।

खबर है कि प्रधान मंत्री अब इस मामले में द्विविधा में हंैे।

जबकि, अन्य मामलों में कहा जाता है और ठीक भी है कि ‘‘मोदी है तो मुमकिन है।’’

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कहां जा रहा है अपना देश ? !!

उन्हें इस पर चिंतन करना चाहिए जिनका कोई स्वार्थ नहीं है और जो अपने वंशजों के आम जीवन में सिर्फ बेहतरी चाहते हैं।

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--सुरेंद्र किशोर-6 अक्तूबर 20


 

  

   


   अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़े दें तो आजादी के 

बाद इस देश और प्रदेश के अधिकतर मतदाताओं ने 

हमेशा ही होशियारी से सही मतदान ही किया है।

  जनता तब भी सही थी जब उसने 1971 में इंदिरा 

गांधी को जिताया और 1977 में उन्हें हराया।

   बिहार के अधिकतर मतदाता तब भी सही थे जब

उन्होंने 1991 और 1995 में लालू प्रसाद को जिताया।

  अधिकतर जनता तब भी सही थी जब उसने 2005 में 

लालू प्रसाद के दल को बिहार की सत्ता से बाहर कर दिया।

  आज चाहे लोगबाग जो भी चुनावी अनुमान लगाएं, किंतु मेरा मानना है कि इस बार भी बिहार के अधिकतर मतदातागण सही चुनावी फैसला ही करंेगे।

  आम तौर पर ‘मौन’ आमलोग मतदान करने से पहले देश-प्रदेश का नफा-नुकसान अधिक देखते हैं।

दूसरी ओर, अधिकतर मुखर लोग खुद का नफा-नुकसान अधिक देखते हैं।

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---सुरेंद्र किशोर-15 अक्तूबर 20  


 राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा है कि हम सबको साथ लेकर चलेंगे।

सामान्य वर्ग को भी सम्मान देंगे।

अच्छी बात है।

पर, संसद में तो राजद ने गत साल सवर्ण आरक्षण यानी सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए प्रस्तावित आरक्षण से संबंधित विधेयक का विरोध कर दिया था।

जबकि, लगभग अन्य सभी दलों ने उसका समर्थन किया था।

क्या उस सवर्ण विरोध पर राजद ने कोई पुनर्विचार किया है ?

नहीं किया।

जबकि, उसी के कारण लोस चुनाव हारने वाले राजद नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने बाद में कहा था कि हमें सवर्ण आरक्षण का विरोध नहीं करना चाहिए था।


गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020

 आदर्श उम्मीदवारों की खोज !

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   बिहार विधान सभा के चुनाव में क्या आपको इस बार ऐसे

उम्मीदवारों के दर्शन हो रहे हैं जिनमें कम से कम दो गुण

नजर आ रहे हों ?

   कम्युनिस्टों को छोड़कर कितने ऐसे उम्मीदवार हैं जिन्होंने अपनी जायज आय से अधिक संपत्ति नहीं बनाई है ?

कितने उम्मीदवार हैं जो अपने वंशज या परिजन को टिकट दिलवाने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते ?

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अब कहिएगा कि हम कैसे जानेंगे कि किसी ने जायज आय से अधिक संपत्ति बनाई या नहीं ?

इसका जवाब यह है कि आप किसी नेता की भेश- -भूषा,पहनावा-ओढ़ावा और अन्य हाबी-जाबी की उपस्थिति -अनुपस्थिति से काफी हद तक अंदाज लगा ही सकते हैं।

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  कर्पूरी ठाकुर की तरह कई स्वतंत्रता सेनानी पिछले दशकों तक इन मामलों में देखते ही पहचान लिए जाते थे।

अब वैसे लोग विलुप्त होते जा रहे हैं।

पर संभव है कि नई पीढ़ी में भी आदर्श उम्मीदवार जहां -तहां नजर आ जाएं !

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सुरेंद्र किशोर

-29 अक्तूबर 20


 इतिहास के नाजुक मोड़ पर 

कटु सत्य एक बार फिर !

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--सुरेंद्र किशोर--

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सन 1990 में मंडल आरक्षण आया।

अधिकतर सवर्णों ने उसका तगड़ा विरोध किया।

तब बिहार विधान सभा के प्रेस रूम में बैठकर अक्सर मैं 

यह कहा करता था कि आरक्षण का विरोध मत कीजिए।

यदि गज नहीं फाड़िएगा तो थान हारना पड़ेगा।

कांग्रेस के पूर्व विधायक हरखू झा भी प्रेस रूम में बैठते थे।

मेरी बातों के वह आज भी गवाह हैं।

  आरक्षण विरोध के कारण 15 साल तक ‘थान’ हारे रहे थे।

 ‘‘भूरा बाल साफ करो,’’

यह बात किसी ने कही थी या नहीं यह मैं नहीं जानता।

पर ‘भूरा बाल’ ने खुद को ही कुछ साल के लिए साफ कर लिया।

कम से कम दो पीढ़ियां बर्बाद हो गईं।

   आज भी बिहार इतिहास के नाजुक मोड़ पर खड़ा है।

कुछ लोग एक बार फिर वैसी ही गलती कुछ दूसरे ढंग से करने पर उतारू हैं।

वे ऐसी शक्तियों को मजबूत करना चाहते हैं जिनका विकास का कोई इतिहास ही नहीं है। 

यानी, बताशा के लिए मंदिर तोड़ने पर कोई अमादा हो तो आप उनका क्या कर लेंगे ? !!

यह लोकतंत्र है।सबको अपने मन की सरकार चुनने का पूरा हक है।

 1990 में भी मुझ पर उस टिप्पणी के कारण बहुत से लोग नाराज हुए थे।

कुछ लोग मुझे लालू का दलाल भी बता रहे थे।

मेरा परिवार भी इस मुद्दे पर मेरे खिलाफ था।

दरअसल दूरदर्शी होने के लिए सिर्फ पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है।

  मेरे इस ताजा पोस्ट पर भी कई लोग नाराज हो सकते हैं।

कुछ उसी तरह की बातें बोल सकते हैं।यह उनका हक है।

पर, वे एक बात जान लें।

अन्यथा कल होकर कहेंगे कि कोई चेताने के लिए था ही नहीं।

जो नेता लोग 1990 में आरक्षण विरोधी आंदोलन के नेता थे,उनमें से एकाधिक लोगों ने मुझसे कुछ साल बाद कहा था कि हमारा स्टैंड तब गलत था।हमें आरक्षण का विरोध नहीं करना चाहिए था।हमारे विरोध का लाभ लालू प्रसाद ने उठा लिया।

  आज जो लोग बताशे के लिए मंदिर तोड़ने को एक बार फिर अमादा हैं,वे भी कुछ समय बाद पछताएंगे,यदि वे अपनी योजना में अंततः सफल हो गए। 

  पर तब तक देर हो चुकी होगी।

हालांकि उनकी सफलता पर मुझे संदेह है।

होशियार लोग चुनाव में हमेशा बदतर को छोड़कर बेहतर को अपनाते हैं।

पर आज क्या हो रहा है ?

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29 अक्तूबर 20


सोमवार, 26 अक्टूबर 2020

 इस देश में सैनिक शाही या हिटलर शाही 

की आंशका को निर्मूल करने के लिए गंभीर

प्रयास करने की जरूरत 

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राजनीति में तेजी से बढ़ते भ्रष्टाचार,अपराध,देशद्रोह

और वंशवाद-परिवारवाद के कारण लोकतंत्र के 

सामने गंभीर खतरा

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चुनाव एक ऐसा मौका है जब आप हिटलर शाही

या सैनिक शाही की आशंका से इस देश को साफ 

बचा कर निकाल सकते हैं।

उस आशंका को निर्मूल कर सकते हैं।

आखिर यह आशंका मेेरे मन क्यों आई ?

इस सवाल का जवाब देने की कोशिश कर रहा हूं।

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सन 1967 से ही इस देश के चुनावों को गौर से देखता रहा हूं।

समय के साथ कुछ ऐसी बुराइयां तेजी से बढ़ती जा रही हैं जिनका कुपरिणाम संभवतः वही हो सकता है जिसकी आशंका मेरे मन में है।

ईश्वर करे,मेरी आशंका गलत साबित हो जाए !

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एक बड़े नेता ने हाल में कहा कि चूंकि मेरा दामाद बेरोजगार है,इसलिए मैंने उसे विधान सभा का टिकट दे दिया।

 नेता स्पष्टवादी हंै,इसलिए उन्होंने खुलेआम यह बात कह दी।

इस देश के अन्य अनेक नेता यही काम करते रहे हैं।

  राजनीति में वंशवाद-परिवारवाद समय के साथ तेजी से बढ़ता चला जा रहा है।

आज कितने सांसद या विधायक हैं जो अपने परिजन को अपनी जगह या साथ में टिकट दिलाना नहीं चाह रहे हैं ?

अंगुलियों पर गिनने लायक।

किसी राजनीतिक वंश-परिवार में कोई त्यागी-तपस्वी जन सेवक निकले तो राजनीति में उसे आगे बढ़ाने में कोई हर्ज नहीं।

पर क्या यही हो रहा है ?

क्या त्याग-तपस्या-जन सेवा टिकट देने की कोई कसौटी रह गई है ?

लगता तो यह है कि आजादी से पहले इस देश में 

जिस तरह 565 रजवाड़े थे,उसी तरह के राजनीतिक घरानों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। 

यह संयोग नहीं है कि ऐसे घरानों में से अधिकतर के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं।

क्या इसे ही लोकतंत्र कहते हैं ?

क्या स्वंतत्रता सेनानियों ने अपनी सुख, चैन व जान को जोखिम में डालकर इसी दिन के लिए हमें आजाद 

करवाया था ?

हमारे लोकतंत्र में अन्य अनेक बुराइयां गहरे घर करती जा रही  हंै।

 नतीजतन शासन-प्रशासन की स्थिति दिनानुदिन बिगड़ती जा रही है।

आज देश-प्रदेश में कितने सरकारी आॅफिस हैं जहां बिना नजराना-शुकराना के काम हो रहा है ?

कितने सांसद या विधायक हैं जो अपने क्षेत्र विकास फंड से ‘चंदा’ नहीं ले रहे हैं ?

जितने जन प्रतिनिधि चंदा लेंगे,उसके साथ ही उतने ही अफसर रिश्वत लेने की अघोषित छूट भी हासिल कर लेंगे।

आज चाहते हुए भी ईमानदार प्रधान मंत्री और ईमानदार मुख्य मंत्री भी शासन-व्यवस्था को भ्रष्टाचारमुक्त नहीं कर पा रहा है।

वैसे आम लोग ऊब रहे हैं जिनका कोई निहितस्वार्थ नहीं है।

इसका अंततः क्या नतीजा होगा ?

अनुमान लगाइए।

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फिलहाल बिहार विधान सभा चुनाव के इस अवसर पर सही सोच वाला व्यक्ति क्या करंे ?

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1.-उस दल को और उसके उस उम्मीदवार का समर्थन करें जो अन्य दलों या उम्मीदवारों की अपेक्षा कम भ्रष्ट है ।या ईमानदार है।

जो आदतन भ्रष्ट या अपराधी नहीं है,उसमें सुधरने की गुंजाइश बनी रहती है।

शत्र्त है कि थोड़ी कड़ाई हो जाए।

2.-उसे ताकत पहुंचाएं जो अपेक्षाकृत कम वंशवादी-परिवारवादी है।

या जो परिवारवादी नहीं है।

3.- कई शक्तियां हथियारों के बल पर इस देश में  राजनीतिक विचारधारा या धार्मिक विश्वास के अनुकूल शासन-व्यवस्था स्थापित करने की गंभीर कोशिश में है।

ऐसी शक्तियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थकों को इस चुनाव में मदद मत कीजिए।

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यदि राजनीति व शासन पर आदतन भ्रष्ट तत्वों ,खूंखार  अपराधियों, घृणित व बेशर्म परिवारवादियों-वंशवादियों और देशद्रोहियों -संविधान विरोधियों का वर्चस्व इसी रफ्तार से बढ़ता गया तो आखिर एक दिन क्या होगा ?

एक दिन वही होगा

जिसकी आशंका इस पोस्ट के शीर्षक में व्यक्त की गई है।

हालांकि अब भी समय बचा है चेत जाने के लिए।

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--सुरेंद्र किशोर-24 अक्तूबर 20


 कई लोगों ने पूछा , 

‘‘कैसा लग रहा है ?’’

मैंने उन्हें बताया कि अभी तो मुझे 

राजग की बढ़त लग रही है।

अधिकतर ओपिनियन पोल्स के 

रिजल्ट भी 

तो यही संकेत दे रहे हैं।

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--सुरेंद्र किशोर-

25 अक्तूबर 20


      आसान नहीं होता चुनाव पूर्वानुमान 

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सन 1995 के बिहार विधान सभा चुनाव में भी बहुकोणीय 

मुकाबला था।

मुख्य मंत्री पद के लिए तब भी कई उम्मीदवार थे।

तब भी चुनाव पूर्वानुमान अनेक व्यक्तियों व पेशेवर आकलन कत्र्ताओं के लिए कठिन हो गया था।

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यहां तक कि इंडिया-टूडे मार्ग सर्वेक्षण के अनुसार 1995 में इंडिया टूडे को भी ‘‘त्रिशंकु बिहार विधान सभा की आहट’’ मिल रही थी।

--इंडिया टूडे-15 मार्च 1995

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पर रिजल्ट क्या हुआ ? 

पूर्ण बहुमत से 1995 में लालू प्रसाद की सरकार बन गई।

हां,जहां तक मुझे याद है ,सिर्फ मशहूर  पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने सही पूर्वानुमान लगाया और लिखा भी था। 

  क्योंकि सुरेंद्र प्रताप को बिहार के समाज व राजनीति की समझ हमसे बेहतर थी।या फिर वे पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं थे।

अन्य इक्के -दुक्के पत्रकारों ने तब ऐसा ही लिखा हो तो  

कोई व्यक्ति उसकी कटिंग मुझे उपलब्ध कराएं।

मेरा ज्ञानवर्धन होगा।

सन 1995 में मतदान से पूर्व लालू प्रसाद के निजी सचिव मुकुल कपूर ने मुझसे पूछा था,

‘‘क्या आप भी यही समझ रहे हैं कि लालू जी की सरकार नहीं बनेगी ?’’

‘आप भी’ का इस्तेमाल मुकुल ने इसलिए किया क्योंकि अधिकतर पत्रकारों की सुरेंद्र प्रताप जैसी स्पष्ट राय नहीं थी।   

मैंने मुकुल से कहा कि मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है।

मेरे सामने यह साफ नहीं था कि ‘‘सामाजिक न्याय समर्थक’’ जीतेेंगे  या ‘‘अराजक शासन’’ विरोधी।

वैसे एक बात साफ थी कि लालू विरोधी बंटे हुए थे।

चुनाव की ‘पूर्व संध्या’ पर एक जातीय समूह ने अपनी दलीय लाॅयल्टी बदल ली थी।

आखिरकार आरक्षण समर्थक जीत गए। 

 लालू प्रसाद के तब जितने मुखर समर्थक थे,उससे अधिक मौन समर्थक।

 2020 का बिहार विधान सभा चुनाव रिजल्ट बताएगा कि अब   मौन समर्थक राजद के पास अधिक हैं या राजग के पास।  

अभी तो राजद के मुखर समर्थक ही अधिक नजर आ रहे हैं। 

पर,मेरी जानकारी के अनुसार इस बार राजग के पास मौन समर्थक राजद की अपेक्षा अधिक हैं।

हालांकि रिजल्ट ही मेरी इस जानकारी को गलत या सही साबित करेगा।

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--सुरेंद्र किशोर-25 अक्तूबर 20


   गठबंधन सरकारों की मजबूरियां होती हैं भ्रष्टाचार-घोटाला-महा घोटालों की अनदेखी

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इस देश-प्रदेश के कुछ लोगों को मनमोहन सिंह जैसे प्रधान मंत्री और मधु कोड़ा जैसे मुख्य मंत्री बहुत पसंद आते हैं।

वैसी सरकारों में हर तरह की छूट जो रहती है !

  बिहार के वैसे लोग इन दिनों इस प्रदेश में भी सिंह या कोड़ा जैसी सरकार बनवाने के प्रयास में रात-दिन लगे हुए हैं।

देखना है कि वे सफल होते हैं या नहीं।

सफलता की उम्मीद तो कम है।

  याद रहे कि मनमोहन सिंह की सरकार के कुछ मंत्रियों पर महा घोटाले के आरोप लगते रहते  थे।

फिर भी वे मौन रह जाते थे।

  बहुत कुरदने पर सरदार जी ने सन 2011 में कहा था कि 

‘‘ये गठबंधन सरकारों की मजबूरियां हैं।’’

   न तो कोई व्यक्ति पूर्ण है और न ही कोई दल।

कोई सरकार भी 24 कैरेट का सोना कत्तई नहीं हो सकती है।

इसीलिए चुनावों में इस देश के अधिकतर लोग हर पांच साल पर ‘बदतर’ की जगह ‘बेहतर’ को चुन लेते रहे हैं।

   पर, इस बार कुछ लोग उल्टी गंगा बहवाना चाहते हैं।

                     ---पारदर्शी

                    सन  2020


रविवार, 25 अक्टूबर 2020

 भूली-बिसरी याद

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कर्पूरी ठाकुर और भागवत झा ‘आजाद’ 

मुख्य मंत्री पद से हटा दिए गए थे।

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क्या इसलिए कि वे अपेक्षाकृत बेहतर 

काम कर रहे थे ?

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   --सुरेंद्र किशोर--

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1977-1979 में कर्पूरी ठाकुर ने मुख्य मंत्री के रूप 

में कम से कम तीन ऐसे काम किए थे जिनसे कतिपय निहितस्वार्थी तत्व उनसे नाराज हो गए।

वे तत्व उनकी पार्टी के भीतर के भी थे और बाहर के भी।

 कर्पूरी सरकार के काम व्यापक जनहित के थे। 

1979 में वे मुख्य मंत्री पद से हटा दिए गए।

उसी साल बिहार,हरियाणा और उत्तर

 प्रदेश के मुख्य मंत्रियों को भी बारी -बारी से हटा दिए जाने के कारण केंद्र की 

मोरारजी देसाई सरकार भी गिरा दी गई।

जनता पार्टी के भीतर के ही सांसदों ने केंद्र सरकार से बदला ले लिया।

वैसे देसाई सरकार बहुत अच्छा काम कर रही थी।

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1.-कर्पूरी ठाकुर के कार्यकाल में एक वरीय पुलिस अफसर के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप सामने आए।

कर्पूरी ठाकुर ने उन आरोपों की सी.बी.आई. जांच का आदेश दे दिया।

कर्पूरी जी ने सत्ता संभालते ही सी.बी.आई.को कह दिया था कि वह बिहार में मेरी अनुमति के बिना भी भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कर सकती है।

ऐसे मुख्य मंत्री थे कर्पूरी जी।

  उस पुलिस अफसर के पक्ष में सत्ताधारी राजनीति में मौजूद स्वजातीय लाॅबी तुरंत सक्रिय हो गई।

  लाॅबी की बैठक हुई।

सरकार को धमकी दी गई कि यदि सी.बी.आई.जांच हुई तो कर्पूरी ठाकुर की कुर्सी नहीं रहेगी।

बढ़े मनोबल के तहत उस अफसर ने भी मुख्य मंत्री के आॅफिस में खुद जाकर कर्पूरी जी को धमकाया भी ।

भारी दबाव के बीच जांच का आदेश वापस हो गया।

2.-जयप्रकाश नारायण के कहने पर मशहूर गांधीवादी पत्रकार बी.जी.वर्गीज पटना आए।

कोसी इलाके के सम्यक विकास के लिए कोसी क्रांति योजना बनी।

उसमें भूमि सुधार,सिंचाई तथा विकास के अन्य कार्यक्रम थे।

हदबंदी से फाजिल जमीन का पता लगाना उसमें शामिल था।

  जमीन दबाए बैठे प्रभावशाली लोगों ने इलाके के विधायकों पर दबाव डाला।

पटना में एक बड़े नेता के अवास पर बैठक हुई।

तय हुआ कि ऐसा कोई काम हुआ तो कर्पूरी सरकार गिरा दी जाएगी।काम रुक गया।

  निराश बी.जी.वर्गीज अपनी आंखों में आंसू लिए दिल्ली लौट गए।

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इस तरह कर्पूरी ठाकुर से पार्टी के अंदर ही नाराजगी बढ़ती गई।सबसे बड़ी नाराजगी पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण को लेकर हुई।

अंततः कर्पूरी जी मुख्य मंत्री पद से हटा दिए गए।

बाद के मुख्य मंत्रियों ने इन मामलों में क्या किया,उसका साक्षी इतिहास है।

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 कांग्रेस हाईकमान ने 1988 में भागवत झा को बिहार का मुख्य मंत्री बनाया।

उन्होंने पद संभालते ही राज्य के तरह -तरह के माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई व जुबानी जंग शुरू कर दी।

विशेष तौर पर ‘‘सहकारी माफिया’’ उनके निशाने पर थे।

 आजाद जी के काम को देखकर पत्रकार जर्नादन ठाकुर ने नवभारत टाइम्स में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक ‘‘दैत्यों की गुफा में भागवत झा आजाद।’’  

  मैंने ‘जनसत्ता’ की ओर से तब पूरे बिहार में नमूना जनमत संग्रह करवाया था।

 करीब 75 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि मुख्य मंत्री के रूप में हम आजाद जी को पसंद करते हैं।

इस बात के बावजूद कि उन दिनों बोफोर्स को लेकर वी.पी.

सिंह के पक्ष में बिहार सहित लगभग पूरे देश में हवा चल रही थी।

  मैंने वैसे आजाद जी की तारीफ में भी कुछ लेख लिखे थे ।

पर जनसत्ता में उनके खिलाफ में छपे मेरे एक -दो लेख को पढ़कर राजेंद्र माथुर ने किसी से कहा था कि ‘‘भई, सुरेंद्र किशेार आजाद जी के खिलाफ क्यों लिख रहे हैं ?’’

ऐसी छवि बनी थी उनकी।

याद रहे कि माथुर साहब एक ईमानदार संपादक थे।

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पर कांग्रेस के ही कई विधायकांे ने अभियान चला कर आजाद जी को मुख्य मंत्री पद से हटवा दिया।  

विधायकों का तर्क था सहकारिता आंदोलन से बिहार में कांग्रेस को बड़ी ताकत मिलती है।

उसी के खिलाफ आजाद जी कार्रवाई कर रहे हैं।

याद रहे कि सहकारी संस्थाओं व उनके नेताओं पर तब लगातार भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे थे।

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23 अक्तूबर 20


       एक अनुभव जार्ज फर्नांडिस का

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बात तब की है जब जार्ज फर्नांडिस पहली बार केंद्र में 

मंत्री बने थे।

देश भर से अनेक लोग उनके आॅफिस में पहुंच जाते थे।

वे चाहते थे कि जार्ज पहले की ही तरह मेरे सामने बैठा रहे।  ‘‘हम उसे देखते रहें और वह मुझे देखता रहे।’’

(यह वाक्य जार्ज का ही है।)

  पर जार्ज के जिम्मे मंत्रालय के महत्वपूर्ण काम भी होते थे।

जार्ज को समय -समय पर कुछ लोगों से यह कहना पड़ता था कि ‘‘अब आप जाइए,मुझे कुछ काम करने दीजिए।’’

  यह सुनकर कई कार्यकत्र्ता व नेता नाराज हो जाते थे।

कई समझदार लोग नाराज नहीं भी होते थे।

एक बार जार्ज ने मुझसे यह बात बताई थी।

उन्होंने कहा कि जब मैं मंत्री नहीं बन रहा था तब तो हंगामा करके हमारे लोगों ने मंत्री बनवाया।

अब वही लोग चाहते हैं कि मंत्रालय का काम छोड़ कर उनके सामने बैठा रहूं !

   बिहार में भी यह कहानी दुहराती रही है।

अनेक लोगों की शिकायत है कि कतिपय शीर्ष सत्ताधारी नेता तो जल्दी मिलने का समय तक नहीं देता।अहंकारी हो गया है।

  दूसरी ओर, नेता कहता है कि ‘सार्थक काम वालों से तो मिलता ही हूं।’

  ऐसी नाराजगी का असर इस विधान सभा चुनाव पर भी पड़ता दिखाई पड़ रहा है।

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--सुरेंद्र किशोर-22 अक्तूबर 20  


गुरुवार, 22 अक्टूबर 2020

  क्या होगा यदि सी.ए.ए. और 

 एन.आर.सी.लागू न हुआ !!! ?

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    --सुरेंद्र किशोर--

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  भाजपा अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने कल पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी कहा है कि सी.ए.ए.यानी नागरिक संशोधन कानून, 2019 को बहुत जल्द लागू किया जाएगा।

इस घोषणा पर पश्चिम बंगाल के सत्ताधारी नेतागण सख्त खफा हैं।

  पर उन्हें शायद नहीं मालूम कि इसी साल केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह भी कह चुकी है कि  

एन.आर.सी.यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जरूरी है।

   केंद्र सरकार ने पहले यह जरूर कहा था  कि एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर अभी नहीं बनेगा।

  पर गत मार्च में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने शपथ पत्र में गृह मंत्रालय ने कह दिया कि ‘‘किसी भी सार्वभौम देश के लिए यह एक जरूरी काम है कि वह गैर नागरिकों की पहचान के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करे।’’

  एक अनुमान के अनुसार सी.ए.ए. के लागू हो जाने के बाद इस देश में करीब दो करोड़ गैर -मुस्लिम मतदाताओं की संख्या बढ़ जाएगी।

एन.आर.सी.लागू होने के बाद करीब 5 करोड़ बंगलादेशी घुसपैठियों के नाम मतदाता सूची से हट जाएंगे।

  किंतु ऐसी गंभीर समस्या पर हमारे नेताओं के बदलते रुख को जरा देखिए।

पश्चिम बंगाल में उन घुसपैठी मतदाताओं का लाभ पहले वाम मोरचा उठाता था।

तब उन फर्जी बंगला देशी मतदाताओं का विरोध करते हुए   

  4 अगस्त, 2005 को ममता बनर्जी ने लोक सभा के स्पीकर

के टेबल पर कागज का पुलिंदा फेंका था।

उसमें अवैध बंगलादेशी घुसपैठियों को मतदाता बनाए जाने के सबूत थे।

  ममता ने कहा कि घुसपैठ की समस्या राज्य में महा विपत्ति बन चुकी है।

ममता बनर्जी ने  उस पर सदन में चर्चा की मांग की।

चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता

 से इस्तीफा भी दे दिया था।

 चूंकि एक प्रारूप में विधिवत तरीके से इस्तीफा तैयार नहीं था,इसलिए उसे मंजूर नहीं किया गया।

अब ममता का उस ‘महा विपत्ति’ पर क्या राय है ?

यदि ममता की सरकार उन्हीं अवैध घुसपैठियों के वोट पर

टिकी हैं तो क्या राय होगी ? !!!

 ऐसे नेताओं की मौजूदगी जिस देश में हो,उसमें तो मेरा  मानना है कि यदि इस देश को बचाना है तो न सिर्फ सी.ए.ए. बल्कि एन.आर.सी. और समान नागरिक कानून भी लागू करना ही पड़ेगा।

इससे कोई वोटलोलुप नेता या दल खुश रहे या नाराज।

  अमेरिका,चीन ,जर्मनी और जापान कौन कहे,यहां तक 

कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगला देश में भी

नागरिकता रजिस्टर और नागरिकता कार्ड का 

प्रावधान  है।

कार्ड वहां के लोगों को दिए गए हैं।

  पर, भारत में कुछ लोगों को एन.आर.सी. किसी भी कीमत पर मंजूर  नहीं  है !!

क्यों भाई ?

इसलिए कि एन. आर. सी. विरोधी मुसलमानों और उनके वोट के लिए कुछ भी करने को उतारू नेताओं के लिए भारत कोई देश नहीं, बल्कि मात्र एक धर्मशाला है।

उनकी अघोषित रणनीति के अनुसार इस देश में जनसंाख्यिकी बदलाव की प्रक्रिया अभी जारी है।

जब प्रक्रिया पूरी हो जाएगी

 तो फिर यहां भी एन.आर.सी.बन जाएगा जिस तरह पाक में भी है !!!

इधर इस देश के नकली सेक्युलर दलों के लिए देश से अधिक महत्वपूर्ण वोट बैंक ही है।

   किसी भी समुदाय के किसी वाजिब मतदाता की मौजूदा स्थिति में इन कानूनों के लागू होने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा।फिर भी चिल्ल-पों और छिटपुट हिंसा जारी है।

  इस तथ्य की पृष्ठभूमि में सी.ए.ए. और एन.आर.सी. के विरोधियों के हिंसक अभियानों के उद्देश्य को देखना चाहिए।

एक जानकार व्यक्ति से उद्देश्य पूछा गया तो उन्होंने बताया कि 

सीएए लागू होने व एनआरसी तैयार हो जाने पर इस हिन्दू बहुल देश को धीरे -धीरे मुस्लिम बहुल बनाने का जो जेहादी प्रयास चल रहा है,उस प्रयास को धक्का लगेगा।

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20 अक्तूबर 20   





   बिहार के सारण जिले के परसा विधान सभा क्षेत्र में ही मेरा पुश्तैनी गांव है।

 वहां से चंद्रिका राय को जब जदयू से टिकट मिला तो खुश होकर हमारे एक ग्रामीण ने मुझे फोन किया।

कहा कि चंद्रिका जी उन अत्यंत थोड़े से जन प्रतिनिधियों में हैं जो अंचल कार्यालय से कोई ‘चंदा’ नहीं लेते।

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   ---सुरेंद्र किशोर - 22 अक्तूबर 20

 


रविवार, 18 अक्टूबर 2020

   अपराध और अपराधियों के खिलाफ ‘होमियोपैथिक’

 या ‘आयुर्वेदिक’ दवाओं से बिहार में भी अब काम नहीं 

चलेगा।

उन्हें एलोपैथिक दवाएं चाहिए या फिर ‘मेजर’ सर्जरी।

   चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या के कारण ऐसी स्थिति पैदा होने वाली है।

आने वाले दिन डरावने हो सकते हैं।

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--सुरेंद्र किशोर--17 अक्तूबर 20


 बिहार के मतदाताओं से

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जिन्हें आप वोट देने जा रहे हैं,

देश-प्रदेश की मुख्य समस्याओं पर 

उनकी व उनकी पार्टी की 

क्या राय है ?

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ये मुख्य समस्याएं जो देश-प्रदेश को 

घुन की तरह खा रही हैं। 

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1.-भीषण भ्रष्टाचार,

2.-वंशवाद-परिवारवाद

3.-राजनीति का अपराधीकरण

4.-जेहादी आतंकियों से राजनीति

 की साठगांठ

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आपके वोट तय करेंगे 

आपकी अगली पीढ़ी का भी भविष्य !

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1.-यह पोस्ट उनके लिए नहीं है,जिनका भीषण भ्रष्टाचार में निहित स्वार्थ है।

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2.-उनके लिए भी नहीं है जिनका वंशवाद-परिवारवाद में निहित स्वार्थ है।

किसी नेता की संतान नेता बने,उसमें कोई रोक नहीं होनी चाहिए।

किंतु कोई नेता अपने अयोग्य यहां तक कि बकलोल संतान या परिजन को जनता पर थोपने की कोशिश करे तो अनेक मुश्किलें आती हंै।

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3.-यह पोस्ट उनके लिए भी नहीं है जिन्हें राजनीति का अपराधीकरण या अपराध का राजनीतिकरण पसंद है।

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4.-यह पोस्ट उनके लिए तो बिलकुल भी नहीं है जिन्हें  जेहादी आतंकवादी पसंद हैं।

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सुरेंद्र किशोर--18 अक्तूबर 20


 1967 के मुख्य मंत्री महामाया बाबू ने निर्दलीय 

उम्मीवार के रूप में ही विधान सभा का चुनाव 

पटना पश्चिम से जीता था

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    --सुरेंद्र किशोर-

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सन 1967 में मुख्य मंत्री बने महामाया प्रसाद सिन्हा ने तब निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में बिहार विधान सभा का चुनाव जीता था।

बाद में वे जनक्रांति दल में शामिल हो गए थे।

 रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह जनक्रांति दल के सुप्रीमो थे।

   महामाया प्रसाद सिन्हा ने 1967 में पटना पश्चिम में  तत्कालीन मुख्य मंत्री व कांग्रेसी नेता के.बी.सहाय को हराया था।

  उससे पहले 1957 में महामाया बाबू ने बिहार के दिग्गज कांग्रेसी नेता महेश प्रसाद सिन्हा को मुजफ्फरपुर विधान सभा क्षेत्र में पराजित किया था।

इस तरह वे बिहार की राजनीति के ‘जाइंट कीलर’ कहलाए।

महामाया बाबू अविभाजित सारण जिले के जमींदार परिवार से आते थे।

  स्वतंत्रता सेनानी महामाया बाबू कभी बिहार कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके थे।

बाद में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी।

  आजादी के बाद भी उन्होंने अपनी निजी संपत्ति बढ़ाने के की जगह घटाई।

उनका राजनीतिक और गैर राजनीतिक हलकों में बड़ा सम्मान था।

  1967 में के.बी.सहाय के खिलाफ रोमांचक चुनावी मुकाबले  में अन्य दलों ने महामाया बाबू का समर्थन किया था।

किसी अन्य दल के कोई उम्मीदवार उस क्षेत्र में नहीं थे।

महामाया बाबू को 34034 वोट मिले जबकि के.बी.सहाय को 13305 मत मिले थे।

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अक्तूबर 2020


शनिवार, 17 अक्टूबर 2020

 ‘आज’ और ‘प्रदीप’ के संपादक 

दिवंगत पारसनाथ सिंह की याद में

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पारसबाबू ने बहुत कुछ सिखाया हमें

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--सुरेंद्र किशोर--

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दैनिक ‘आज’ में पारसनाथ सिंह के नेतृत्व में काम करने 

व सीखने का सौभाग्य मुझे मिला था।

यह सन 1977 और उसके बाद के कुछ वर्षों की बात है।

14 अक्तूबर, 2015 को पारस बाबू का निधन हो गया।

अच्छा लगा कि पटना के कुछ प्रमुख पत्रकारों ने 14 अक्तूबर, 2020 को उनके गांव तारणपुर जाकर उनकी छठी पुण्य तिथि मनाई।

  तारणपुर पटना जिले के पुनपुन के पास का एक प्रमुख गांव है।

  पटना के पूर्व सांसद व पटना के मशहूर खड्ग विलास प्रेस के मालिक सारंगधर सिंह की ननिहाल उसी गांव में है।

स्वतंत्रता सेनानी व संविधान सभा के सदस्य रहे सारंगधर बाबू मूलतः उत्तर प्रदेश के थे।बाद में वे पटना में बस गए।

इसी प्रेस में भारतेंदु हरिश्चंद्र की सारी रचनाएं छपी थीं।

पारस बाबू के पुत्र घीरेंद्रनाथ सिंह के पीएच.डी. रिसर्च का विषय था खड्गविलास प्रेस। 

  ‘प्रदीप’ के चर्चित समाचार संपादक रामजी सिंह भी तारणपुर के ही थे।

  ‘आज’ में काम करते समय पारस बाबू ने हमें जो कुछ  सिखाया,वह सब मुझे आज भी याद है।

  बाबूराव विष्णु पराड़कर की परंपरा के ऋषितुल्य पत्रकार पारस बाबू ने न तो कभी अपनी संपादकी की धाक दिखाई और न ही उस पद का दुरुपयोग किया।

  किसी दल या नेता के प्रति न तो उनका कोई समर्थन भाव रहता था और न ही विरोध भाव।

  हम जूनियर पत्रकारों से वे कहते थे कि आप अपने लेखन में विशेषण का इस्तेमाल कम से कम करंे।

 विशेषणों को विशेष अवसरों के लिए बचा कर रखिए।

 पूरे पेज का शीर्षक लगाने से पहले दस बार सोचिए।

  यदि किसी मुख्यमंत्री के निधन पर ‘पेज हेडिंग’ लगाइएगा तो प्रधान मंत्री के निधन पर क्या करिएगा ?

  मंत्री या मुख्य मंत्री के पदारोहण के बाद तब भी बधाई संदेशों का तांता लग जाता था।

उसके बारे में पारस बाबू कहते थे कि यह तो दो व्यक्तियों के बीच का मामला है।

वे उन्हें चिट्ठी भेज कर खुशी जाहिर करें,बधाई दें।

इससे आम पाठकों का क्या संबंध ?

पारस बाबू हमें बताते थे कि आमरण अनशन के बदले अनिश्चितकालीन अनशन लिखें।

  अपनी काॅपी में संक्षेप में स्पष्ट बातें लिखें ताकि दिमाग में पर बोझ डाले बिना पाठक आपकी बात शीघ्र समझ ले।

  इस तरह की और भी कई बातें वे बताते थे।

पत्रकारिता में ब्राह्मणों की बहुलता का तार्किक कारण वे बताते थे।

  पूछने पर वह कहते थे कि आम तौर पर ब्राह्मण विनयी और विद्या- व्यसनी होते हैं।

ये गुण पत्रकारिता के पेशे के अनुकूल हैं।

वे खुद राजपूत  परिवार से आते थे। 

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--सुरेंद्र किशोर --17 अक्तूबर, 20



     


   

 इस देश के कई निजी टी.वी.चैनलों पर गेस्ट के रूप में अक्सर उपस्थित होने वाले कई व्यक्ति खुलेआम संविधान विरोधी बातंे करते रहते हैं।

  उनमें से कुछ राष्ट्रीय एकता और अखंडता के खिलाफ भी 

बेधड़क बोलते हैं।

 वे ‘‘टुकड़े -टुकड़े गिरोह’’ के खास समर्थक लगते हैं।

  उनकी ऐसी टिप्पणियों से देश भर में फैले भारत विरोधी व संविधान विरोधी लोगों को काफी बल मिलता है-खासकर कम उम्र के लोगों को।

   जिन्हें बल मिलता है , उनमें वे लोग प्रमुख हैं जो  हथियारबंद क्रांति या जेहाद के काम में लगे हुए हैं।

अब राजद्रोह के बारे में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय के संबंधित पैराग्राफ को पढ़ लीजिए।

   उसके बाद टी.वी.चैनलों के कुछ अतिथियों की उत्तेजक टिप्पणियों को याद कीजिए।

 याद रहे कि 20 जनवरी, 1962 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बी.पी.सिन्हा की अध्यक्षता वाले संविधान पीठ ने कहा कि 

  ‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है,जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े।’

  यानी उपर्युक्त टिप्पणियों को वाणी की स्वतंत्रता के नाम पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 

  हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह राजद्रोह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1962 के निर्णय पर अब भी कायम है।

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--सुरेंद्र किशोर--14 अक्तूबर 20  

    

 


शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020

 कानोंकान

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सुविधाओं में भारी वृद्धि के साथ ही बढ़ती गई विधायक बनने की लालसा-सुरेंद्र किशोर

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बिहार में इन दिनों विधायक बनने की अभूतपूर्व आपाधापी है।

लगता है कि राजनीति में अब चुनावी टिकट ही सब कुछ है।

उसके लिए कोई दल छोड़ रहा है तो कोई सिद्धांत।

 साथ ही, इस चुनाव में कुछ नेताओं ने ऐसी शक्तियों से भी समझौता कर लिया है जो हमारे राज्य के लिए भयंकर रूप से खतरनाक साबित हो सकती  हैं।

  विधायकों के साथ जुड़े घोषित-अघोषित अधिकार,आकर्षण और सुविधाएं दिन प्रतिदिन बढ़ते जाने के कारण

टिकट की लालसा में तीव्रता आती गई है।

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  कभी कुछ नेताओं ने लौटा दिए थे टिकट

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  एक समय इस राज्य में ऐसे नेता भी थे जो टिकट आॅफर होने के बावजूद चुनाव लड़ने को तैयार नहीं होते थे।

कई नेता अपने परिजन को इससे दूर रखते थे।

 1969 में पीरो से पूर्व विधायक राम इकबाल बरसी ने 1977 में यह कहते हुए चुनाव लड़ने से मना कर दिया था कि ‘‘बार -बार मैं ही चुनाव लड़ूंगा ?’’

उन्होंने पार्टी से कहा कि किसी वर्कर को टिकट दे दीजिए।

  उसी साल समाजवादी धड़े ने चम्पा लिमये को मुंगेर से लोक सभा चुनाव लड़वाने का प्रस्ताव रखा।

इस पर उनके पति मधु लिमये ने कह दिया कि वहां सेे श्रीकृष्ण सिंह को टिकट दीजिए।

वही हुआ।

जनता पार्टी के श्रीकृष्ण सिंह 1977 में मुंगेर से लोक सभा के सदस्य चुने गए।

शिवानंद तिवारी ने भी 1977 में विधान सभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया था।

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   विधायकों की सुविधाएं

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1972 में बिहार के विधायक को हर माह तीन सौ रुपए मिलते थे।

कमेटी की बैठक होने पर 15 रुपए दैनिक भत्ता।

तब कर्पूरी ठाकुर अपने परिवार से कहा करते थे कि आप लोग पटना के बदले गांव जाकर रहिए।

 1974 में मैंने देखा था कि समाजवादी पार्टी के एक ईमानदार एम.एल.सी. के यहां उनके परिवार के सदस्यों की संख्या के अनुसार आलू गिनकर सब्जी बनती थी।

 जे.पी.आंदोलन के समय प्रतिपक्ष के विधान सभा सदस्यों ने तो इस्तीफा दे दिया।

एम.एल.सी.ने कमेटी का बहिष्कार कर रखा था।

 उसके विपरीत आज विधायक को कितनी घोषित-अघोषित सुविधाएं मिलती हैं ?

थोड़ा लिखना, अधिक समझना !

फिर विधायक बनने के लिए आकर्षण क्यों न बढ़े ?

  कहीं मंत्री बन गए, तब तो कहना ही क्या।

हाल में एक व्यक्ति ने खुश होकर मुझे एक खास बात बताई।

कहा कि हमारे क्षेत्र से एक ऐसे निवत्र्तमान विधायक को फिर से उम्मीदवार बना दिया गया है जो अंचल कार्यालय

के अफसरों से कभी ‘‘चंदा’’ नहीं लेते।

 बिहार के इस चुनाव में खूब राजनीतिक व गैर राजनीतिक ‘‘खेल-तमाशे’’हो रहे हैं।

 उसे देखकर यही लगता है कि इस देश-प्रदेश की राजनीति दिन -प्रति रसातल में जा रही है।

हालांकि यह कहना भी सही नहीं होगा कि सारे विधायक व सांसद और मंत्री लोभी ही हैं।

   कई तो अब भी बहुत ठीकठाक हैं।

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भूली-बिसरी याद

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  फणीश्वरनाथ रेणु की साठ के दशक में लिखित एक रपट का एक अंश यहां प्रस्तुत है।

‘‘बिहार के पुलिस मंत्री रामानंद तिवारी ने चंद रोज पहले  पत्रकार सम्मेलन में रहस्योद्घाटन के भाव में एक ऐसी बात कही जिसका न कहा जाना ही ज्यादा अच्छा था।

उन्होंने कहा कि इन दिनों कांग्रेसी नेता हमारी सरकार को कमजोर करने की जी -तोड़ कोषिष कर रहे हैं।

 कांग्रेस के ऐसे ही एक नेता ने संसोपा विधायक लोहारी राम को फुसलाने और पार्टी से अलग हो जाने के लिए कई प्रलोभन दिए।

जब लोहारी राम किसी भी षर्त पर राजी नहीं हुए तो उन्होंने पूछा कि तुम संसोपा छोड़ने की क्या कीमत चाहते हो ?

  लोहारी राम ने कहा -‘क्योंकि मेरी पत्नी काफी बूढ़ी हो गई है अतः मैं एक नई और नौजवान पत्नी चाहता हूं।’

लोहारी राम की षर्त सुनने के बाद वह कांग्रेसी नेता चुप हो गए।’’

  दरअसल लोहारी राम किसी भी कीमत पर दल छोड़ना नहीं चाहते थे।

इसीलिए उन्होंने ऐसी शत्र्त बता दी जो पूरी होने वाली नहीं थी।

मैंने भी उस विधायक को देखा था।

सिर में मुरेठा और हाथ में लाठी।

यह याद नहीं कि उनके पैरों में जूते थे या नहीं।

अभाव के बावजूद वे लालच से दूर थे।

वे 1967 में गया जिले के मखदुमपुर से विधायक चुने गए थे।

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 चुनाव में संवेदनशील तो 

आम दिनों में क्यों नहीं ?

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दानापुर विधान सभा क्षेत्र के सभी 515 मतदान केंद्रों को अति संवेदनशील घोषित कर दिया गया है।

मनेर के 417 में से 341 बूथों को भी अति संवेदनशील घोषित किया गया है।

इस तरह बिहार के कई विधान सभा क्षेत्रों के अनेक मतदान केंद्रों को अति संवेदनशील घोषित किया गया है।

यह सब हर चुनाव से पहले किया जाता रहा है।

ऐसा क्यों किया जाता है,यह जग जाहिर है।

फिर तो सामान्य दिनों में उन जगहों की विशेष निगरानी पुलिस क्यों न करे।

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 और अंत में

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   टिकट से वंचित हो जाने के बाद कितने नेताओं ने दल छोड़े ?

यह विवरण पेश करना अब अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह गया है।

यह तो आम चलन हो चुका है।

बल्कि पता इस बात का लगाया जाना चाहिए कि टिकट न मिल पाने के बावजूद कितने नेतागण अपने-अपने दल में बने रह गए।

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कानोंकान,प्रभात खबर,पटना

16 अक्तूबर 20


    बिहार की सत्ता के समीकरण 

        -- सुरेंद्र किशोर --

    बिहार के आगामी विधान सभा चुनाव के नतीजों को लेकर

अटकलों का बाजार अभी से गर्म है।

तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं,पर, राज्य के चुनावी राजनीतिक गणित को समझने वालों के लिए यह कोई पहेली नहीं है।

   पिछले कुछ चुनावों के नतीजों से यह साफ है कि राज्य के अधिकतर मतदाता राजनीतिक शक्तियों जदयू, भाजपा और राजद के साथ प्रमुखता से जुड़ चुके हैं।

   इनमें से कोई भी दो दल मिलकर तीसरे को हरा देते हैं।

   सन 2010 के बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा और जदयू ने मिलकर कुल 243 में से 206 सीटें हासिल कर ली थीं तो 2015 के विधान सभा चुनाव में  जदयू और राजद  मिलकर विजयी रहे थे।

  दरअसल असली ताकत जदयू- राजद की ही थी,

लेकिन कांग्रेस ने इस गठबंधन में शामिल होकर 27 सीटें हासिल कर लीं।

  आगामी चुनाव में जदयू,भाजपा और लोजपा साथ-साथ रहेंगेे,इसकी संभावना है।

ऐसी स्थिति में राजद के लिए कोई संभावना नहीं बनती प्रतीत हो रही है।

  2010 के विधान सभा चुनाव में राजद और लोजपा ने साथ

मिलकर चुनाव लड़ा था।

दोनों को मिलाकर विधान सभा की मात्र 25 सीटें ही मिल पाई थीं।

   हां, लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी तत्व अधिक प्रभावकारी रहता है।

2014 के लोक सभा चुनाव में जदयू भाजपा के साथ नहीं था।

इसके बावजूद राजग को बढ़त मिली।

  2019 के लोक सभा चुनाव में तो भाजपा-जदयू-लोजपा ने मिलकर बिहार में कमाल ही कर दिया।

मुस्लिम बहुल क्षेत्र किशनगंज को छोड़कर बाकी सभी 39 सीटें 

राजग को मिल र्गइं।

उसी मोदी लहर की पृष्ठभूमि में बिहार विधान सभा का अगला आम चुनाव होने जा रहा है।

राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश बिहार में राष्ट्रीय स्तर की घटनाओं का भी असर पड़ता रहता है।

हाल के महीनों में इस तरह की कुछ ऐसी बड़ी घटनाएं हुई हैं जिनका श्रेय नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार  को मिला है।

  राम विलास पासवान ने लोजपा की कमान  पुत्र चिराग पासवान को सौंप दी है।

उन्हें भाजपा से तो नहीं किंतु मुख्य मंत्री नीतीश कुमार से कई शिकायतें हैं।

  चिराग के ऐसे  बयान आते रहते हैं जिनसे लगता है कि शायद उनकी पार्टी राजग से अलग हो जाएगी।

लेकिन लगता यही है कि विधान सभा की अधिकाधिक सीटों पर लड़ने के लिए लोजपा का नया नेतृत्व दबाव बना रहा है।

नीतीश विरोधी बयान उसी रणनीति का हिस्सा है।

 अंततः क्या होगा,यह तो आने वाले कुछ सप्ताह बताएंगे,पर यदि महत्वाकांक्षी लोजपा राजग से अलग भी हो जाए तो 

उसका कोई खास असर नतीजे पर नहीं पड़ेगा।

   लोजपा के विकल्प के जुगाड़ में भी बिहार राजग का नेतृत्व लगा हुआ है।

  असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ए.आई.एम.आई.एम. भी राजग को चुनावी लाभ पहंुचा सकती है।

  गत लोक सभा चुनाव में किशनगंज में भले कांग्रेस उम्मीदवार की जीत हुई,फिर भी ओवैसी की पार्टी  के उम्मीदवार को 2 लाख 95 हजार वोट मिल गए।

 2019 में हुए किशनगंज विधान सभा उप चुनाव में ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार की जीत हो गई।

इससे  ए.आई.एम.आई.एम. का मनोबल बढ़ गया है।

ओवैसी ने  देश में  अपनी पार्टी के फैलाव की महत्वाकांक्षी योजना बना रखी है।

   बिहार विधान सभा चुनाव में उनके दल ने 32 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने का निर्णय किया है।

जाहिर है कि वे 32 सीटें वैसी होंगी जहां मुसलमानों की अच्छी -खासी आबादी है।

  मुख्यतः एम.-वाई. यानी मुस्लिम-यादव वोट समीकरण पर निर्भर राजद की राह में ओवैसी का दल रोड़ा बनने वाला  हैं।

 इसका  सीधा लाभ राजग को मिलेगा।

    वैसे तो बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने अपनी पिछली गलतियों के लिए मतदाताओं से सार्वजनिक रूप से माफी मांगी है,

किंतु राजद ने सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण के

विधेयक का जो विरोध कर दिया था ,उसके लिए उन्होंने कोई माफी नहीं मांगी है।

इस विरोध के कारण  गत लोक सभा चुनाव में राजद के कम से कम दो जीतने योग्य सवर्ण उम्मीदवार  हार गए थे।

   अब सवाल है कि विधान सभा चुनाव में अपवादों को छोड़कर सवर्ण मतदाताओं के मत राजद को

 कैसे मिल पाएंगे ?

 राजद के समक्ष यह एक बड़ी चुनौती है।

 बीते दिनों  राजद से जुड़े  विधान परिषद के पांच सदस्य जदयू में शामिल हो गए।

 छह बिहार विधान सभा सदस्यों ने भी राजद छोड़कर 

जदयू का दामन थाम लिया।

  आश्चर्यजनक रूप से छह में तीन यादव थे ।

 राजद छोड़ने वाले 5 एम.एल.सी. में भी यादव व मुस्लिम शामिल थे ।

     इतने कम समय में इतनी बड़ी संख्या में विधायकों के राजद छोड़ने का हाल के वर्षों में एक रिकाॅर्ड है।

  अब सवाल है कि ये विधायक राजद में अपना राजनीतिक भविष्य क्यों नहीं देख पा रहे थे ?

क्या उन्होंने हवा का रुख पहचान लिया है ?

    अपने चुनावी भविष्य के प्रति चिंतित कांग्रेस व राजद के विधायकों में से कुछ अन्य विधायक भी आने वाले दिनों में दल छोड़ दें तो कोई अचम्भे की बात नहीं होगी।

    कोरोना काल में हो रहे चुनाव में अधिक से अधिक मतदाताओं को मतदान केंद्रों पर पहुंचाना भी राजनीतिक दलों के लिए एक चुनौती होगी।

ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि  अल्पसंख्यक और यादव मतदाता पहले की अपेक्षा अधिक उत्साह से मतदान केंद्रों पर पहुंचेंगे,

 किंतु राजग के मतदाता खासकर शहरी मतदाता आलस्य व ‘कोरोना ग्रंथि’ के शिकार हो सकते हैं।

  वैसे चुनावी मुकाबले में राजद जब- जब अपनी 

 अधिक ताकत दिखाने लगता है,तब -तब  लालू विरोधी मतदाता भी  सक्रिय हो जाते हैं।

याद रहे कि लालू प्रसाद का परंपरागत यादव -मुस्लिम वोट 

अपवादों को छोड़कर राजद के साथ हैं।

पर साथ ही 15 साल का ‘जंगल राज’ झेल चुके लालू विरोधी

मतदाताआंे में इस बार भी उत्साह की कमी नहीं होगी,ऐसी उम्मीद राजग जाहिर कर रहा है।

  आगामी विधान सभा चुनाव में राजग का पलड़ा भारी जरूर नजर आ रहा है,पर कई कारणों से बिहार का यह चुनाव पहले की तरह ही दिलचस्प और तनावपूर्ण रहेगा, भले पहले की तरह हिंसक न हो।

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दैनिक जागरण-1 सितंबर 2020


 बिहार की चुनावी राजनीति में विवादास्पद 

‘सोशल डेमोक्रटिक पार्टी आॅफ इंडिया’ का भी 

प्रवेश हो गया।

पूर्व सांसद पप्पू यादव के सौजन्य से ऐसा हुआ है।

राष्ट्रीय टी.वी.चैनलों पर अपनी विवादास्पद टिप्पणियों के 

लिए चर्चित एस.डी.पी.आई.उपाध्यक्ष तसलीम रहमानी आज पटना में थे।

आगे -आगे देखिए होता है क्या !

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सुरेंद्र किशोर-6 अक्तूबर 20


बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

   नार्को टेस्ट वाले अपने निर्णय

  पर पुनर्विचार करने के लिए 

 सरकार करे सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश

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  सेल्वी बनाम कर्नाटका सरकार मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में कहा था कि 

‘‘किसी की इच्छा के विरूद्ध उसका नार्को टेस्ट नहीं किया जा सकता है।’’

  याद रहे कि नार्को ,पाॅलिग्राफिक और ब्रेन मैपिंग टेस्ट के अभाव में इस देश में बहुत सारे खूंखार अपराधी,देशद्रोही  व घोटालेबाज लोग कानून से साफ बच जा रहे  हैं।

बच जाने के बाद वे फिर उसी तरह के अपराध में लग जाते हैं।

  ऐसे टेस्ट अदालत के आदेश से होते जरूर हैं,पर बहुत कम।

इसलिए केंद्र सरकार को चाहिए कि वह देशहित में इस निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से अपील करे। 

कानून के शासन को मजबूत करने के लिए ऐसे टेस्ट जरूरी हैं।

इस देश में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का हाल बुरा है।

  सुप्रीम कोर्ट कई बार अपने पिछले निर्णय को पलटता भी रहा है।

  उदाहरणार्थ, सन आपातकाल में 1976 में इंदिरा गांधी सरकार के एटाॅर्नी जनरल नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट को बता दिया था कि 

‘‘यदि आपातकाल में स्टेट किसी की जान भी ले ले तौभी उसके खिलाफ अदालत की शरण नहीं ली जा सकती।’’

ऐसा अंग्रेजों के राज में भी नहीं था।

 सुप्रीम कोर्ट ने इमरजेंसी में तो यह मान लिया था कि इंदिरा सरकार को कानूनी प्रक्रिया के बिना भी किसी की जान ले लेने का पूरा अधिकार है।

  पर सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में इमरजेंसी के अपने ही उस निर्णय को पलट दिया।

उसी तरह यह उम्मीद की जानी चाहिए कि व्यापक जनहित व कानून के शासन को देखते हुए

सुप्रीम कोर्ट नार्को टेस्ट वाले अपने निर्णय को पलट सकता है यदि सरकार उससे  विनती करे।

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--सुरेंद्र किशोर--4 अक्तूबर 20


   सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वालों 

   के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें 

गाली-गलौज बिलकुल बर्दाश्त न करें

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     --सुरेंद्र किशोर--

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बिहार में चुनाव के करीब आने के साथ ही सोशल मीडिया 

पर गाली-गलौज की रफ्तार बढ़ गई है।

समय के साथ और भी बढ़ेगी।

इसका समाज पर बुरा असर पड़ेगा।

तनाव बढ़ेगा।

इसलिए शरीफ -शालीन लोगांे को इस गाली- गलौज की क्राॅस फायरिंग से अलग ही रहना चाहिए।

क्योंकि सोशल मीडिया पर जिस तरह की गाली -गलौज होगी,उसका अनुकरण सरजमीन पर यानी गली-कूचे , हाट -बाजार में भी किया जाएगा।

    इसलिए गाली -गलौज व अशिष्ट-अशालीन शब्दावली का इस्तेमाल करने वालों को अनफं्रेड करें।

कम से कम डिलीट तो तत्काल ही कर दें।

  यदि कोई सीमा से बाहर जा रहा हो तो उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत करें।

   जो सोशल मीडिया को कचरा बनाने के जिम्मेदार होंगे, उन्हें अगली पीढ़ियां माफ नहीं करेगी।

   मुझे आश्चर्य होता है कि कुछ नेता व अन्य लोग गाली-गलौज बर्दाश्त कर रहे हैं।

  दरअसल इस तरह अनजाने में  वे शालीन-शिष्ट समाज के विरोधी लोगों को बढ़ावा देने के दोषी माने जाएंगे।

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सोशल मीडिया उनके लिए बहुत बड़ा हथियार है जिन्हें मुख्य मीडिया में जगह नहीं मिलती या कम मिलती है।

इस हथियार का सदुपयोग करिएगा तो यह बचा रहेगा।

नहीं कीजिएगा तो एक बड़ा साधन एक न एक दिन आपके हाथों से छिन जाएगा।

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 --14 सितंबर 20


     बिहारी राजनीति में न्यूटन का तीसरा नियम

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बिहार में समाज का कोई समूह जब आम चुनाव से ठीक पहले 

किसी नेता,दल या गठबंधन के खिलाफ मुखर हो जाए तो क्या होता है ?

   उस पर न्यूटन की  तीसरा  नियम लागू हो जाता है।

पहले ऐसा हुआ है।

मुखरता इस बार भी प्रकट हो रही है।

देखना है कि दिवंगत न्यूटन साहब इस बार फेल होते हैं या पास ?

न्यूटन का तीसरा नियम यह है कि हर क्रिया के विपरीत उतनी ही ताकत से समान प्रतिक्रिया होती है।

यानी, आप जितनी ताकत से किसी को मुक्का मारेंगे तो 

आपको भी उतने ही जोर का मुक्का वापस मिलेगा।

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--सुरेंद्र किशोर-13 अक्तूबर 20  


  चीन ताकतवर देश इसलिए बन सका क्योंकि 

उसने भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी का प्रावधान 

किया और आतंकियों के लिए ‘सुधार गृहों’ का,जिन्हें 

कुछ लोग यातना गृह भी कहते हैं।

चीन के सीमा सुरक्षाकर्मियों को निदेश है कि वे घुसपैठियों को देखते ही गोली मार दें।

    इसके विपरीत भारत ने आजादी के बाद

से ही इन मामलों में बिल्कुल उल्टा रवैया अपनाया।

  नतीजा सामने है।

 इन दो मामलों में राष्ट्रहित में यदि हम चीन से शिक्षा ग्रहण कर लें तो हम भी महाबली बन जाएंगे। 

फिर तो चीन हमें आंखें नहीं दिखा पाएगा।

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--सुरेंद्र किशोर-14 अक्तूबर 20


 


मंगलवार, 13 अक्टूबर 2020

  मामला पी.एफ.के पैसे के ट्रांसफर का

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मेरी एक चिट्ठी के जवाब में पासवान जी 

ने मुझे लिखी थीं 6 चिट्ठियां

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उनसे पहले के श्रम मंत्री ने तो मेरी गुजारिश पर

कोई ध्यान ही नहीं दिया था

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  --सुरेंद्र किशोर-- 

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पहली बार मैंने सन 1969 में राम विलास पासवान का नाम सुना था।

सिर्फ इसलिए नहीं कि वे संसोपा के विधायक बनकर पटना आए थे।

बल्कि इसलिए कि आते -आते वे संसोपा विधायक दल के नेता पद के उम्मीदवार बन गए थे।

1969 में बिहार विधान सभा का मध्यावधि चुनाव हुआ था।

उसमें संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के  50 से अधिक विधायक चुन कर आए थे।

 संसोपा विधायक दल के नेता पद का चुनाव हो रहा था।

 रामानंद तिवारी और धनिकलाल मंडल के अलावा राम विलास पासवान भी उम्मीदवार थे।

  आश्चर्य हुआ।

उस दल में तब नेताओं के वरीयता व कृतित्व पर अधिक ध्यान दिया जाता था।

स्वाभाविक ही था, पासवान जी बुरी तरह हारे।

तिवारी जी जीत गए।

पर पासवान जी लोगों की नजरों में जरूर आ गए।

  1977 में लोकसभा में शून्य काल का बेहतर इस्तेमाल करके जिस तरह देश भर की नजरों में पासवान जी आ गए,उससे पहले 1969 में नेता पद का चुनाव लड़कर  बिहार संसोपा  की नजरों में आ गए थे।

  1972 में उनके विधान सभा चुनाव हारने तक मैं उनसे नहीं मिला था।

पर 1972 वे खुद मेरे पास आए।

तब मैं एक राजनीतिक कार्यकत्र्ता के रूप में कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था। 

  मैं कर्पूरी जी के पटना के वीरचंद पटेल पथ स्थित बंगले में ही रहता भी था।

वहां मेरा एक छोटा कमरा था।

राम विलास जी अक्सर मेरे पास आकर घंटांे बैठते थे।

उनकी दो बातें मुझे याद हैं।

एक तो वे गीत गाते थे।

दूसरी बात अधिक महत्वपूर्ण थी।

उन्होंने दक्षिण भारत के दलित नेता रामास्वामी नायकर की बातें खूब बताते थे।

  वे नायकर से प्रभावित लगे।

शालीन व्यवहार के धनी रामविलास जी दोस्तपरस्त व्यक्ति थे।

वे चाहते थे कि मैं अपने खास दोस्तों को क्या दे दूं !

 जब वे सांसद व केंद्र में मंत्री होने लगे तो उनसे मेरा संपर्क नहीं रहा।

तब तक यानी 1977 में मैं मुख्य धारा की पत्रकारिता में आ चुका था।

  वी.पी.सिंह मंत्रिमंडल के श्रम मंत्री के रूप में उनसे मुझे अपना एक काम कराना था।

दैनिक ‘आज’ से जब मैं 

जनसत्ता में गया तो पी.एफ.का मेरा पैसा नए खाते में लाख कोशिश के बावजूद ट्रांसफर नहीं हो रहा था।

पहले के श्रम मंत्री ने तो मुझे घास तक नहीं डाली।

जबकि मैं देश के एक ‘‘बोखार छोड़ाऊ’’

अखबार ‘जनसत्ता’ का बिहार संवाददाता था।वह मंत्री भी बिहार से ही थे।

नए श्रम मंत्री राम विलास पासवान को मैंने अपने पी.एफ.के संबंध में एक पत्र मामूली डाक से भेज दिया।

मैं इस द्विविधा में था कि शायद पत्र उन तक पहुंचे या नहीं पहुंचे !

  पर कमाल देखिए।

पत्र के पहुंचते ही पासवान जी ने मुझे तीन चिट्ठियां लिखीं।

सिर्फ यह सूचित करने के लिए कि आपका काम जल्द ही हो जाएगा।

एक पत्र मेरे पटना आॅफिस के पते पर।

दूसरा पत्र मेरे पटना आवास के पते पर।

तीसरा पत्र हमारे संपादक प्रभाष जोशी के केअर आॅफ में।

  काम तुरंत हो गया।

उसकी खबर व संदर्भ देते हुए फिर तीन पतों पर तीन चिट्ठियां उन्होंने भेजी।

उसी तरह पी.एफ.कार्यालय से भी मुझे उन्हीं तीन पतों पर अलग -अलग पत्र भिजवाए।

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ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं जनसत्ता मंें था।

श्रम मंत्री आम तौर अखबार वालों को बहुत भाव नहीं देते।

क्योंकि अनेक अखबार मालिक ही उनके कृपाकांक्षी होते हैं।

मैंने तब ही सुना था कि इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक अरूण शौरी ने प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह से यह कहा था कि आपके श्रम मंत्री यानी पासवान जी तो मुझे एप्वांटमेंट ही नहीं दे रहे हैं। 

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पासवान जी जब रेल मंत्री बने तो उन्होंने मुझे मेरी पूर्व सहमति के बिना रेलवे की हिन्दी सलाहकार समिति का सदस्य बना दिया।

मैंने भारी मन से उन्हें अपना इस्तीफा भेज दिया।

  आभार प्रकट करते हुए उन्हें मैंने लिखा कि 1977 में मुख्य धारा की पत्रकारिता में आने के बाद ही मैंने यह तय कर लिया  कि जब तक पत्रकारिता में रहूंगा,कोई सरकारी समिति,पद या उपहार आदि स्वीकार नहीं करूंगा।

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राम विलास पासवान की ‘राजनीति’ तथा उनकी उपलब्धियों-विफलताओं की चर्चा करने का अवसर बाद में आएगा।

अभी इतना ही कहूंगा कि राजनीति में जो लोग हैं या आते रहते हैं,वे पासवान जी से शालीनता,विनम्रता सीखें,यदि उनमें इन गुणों की कमी है।

वे ऐसी सामाजिक पृष्ठभूमि से आते थे,जिसके सदस्य में उत्पीड़क लोगों के लिए गुस्सा स्वाभाविक है।

पर, मैंने देखा कि 1972 में जिसके मन में रामास्वामी नायकर

के प्रति आदर का भाव था,उस पासवान जी में बाद के वर्षों में किसी अन्य समुदाय के प्रति जलन-गुस्सा  का कोई भाव नहीं देखा गया। 

  साथ ही, नए लोग सदस्य बनने पर वे संसद या विधान सभा के ‘जीरो आॅवर’ और ‘आधे घंटे के डिबेट’ की सुविधाओं  का बेहतर इस्तेमाल करना सीखें।

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सुरेंद्र किशोर-9 अक्तूबर 20


 


 डा.लोहिया की पुण्य तिथि पर

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‘‘बिजली की तरह कौंधो और सूरज

 की तरह स्थायी हो जाओ’’

1967 की गैर कांग्रेसी सरकारों को यही 

संदेश दिया था

 डा.राम मनोहर लोहिया ने ।

 पर, ऐसा हो नहीं सका।

क्योंकि उनकी सरकारों को यह लगा कि 

यदि व्यापक जनहित में कोई चैंकाने वाला 

काम कर देंगे तो सरकार गिर भी सकती है।

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--सुरेंद्र किशोर--

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   --1--

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 डा.राम मनोहर लोहिया मशहूर स्वतंत्रता सेनानी व समाजवादी विचारक थे।

उनकी पौरूष ग्रंथि के आॅपरेशन के बाद अस्पताल की भारी बदइंतजामी रही।

वे सेप्टिसीमिया से पीड़ित हो गए। 

उसी कारण 12 अक्तूबर, 1967 को दिल्ली के वेलिंग्टन अस्पताल में उनका निधन हो गया।

बाद में विशेषज्ञों ने बताया कि उन्हें बचाया जा सकता था।

मोरारजी देसाई के शासनकाल में चिकित्सा में लापरवाही की जांच भी हुई।

पर,कहते हैं कि संबंधित दोषी चिकित्सक एक वी.वी.आई.पी.का काफी करीबी निकल गया।

परिणामस्वरूप उसे कुछ नहीं हुआ।

सघन जांच से पता चलता कि लोहिया डाक्टरों की लापारवाही से मरे या उन्हें जानबूझ कर 

मरने दिया गया ?

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   डा.लोहिया जर्मनी में अपना आपरेशन कराना चाहते थे।

जर्मनी के एक विश्व विद्यालय ने भाषण देने के लिए उन्हें बुलाया था।

जाने-आने का खर्च वह संस्थान दे रहा था।

 आॅपरेशन के लिए बारह हजार रुपए की जरूरत थी।

उन्होंने अपने दल के एक मजदूर नेता से कहा था कि  वह मजदूरों से चंदा लेकर रुपए का इंतजाम कर दे।

पर वह मजदूर नेता समय पर पैसे का बंदोबस्त नहीं कर सका।

इस कारण जल्दीबाजी में दिल्ली के ही वेलिग्टन अस्पताल में उन्हें भर्ती कराना पड़ा।

 उस समय कई प्रदेशों में ऐसी गैर सरकारी सरकारें बन चुकी थीं जिनमें लोहिया के दल के मंत्री थे।

 डा.लोहिया ने अपने दल द्वारा शासित प्रदेशों के अपने  नेताओं से कह रखा था कि वे मेरे इलाज के लिए कोई चंदा वसूली का काम नहीं करें।

इसमें सरकारी पद के दुरूपयोग का खतरा है।

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    --2-- 

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‘‘ दरअसल देखा जाए तो धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म है।

यह है बढ़िया धर्म और बढ़िया राजनीति की परिभाषा ।

  धर्म है अच्छाई को करना और अच्छाई की तारीफ करना और राजनीति है बुराई से लड़ना और बुराई की निन्दा करना।’’

                       ---डा.राम मनोहर लोहिया,

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    --3-- 

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डा.लोहिया कहा करते थे कि जिन्हें राजनीति में काम

करना है,उन्हें अपना परिवार खड़ा नहीं करना चाहिए।

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डा.लोहिया के इस कथन का महत्व आज बौद्धिक रूप से अनेक ईमानदार लोगों को आसानी से समझ में आ सकता है । आज लगभग पूरे देश की राजनीति को परिवारवाद-वंशवाद के जहर ने आज ग्रस लिया है।

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   --4--

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साठ के दशक की बात है।

रांची में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की बैठक हो रही थी।

किसी ने डा.लोहिया को बताया कि फलां कार्यकत्र्ता शराब बेचता है।

डा.लोहिया ने उसे बुलाकर पूछा।

उसने कहा कि मेरे भोजनालय में शराब भी बिकती है।

 इस पर लोहिया ने उससे कहा कि तुम शराब बेचोगे तो हमारी पार्टी में नहीं रह सकते।

  वह तुरंत अपने होटल गया।

शराब की बिक्री तुरंत बंद करवाई ।

 लौटकर लोहिया को यह सूचना दे दी।

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डा.लोहिया ने 1967 में चुनाव के वक्त कह दिया कि देश में सामान्य नागरिक कानून लागू होना चाहिए।

खुद लोहिया एक ऐसे क्षेत्र से लोस चुनाव के उम्मीदवार थे जहां मुसलमानों की अच्छी- खासी आबादी थी।

उनके एक समाजवादी मित्र  ने उनसे कहा कि ‘‘डाक्टर साहब,आपने ऐसा बयान क्यों दे दिया ?

अब तो आप चुनाव हार जाएंगे।’’

इस पर लोहिया ने कहा मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए  राजनीति में नहीं हूं।

देश बनाने के लिए हूं।

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  --6--

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जब लोहिया सांसद बने तो उनकी मित्र व मैनकाइंड पत्रिका की संपादक प्रो.रमा मित्र ने उनसे कहा कि अब आप कार खरीद लीजिए।

लोहिया ने उनसे कहा कि हिसाब लगाओ।

मेरा अभी टैक्सी का महीने का खर्च कितना है ?

कार खरीदने पर कितना खर्च आएगा ?

यदि पहले से कम खर्च आएगा तो कार खरीद लूंगा।

चूंकि खर्च ज्यादा आ रहा था,इसलिए लोहिया अंत अंत तक टैक्सी का ही इस्तेमाल करते रहे।

  लोहिया के बारे में 1967 की एक बात डा.खगेंद्र ठाकुर मुझे बताई थी।

खगेंद्र जी ने एक दिन भागलपुर बस स्टैंड पर लोहिया को देखा।

वे दिल्ली से ट्रेन से आए थे और दुमका वाली बस में सवार थे।

  पूछा तो बताया कि दुमका जा रहे हैं।वे अपने मित्र व मशहूर स्वतंत्रता सेनानी रामनंदन मिश्र से मिलने जा रहे थे।

 दरभंगा जिले के मूल निवासी मिश्र जी अपने पुत्र के साथ दुमका में रहते थे।

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याद रहे कि 1967 में बिहार में गैरकांग्रेसी सरकार थी।

डा.लोहिया के दल के कर्पूरी ठाकुर उप मुख्य मंत्री,वित्त मंत्री और शिक्षा मंत्री थे।

 किसी अन्य दल का शीर्षस्थ नेता क्या भागलपुर से दुमका बस से जाता ?!!  

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12 अक्तूबर 2020


  पिछले आम चुनाव में किसे जीत जाने की 

आप भविष्यवाणी कर रहे थे ?

उससे पहले के चुनावों में किसे जिता 

 रहे थे आप ?

और वास्तव में विजयी कौन हुआ ?

उसे आप याद कर लेंगे तो बिहार चुनाव को लेकर 

भविष्यवाणी करने से पहले आप दो बार जरूर 

सोचेंगे।

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कई आम चुनावों से मैं एक काम करता रहता हूं।

मतदान पूर्व रिजल्ट को लेकर भविष्यवाणियों को छिटपुट ढंग से अपनी डायरी में नोट कर लेता रहा हूं।

रिजल्ट के बाद उसे पढ़ता हूं।

सब तो नहीं,लेकिन अधिकतर पत्रकारों,बुद्धिजीवियों व विश्लेषणकत्र्ताओं की भविष्यवाणियों में एक खास पैटर्न देखा जाता है।

 खुद जैसा रिजल्ट वे चाहते हैं, सार्वजनिक रूप से यह भविष्य

वाणी कर देते हैं कि फलां दल या गठबंधन ही सत्ता में आ रहा है।

  इसमें राष्ट्रीय स्तर का एक नामी पत्रकार अपवाद है।

 कुछ और भी अपवाद होंगे,पर मैं उस खास पत्रकार की भविष्यवाणी को अक्सर सही पाता हूं।

वह पत्रकार जिस विचारधारा का है या उसका जिस तरफ खास कारणों से झुकाव रहता है,वह बात पूरा देश जानता है।

   पर आश्र्चजनक रूप से उसकी भविष्यवाणी का उसके झुकाव से कोई तालमेल नहीं होता।

  मैं बिहार चुनाव के रिजल्ट को लेकर भी उसके लेख की प्रतीक्षा कर रहा हूं।

   क्या बाकी लोगों में भी ऐसी वस्तुपरकता नहीं आ सकती ?

कुछ में तो चाहते हुए भी नहीं आ सकती।

उनकी अपनी- अपनी मजबूरियां है।

 पर जिनकी कोई मजबूरी नहीं है,उनके लिए बिहार चुनाव एक मौका है। 

इस अवसर पर वे अपनी साख बचा सकते हैं और कुछ अन्य लोग पहले से बिगड़ी अपनी साख में सकारात्मक सुधार भी  कर सकते हैं।

   वे लोग यदि पिछले चुनावों की अपनी भविष्यवाणियां याद कर लें तो उनमें ऐसा परिवत्र्तन आ सकता है ।

इससे लोग उन्हें अब अभियानी न कहकर वस्तुपरक कहेंगे।

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--सुरेंद्र किशोर--12 अक्तूबर 20