सोमवार, 31 मई 2021

 


मुम्बई के अनुभव जायसवाल को बना सकते हैं सफल सी.बी.आई.निदेशक-सुरेंद्र किशोर

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नए सी.बी.आई.निदेशक सुबोध कुमार जायसवाल मुम्बई के पुलिस कमिश्नर रह चुके हैं।

वह महाराष्ट्र के डी.जी.पी. भी थे।

  जिसने मुम्बई के अपराध जगत से प्रभावशाली लोगों की साठगांठ की कहानी जान -समझ ली  है,उसे देश

में फैली इस घातक बीमारी को समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी।

   माना जा रहा है कि उस घातक बीमारी से लड़ने के लिए जायसवाल सर्वाधिक उपयुक्त अफसर साबित हो सकते हैं।

उनका सेवाकाल अभी दो साल बचा है।

उधर नरेंद्र मोदी सरकार भी सन 2024 तक है।

  बड़े कानून तोड़कों के खिलाफ भी समुचित कानूनी कार्रवाई करने में मोदी सरकार बाधक बनेगी,इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती।

  समझा जाता है कि एन.एन.वोहरा समिति ने मुख्यतः मुम्बई को  ध्यान में रखकर ही 1993 में अपनी चर्चित रपट तैयार की थी।

उस रपट में कहा गया है कि ‘‘ इस देश में अपराधी गिरोहों, हथियारबंद सेनाओं, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले माफिया गिरोहों, तस्कर गिरोहों,आर्थिक क्षेत्रों में सक्रिय लाॅबियों का तेजी से प्रसार हुआ है।

   इन लोगों ने विगत कुछ वर्षों के दौरान स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों, सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों, राजनेताओं, मीडिया से जुड़े व्यक्तियों तथा गैर सरकारी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के साथ व्यापक संपर्क विकसित किये हैं।’’

   यह संयोग नहीं है कि श्री जायसवाल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की भी पसंद हैं।

महाराष्ट्र में जब डी.जी.पी. के रूप में काम करते समय  

 जायसवाल उद्धव सरकार के साथ असहज महसूस करने लगे थे तो उन्हें केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर लाया गया था।

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छायाकारों के लिए भी मास्क नहीं हटाया

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सुबोध कुमार जायसवाल ने बुधवार को निदेशक पद का कार्यभार संभाला।

उन्होंने अपने चेहरे पर डबल मास्क लगा रखा था।

छायाकारों के लिए भी उन्होंने अपने मास्क नहीं हटाए।

उम्मीद है कि वे अपने पूरे कार्यकाल में किसी के दबाव में नहीं आएंगे । नियम, कायदे -कानून के अनुसार ही काम करेंगे।

उम्मीद है कि जायसवाल जी बिहार के उन कुछ उलझे हुए मामलों को भी सुलझाने में मदद करेंगे जिनकी जांच सी.बी.आई.लंबे समय से कर रही है।

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 अमीरों का पलायन

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अपार पैसे रहने के बावजूद जिन लोगों के बीमार परिजनों का

यहां इलाज नहीं हो सका,उनमें से कई लोग इस देश को छोड़कर अब विदेश में बस जाना चाहते हैं।

  ताजा खबर के अनुसार ऐसे लोग इस बात का पता लगा रहे हैं कि किस देश का वीसा जल्द व आसानी से मिल सकता है।  

    यह तो अपने देश की समस्या से पलायन है। देश प्रेम की कमी है।

  जहां जा रहे हो,वहां इस तरह की समस्या आएगी तो फिर कहां जाओगे ?

लोकतांत्रिक देश भारत में ही रहकर उन्हें सरकारों पर दबाव बनाना चाहिए था ताकि स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हों।

 लेकिन लगता है कि उन्हें यहां की सरकार व सिस्टम पर उन्हें भरोसा नहीं है।

ऐसी स्थिति में यहां की सरकारों को भी चाहिए कि वे लोगों को अभी से भरोसा दिलाए कि कोविड संकट समाप्त हो जाने के बाद हम बेहतर स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के लिए प्रतिबद्ध है।

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कब लागू होगी रोहिणी 

आयोग की सिफारिश

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संकेत हैं कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव से ठीक पहले 

रोहिणी आयोग की सिफारिश सरकार लागू करेगी।

नरेंद्र मोदी सरकार ने अक्तूबर, 2017 में आयोग का गठन किया था।

  आयोग ने सर्वेक्षण में यह पाया कि 

कुल 2633 पिछड़ी जातियों में से करीब 1000 जातियों को तो आज तक मंडल आरक्षण का कोई लाभ मिला ही नहीं।

रोहिणी न्यायिक आयोग ने मंडल आरक्षण के तहत निर्धारित 

27 प्रतिशत आरक्षण को चार भागों में बांट देने की 

सिफारिश केंद्र सरकार से की है।

   यदि सिफारिश मान ली गई तो केंद्र की सूची में शामिल 97 मजबूत पिछड़ी जातियों को 27 में 10 प्रतिशत हिस्सा मिलेगा।

  1674 जातियों को दो प्रतिशत, 534 जातियों को 6 प्रतिशत और 328 जातियों को 9 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा।

राजनीतिक विश्लेषणकत्र्ताओं का यह मानना है कि इस सिफारिश को लागू कर दिए जाने के बाद राजग खासकर उत्तर प्रदेश में भाजपा का एक ठोस वोट बैंक तैयार हो जाएगा।

इसके जरिए वह अगले चुनाव में ‘‘सत्ता विरोधी हवा’’ का शिकार होने से बच जाएगी।

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       सहमे-सहमे बाहुबली

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इन दिनों बिहार में बड़े- बड़े बाहुबलियों के भी बुरे दिन चल रहे हैं।

 वे कभी अपने -अपने इलाकों में राज करते थे।

उनके बुरे दिनों को देखकर कुछ अन्य बाहुबली सहम गए हैं।

ऐसे ही एक बाहुबली ने हाल में अपने सहकर्मियों से कहा कि अब जोर -जबर्दस्ती का कोई 

काम नहीं होगा।

शांति बनी रहनी चाहिए।

आसपास के इलाकों में भी लोगों के बीच जो आपसी झगड़े हैं,उसके बारे में हमें जानकारी दो।

 सुलह कराने की कोशिश होगी।

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 और अंत में

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पश्चिम बंगाल के भाजपा विधायकों को केंद्र सरकार ने 

‘एक्स’ श्रेणी की सुरक्षा दी है।

क्या इसके बावजूद वे अपने प्रदेश या चुनाव क्षेत्र में 

सुरक्षित हैं ?

इस संबंध में परस्पर विरोधी खबरें आ रही हैं।

एक वायरल वीडियो के

अनुसार एक भाजपा विधायक चुनाव जीतने के बाद पहली बार अपने गांव गए थे।

वीडियो में यह देखा जा रहा है कि वहां के कुछ लोग उन्हें लाठी लेकर खदेड़ रहे हैं।उनकी गाड़ी तोड़ रहे हैं।

  सुरक्षाकर्मी उन्हें सुरक्षित स्थान की ओर ले जाने लिए विधायक महोदय को अपने साथ भगा रहे हैं। 

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कानोंकान,प्रभात खबर

पटना

28 मई 21


 ‘‘वोट की राजनीति’’ के समक्ष कुछ नेताओं के 

दिल ओ दिमाग में देश कहीं नहीं आता !

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  --सुरेंद्र किशोर--

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बांग्ला देशी घुसपैठियों पर वोट के 

लिए हमारे नेताओं के बदलते रुख !

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पश्चिम बंगाल के कुछ खास इलाकों से 

बहुसंख्यक समुदाय के लोग क्यों भगाए जा रहे ?

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ममता बनर्जी ने 2005 में जिन घुसपैठियों को महा 

विपत्ति बताया था,वे आज उनके लिए महा संपत्ति

कैसे बन गए ?

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बाकी देश पश्चिम बंगाल को एक और कश्मीर बनते देखेगा ?

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सन 1992 में तब के सत्ताधारी कांग्रेस,माकपा और जनता दल ने देश के सीमावत्र्ती इलाकों के निवासियों के लिए परिचय पत्र बनाने की जरूरत बताई थी।

आज वे क्यों बदल गए हैें ?

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  बांग्ला देशी घुसपैठियों की समस्या से पीड़ित राज्यों का  सम्मेलन सितंबर, 1992 में दिल्ली में हुआ था।

 पी.वी.नरसिंह राव सरकार के गृह मंत्री एस. बी. चव्हाण की अध्यक्षता में असम, बंगाल, बिहार, त्रिपुरा, अरुणाचल और मिजोरम के  मुख्यमंत्री और मणिपुर, नगालैंड एवं दिल्ली के प्रतिनिधि उस सम्मेलन में शामिल हुए थे।

    याद रहे कि तब असम के मुख्य मंत्री हितेश्वर साइकिया (कांग्रेस),बंगाल के मुख्य मंत्री ज्योति बसु

(सी.पी.एम.) और बिहार के मुख्य मंत्री लालू प्रसाद(जनता दल) थे।

  सम्मेलन में सर्वसम्मत प्रस्ताव पास किया गया।

प्रस्ताव यह हुआ कि 

‘‘देश के सीमावर्ती जिलों के निवासियों को परिचय पत्र दिए जाएं।’’

सम्मेलन की राय थी कि

 ‘‘बांग्ला देश से बड़ी संख्या में अवैध प्रवेश के कारण देश के विभिन्न भागों में जनसांख्यिकीय परिवत्र्तन सहित अनेक गंभीर समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं।

  इस समस्या से निपटने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा मिलकर एक समन्वित कार्य योजना बनाने पर भी सहमति बनी।’’

 किंतु हुआ कुछ नहीं।

 नतीजतन 1992 और 2021 के बीच समस्या और भी गंभीर हो गई है।

 इसके बावजूद इस अति गंभीर समस्या पर आज विभिन्न गैर राजग दलों की राय देशहित से कितनी अलग है ?

आखिर क्यों ?

क्योंकि इसे ही ‘आधुनिक राजनीति’ कहते हैं जिसमें देश कहीं नहीं आता है ।

  ताजा खबर यह है कि पश्चिम बंगाल के जो जिले बंाग्ला देशी घुसपैठियों के कारण मुस्लिम बहुल हो चुके हैं,वहां हिन्दुओं को पूजा पाठ करने के लिए मस्जिदों से इजाजत लेनी पड़ रही है।

  इस खबर की सच्चाई जानने के लिए कितने संवाददाता बंगाल के उन समस्याग्रस्त जिलों के गांवों का दौरा किया है ?

   उपर्युक्त बात हाल में लोक सभा में भी कही गई।

यह भी कहा गया कि कोई मीडिया संगठन इस समस्या की रिपोर्ट नहीं कर रहा हैं।

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  सन 2005 की ममता बनर्जी

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यह बात तब की है जब पश्चिम बंगाल में अवैध घुसपैठियों के अधिकतर वोट वाम मोरचा को मिलते थे

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4 अगस्त, 2005 को ममता बनर्जी ने लोक सभा के स्पीकर के टेबल पर कागज का पुलिंदा फेंका।

उसमें अवैध बांग्ला देशी घुसपैठियों को मतदाता बनाए जाने के सबूत थे।

उनके नाम गैरकानूनी तरीके से मतदाता सूची में शामिल करा दिए गए थे।

ममता ने तब लोक सभा में कहा था कि घुसपैठ की समस्या राज्य में महा विपत्ति बन चुकी है।

इन घुसपैठियों के वोट का लाभ वाम मोर्चा उठा रहा है।

उन्होंने उस पर सदन में चर्चा की मांग की।

चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता

 से इस्तीफा भी दे दिया था।

 चूंकि एक प्रारूप में विधिवत तरीके से इस्तीफा तैयार नहीं था,

इसलिए उसे मंजूर नहीं किया गया।

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  ममता के मुख्य मंत्री बनने के बाद

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जब घुसपैठियों के वोट ममता 

बनर्जी को मिलने लगे

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3 मार्च 2020

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 ममता बनर्जी ने कहा कि 

जो भी बांग्ला देश से यहां आए हैं,बंगाल में रह रहे हैं ,

चुनाव में वोट देते रहे हैं, वे सभी भारतीय नागरिक हैं।

इससे पहले सीएए,एनपीआर और एन आर सी के विरोध में 

  ममता ने कहा था कि इसे लागू करने पर गृह युद्ध हो जाएगा । 

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अधिक समय नहीं हुए जब पश्चिम बंगाल से भाजपा सांसद ने संसद में कहा कि पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में हिंदुओं को त्योहार मनाने के 

लिए अब स्थानीय इमाम से अनुमति लेनी पड़ती है।

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कई साल पहले ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक खबर छपी थी।

उसमें एक गांव की कहानी थी।

वह गांव बांग्ला देशी मुस्लिम घुसपैठियों के कारण

 मुस्लिम बहुल बन चुका था।

वहां हिंदू लड़कियां पहले हाॅफ पैंट पहन कर 

हाॅकी खेला करती  थी।

पर, अब मुसलमानों ने उनसे कहा कि फुल पैंट 

पहन कर ही खेल सकती हो।

खेल रुक गया है।

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यह बात तब की है जब बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्य मंत्री थे।

उनका एक बयान ‘जनसत्ता’ में छपा।

उन्होंने कहा था कि घुसपैठियों के कारण सात जिलों में 

सामान्य प्रशासन चलाना मुश्किल हो गया है।

बाद में उन्होंने उस बयान का खुद ही खंडन कर दिया।

पता चला कि पार्टी हाईकमान

के दबाव में उन्होंने कह दिया कि मैंने वैसा कुछ कहा ही नहीं था।

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कई दशक पहले मांगने पर वाम मोरचा सरकार ने केंद्र

 सरकार को सूचित किया था कि 40 लाख अवैध बंाग्ला देशी पश्चिम बंगाल में रह रहे हैं।

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अनुमान लगाइए कि अब 2021 में वह संख्या

 कितनी बढ़ चुकी होगी !!!! 

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सन 2021 के पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव के बाद उस प्रदेश के कुछ जिलों की स्थिति क्या है ?

क्या यह बात सही है कि वहां से करीब हजारों लोगों ने भागकर असम की शरण ली है।

क्या कश्मीर में पंडितों के पलायन वाली कहानी अब पश्चिम बंगाल में दुहराई जा रही है ? 

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क्या यह बात सही है कि पश्चिम बंगाल को बचाने के लिए केंद्र सरकार के पास एक ही उपाय है कि उस राज्य को तीन हिस्सों में बांट दिया जाए ?

इस आशय की खबर हाल में आई है।

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30 मई 21.


  





गुरुवार, 27 मई 2021

 कोविड काल ने दिए कुछ अतिरिक्त दर्द

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बुद्ध ने कहा था,

1.-संसार में दुःख है।

2..-दुःख के कारण हैं।

3.-दुःख के निवारण हैं।

4.-निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग है।

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खैर , बुद्ध तो संन्यासी हो गए थे।

पर, जो गृहस्थ जीवन में हैं , वे अपने गम कैसे कम करें ?

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उनके लिए सन 1960 में निर्मित ‘अमृत’ फिल्म का गाना है।

उसे गुनगुना कर वे अपने कष्ट थोड़ा कम करें।

गाना है--

‘‘दुनिया में कितना गम है,

मेरा गम कितना कम है !

ये दुनिया एक मौसम है

मेरा गम कितना कम है !’’

--आदि आदि

इसे सुनने के लिए यू ट्यूब का सहारा लें।

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 यह कहा जाता रहा है,

--सब अकेले आते हैं और अकेले ही जाते हैं।

 फिर भी इसमें भी यह मानकर चला जाता था कि अस्पताल व श्मशान घाट तक तो साथ में लोग जाते ही जाते रहे हैं।

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कोविड काल में थोड़ा-बहुत यह भी बदल गया।

हालांकि हर मामले में नहीं।

अब भी अनेक परिजन व डाक्टर आदि जान पर खेल कर कोविड मरीजों का साथ दे ही रहे हैं।

पर, कुछ मामलों में परिजन न तो अस्पताल साथ जा रहे हैं और न ही श्मशान।

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--सुरेंद्र किशोर

27 मई 21 


बुधवार, 26 मई 2021

 बार-बार निराश करती न्याय प्रक्रिया

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हुक्मरानों को इस पर विचार करना चाहिए कि 

एक राज्य में तो सजा की दर 85 प्रतिशत है,

पर एक अन्य राज्य में सौ आरोपितों में से सिर्फ 

छह ही सजा क्यों पाते हैं ?

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--सुरेंद्र किशोर--

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पिछले दिनों पटना हाईकोर्ट ने सन 1999 में घटित सेनारी नरसंहार के सभी दोषियों को सजा से मुक्त कर दिया।

  उसके अनुसार,‘‘ अभियोजन पक्ष इस कांड के आरोपितों पर लगे आरोपों को साबित करने में सफल नहीं हो सका।

  वह कोई ठोस सबूत भी सामने नहीं ला पाया।’’

ज्ञात हो कि बिहार के जहानाबाद जिले के सेनारी गांव के इस नृशंस कांड में 34 लोगों की गला काट कर व पेट फाड़कर हत्या कर दी गई थी।

इस कांड से पूरा देश हिल गया था।

इस मामले में निचली अदालत ने 10 लोगों को फंासी और तीन को उम्रकैद की सजा दी थी,

पर अब हाई कोर्ट में वह सजा उलट गई है।

खबर है कि बिहार सरकार हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेगी।

वहां क्या होता है,कुछ कहना कठिन है।

वैसे यह इकलौता ऐसा मामला नहीं है,

जिसमें किसी गंभीर  अपराध के आरोपित अदालत द्वारा दोषमुक्त कर दिए गए हों।

इससे पहले बिहार के ही लक्ष्मणपुर बाथे में 1997 में एक साथ 58 लोगों की हत्या कर दी गई थी।

इस मामले में भी सन 2013 में 

पटना हाई कोर्ट ने निचली अदालत के निर्णय को बदलते हुए सभी दोषियों को बरी कर दिया था।

बिहार के साथ- साथ देश के अन्य प्रांतों में भी इस तरह के मामलेे सामने आए हैं,बल्कि यह कहना उपयुक्त होगा कि आते ही रहते हैं।

पूरे देश की अपराध की घटनाओं पर एक नजर दौड़ाने पर यह लगता है कि कई बार अभियोजन पक्ष की कमजोरी के कारण ऐसे भी आरोपी बरी हो जाते हैं जिनके बारे में यह आम धारणा रहती है कि वे अपराधी हैं।

     ऐसे नर संहारों, जिन्होंने पूरे देश को हिला दिया था,के आरोपितों की दोष मुक्ति चिंताजनक परिघटना है।

जब ऐसा होता है तो लोगों का विधि के शासन पर से भरोसा डिगता है।

शांति प्रिय आम लोगों के लिए भी और खुद देश की आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए भी यह चिंता का विषय बनना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है ?

वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 

‘‘दोषमुक्ति का हरेक मामला न्याय -व्यवस्था की विफलता है।

राज्यों को चाहिए कि वे छह माह के भीतर ऐसी कार्य प्रणाली विकसित करे ताकि न तो कोई निर्दोष दंडित हो और न ही कोई दोषी बच  पाए।

राज्य सरकारें इस बात की भी समीक्षा करे कि दोषमुक्ति के कारण क्या-क्या हैं ?

यह भी देखे कि अनुसंधान व अभियोजन में क्या कमी व दोष रह जाता है।

उसे दूर करने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए।’’

लगता है कि इस दिशा में कुछ नहीं हुआ।

  बिहार सहित देश के कुछ राज्यों में अदालतों से दोषमुक्ति का प्रतिशत बहुत अधिक है।

पर, यदि बडे़ -बड़े नर संहारों में भी एक -एक करके आरोपित दोषमुक्त होते चले जाएं तो शासन के लिए चिंता का विषय बनना चाहिए।

  हालांकि देश में न्याय प्रणाली को चुस्त- दुरुस्त करने के लिए समय -समय पर न्याय विद्ों व आयोगों के सुझाव आते रहते हैं।लेकिन उन पर इस तरह अमल नहीं होता जिससे स्थिति में नजर आने लायक सुधार हो।

  यह गंभीर चिंता की बात है कि किसी- किसी राज्य में सजा की दर छह प्रतिशत है ।आखिर इस स्थिति को तत्काल सुधारने के लिए विेशष उपाय क्यों नहीं किए जाते ?

कोविड महामारी के गुजर जाने के बाद पूरे देश के हुक्मरानों को इस बात पर अवश्य ही विचार करना चाहिए कि एक राज्य में तो सजा की दर 85 प्रतिशत है तो एक अन्य राज्य में सौ आरोपितों में से सिर्फ 6 ही सजा क्यों पाते हैं ?

यह आंकड़ा सिर्फ भारतीय दंड, आई.पी.सी.के तहत दायर मुकदमों से संबंधित है।

  एक बार सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश संतोष हेगड़े ने कहा था कि जब तक हम अपने न्याय शास्त्र में परिवत्र्तन नहीं करेंगे,तब तक हम आपराधिक न्याय प्रणाली में संतोष प्रद सुधार नहीं कर पाएंगे।

   मौजूदा न्याय शास्त्र के अनुसार भले 99 आरोपित छूट जाएं किंतु एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए।

 जस्टिस हेगड़े की राय थी कि मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए हमें इसे उलट देना चाहिए ताकि एक भी आरोपित न छूटे।

आपराधिक न्याय प्रणाली की बिगड़ती स्थिति को देखते हुए हमें जस्टिस हेगड़े की सलाह पर विचार करना ही चाहिए अन्यथा देर,बहुत देर हो जाएगी।

 ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट यह भी कह चुका है कि कोई भी आरोपी दोषमुक्त होता है तो उससे लोगों को यह नतीजा निकालने का अवसर मिल जाता है कि दोषमुक्ति से पहले उसे नाहक परेशान किया गया।

क्या यह धारणा इस देश की न्याय प्रक्रिया के स्वास्थ्य के लिए ठीक है ?

      जाहिर है कि देश में आपराधिक न्याय प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए कुछ सख्त कदम उठाने होंगे।

  शुरूआत नार्को, बे्रेन मैपिंग और पाॅलिग्राफिक टेस्ट से हो सकती है।

  2010 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि आरोपित या फिर संबंधित व्यक्ति की सहमति से ही उनका नार्को टेस्ट हो सकता है।

किसी की इच्छा के खिलाफ उसका ब्रेन मैपिंग नहीं हो सकता।पाॅलिग्राफिक टेस्ट के बारे में भी यही बात लागू होगी।

हालांकि कुछ मामलों  में संबंधित अदालत के आदेश से ऐसे टेस्ट आज भी होते हैं।

किंतु यदि इसकी छूट जांच में लगे आम पुलिस अफसरों को भी रहती तो इस देश में सजा का प्रतिशत बहुत बढ़ सकता था।

ऐसे में केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट से यह गुजारिश करना चाहिए कि समय की जरूरत को देखते हुए वह अपने उस निर्णय को बदले ।

क्योंकि इसका लाभ आरोपितों को मिल रहा है।

यदि सुप्रीम कोर्ट अपने निर्णय बदलने को तैयार नहीं हो तो इस संबंध में संसद को कानून बनाना चाहिए।

इसके साथ हमें अपने संबंधित कानूनों की प्राचीनता के बारे में भी पुनर्विचार करना होगा।

यदि तमाम लोग न्याय के लिए अब भी कराह रहे हैं तो इसके लिए हमारे कानूनों की प्राचीनता भी जिम्मेदार हैं जो अब उतने कारगर नहीं रहे।

  देखा जाए तो 1860 में भारतीय दंड संहिता बनी 

और 1949 में पुलिस एक्ट।

इसी तरह 1872 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम बना और 1908 में सिविल प्रक्रिया संहिता।

आज की कानूनी समस्याओं को देखते हुए इन कानूनों में जरूरी फेरबदल किए जाने चाहिए।

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दैनिक जागरण-26 मई 21


 


सोमवार, 24 मई 2021

 नार्को,पाॅलिग्राफिक और बे्रन मैपिंग टेस्ट पर रोक से संबंधित अपने सन 2010 के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार करे

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--सुरेंद्र किशोर--

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सेनारी (1999) और लक्ष्मणपुर बाथे (1997) नरसंहारों में 

मृतकों के क्षत-विक्षत शरीरों वाले दृश्य

अब भी मेरी स्मृति पटल पर जीवित हैं।

  ‘जनसत्ता’ के संवाददाता के रूप में मैंने बारी -बारी से दोनों घटनास्थलों का दौरा किया था।

दोनों जगह पहंुचने के लिए काफी पैदल चलना पड़ा था।

लक्ष्मणपुर बाथे वाली मेरी रिपोर्ट तो अगले दिन ‘इंडियन एक्सपे्रस’ में भी पहले पेज पर मेरी बाईलाइन के साथ छपी थी।

   इन दोनों कांडों पर पटना हाईकोर्ट के जजमेंट से एक बात की जरूरत बढ गय़ी है।

  वह यह कि सबूत जुटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट अब इस बात की छूट दे दे कि जांच एजेंसियां अभियुक्तों के नार्को टेस्ट,बे्रन मैपिंग और पाॅलिग्राफिक टेस्ट जरूरत के अनुसार कर सकें।

   याद रहे कि सन 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘‘आरोपी या संदिग्ध का उसकी सहमति के बिना नार्को ,ब्रेन मैपिंग या पाॅलिग्राफिक टेस्ट नहीं किया जा सकता।’’ 

 अब समय आ गया है कि इस आदेश को बदलने के लिए सुप्रीम कोर्ट खुद पहल करे या सरकार कानून -संविधान में परिवत्र्तन के लिए उपाय करे।

  सेनारी और लक्ष्मणपुर बाथे के आरोपितों के इस तरह के टेस्ट कराए गए होते और उन जांच रपटों को अदालत में मान्यता होती तो हमारी ध्वस्त होती क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में काफी सुधार हो जाता।

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जब मैं सेनारी और लक्ष्मणपुर बाथे के मृतकों के समक्ष बारी बारी से खड़ा था,तब इस बात की कल्पना भी नहीं कर रहा था कि इनके हत्यारे एक दिन सबूत के अभाव में इस तरह सजा से बच जाएंगे ! 

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22 मई 21


   मैं नमूने के लिए फिलहाल सिर्फ दो हस्तियों नेहरू और मोदी को लेता हूं।

  कुछ लोग इन दिनों सोशल मीडिया पर जवाहरलाल नेहरू व उनके प्रशंसकों की सिर्फ प्रशंसा करते हैं और नरेंद्र मोदी व उनके समर्थकों की सिर्फ आलोचना करते हैं।

कुछ अन्य लोग मोदी व अन्य की सिर्फ प्रशंसा करते हैं और नेहरू व अन्य की सिर्फ आलोचना करते हैं।

  जबकि मेरा मानना है कि इन दोनों नेताओं के व्यक्तित्व में प्रशंसा व आलोचना के तत्व पाए जाते हैं।

प्रशंसा के तत्व व आलोचना के तत्व की मात्रा में अंतर हो सकता है।

  हर व्यक्ति में कुछ गुण होते हैं तो कुछ अवगुण।

कुछ विफलताएं होती हैं तो कुछ सफलताएं।

 यदि आप किसी नेता व उसकी जमात के प्रति संतुलित रुख-रवैया रखकर चर्चा करेंगे तो वैसे भी आपकी बातों व जानकारियों से कोई कुछ सीख सकता है। 

  पर, ऐसा न हो कि आप एक के पक्ष में तो मजबूती से खड़े रहें किंतु दूसरे पक्ष को सियासी भेड़ मानते रहें।

यदि ऐसा हुआ तो फिर तो लोग आप पर हंसेंगे ही।

  चाहे आप खुद को कितना भी बड़ा आदमी मान

 बैठे हों !

--सुरेंद्र किशोर

24 मई 21


 10 मार्च, 2020 और 23 मई. 2021 के बीच

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तीन देशों में कोविड से मृतकों की कुल संख्या

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भारत में 3 लाख 2744 लोग मरे।

भारत की कुल आबादी-137 करोड़

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अमेरिका में 6 लाख लोग मरे

अमेरिका की कुल आबादी--33 करोड़

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ब्राजिल में 4 लाख 48 हजार लोग मरे

ब्राजिल की आबादी --21 करोड़

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आबादी को ध्यान में रखते हुए अब आप

 ही बताइए कि कोविड से अमेरिका व ब्राजिल ने 

अपने लोगों की जान बचाने में अधिक सफलता 

पाई या भारत ने ?

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इन तुलनात्मक आंकड़ों को इस देश के विवेकशील लोग देखने के बाद हमारे देश के प्रतिपक्ष और कुछ बुद्धिजीवियों व कतिपय मीडियाकर्मियों के बारे में कैसी धारणा बनाएंगे ?

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अमेरिका के मीडिया ने न तो 9 /11 की विश्व व्यापार केंद्र

की घटना में मृतकों (कुल संख्या-करीब 3 हजार) की लाशें दिखाईं न ही कोविड से जान गंवाने वालों की।

दूसरी ओर, हमारे यहां क्या हुआ ?

क्या हो रहा है ?

अपने देश में आखिर ऐसा क्यों होता है ?

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--सुरेंद्र किशोर

24 मई 21


  अब तक जो नहीं हुआ,

वह सब भी हो रहा है अब !

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1.-केरल के माकपाई मुख्य मंत्री ने अपने दामाद को इस बार अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया है।

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2.-‘पार्टी विथ अ डिफरेंस’ यानी भाजपा कर्नाटका में क्या गुल खिलाएगी ?

या अपनी राज्य शाखा को  खिलाने देगी ?

क्या वंशवाद विरोधी भाजपा का हाईकमान उसे ऐसा करने देगा ?

कर्नाटका के मुख्य मंत्री के पुत्र बी.वाई.विजयेंद्र गत साल राज्य भाजपा के उपाध्यक्ष बने।

ताजा खबर है कि अब उनकी नजर अपने पिता की 

कुर्सी पर है।

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3.-आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री के पिता भी मुख्य मंत्री ही थे।

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4.-तेलांगना के मुख्य मंत्री ने हाल में कहा था कि अपने पुत्र को मैं मुख्य मंत्री पद उसके जन्म दिन पर उपहार के रूप में दे दूंगा।

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5.-तमिलनाडु की कहानी तो पुरानी है।

उसे भला क्या दुहराना ! 

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इस तरह शेष भारत की भीषण व जानलेवा बीमारी यानी घोर वंशवाद-परिवारवाद ने अब पूरे दक्षिण भारत की राजनीति को

भी अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है।

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अपवादों को छोड़कर देश लोकतंत्र

से ‘‘लोकतांत्रिक राजतंत्र’’ की ओर बढ़ रहा है।

 आजादी के 75 साल पूरा होने से पहले ही यह हाल है।

सौ साल होते-होते पता नहीं क्या -क्या होने लगेगा ?

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--सुरेंद्र किशोर

23 मई 21 

 


शुक्रवार, 21 मई 2021

 


 स्वास्थ्य संरचनाओं में विधायक फंड के इस्तेमाल 

का निर्णय सराहनीय --सुरेंद्र किशोर

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कोविड-19 ने ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य संरचनाओं की कमियां उजागर कर दी हैं।

इस मामले में पूरे देश में कमोवेश एक ही स्थिति है।

मरीजों की मदद न कर पाने की जन प्रतिनिधियों की विवशता भी सामने आई है।

अधिकतर मामलों में मरीजों की विशेष देखभाल कौन कहे,सामान्य देखभाल भी नहीं हो सकी।

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की खराब स्थिति का खामियाजा जन प्रतिनिधियों को भी भुगतना पड़ रहा है।

  अधिकतर पीड़ित लोग 

उनसे नाराज हो रहे हैं।

वैसे पता नहीं,यह नाराजगी स्थायी रहेगी या अस्थायी !

यदि आने वाले दिनों में जन प्रतिनिधि गण स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने में मदद करेंगे तो शायद नाराजगी स्थायी नहीं रहेगी।  

कोविड का स्वरूप तो इतना विकराल-विशाल रहा है कि अमीर देश भी सफल जन सेवा में विफल रहे हैं।

 पर कोविड की लहर के गुजर जाने के बाद आम दिनों में इस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था अब बेहतर बने ,इस बनाने में सरकार के अलावा जन प्रतिनिधियों का भी कारगर योगदान रहे,यह उम्मीद तो की ही जा सकती है।

इस पृष्ठभूमि में शासन का यह निर्णय सराहनीय है कि जनप्रतिनिधयों के फंड का स्वास्थ्य क्षेत्र में उपयोग किया जाएगा।

अब यह जन प्रतिनिधियों खास कर विधायकों को सुनिश्चित करना होगा कि उनके फंड का सदुपयोग ही हो।

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     कैसे बेहतर बने स्वास्थ्य संरचना

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जरूरत इस बात की है कि जिला और अनुमंडल स्तरों के सरकारी अस्पतालों की बेहतरी पर स्थानीय सांसद ध्यान दें।

उससे नीचे स्तर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के विकास व रख- रखाव पर संबंधित विधायक नजर रखें।

वे अपने-अपने क्षेत्र में इस बात का ध्यान रखें के अस्पतालों की उपेक्षा शासन न करे।चिकित्सक समय पर अस्पतालों में जरूर हाजिर रहें।

  स्वास्थ्य व शिक्षा के लिए गरीब व निम्न आय वाले लोग तो सरकारी संस्थानों पर ही निर्भर रहते हैं।

पप्पू यादव के साथ ताजा विवाद को नजरअंदाज कर दें तो सारण के सांसद राजीव प्रताप सिंह रूडी ने अपने चुनाव क्षेत्र में दर्जनों एम्बुलेंस वर्षों से मुहैया करा कर अनुकरणीय काम किया है।कोरोना काल में बेड,आक्सीजन और एम्बुलेंस के लिए ही अधिकतर मरीज तरसते रहे।

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        आरोप-प्रत्यारोपों से प्रतिष्ठा -हानि 

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    आम तौर से यह माना जाना चाहिए कि इस देश की सभी सरकारें अपने- अपने ढंग से अभूतपूर्व ‘कोविड महा विपत्ति’’ से मुकाबले के काम में लगी हुई हंै।

कोई भी चुनी हुई सरकार जान बूझकर कोताही भला क्यों करेगी ?

हां, जहां -तहां ऐसी विपत्ति से निपटने के कौशल में कमी और प्रशासनिक संरचनाओं की कमजोरीे से समस्याएं कुछ अधिक सामने आ रही हैं।

  इस देश के कई नेतागण एक -दूसरे के खिलाफ  आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं।

कुछ तो कड़े सवाल पूछ रहे हैं।

ऐसे नेताओं का कोई मान नहीं बढ़ रहा है।

इस देश के एक राज्य में जो दल प्रतिपक्ष में है,वही दल या उसके सहयोगी दल दूसरे राज्य में सत्ता  में हंै।

सारे राज्यों में तो हालात कमोवेश एक ही तरह के हंै।

इस स्थिति में आप पहले अपने गिरेबान में झांकिए।

मिलजुल कर समस्या से निपटने का उपाय करिए।

राजनीति  तो बाद में भी होती ही रहेगी।

करते रहिएगा।

अभी खुद को जनता के समक्ष हल्का व सत्तालोलुप क्यों साबित कर रहे हैं ?

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      चुनिए बेहतर पंचायत प्रतिनिधि 

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  बिहार के सरकारी स्कूलों में सन 2006 से 2015 तक बहाल शिक्षकों में से करीब एक लाख 397 शिक्षकों की डिग्रियां अनुपलब्ध हैं।

इसलिए निगरानी जांच ब्यूरो इस नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा है कि इनकी बहाली साफ-सुथरे ढंग से हुई  या जाली डिग्रियों के आधार पर हुई है।

 पंचायत व नगर निकाय संस्थाओं ने इनकी बहाली की थी।

जानकार लोग बताते हैं कि ये फर्जी डिग्रियों के आधार पर बहाल हुए हैं।

  यदि यह बात सच है तो उसके लिए सब नहीं तो अनेक जन प्रतिनिधि भी दोषी हैं।

कोराना विपत्ति के गुजर जाने के बाद पंचायतों व नगर निकायों के एक बार फिर चुनाव होंगे।

जिन जन प्रतिनिधि लोगों को समाज नल जल योजना व शिक्षक बहाली में  

दोषी मानता है, क्या उन्हें ही जनता अगली बार भी अपना प्रतिनिधि बना देगी ?

 यदि ऐसा होगा तो इस तरह के ही घोटाले को आगे भी जनता को झेलना पड़ेगा।

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  लोस स्पीकर के विचाराधीन

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यहां मिली जानकारी के अनुसार सी.बी.आई.ने लोक सभा स्पीकर से एक बार फिर यह गुजारिश की है कि वे पांच सांसदों के खिलाफ नारद स्टिंग रिश्वत मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति दें।

वे सांसद हैं-सौगत राय,प्रसून बनर्जी,डा.काकोली घोष दस्तीदार, अपरूपा पोद्दार(सभी तृणमूल कांग्रेस) और सुवेंदु अधिकारी (भाजपा)।

नारद स्टिंग आपरेशन के समय सुवेन्दु अधिकारी भी तृणमूल के सांसद थे।

  सी.बी.आई. सूत्रों के अनुसार स्पीकर की अनुमति मिल जाने के बाद इन नेताओं के खिलाफ भी अभियोजन चलाने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।

एक और नाम छूट रहा है।

पक्की खबर तो नहीं है,किंतु शायद सी.बी.आई.उन्हें इस मुकदमे में मुखबीर यानी एप्रूवर बनाए। 

हर महत्वपूर्ण मुकदमों में जांच एजेंसी ऐसे मुखबिर की तलाश में रहती है जिसके पास ठोस जानकारियां हों और वह पलटे नहीं।  

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और अंत में

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पश्चिम बंगाल में इन दिनों अभूतपूर्व राजनीतिक और प्रशास-

निक तनाव जारी है।

संवैधनिक संस्थाएं एक दूसरे से टकरा रही हैं।

दोनों पक्षों के लोग लक्ष्मण रेखाएं पार कर रहे हैं।

कानून-व्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है।

आरोप है कि गत मंगलवार को कोलकाता राज भवन के उत्तरी गेट से कुछ उपद्रवकारी घुस आए थे।

  इस पृष्ठभूमि में कुछ राजग समर्थकों को भी इंदिरा गांधी याद आ रही हैं।

वे एक सवाल उठा रहे हैं।

यदि नरेंद्र मोदी की जगह इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री होतीं तो वह ममता बनर्जी सरकार के साथ कैसा सलूक करतीं ?

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--आज के प्रभात खबर,पटना में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से।

 


 


कानून तोड़कों में भय पैदा करने से महामारी से भी लड़ना  संभव --सुरेंद्र किशोर 

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विश्वव्यापी कोरोना महामारी विकराल और विशाल है।

इसकी व्यापकता अभूतपूर्व है।

उसेे देखते हुए यह कहना कठिन है कि दुनिया के कितने देशों के पास इसपर सफलतापूर्वक काबू पाने के कारगर उपाय मौजूद हैं।

   भारत के सुप्रीम कोर्ट ने तो गत माह यह टिप्पणी की थी कि 

‘‘हम इस बात से सहमत है कि 70 साल से जो चिकित्सीय संरचनाएं हमें विरासत में मिली हैं,उनसे कोरोना का मुकाबला नहीं किया जा सकता है।’’

  इस चिंताजनक पृष्ठभूमि में भारत में एक और विपत्ति मौजूद है।

उस पर भी सरकारों का कम ही अंकुश लग पा रहा है।

 आॅक्सीजन सिलेंडर से लेकर दवाओं तक की कालाबाजारी हो रही है।तरह तरह के नियम तोड़े जा रहे हैं।

मौत के उन सौदागरों को यह लगता है कि ढीली-ढाली आपराधिक न्याय प्रणाली वाले इस देश में हम अंततः बच ही निकलेंगे।

 अभी जितना लूट सको,लूट लो।मरीजों और उनके परिजनों की पीड़ा की परवाह मत करो।

  इस महामारी से निजात पाने के बाद सरकार को चाहिए कि वह न सिर्फ चिकित्सा से जुड़ी संरचनाओं का विस्तार करे,उनकी गुणवत्ता बढ़ाए।साथ ही, आपराधिक न्याय व्यवस्था को भी बेहतर बनाए।

  लाख मना करने पर भी इस देश में जहां -तहां रोज लाखों लोग सड़कों पर निकल कर कोरोना नियम तोड़ रहे हैं।

बीमारी का विस्तार करने में जाने-अनजाने सहायक बन रहे हैं।

यदि इस नियम भंजन के लिए उन्हें सजा 

बिना भेदभाव के मिल जाए,तो इस तरह की अगली किसी विपत्ति में लोगों को अनुशासित करने में शासन को सुविधा होगी।

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विपत्ति में राजनीतिक अवसर की तलाश

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  सुप्रीम कोर्ट भले यह कहे कि विरासत में मिली चिकित्सकीय संरचनाओं की कमी से सरकार जूझ रही है,लेकिन प्रतिपक्षी दल इस संकट में सरकार को बात -बात में बदनाम कर रहे है।

क्योंकि उन्हें इसमें अपने लिए बड़ा राजनीतिक अवसर दिखाई पड़ रहा है।

सन 2024 के लिए वैकल्पिक प्रधान

मंत्री पद के लिए उम्मीदवार भी ढूंढ़ा जा रहा है।

कौन सरकार और कौन प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री, पूर्ण है ? किसके पास जादू की छड़ी है ?

किसी के पास नहीं।

अच्छी से अच्छी सरकार भी गलतियां कर सकती है।

पर समझदार मतदाता यह देखते हैं कि हमारी सरकार ने विपरीत परिस्थितियों में भी हमारे लिए भरसक बेहतर काम किया या नहीं।

  नोटबंदी, जी.एस.टी. और चीन सीमा विवाद की पृष्ठभूमि में

हुए चुनावों में भी राजग विरोधी दल अपने लिए बेहतर रिजल्ट की पूरी उम्मीद कर रहे थे।

पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी।

अगले चुनावों में यह देखा जाएगा कि कोरोना काल में सरकार व प्रतिपक्ष की भूमिकाएं मतदाताओं की नजरों में कैसी रही।    

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   गावों में चिकित्सकों की सुरक्षा जरूरी 

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एलोपैथिक चिकित्सकों को अब गांवों में रहकर वहां अपनी सेवाएं देनी होंगी।

बिहार सरकार यह निर्णय सराहनीय है।

शासन के इस संकल्प को देखकर लगता है कि यह युगांतरकारी कदम साबित होगा।

  गांवों में बिजली नहीं थी तो चिकित्सकों को गांवों में रहने में दिक्कत थी।

अब वह स्थिति नहीं रही।

सड़कें भी अब बेहतर हैं।

 निर्धारित से अधिक भारी वाहनों को उन पर से गुजरने से यदि कड़ाई से रोका जाए तो राज्य की सड़कें आगे भी अच्छी ही रहेंगी।

 लेकिन इसके साथ ही राज्य शासन को एक और बात पर खास तौर पर ध्यान देना होगा।

  वह यह देखे कि चिकित्सकों के सामने गांवों में उनकी  सुरक्षा की समस्या पैदा न हो।

 जब तक ग्रामीण अस्पतालों में भरपूर चिकित्सकीय साधन उपलब्ध न करा दिए जाएं, तब तक यदाकदा मरीजों के अभिभावकों का गुस्सा डाक्टरों पर फूटता रहेगा।

उस गुस्से से शासन डाक्टरों व उनके सहायकों की रक्षा करे।

साथ ही, राज्य सरकार स्थानीय पुलिस को यह खास निदेश दे कि जरूरत पड़ने पर चिकित्सकों की सुरक्षा में वे तत्परता दिखाएं।

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 राक्षस और देवता साथ-साथ कैसे !

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 आदिकाल में राक्षसों व देवताओं के अलग -अलग वास स्थान होते थे।

इससे लोग उन्हें पहचान लेते थे कि कौन क्या है।

पर आधुनिक युग में तो लगता है कि कुछ अस्पतालों में एक ही साथ दोनों के वास हैं।

  बारी- बारी से भागलपुर और पटना के अस्पतालों में एक महिला तीमारदार को हाल में अत्यंत कटु अनुभव हुए।

उसे एक पीड़ा के ऊपर दूसरी पीड़ा भी मिली।

उस शर्मनाक घटना से यह लगा कि यहां तो दोनों का एक ही जगह वास है।

 गंभीर रूप से कोरोना पीड़ित पति का इलाज करा रही महिला ने अपने साथ अस्पताल में हुए दुव्र्यवहार को लेकर केस दर्ज कराया है।

उन राक्षसों को तो सजा होनी ही चाहिए।

साथ ही ‘धरती के भगवान’ भी यह सुनिश्चिित करें कि उनके बीच से ऐसे राक्षसों को जल्द से जल्द निकाल बाहर किया जाए।

 कोरोना काल में अधिकतर चिकित्सकों व स्वास्थ्यकर्मियों ने अपनी जान हथेली पर रखकर खुद को एक बार फिर धरती का भगवान साबित किया है।

कई डाक्टर व स्वास्थ्यकर्मी इलाज करते समय कोरोनाग्रस्त होकर दिवंगत हो गए। 

चिकित्सकों व चिकित्साकर्मियों की साख बनी रहे और बढे भी ,यही कामना है।

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और अंत में

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शिवसेना चाहती है कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ गैरकांग्रेस प्रतिपक्ष की ओर से कोई मजबूत नेता सन 2024 से पहले उभरे।

 यह काम कांग्रेस की सहमति से हो।

शिवसेना सांसद संजय राऊत के अनुसार 2019 के लोक सभा चुनाव से पहले भाजपा को कई राज्य विधान सभा चुनावों में हार मिली थी।

फिर भी लोक सभा चुनाव भाजपा जीत गई।मोदी के नेतृत्व के बल पर।

अब सन 2024 के लोक सभा चुनाव में क्या होगा ?

राऊत के अनुसार होना तो यह चाहिए कि किसी गैर कांग्रेसी दल से मोदी का विकल्प सामने आए।

अब सवाल है कि कांग्रेस पार्टी सन 2024 के चुनाव में प्रधान मंत्री पद की उम्मीदवारी के दौड़ से खुद अलग कर लेगी ?

संजय राऊत जितनी आसानी से यह बात लिख व कह देते है,उतना आसान तो नहीं लगता है।

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--सुरेंद्र किशोर

कानोंकान

प्रभात खबर

पटना, 14 मई 21  


       

हमारे देश के कुछ नेताओं ने पहले हार यानी चुनावी हार

की परिभाषा बदली।

अब उन्होंने ‘वार’ यानी युद्ध की भी परिभाषा बदल दी।

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भाजपा ने पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में इस बार 77 सीटें जीतीं।

2016 में उसे 3 सीटें मिली थीं।

कई नेताओं ने कहा कि भाजपा इस बार पश्चिम बंगाल में बुरी तरह हार गई।यानी अधिक सीटें जीतना माने हारना हुआ,उनके अनुसार।

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भीषण भ्रष्टाचार के आरोप में सी.बी.आई.ने तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेताओं को हाल में गिरफ्तार किया है।

घोटाले की जांच अदालत के आदेश से सी.बी.आई ने शुरू की थी।

 पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा के अनुसार तृणमूल नेताओं के खिलाफ सी.बी.आई. की कार्रवाई ‘‘युद्ध की घोषणा है।’’

उनके अनुसार यह है कि पश्चिम बंगाल सरकार के खिलाफ केंद्र सरकार के युद्ध की घोषणा है।

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यानी अदालत के आदेश पर सी.बी.आई.किसी विवादास्पद नेता के खिलाफ कार्रवाई करती है तो वह तृणमूल कांग्रेस के नेता श्री सिन्हा के अनुसार 

‘‘युद्ध की घोषणा है।’’

इस तरह बदल गई है युद्ध की भी परिभाषा।

इससे पहले किसी नेता ने सी.बी.आई.की किसी कार्रवाई को युद्ध की संज्ञा नहीं दी थी।

वैसे एक सवाल है।

क्या पश्चिम बंगाल कोई अलग देश है जिसके खिलाफ भारत सरकार ने युद्ध की घोषणा की है ?

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--सुरेंद्र किशोर

   19 मई 21


बुधवार, 19 मई 2021

 क्या नारदा केस कोलकाता से

भुवनेश्वर स्थानांतरित होगा ?

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--सुरेंद्र किशोर--

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जांच एजेंसी सी.बी.आई.चाहती है कि नारदा घोटाला मुकदमे की सुनवाई कोलकाता की जगह अब भुवनेश्वर स्थित सी.बी.आई.कोर्ट में होनी चाहिए।

  जांच एजेंसी ने इस स्थानांतरण के लिए कोलकाता हाई कोर्ट से अपील भी की है।

संभव है कि  यह आदेश पाने में वह सफल हो जाए।

  अन्य तथ्यों के अलावा न्यायाधीशों को भी तो प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया से  

जानकारियां मिलती रहती हैं !!

   यदि कोलकाता हाईकोर्ट  इस मामले में सी.बी.आई.को अनुमति नहीं देगा तो वह सुप्रीम कोर्ट जा सकती है।

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  नब्बे के दशक में बिहार के चारा घोटाले की जांच हो रही थी तो सी.बी.आई.के संयुक्त निदेशक डा.यू.एन.विश्वास की जान पर भारी खतरा था।

उन्हें सुरक्षा मिली हुई थी।

एक बार पटना में डा.विश्वास ने हम संवाददाताओं को बताया था कि ‘‘जब भी मैं कोलकाता से पटना के लिए रवाना होता हूं तो अपनी पत्नी से कह आता हूं कि शायद तुमसे यह मेरी आखिरी मुलाकात हो।’’

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पर मुझे लगता है कि सी.बी.आई. को नब्बे के दशक के बिहार से भी अधिक खतरनाक स्थिति का आज पश्चिम बंगाल में सामना करना पड़ रहा है।

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डा.विश्वास ने वाम मोर्चा सरकार के भ्रष्टाचार से परेशान होकर तृणमूल ज्वाइन किया था।

वे ममता सरकार में मंत्री भी बने।

पर, जब उन्होंने तृणमूल सरकार का रंग-ढंग देखा तो वे निष्क्रिय हो गए हैं।

कोलकाता में ही रहते हैं।

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 तृणमूल के जेल यात्री नेता यह कह रहे हैं कि हैं कि ‘‘हम ही क्यों ? सुवेंदु और मुकुल क्यों नहीं ?’’

दरअसल भाजपा के मुकुल व सुवेंदु ही नहीं छूटे हैं,तुणमूल के भी दो नेताओं को सी.बी.आई.ने इस केस में फिलहाल बख्श दिया है।

सी.बी.आई.कहती है कि उनके खिलाफ सबूत नहीं हैं।

यदि सी.बी.आई.गलत कहती है तो तृणमूल को चाहिए कि वह सबूत एकत्र करके कोर्ट की शरण ले।

  जिस तरह डा.सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सोनिया परिवार पर  नेशनल हेराल्ड घोटाला केस कर रखा है।

स्वामी के कारण ही जयललिता भी जेल गई थीं।

स्वामी की इस तरह की कई अन्य उपलब्धियां भी हैं।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि कोई ‘‘प्रायवेट परसन’’ भी केस कर सकता है। 

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लेकिन कुछ दल या नेता यह चाहते रहे हैं कि ‘‘तुम हमें बचाओ,हम तुम्हें बचाएंगे,।’’

दशकों से इस देश में चल रहा वह फार्मला अब फेल कर रहा है।

   देश के कई राज्यों में आज गैर राजग दलों की सरकारें हैं।

यदि उन्हें लगता है कि उन राज्यों के कुछ भाजपा नेताओं के खिलाफ  भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप  हैं तो  उनकी सरकारें उन पर केस क्यों नहीं करतीं ? 

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19 मई 21. 



सोमवार, 17 मई 2021

 के.आर.गौरी अम्मा(1919-2021)

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केरल सी.पी.एम.की मशहूर नेत्री का गत 

मंगलवार को 

निधन हो गया।

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वह सन 1957 की ई.एम.एस.नंबूरीपाद सरकार में राजस्व 

मंत्री थीं।

 जिस तरह कम्युनिस्ट सरकार के राजस्व मंत्री हरेकृष्ण कोनार ने पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार के काम में महत्वपूर्ण भमिका निभाई थी,उसी तरह गौरी अम्मा ने केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार की राजस्व मंत्री के रूप में भूमि सुधार का बड़ा काम किया।

गौरी अम्मा के नाम के साथ कई ‘फस्र्ट’ जुड़े हुए हैं।

पर कहते हैं कि जब अवसर आया तो नंबूरीपाद ने उनके बदर्ले इ. के. नायनार को मुख्य मंत्री बनवा दिया।

यह भी कहा जाता है कि ज्योति बसु को प्रधान मंत्री नहीं बनने देने में भी नम्बूदरीपाद की ही मुख्य भूमिका थी।

ज्योति बसु ने तो पार्टी नहीं छोड़ी,किंतु गौरी अम्मा ने पार्टी छोड़ दी थी।

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13 मई 21


   गैर -कोविड मौतों के आंकड़ों को कोविड 

 मौतों के आंकड़ों से अगल करके देखा जाए !

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  अन्यथा, लोगों में हतोत्साह बढ़ेगा

हतोत्साह से बीमारी बढ़ेगी

हां,उससे कुछ नेताओं के वोट बढ़ने की स्थिति बन सकती है।

किंतु वोट बढ़ेंगे ही,इसकी कोई गारंटी नहीं ।

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    --सुरेंद्र किशोर

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अभी मैं जहां रहता हूं,यानी पटना के पास के गांव में, वहां कुछ लोग संक्रमित हुए थे।

 घर-वास से ही वे अब ठीक हो गए।

मेरे पुश्तैनी गांव से भी मैं संपर्क में हूं।

अब तक की जानकारी के अनुसार वहां कोई संक्रमित नहीं हुआ है।

कल का कोई क्या कह सकता है !

अन्य स्थानों की जो स्थिति है,वह मैं सिर्फ अखबारों में पढ़ता हूं और टी.वी.चैनलों पर देखता हूं।

मीडिया अपने -अपने रुझान-झुकाव के अनुसार सूचनाएं दे रही हैं।

नकारात्मक व सकारात्मक दोनों तरह की सूचनाएं हंै।

पर, है तो चिंताजनक ही।

जरूरत इस बात की है कि शासन अपनी ड्यूटी में और भी बेहतरी लाए और लोगबाग अपनी बेपरवाही से बाज आएं।

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आम दिनों में बुढापे या बीमारी से जो मौतें होती हैं,वे 

क्या अब कोरोना को देखकर रुक गई हैं ?

बल्कि,अनुमान है कि वैसी मौतें बढ़ गई होंगी।

क्योंकि गैर कोविड मरीजों को अस्पतालों में या डाक्टर के यहां जगह शायद ही अब मिल पा रही है।

पर,कुछ विघ्न संतोषियों के लिए यह अच्छा अवसर है कि दोनों तरह की मौतों को एक साथ जोड़कर दिखाया जाए।

ऐसे में शासन से उम्मीद है कि वह हर तरह की मौतों का आंकड़ा सही -सही लोगों को बताए।

 मतदातागण अगली बार स्वास्थ्य सेवा को भी चुनाव का मुद्दा बनाएं।

अभी कितने मतदाता शिक्षा और स्वास्थ्य आदि जरूरी मुद्दे को ध्यान में रखकर मतदान करते हैं ?

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इस बार मीडिया ने एक अच्छा काम किया है।

पंजाब से लेकर बिहार तक के प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों के खोखलापन को जग जाहिर कर दिया है।

अब खबरखोजी मीडिया की एक जिम्मेदारी है ।

उन्होंने जिन स्वास्थ्य केंद्रों में जानवर व गोबर देखे हैं,वहां कागज पर डाक्टरों व चिकित्साकर्मियों की तैनाती तो लगातार नहीं दिखाई जाती रही है ?

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कई साल पहले की बात है।

बिहार के एक सत्ताधारी विधायक ने एक बात बताई थी।

उन्होंने कहा कि आज मेरे यहां एक सरकारी डाक्टर आए थे।

बोले कि  मैं आपके चुनाव क्षेत्र में अपनी पोस्टिंग कराना चाहता हूं।

किंतु मैं चाहता हूं कि मैं नियमित रूप से वहां नहीं बैठूं।

यदि आप इसकी अनुमति देंगे तो मैं वहां पोस्टिंग करा लूंगा।

विधायक ने जब ऐसी छूट देने से मना कर दिया तो वह चिकित्सक नाराज होकर चला गया।

वह साधिकार जो आया था !

क्योंकि दोनों एक ही जाति के थे।

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इसमें मैं सिर्फ उस चिकित्सक को दोष नहीं देता।

सरकार की ओर से भी कमियां हंै।

क्या प्राथ्मिक स्वास्थ्य केंद्रों में इलाज करने लायक साधन उपलब्ध हैं ?

भवन की स्थिति फिलहाल कैसी है ?

कानून -व्यवस्था की हालत कैसी है ?

बिजली तो अब गांव-गांव है,किंतु तब नहीं थी।

यदि सरकारी चिकित्सा केंद्रों में रुई व डैटाॅल की भी व्यवस्था नहीं रहेगी तो कोई डाक्टर मरीजों के परिजनों से मार खाने के लिए वहां जाएगा ?!

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अब जबकि कोविद गांवों में भी पैर पसार रहा है ,तब तो देश भर की सरकारों को उत्तर कोविड काल में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की दशा सुधारनी ही पड़ेगी।

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 17 मई 21


 पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हटें या 

वहां तत्काल लागू हो राष्ट्रपति शासन 

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   --सुरेंद्र किशोर--

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पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने कहा

है कि जान बचाने के लिए लोग मजबूर होकर मतांतरण 

(यानी धर्मांतरण) कर रहे हैं।

  यह अत्यंत गंभीर आरोप है।

यदि यह सच है तो जाहिर है कि ममता बनर्जी ने धर्मांतरण की छूट दे रखी है।

यदि झूठ है तो राज्यपाल राजनीतिक कारणों से ऐसा बेबुनियाद आरोप लगा रहे हैं।

  पर, सच या झूठ का फैसला कौन करेगा ?

सुप्रीम कोर्ट के कोई जज इसकी जांच करें।

धनखड़ का आरोप सच साबित हो तो पश्चिम बंगाल में तत्काल राष्ट्रपति शासन लागू हो।

 उसे ‘कश्मीर’ बनने से रोका जाए।

  साथ ही,राष्ट्रपति शासन में वहां सी.ए.ए. और एन.आर.सी.लागू हो।

  नब्बे के दशक में तत्कालीन मुख्य मंत्री ज्योति बसु  

पहचान पत्र बनाने की केंद्र सरकार की पहल पर अपनी सहमति दे चुके थे।

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16 मई 21


गुरुवार, 13 मई 2021

 2019 के लोक सभा चुनाव में पश्चिम बंगाल के संदर्भ में अपने एग्जिट पोल के नतीजे के मामले में प्रदीप भंडारी सही साबित हुए थे।

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देखना है कि इस बार के एग्जिट पोल में वे सही साबित होते हैं या नहीं !!

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प्रदीप भंडारी के नेतृत्व वाली ‘जन की बात’(चुनाव विश्लेषण कत्र्ता)

ने 2019 के लोक सभा चुनाव के समय एक्जिट पोल कराया था। 

पश्चिम बंगाल के बारे में जन की बात का आकलन था-

भाजपा को 18 से 20 सीटें मिलेंगी।

टी.एम.सी.को 13 से 22 के बीच सीटें मिलेंगी।

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तब सीटें मिलीं थीं--टी.एम.सी.-22

और भाजपा को 18

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यानी, 2019 में ‘जन की बात’ का लगभग सटीक आकलन रहा।

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इस बार पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव के समय जन की बात द्वारा किए गए एग्जिट पोल

का नतीजा है-- 

भाजपा--162 से 185 के बीच

तृणमूल कांग्रेस--104-121

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इंडिया न्यूज चैनल पर आज प्रदीप भंडारी ने यह भी भविष्यवाणी की है कि ममता बनर्जी नंदीग्राम में हार रही हैं।

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देखना है कि इस बार प्रदीप भंडारी सही साबित होते हैं या नहीं।

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--सुरेंद्र किशोर

29 अप्रैल 21











 मौत के सौदागरों से निपटने के लिए   

 तीन सूत्री बदलाव की सलाह

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     --सुरेंद्र किशोर--

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मौत के सौदागरों , क्रूर अपराधियों , बड़े -बड़े भ्रष्टाचारियों और  माफियाओं के लिए सबक सिखाने लायक सजा सुनिश्चित करनी है ?

यदि हां तो  

इस देश में कम से कम 

तीन काम तुरंत करने होंगे।

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1.-अदालतें इस मुहावरे पर पुनर्विचार करे कि 

‘‘बेल इज रूल एंड जेल इज एक्सेप्सन।’’

यानी, जमानत नियम है और जेल अपवाद।

अब बेल अपवाद हो और जेल नियम।

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2.-इस न्याय शास्त्र को बदला जाए कि

 ‘‘जब तक कोई व्यक्ति अदालत से दोषी सिद्ध नहीं हो

 जाता, तब तक उसे निर्दोष ही माना जाए।’’

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अब होना चाहिए इससे ठीक उलट।

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3.-सुप्रीम कोर्ट ने यह कह रखा है कि किसी आरोपी का

डी.एन.ए.,पाॅलीग्राफी व ब्रेन मैपिंग टेस्ट उसकी मर्जी के बिना नहीं कराया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि करीब दस साल पहले के अपने इस निर्णय को वह बदल दे।

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सुप्रीम कोर्ट तथा दूसरी अदालतांे ने कोरोना काल में विभिन्न सरकारों को अच्छी -खासी फटकार लगाई है।

अच्छा किया।

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पर, उपर्युक्त तीन काम यदि हो जाए तो मौत के सौदागरों का हौसला पस्त होगा।

और, किसी भी सरकार को कोरोना जैसी महा विपदा से लड़ने में सुविधा होगी।

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कोरोना काल में इस देश व विश्व के लोगों को जो अभूतपूर्व विपदा झेलनी पड़ी है और पड़ रही है,उसके लिए दो तरह के तत्व जिम्मेदार हैं।

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एक तत्व ‘आसमानी’ है।

दूसरा सुलतानी !

आसमानी पर तो विश्व की किसी भी सरकार का कोई वश नहीं चल रहा है।

   भारत जैसी जर्जर व्यवस्था वाली सरकारों का भला क्या चलेगा ।

आजादी के बाद से ही इस व्यवस्था को जर्जर ,भ्रष्ट व पक्षपातपूर्ण बना दिया गया।

यह भ्रष्टों के लिए स्वर्ग माना जाता है।

अपवादों की बात और है।

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पर, इस देश की सरकारें जितना कर सकती थीं,उतना भी नहीं कर पाई तो उसके दो कारण हैं।

वे कारण आसमानी नहीं बल्कि ‘सुलतानी’ हैं।

इनमें तो बदलाव व सुधार हो ही सकता है।

कुछ ईमानदार सत्ताधारी

उसकी कोशिश करते भी रहे हैं।

किंतु सफलता सीमित है।

एक तो भारी भ्रष्टाचार के कारण आजादी के बाद से ही अपवादों को छोड़कर इस देश के सिस्टम को ध्वस्त और शासन व सेवा तंत्र के अधिकांश को निकम्मा व लापारवाह बना दिया गया।

  मनुष्य देहधारी तरह- तरह के गिद्धों को तो यह लगता है कि उन्हें तो कभी कोई सजा हो ही नहीं सकती।

अधिकतर मामलों में होती भी नहीं।

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एक तत्व यह भी है कि कोरोना की पहली

लहर के बाद सरकारें थोड़ी लापरवाह हो गईं।

दूसरी लहर के लिए वे कम ही तैयार थीं।

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एक छोटा उदाहरण --

दवा की कालाबाजारी व मिलावटखोरी पहले भी होती रही है।

इस बार आॅक्सीजन सिलेंडर व दवाओं की भीषण कालाबाजारी ने तो न जाने कितने मरीजों को यह दुनिया छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया।

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इन अपराधों में गिरफ्तार हो रहे गिद्धों को सबक सिखाने वाली सजा सुनिश्चित तभी हो सकती है जब ऊपर के तीन सूत्री बदलाव के लिए न्यायालय सरकार से मिलकर ठोस करें।

यदि यह बदलाव हो गया तो सरकारों को फटकार लगाने की 

जरूरत अदालतों को भरसक नहीं पड़ेगी। 

क्या कभी ऐसा हो पाएगा ?

पता नहीं !

भले न हो, पर कहना मेरा कत्र्तव्य है एक नागरिक के नाते।

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--सुरेंद्र किशोर

    8 मई 21


 ममता बनर्जी की असली ताकत

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सुरेंद्र किशोर

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पश्चिम बंगाल विधान सभा के गत चुनाव में ममता बनर्जी को यानी तृणमूल कांग्रेस को करीब 48 प्रतिशत मत मिले ।

  इस 48 प्रतिशत के घटक तत्व कौन -कौन हैं ?

इसमें लगभग 30 प्रतिशत मुस्लिम वोट है।

बाकी बचे 18 प्रतिशत।

ममता बनर्जी ने गत चुनाव प्रचार के दौरान अपना गोत्र भी बता दिया था।

उन्होंने यह नहीं कहा था कि मैं हिन्दू हूं।

इस देश में आजादी के बाद से ही मतदान का एक तरीका रहा है।

अपवादों को छोड़कर किसी भी प्रधानमंत्री या मुख्य मंत्री या उस पद के उम्मीदवार को उनकी जाति के अधिकतर वोट मांगे-बिन मांगे मिल जाते रहे हैं।

 यानी, बचे 18 प्रतिशत में ममता बनर्जी की जाति के अधिकतर लोग उन्हें मतदान किया होगा।

  अब बचे 15 प्रतिशत मत।

 इतने ही मत ममता बनर्जी को उनके कामों के आधार पर मिले होंगे।

हालांकि इस 15 प्रतिशत में भी गैर मुस्लिमों के बीच के कट्टर भाजपा विरोधी लोग भी रहे होंगे।

   चुनावी आंकड़ों के इस ब्रेक-अप को नजरअंदाज करके कोई भी सटीक राजनीतिक आकलन नहीं किया जा सकता।

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12 मई 21


 प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह तो रुपए पेड़ों पर नहीं उगा पाए !

पर, लगता है कि अब सोनिया जी यह चाहती हंै कि यह काम मौजूदा प्रधान मंत्री मोदी जी करके दिखाएं !!!

टैक्स वगैरह वसूलने की भला क्या जरूरत है ? !!

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  --सुरेंद्र किशोर--

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21 सितंबर, 2012 को तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि 

‘‘पैसे पेड़ों पर नहीं उगते।’’

वे डीजल आदि की मृल्य वृद्धि के अपने सरकारी निर्णय का बचाव कर रहे थे।

  अब जब कांग्रेस प्रतिपक्ष में है तो सोनिया गांधी कह रही  हैं कि कोविड के इलाज से संबंधित दवाओं व उपकरणों को जी.एस.टी.से मुक्त कर दिया जाए।

गत साल कांग्रेस ने पेट्रोल-डीजल की मूल्य वृद्धि के खिलाफ आंदोलन तक किया था।

  क्या सोनिया गांधी प्रकारांतर से नरेंद्र मोदी से कह रही हैं कि हमारे मनमोहन सिंह जो काम नहीं कर पाए, यानी पेड़ों पर रुपए नहीं उगा पाए, 

वह काम आप करिए ???

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दरअसल प्रतिपक्ष में रहने पर एक मापदंड और सत्ता में आ जाने पर ठीक विपरीत !

अपने देश की राजनीति की मुख्य पहचानों में यह एक है।

इसके उदाहरण अनेक हैं।

नमूना पेश है।

भाजपा जब प्रतिपक्ष में थी तो वह कहती थी कि संसद में हंगामा करना भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही हिस्सा है।

पर,अब जब प्रतिपक्ष ने संसद को ‘हंगामा सभा’ में बदल दिया है तो भाजपा प्रतिपक्ष के रवैए की निंदा करती है।

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--सुरेंद्र किशोर

  11 मई 21


 जो इतिहास से नहीं सीखता,वह उसे दुहराने 

    को अभिशप्त होता है।

    और, जो  इतिहास पढ़े ही नहीं ?!!

   हमारे नेता कितना पढ़ते हैं इतिहास ?     

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       --सुरेंद्र किशोर--

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मुख्य मंत्री ममता बनर्जी को गत चुनाव में पराजित कर चुके भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी का आज के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लेख छपा है।

उनके लेख से पश्चिम बंगाल की राजनीति की ताजा व स्पष्ट तस्वीर सामने आती है।

  उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के काॅडर को कृतघ्न करार दिया है।

पश्चिम बंगाल विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता श्री अधिकारी लिखते हैं कि 

  ‘‘जिन कांग्रेस और सी.पी.एम. ने भाजपा को हराने के लिए खुद को शून्य बना लेने की कीमत पर भी तृणमूल कांग्रेस की  मदद की, उन दलों के बचे-खुचे दफ्तरों पर भी तृणमूल कार्यकत्र्ताओं ने हमले किए।’’

   दरअसल सुवेंदु अधिकारी का समकालीन इतिहास का ज्ञान तो अधूरा है ही,मध्यकालीन इतिहास का भी पूरा ज्ञान नहीं है।

  जो इतिहास से नहीं सीखता, वह उसे दुहराने को अभिशप्त होता है।

 मध्यकालीन इतिहास क्या कहता है ?

मुहम्मद गोरी ने जयचंद की तटस्थता का लाभ उठाकर तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चैहान को हरा दिया।

तराइन के प्रथम युद्ध में चैहान ने गोरी से हराया था।

पर गोरी ने उस कृतज्ञता का एहसान मानने की जगह बाद में जयचंद पर भी हमला कर दिया।

बचने के लिए जयचंद भागा।

भागने के क्रम में नदी में डूब कर मर गया।

(किसी इतिहासवेता को इस विवरण में कुछ संशोधन करना हो तो उनका स्वागत है)

   जिस तरह गोरी एक खास उद्देश्य के लिए लड़ रहा था,उसी तरह हमलावर तृणमूल कार्यकत्र्तागण भी एक बड़े उद्देश्य के लिए बंगाल में ‘युद्धरत’ हैं।

 जिन्हें उस उद्देश्य को समझना

 हो, वे समय रहते समझ लें, अन्यथा भुगतने को तैयार हो जाएं। 

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याद रहे कि सुवेंदु अधिकरी ने हाल में यह कहा था कि ममता बनर्जी पहली नेता हैं जो हार कर भी मुख्य मंत्री बन रही हैं।

जबकि, सच यह है कि इस तरह के पहले नेता मोरारजी देसाई थे जो 1952 के आम चुनाव में अपनी सीट हार गए थे।

फिर भी कांग्रेस ने उन्हें बंबई राज्य का मुख्य मंत्री बना दिया था।

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11 मई 21


  


सोमवार, 10 मई 2021

      बिहार की विधायिका पर एक 

     सर्वज्ञान विषयक किताब

     के ताजा संस्करण की जरूरत

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     --सुरेंद्र किशोर--

1982 में एक बहुत ही उपयोगी किताब प्रकाशित हुई थी।

उसका नाम है--‘‘ओरिजिन एंड डेवलपमेंट आॅफ बिहार लेजिस्लेचर।’’

उसे लिखा था बिहार विधान सभा के अध्यक्ष राधानंदन झा ने।

 बाद में बिहार विधान परिषद के सभापति प्रो.जाबिर हुसेन की सलाह पर उसका दूसरा संस्करण 1998 में छपा।

दूसरे संस्करण को तैयार करने में भी राधानंदन झा का योगदान था।

उनकी मदद की थी कि इंडियन नेशन व बाद में टाइम्स आॅफ इंडिया के नामी पत्रकार डी.एन.झा ने।  

 1912 से 1998 तक की विधायिका पर यह सर्वज्ञान विषयक पुस्तक है।

  दूसरे संस्करण के आए करीब 23 साल हो चुके हैं।

यानी, इस बहुमूल्य पुस्तक का ताजा संस्करण अब जरूरी है।

एक उम्मीद तो की ही जा सकती है।

 वह यह कि इसका ताजा संस्करण ‘कोरोना काल’ के बाद जरूर छपे।

जिन्हें आज के भौतिक युग में भी पढ़ने -लिखने में रूचि हो,वे  इसकी जरूरत मौजूदा स्पीकर विजय कुमार सिन्हा के समक्ष रखें।

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यह पुस्तक गंभीर ढंग से पत्रकारिता या शोध कार्य करने वालों के लिए एक जरूरी दस्तावेज है।

मोटा -मोटी बता दें कि इस पुस्तक में 1912 से 1998 तक के बिहार विधान परिषद,विधान सभा के सदस्यों के नाम हैं।

बिहार से संविधान सभा,लोक सभा व राज्य सभा के सदस्यों के भी नाम हैं।

बड़े साइज में करीब सवा तीन सौ पेज की इस किताब में इसके अलावा भी बहुत सारी जानकारियां हैं।

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10 मई 21



    


   

      ममता से बेहतर लालू !

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      --सुरेंद्र किशोर--

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 मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कल केंद्रीय चुनाव आयोग में बड़े सुधार की जरूरत बताई है।

  उन्होंने कहा है कि इस संस्था को यदि बचाना है तो बड़े सुधार जरूरी हंै।

  उनके अनुसार चुनाव आयोग निष्पक्ष होता तो भाजपा को पश्चिम बंगान विधान सभा में 30 से अधिक सीटें नहीं मिलतीं।

    अब सवाल है कि ममता जी कैसा सुधार चाहती हैं ?

क्या केंद्रीय स्तर पर भी वैसा ही चुनाव आयोग वह चाहती हंै जैसा राज्य स्तर पर होता है ?

2018 में पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव में तृणमूल के खिलाफ के करीब 20 हजार उम्मीदवारों को नामंाकन पत्र तक नहीं दाखिल करने दिया गया था।

तब नख-दंत विहीन राज्य चुनाव आयोग मूक दर्शक बना रहा था।

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2019 के लोक सभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा को 42 में से 18 सीटें मिली थीं।

  उस अनुपात में या थोडा़ ही कम विधान सभा चुनाव में भी भाजपा को सीटें मिलनी चाहिए थीं।

पर उससे काफी कम मिलीं।

क्या 2019 के चुनाव में केंद्रीय चुनाव आयोग के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस ने कोई आरोप लगाया था ?

मुझे नहीं मालूम।

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ममता जी के अनुसार जो चुनाव आयोग उन्हें 294 में से 264 सीटें जितवाने का रास्ता साफ कर देता , वही आयोग निष्पक्ष माना जाएगा !!

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  नब्बे के दशक के अदमनीय मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने आलमारी में धूल खा रही चुनाव नियमों वाली किताब को बाहर निकाला ।

  उन्होंने एक-एक कर उसके नियम लागू करने की कोशिश की। 

  उस पर देश के कई धांधली प्रिय नेताओं के साथ-साथ बिहार के मुख्य मंत्री लालू प्रसाद भी शेषन से नाराज हो गए। 

लालू प्रसाद को लगा कि अब वे शेषन के रहते चुनाव में धांधली नहीं करा पाएंगे।

  हालांकि उन्हें इस बात का भरोसा नहीं था कि इतनी बड़ी संख्या में जनता अब उनके साथ है कि धांधली की उन्हें कोई जरूरत ही नहीं है।

   उस चुनाव में लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले जनता दल को बिहार विधान सभा की कुल 324 में से 167 सीटें मिली ।

मंडल आरक्षण विवाद के बाद पिछड़े लालू के साथ गोलबंद हो गए थे।

  अनुकूल रिजल्ट के बाद लालू प्रसाद ने स्वच्छ-निष्पक्ष  चुनाव के लिए टी.एन.शेषण को सार्वजनिक रूप से धन्यवाद दिया था।

याद रहे कि शेषन के कारण कमजोर वर्ग के लोगों को भी वोट देने का अवसर मिला।उससे लालू खुश हुए।

किंतु ममता बनर्जी 294 में से 213 विधान सभा सीटें मिलने के बावजूद आयोग से खुश नहीं हैं।

यह उनकी खास तरह की प्रवृति का द्योतक है जो प्रवृति आने वाले दिनों में अनेक संकट पैदा कर सकती है।

कम से कम इस मामले में क्या आप लालू प्रसाद को ममता बनर्जी से अधिक लोकतांत्रिक नहींे मानेंगे ?

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9 मई 21