15 जुलाई दिवंगत प्रभाष जोशी का जन्म दिन है।
आज से 15 जुलाई तक यशस्वी पत्रकार व जनसत्ता के प्रधान संपादक रहे प्रभाष जी की याद में संक्षेप में मैं कुछ-कुछ सामग्री प्रस्तुत करता रहूंगा।
उनके बारे में डा.नामवर सिंह के कुछ वाक्य प्रस्तुत हैं--
‘लगातार पन्द्रह वर्षों तक किसी अखबार में एक काॅलम का जारी रहना अपने आप में एक मिसाल है।सिर्फ ‘कागद कारे’ को ही पढ़ने के लिए मेरे जैसे बहुत से लोग रविवारी जनसत्ता लेते रहे हैं।
‘कागद कारे’ एक तरह से आज का महा भारत है और उसके लेखक प्रभाष जी आधुनिक व्यास।
फर्क सिर्फ यह है कि व्यास को लिखने के लिए गणेश की मदद लेनी पड़ी ,जबकि प्रभाष जी लिखने के मामले में भी स्वयंसेवी रहे सिर्फ एक अपवाद को छोड़कर और वह भी आपद्धर्म में।
इस प्रक्रिया में क्रमशः जो ग्रंथ तैयार हुआ, वह भी महा भारत की तरह ही एक साथ इतिहास भी है और काव्य भी विविध उपाख्यानों के साथ लगभग डेढ़ दशकों का एक महाख्यान !
पन्द्रह वर्षों के बाद आज ‘कागद कारे’ का एकत्र प्रकाशन एक तरह से युगांत का सूचक है।महाभारत को भी युगांत की संज्ञा दी गयी है।
1992 से भारतीय लोकतंत्र में एक नए युग का आरम्भ हुआ था जिसकी चरम परिणति का आभास 2008 में होने लगा है।
ऐसी स्थिति में अभी तक के समग्र ‘कागद कारे’ का प्रकाशन निश्चय ही एक ऐतिहासिक घटना है।
व्यास की तरह प्रभाष जी ने यह दावा तो नहीं किया कि ‘ जो कुछ यहां है ,वह दूसरी जगह भी है और जो यहां नहीं है वह कहीं नहीं है।’फिर भी समग्रतः कागद कारे में कथित युगांत का प्रतिबिम्ब पर्याप्त समावेशी है।यदि इस युग के चरित नायकांे पर दृष्टिपात करें तो सबसे पहले खंड ‘जीने के बहाने’ में अंकित चरित्रों की सूची पर ही सरसरी नजर दौड़ा लेना काफी है।
20 राजनीतिक नेता हैं तो उनसे अधिक सामाजिक कार्यकत्र्ता हैं।एक दर्जन साहित्यकार हैं तो आधे दर्जन संगीतकार,चित्रकार और फिल्म निर्माताओं की भी छवियां सुशोभित हैं।खेल जगत और उसमें भी क्रिकेट तो प्रभाष जी की अपनी रूचि का विशिष्ट क्षेत्र है।इसलिए उस दुनिया की यदि 16 विभूतियां जगमगाती हुई दिखें तो क्या आश्चर्य !
उल्लेखनीय है कि प्रभाष जी की इस चित्रशाला में देश के यशस्वी उद्योगपतियों को भी सम्मान के साथ स्थान दिया गया है।
तात्पर्य यह है कि प्रभाष जी का प्रस्तुत ‘रचनावृत्त’ कोरा वृतांन्त नहीं बल्कि महाभारत की तरह हाड़-़मांस के जीते -जागते इन्सानों से पूरी तरह आबाद है।’
@ 10 जुलाई 2018@
आज से 15 जुलाई तक यशस्वी पत्रकार व जनसत्ता के प्रधान संपादक रहे प्रभाष जी की याद में संक्षेप में मैं कुछ-कुछ सामग्री प्रस्तुत करता रहूंगा।
उनके बारे में डा.नामवर सिंह के कुछ वाक्य प्रस्तुत हैं--
‘लगातार पन्द्रह वर्षों तक किसी अखबार में एक काॅलम का जारी रहना अपने आप में एक मिसाल है।सिर्फ ‘कागद कारे’ को ही पढ़ने के लिए मेरे जैसे बहुत से लोग रविवारी जनसत्ता लेते रहे हैं।
‘कागद कारे’ एक तरह से आज का महा भारत है और उसके लेखक प्रभाष जी आधुनिक व्यास।
फर्क सिर्फ यह है कि व्यास को लिखने के लिए गणेश की मदद लेनी पड़ी ,जबकि प्रभाष जी लिखने के मामले में भी स्वयंसेवी रहे सिर्फ एक अपवाद को छोड़कर और वह भी आपद्धर्म में।
इस प्रक्रिया में क्रमशः जो ग्रंथ तैयार हुआ, वह भी महा भारत की तरह ही एक साथ इतिहास भी है और काव्य भी विविध उपाख्यानों के साथ लगभग डेढ़ दशकों का एक महाख्यान !
पन्द्रह वर्षों के बाद आज ‘कागद कारे’ का एकत्र प्रकाशन एक तरह से युगांत का सूचक है।महाभारत को भी युगांत की संज्ञा दी गयी है।
1992 से भारतीय लोकतंत्र में एक नए युग का आरम्भ हुआ था जिसकी चरम परिणति का आभास 2008 में होने लगा है।
ऐसी स्थिति में अभी तक के समग्र ‘कागद कारे’ का प्रकाशन निश्चय ही एक ऐतिहासिक घटना है।
व्यास की तरह प्रभाष जी ने यह दावा तो नहीं किया कि ‘ जो कुछ यहां है ,वह दूसरी जगह भी है और जो यहां नहीं है वह कहीं नहीं है।’फिर भी समग्रतः कागद कारे में कथित युगांत का प्रतिबिम्ब पर्याप्त समावेशी है।यदि इस युग के चरित नायकांे पर दृष्टिपात करें तो सबसे पहले खंड ‘जीने के बहाने’ में अंकित चरित्रों की सूची पर ही सरसरी नजर दौड़ा लेना काफी है।
20 राजनीतिक नेता हैं तो उनसे अधिक सामाजिक कार्यकत्र्ता हैं।एक दर्जन साहित्यकार हैं तो आधे दर्जन संगीतकार,चित्रकार और फिल्म निर्माताओं की भी छवियां सुशोभित हैं।खेल जगत और उसमें भी क्रिकेट तो प्रभाष जी की अपनी रूचि का विशिष्ट क्षेत्र है।इसलिए उस दुनिया की यदि 16 विभूतियां जगमगाती हुई दिखें तो क्या आश्चर्य !
उल्लेखनीय है कि प्रभाष जी की इस चित्रशाला में देश के यशस्वी उद्योगपतियों को भी सम्मान के साथ स्थान दिया गया है।
तात्पर्य यह है कि प्रभाष जी का प्रस्तुत ‘रचनावृत्त’ कोरा वृतांन्त नहीं बल्कि महाभारत की तरह हाड़-़मांस के जीते -जागते इन्सानों से पूरी तरह आबाद है।’
@ 10 जुलाई 2018@
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