रविवार, 15 जुलाई 2018

प्रभाष जोशी के जन्म दिन-15 जुलाई-पर
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प्रभाष जोशी लिखित नीचे की इन पंक्तियों ने मुझे भी खुद पर गर्व करने का एक अवसर दे दिया ।
  ‘जनसत्ता’ हिंदी का पहला अखबार है जिसका पूरा स्टाफ संघ लोक सेवा आयोग से भी ज्यादा सख्त परीक्षा के बाद लिया गया है।सिवाय बनवारी के मैं किसी को भी पहले से 
जानता नहीं था।बहुत सी अर्जियां आईं थीं।उनमें सैकड़ों छांटी गयीं।कई दिनों तक लिखित परीक्षाएं चलीं-घंटों लंबी।वे बाहर के जानकारों से जंचवाई गयीं।उसके अनुसार बनी मेरिट लिस्ट के प्रत्याशियों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया।
 इंटरव्यू के लिए भारतीय संचार संस्थान के संस्थापक निदेशक महेंद्र देसाई, प्रेस इंस्टीच्यूट के पूर्व निदेशक चंचल सरकार ,गांधीवादी अर्थशास्त्री एल.सी.जैन, इंडियन एक्सपे्रस के संपादक जार्ज वर्गीज -मैं और एक विशेषज्ञ।कई दिन इंटरव्यू चले।लिखित और इंटरव्यू की मेरिट लिस्ट के मुताबिक लोगों को काम करने बुलाया।कोई भी किसी सिफारिश या किसी के रखे नहीं रखा गया।’
   मैं भी उस सख्त परीक्षा से गुजर कर जनसत्ता का स्टाफ बना था।
18 साल तक जनसत्ता में रहा।
 हिन्दुस्तान से आॅफर मिलने के बाद मैंने 2001 में बिहार के सबसे बड़े अखबार में ज्वाइन किया।यानी मुझे जनसत्ता से किसी ने निकाला नहीं था।
 यह सब मैं इसलिए लिख रहा हूं ताकि मेरे मित्र-परिजन को यह गलतफहमी न हो कि चूंकि मैं किसी सरकारी नौकरी के योग्य ही नहीं था,इसीलिए पत्रकारिता में गया।
  दरअसल मैंने कभी किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन तक नहीं दिया था।
1963 में मैट्रिक पास करने के बाद कालेज में जरूर नाम लिखा लिया था,पर पढ़ने में मन नहीं लगता था।
1963 में  एक अध्यात्मिक संगठन ज्वाइन कर लिया।
यम-नियम-आसन-प्राणायाम।धारणा-ध्यान समाधि !
यही सब 1966 तक चलता रहा।
उस संगठन ने शिक्षा दी थी कि जैसे -जैसे तुम्हारा ज्ञान बढ़ेगा,वैसे -वैसे तुम्हारी भक्ति कम होती जाएगी।
यानी मैं ज्ञान की इच्छा छोड़ भक्ति में लीन हो गया था। 
उधर से निराश होने के बाद 1966 में राजनीतिक कार्यकत्र्ता बन गया।वहां अंग्रेजी हटाओ का माहौल था।
यानी ज्ञान भी नहीं और अंग्रेजी भी नहीं।सिलसिलेवार ढंग से जो हासिल किया था,वह सिर्फ मैट्रिक तक ही।बाद में छिटपुट।
किसी प्रतियोगिता परीक्षा को ध्यान में रख कर पढ़ने का तो सवाल ही नहीं था।
 फिर भी जनसत्ता की परीक्षा मंे पास कर जाने पर गर्व तो होगा ही।
उससे अधिक बड़ी बात रही  कि प्रभाष जोशी व उनके बाद के जनसत्ता संपादकों ने पत्रकार के रूप में लिखने की हमें पूरी छूट दी। मैंने उस अवसर का दुरुपयोग नहीं किया।सदुपयोग किया।आज मुझे जो थोड़े लोग जानते हैं,उनमें से अधिकतर जनसत्ता के कारण ही।
 वह सब प्रभाष जोशी के कारण ही संभव हो सका।उन्होंने तो व्यक्तिगत नुकसान उठा कर भी
हमें लिखने की आजादी दी थी। 
मैं तो प्रभाष जोशी को  पत्रकारिता का युग पुरुष मानता हूं।

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