शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

राजेंद्र माथुर को याद करते प्रभाष जोशी
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 रज्जू बाबू यानी राजेंद्र माथुर तो मेरे दिल्ली आने के चैदह साल बाद आए।
लेकिन जिस दिन उन्होंने ‘नवभारत टाइम्स’ में संंपादकी संभाली,रात को मेरे दफ्तर आए और फिर हम साथ घर खाना खाने गए।
लक्ष्मी नगर के मोड़ पर मैंने उनसे कहा कि -तो आपने काम संभाल लिया।
अब छोड़ोगे कब ?
उन्होंने हंस कर कहा -‘आज तो काम शुरू किया है और आप पूछते हैं छोड़ोगे कब ? यू वुड नेवर चेंज मिस्टर जोशी।’
  ‘दिल्ली ने हमेशा और अच्छे -अच्छे तीसमारखांओं को उल्लू बनाया है।आज भी बना रही है।इसके पहले कि वह हमें बनाए ,हमें उसे गच्चा दे के चलते बनना चाहिए’--मैंने कहा।
  लेनिक जनसत्ता निकलने के कुछ दिन बाद वे सवेरे आए और कहा ,चलो बाल बनवा के आते हैं।हम दोनों पैदल चैराहे पर नाई की दुकान पर गए।
बाल बनवा के लौट रहे थे कि तो मैंने  पूछा-कब आप सोचते हैं कि मुझे जनसत्ता छोड़ देना चाहिए ?
वे हद है वाली मुस्कराहट में बोले -अभी अखबार निकाले को दस दिन नहीं हुए हैं और पूछ रहे हो कि छोड़ना कब है।
इतने साल से कहते थे कि ऐसा अखबार निकालना चाहिए।
अब निकाला है तो उसे जमाओ।
अभी से क्या सोचना कि छोड़ना कब है ?
‘आप जानते हैं कि मैं तय कर लेता हूं कि इतने साल और ऐसा काम मुझे करना है।
और सब कुछ भुल-भुलाकर जी जान से लग जाने का यही मेरा रीका है।
आॅटो सज्जेशन नहीं,सेल्फ मोटिवेशन ।’
  अंग्रेजी में हुआ यह वात्र्तालाप याद आता है और निपट मित्र हीनता के इन दिनों में अक्सर मन भर आता है कि रज्जू बाबू तो दिल्ली को गच्चा देकर चले गए।मैं रह गया हूं अकेला इस रेगिस्तान में।
दिन रात आंधी में बनते -बिगड़ते ढूंहों के बीच।
इस उम्मीद में कि अपनी जड़ों से टपकते खून को किसी दिन अपने निश्चय की पट्टी बांध फिर मालवा के किसी घर की काली मिट्टी में उन्हें उतार दूंगा जहां से उन्हें पच्चीस साल पहले बड़ी बेरहमी और रूलाई के साथ उखाड़ लाया था।मजबूरी में या कुछ करने की तमन्ना से ? पता नहीं। @ 19 दिसंबर 1993@

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