शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

मुजफ्फर पुर कांड में कसौटी पर होगी सी.बी.आई.की साख



अब यह तय है कि सी.बी.आई.मुजफ्फर पुर अल्पावास गृह कांड की जांच की जिम्मेदारी विधिवत उठा लेगी।
 पर इस मामले में एक बार फिर सी.बी.आई.की साख कसौटी पर होगी।
बिहार के दो अन्य महत्वपूर्ण मामलों की जांच भी सी.बी.आई.कर रही है।लंबी जांच के बावजूद मुजफ्फर पुर के ही नवरूणा कांड में सी.बी.आई.को कोई सफलता नहीं मिल सकी है।
उधर भागल पुर के चर्चित सृजन घोटाले में भी तीन मुख्य आरोपी पकड़े नहीं जा सके।
 सी.बी.आई. से यह उम्मीद की जाती रही है कि वह दोषी लोगों को जरूर पकड़ कर अदालत के कठघरे में हाजिर करवा देगी।
 चारा घोटाले में उसने हाजिर करवाया और सजा भी दिलवाई।पर उसमें जांच की निगरानी हाई कोर्ट कर रहा था।
अल्पावास कांड में देखना है कि अंततः क्या होता है !
इस कांड में भी प्रभावशाली लोगों के नाम आ रहे हैं।
उन में से कुछ ने कहा है कि उन्हें नाहक फंसाया जा रहा है।
यदि अंततः सी.बी.आई. निर्दोष को छोड़कर असली अपराधियों को अदालत के कठघरे में खड़ा करा दे तो उसकी साख बढ़ जाएगी।
पर ताजा मामले में भी कुछ लोगों को इस बात पर संदेह है कि सी.बी.आई.को सही नतीजे तक पहुंचने दिया जाएगा।
  याद रहे कि हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि यदि बिहार सरकार सिफारिश करेगी तो सी.बी.आई. से जांच करा दी जाएगी।
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने जब सी.बी.आई.जांच की सिफारिश का निर्णय कर दिया तो राजनाथ सिंह अपना वादा पूरा करेंगे ही।
याद रहे कि कई बार सी.बी.आई.काम के बोझ तथा अन्य कारणों से सिफारिश के बावजूद जांच करने से मना कर देती है।
   ----बंद हो ऐसे मामले में पैरवी--- 
  बेचारे नेता लोग भी क्या करें ? पैरवी के लिए उन पर तरह -तरह के दबाव रहते हैं।
कुछ  नेता दबाव के सामने नहीं झुकते।पर अधिकतर झुक जाते हैं।अल्पावास कांड में भी पैरवी की खबर है।
ऐसी पैरवियों के कारण कई बार जांच एजेंसी प्रभाव में आ भी जाती है।
 जो नेता न चाहते हुए भी ऐसी पैरवी करने को मजबूर हो जाते हैं,उनके बचाव के लिए एक संस्थागत उपाय किया जा सकता है।
  शासन ऐसी व्यवस्था कर सकता है कि   हत्या व बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में पैरवी करने वाले नेताओं के नाम उजागर कर दिए जाएं।लोग बाग नेता जी के असली रूप  को जान तो लें।
संभव है कि बदनामी के भय से कई नेता ऐसी पैरवी करने से पहले ही मना कर दें।
इससे जांच एजेंसियों को अपना काम ठीक ढंग से करने में सुविधा हो जाएगी।
 ----सी.बी.आई.के प्रति अब उत्साह नहीं-- 
कई दशक पहले तत्कालीन प्रतिपक्षी नेता कर्पूरी ठाकुर  गंभीर कांंडों  की जांच की मांग के.बी.सक्सेना और डी.एन.गौतम से कराने की सरकार से किया करते थे ।तब के.बी.सक्सेना आई.ए.एस. अफसर और डी.एन. गौतम आई.पी.एस.अफसर थे।अब वे रिटायर हो चुके हैं।
वे कत्र्तव्यनिष्ठ और ईमानदार अफसर  थे।वे किसी के दबाव में आकर कोई काम नहीं करते थे। 
पर वैसी मांग अब नहीं होती।बाद के वर्षों में  सी.बी.आई.से जांच कराने की मांग होने लगी।
अब भी होती है।पर कम।या आधे मन से।
 कई नेताओं ने  मुजफ्फर पुर बालिका गृह बलात्कार कांड मामले की जांच सी.बी.आई. से कराने की मांग की।पर इस मंाग के प्रति अन्य अनेक लोगों को कोई उत्साह नहीं था।
सवाल पूछा गया कि  भागल पुर  सृजन घोटाले  के तीन प्रमुख आरोपियों को गिरफ्तार करने में सी.बी.आई.विफल क्यों रही ?
क्या सचमुच चाहते हुए भी सी.बी.आई.उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पा रही है ? या फिर कोई और बात है ?
इस सवाल को लेकर तरह -तरह की चर्चाएं भी हैं ।चर्चाएं  सी.बी.आई.की साख  बढ़ाने वाली नहीं हैं।
बात थोड़ी पुरानी है।पर चूंकि बिहार से संबंधित है,इसलिए अनेक लोगों को याद है। बाॅबी हत्या कांड और ललित नारायण मिश्र हत्याकांड में भी सी.बी.आई.की भूमिका विवादास्पद ही रही।
---स्विस बैंकों में भारतीय धन---
ताजा खबर यह है कि स्विस बैंक में 2016 के मुकाबले 2017 में भारतीयों की राशि में करीब साढ़े 34 प्रतिशत की कमी आई है।
यह खबर सही हो सकती है।पर सवाल है कि लिंचेस्टाइन के एल.जी.टी.बैंक तथा अन्य टैक्स हेवेन देशों के बैंकों में भी ऐसी ही कमी आई है ?
क्या भारत सरकार ने कम से कम एल.जी.टी. बैंक में भारतीयों की जमा राशि की पड़ताल कर ली है ?
दरअसल मन मोहन सिंह के शासन काल में राम जेठमलानी ने स्विस बैंक में भारतीयों के काले  धन के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया था।
उन्हीं दिनों यह भी खबर आई थी कि उस अभियान से घबरा कर अनेक भारतीयों ने अपने पैसे एल.जी.टी.में जमा कर दिये।
इधर स्विस बैंक में भारतीयों के पैसे कम होने लगे।
 एल.जी.टी. बैंक में 18 भारतीयों की  जमा राशि का विवरण  9 जून 2011 के दिल्ली के एक अखबार में छपा था।उसका बाद में क्या हुआ,यह पता नहीं चला।
  उससे पहले एल.जी.टी.बैंक के एक विद्रोही कर्मचारी ने बैंक के सारे खातेदारों के नामों की सूची वाली सी.डी.जर्मनी सरकार को बेच दी थी।
जर्मनी सरकार ने भारत सरकार से तब कहा था कि इसमंे आपके देश के लोगों के भी नाम हैं।यदि आप चाहें तो ले सकते हैं।पर तब की केंद्र सरकार ने इसमें कोई रूचि नहीं दिखाई थी।मौजूदा सरकार ने उस दिशा में क्या कदम उठाए और उनके क्या नतीजे आए ,इसे देश को बताया जाना चाहिए।
वैसे खबर है कि कोई सूची केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी है। 
   --एक भूली-बिसरी याद--
आजादी के बाद के पहले दशक की बात है।
डा.अनुग्रह नाराण सिंहा बिहार के वित्त मंत्री थे।
   अनुग्रह बाबू के सरकारी आवास के बड़े कमरे में दरी बिछी हुई थी।
उस दरी के ऊपर से फोन का तार गुजर रहा था।किसी ने सलाह दी कि दरी को छेद कर तार को नीचे से गुजार दिया जाए।
इस पर अनुग्रह बाबू ने कहा कि इससे दरी खराब हो जाएगी।सरकारी चीज को इस तरह खराब करना ठीक नहीं होगा।
परिणाम स्वरूप तार  दरी के ऊपर ही रहा।
एक दिन अनुग्रह बाबू का पैर उस तार में उलझ गया।वे गिर पड़े।
उन्हें चोट आई।उस चोट से वे उबर नहीं सके।उनका निधन हो गया।
   -- और अंत में-
इन दिनों कुछ नेता व पत्रकार राफेल लड़ाकू विमान खरीद सौदे की तुलना बोफर्स तोप सौदे से कर रहे हैं।
पर ऐसी तुलना जल्दबाजी ही कही जाएगी।
क्योंकि बोफर्स सौदे के दलाल के स्विस खाते का नंबर 1988 में ही प्रकाश में आ गया था।
  पर राफेल सौदे के मामले में ऐसे किसी खाते या दलाल का अता -पता नहीं है।
यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि ऐसा कुछ है ही नहीं।
 यदि कुछ है भी तो उसे बाहर तो आने दीजिए।फिर राफेल की तुलना बोफर्स से कर लीजिएगा।
@ 27 जुलाई, 2018 के प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@


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