शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

जोशी जी पर राजेंद्र यादव को पढि़ए
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दिवंगत राजेंद्र यादव को पढ़ना हमेशा ही एक अलग तरह का
अनुभव से गुजरना होता है।
  आप भले कई बार उनसे असहमत हों,पर उन्हें पढ़ने से 
एक समानांतर सोच का पता तो चल ही जाता है।हर खुले दिमाग के व्यक्ति को उस सोच से भी परिचित होना ही चाहिए।
यह अकारण नहीं था कि उनके संपादकत्व में निकले मासिक ‘हंस’ के हर अंक मैंने खरीदे।वे मेरे संदर्भालय में अब भी हैं।
 खैर, यदि यादव जी प्रभाष जोशी के बारे में लिखें तो वह तो और भी दिलचस्प होगा।है भी।
दोनों दिग्गजों का आपस में खट्टा-मीठा रिश्ता रहा।
जोशी जी पर उन्होंने लंबा लिखा था ‘जो हद से अनहद गये’ नामक पुस्तक में संचयित है।पूरा लेख देना तो यहां संभव नहीं,पर उसके कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं।
‘प्रभाष जोशी कमिटेड व्यक्ति थे,इसलिए उनका मूल स्वभाव
‘पैशन’ का था।वे क्रिकेट के पीछे पागल थे।इसलिए उसी जुनून से राजनीतिक पत्रकारिता ,साहित्य-संस्कृति सभी पर लिखते थे।उन्होंने एक नितांत निजी भाषा विकसित कर ली थी-जिसमें मालवा के शब्द इतने सहज लगते थे कि भाषा जीवंत हो जाती थी।
 ‘जिस तरह तू बोलता है,उस तरह तू लिख’ का अप्रतिम उदाहरण।बातें दिमाग में इस तरह साफ और सुस्थिर होती थीं कि दो घंटे में कागद कारे कर डालते थे।वे अपने को गांधीवादी कहते थे।लेकिन गांधी उनकी सीमा कभी नहीं थे और न गिरिराज किशोर की तरह गांधी उनके लिए सौ मर्जों  की एक दवा थे।
पता नहीं,पूजा पाठी थे या नहीं,मगर संस्कारवादी जरूर थे।
यहां वे अतार्किक व जिद्दी भी हो जाते थे।
सती इत्यादि के मामले में उनसे मेरी भयानक झड़प भी हो गयी थी।वे वक्ता अद्भुत थे-सधे और विषयनिष्ठ होकर निडर भाव से अपनी बात कहते थे।
इधर तो उन्होंने अति ही कर डाली थी-आज यहां तो कल वहां-वे कहां नहीं होते थे।
यह हाल तो तब था जब आठ साल से उन्हें पेसमेकर लगा था।आदमी चाहे जितना अनुशासनबद्ध हो,यात्राओं में तो उसे समझौता करना ही पड़ता है।
  बकौल उनके वे हंस नहीं पढ़ते थे,मगर मेरे प्रति उनके व्यवहार में संक्रमणकारी गर्माहट थी।प्यार से मिलते थे,यहां तक कि मेरे जन्म दिन पर उन्होंने मेरे चरण छू डाले तो मैं लगभग स्तब्ध ।वे नामवर भक्त थे और अनेक शहरों में उन्होंने ‘नामवर के निमित्त’ आयोजन कर डाले थे ।
   इधर वे अशोक वाजपेयी को हिन्दी की  विभूति कहने लगे थे।मगर इसमें शक नहीं कि वे हिन्दी के एक मात्र पब्लिक इंटेलेक्चुअल थे।
उनका ज्ञान और जानकारियां चकित करती थीं।बेबाक इतने कि पहली बार उन्होंने पत्रकारिता के उस पर्दे को फाश किया था जहां चुनाव के दिनों में पैसे लेकर खबरें छापी जाती थीं या विरोधी को ठिकाने लगाया जाता था।यह वही जिहाद था जिसे वे बरसों से हिंदूवादियों के खिलाफ चलाए हुए थे।निडर,निर्र्भीक और प्रतिबद्ध-मेरे दिमाग में उनके लिए यही कुछ शब्द आते हैं।.................।’
@ 13 जुलाई 2018@

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