बुधवार, 11 जुलाई 2018

प्रभाष जोशी के बारे में धर्मवीर भारती के उद्गार !
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एक यशस्वी संपादक व अद्भुत  पत्रकार होने के साथ ही प्रभाष जोशी आले दर्जे के इन्सान भी थे।
वे ‘जनसत्ता’ परिवार के मुखिया की तरह थे।
एक साथ इस देश के अनेक लोग यह मानते थे कि प्रभाष
 जी उन्हें ही सबसे अधिक प्यार करते हैं।
 बड़ी- बड़ी बातें सोचने, अनोखे ढंग से लिखने के साथ-साथ निजी संबंधों को दिल की गहराइयों से निभाने की अद्भुत  क्षमता वाले व्यक्ति को ईश्वर ने समय से पहले यानी 2009 में बुला लिया।
  उनकी षष्टिपूत्र्ति पर प्रभाष जोशी के बारे में धर्मवीर भारती ने इन शब्दों में अपने उद्गार व्यक्त किए थे।
‘दिल्ली से जितना अब घबराता हूं उतना ही तब भी घबराता था।
अजीब शहर है।पत्रकारिता की दुनिया में जिससे भी मिलो ,पता चलता था कि वह अभी -अभी फलां मिनिस्टर से मिल कर आ रहा है और अमुक समस्या पर उन्हें क्या करना चाहिए ,उसकी रणनीति तय करने में बड़ी देर हो गई।
या फिर मिलेगा तो तपाक से हाथ मिलाकर कहेगा ,अरे भाई साहब, कब आए दिल्ली ?
पता ही नहीं चला।मिलूंगा।अभी जरा जल्दी में हूं।कमाल का शहर है,यहां कोई मिनिस्टर से मिलकर आ रहा होता था,या मिनिस्टर से मिलने जा रहा होता था।
बाकी कोई बात ही नहीं।
कौन सम्पादित करता है इसे ?
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‘वे एम.एम.टी.सी.के वरिष्ठ जन संपर्क अधिकारी थे।
उनकी मेज के बगल में हिन्दी-अंग्रेजी के दर्जनों समाचार पत्रों के ताजे संस्करण पड़े रहते थे।
मुझमें पत्रकारिता की जिज्ञासु वृत्ति जाग जाती और उलट पुलट कर अखबारों का जायजा लेने लगता था।
एक अखबार देखा-जनसत्ता।
पढ़ा तो और आकर्षक लगा।
समाचारों का बहुत संगत चयन,शीर्षकों में एक अनोखापन,सनसनी से बचता,फिर भी ध्यान खींचने वाला।
 अंदर की सामग्री देखी,जानदार टिप्पणियां,तीखी चुटीली लेकिन मर्यादित।भाषा में अंग्रेजी अनुवाद का नकलीपन नहीं,बल्कि हिन्दी का सहज आत्मीय प्रभाव।
दो तीन दिन बाद तो यह हाल हुआ कि पहुंचते ही सबसे पहले ढूंढ़कर जनसत्ता की प्रति निकालना और पढ़ना शुरू कर देना।
अखबार पढ़कर ही सुरेंद्र और उनकी महफिल की तरफ मुखातिब होता।इस रुख को सुरेंद्र ने भांप लिया।
एक दिन बोले-जनसत्ता में कुछ धर्मयुग के काम का मसाला मिल रहा है क्या ?
‘ नहीं यार, ये अखबार मुझको बहुत अच्छा लग रहा है।जिन्दा दिल,जागरूक और तेज नजर वाला ।  कौन संपादित करता है इसे ?’
मैंने पूछा।
 ‘मिलेंगे ?मेरे मित्र हैं प्रभाष।गोयनका जी उन्हें लाए हैं।फोन करूं उन्हें ?’
मैं संकोच में पड़ गया।कोई परिचय नहीं।
आखिर तय हुआ कि उनके दफ्तर में चलेंगे।
बिना फोन  किए अकस्मात।
दफ्तर दूर नहीं था।
इंडियन एक्सप्रेस की इमारत में एम.एम.टी.सी.का दफ्तर था।
दो चार मंजिल नीचे उतर कर  जनसत्ता का दफ्तर।
सुरेंद्र ने अपनी दो -चार फाइलें निबटार्इं और बोले चलिए !
प्रभाष जी पहले सम्पादक थे दिल्ली में जो न किसी मिनिस्टर से मिलने जा रहे थे और न मिल कर आए थे।अपने दफ्तर में, अपने केबिन में अपनी मेज पर बैठे अपने अखबार के किसी पृष्ठ का ले -आउट देख रहे थे।सादा कुत्र्ता ,धोती,सांवला पर 
आबदार चेहरा।
सुरेंद्र ने परिचय कराया तो तपाक से उठे ,मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर बोले,‘आपको नहीं मालूम।मैं इन्दौर में था,तब से धर्मयुग का फैन हूं।
आपसे मिलने की कितनी इच्छा थी।शरद जोशी से आपकी कितनी बातें सुनी हैं।’
सुबहे बनारस,शबे मालवा 
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प्रभाष जी बड़ी विनम्रता से हंसे,और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया।
प्रभाष बातें करने लगे इन्दौर की।फिर तो असली मुद्दों पर बातें होने लगीं।यानी इलाहाबाद के लोक नाथ की मिठाइयां अच्छी होती हैं,या इन्दौर के सराफे की,इन्दौर ज्यादा हरा- भरा है या इलाहाबाद ।
अंत में समन्वय यहां हुआ कि सुबहे बनारस ,शामे अवध और शबे मालवा।यह थी प्रभाष जोशी से पहली भेंट।
वो सुखद अहसास
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जब उन्होंने जनसत्ता में ‘कागद कारे’ लिखना शुरू किया तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि अपने सहज आत्मीय संस्पर्श से वे अपने लेखन को कितना रसमय भी बना सकते हैं।
और विषय भी कितने विविध !
राजनीतिक समस्या से लेकर क्रिकेट के चैक्के -छक्के तक।
इतने बहुआयामी व्यक्तित्व में कुछ इनसानी कमजोरियां भी होंगी हींं।
एक कमजोरी तो मैं बता ही सकता हूं।वह है उनकी अतिशय भावुकता,जो कभी -कभी निर्बंध हो उठती हैं।कभी अगर विवेक कमजोर पड़ता है तो हमारी सदा प्रसन्नवदना भाभी @जिन्हें वे विनोद में भैन जी कहते हैं@संभाल लेती हैं।
ये दोनों इसी तरह हंसते -बोलते बने रहें और इनकी गहरे पैठनेवाली ,रस भरी लेखनी अविराम गति से चलती रहे।इसी शुभ कामना के फूल मैं उनकी षटिपूत्र्ति पर अर्पित करता हूं।प्रभाष जी महाराज इन्हें स्वीकार करें।’
@भारती जी के उद्गार सुरेश शर्मा संपादित पुस्तक ‘प्रभाष पर्व’ से@
@ 11 जुलाई 2018@

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