बुधवार, 13 मई 2020

जन भावना की उपेक्षा नुकसानदेह

1.-जिन राजनीतिक दलों और नेताओं ने तब्लीगी जमात और पाॅपुलर फ्रंट आफ इंडिया के कारनामों की आलोचना नहीं की, या, परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से उनका बचाव किया, उनका राजनीतिक सह चुनावी भविष्य फिलहाल अनिश्चित हो गया लगता है। भविष्य में राजनीति कौन सा मोड़ लेगी,यह नहीं कहा जा सकता। पर मैं तो आज की स्थिति बता रहा हूं। आज आम लोगों के बोल-वचन से तो यही संकेत मिल रहा है। अब भी समय है, गलती सुधारने के लिए।

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2.-कई साल पहले तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग व राजनीतिक -गैर राजनीतिक संगठन, एक खास बहाना बनाकर केंद्र और कुछ राज्यों की विवादास्पद सरकारों का समर्थन व बचाव कर रहे थे।
ऐसी सरकारों व नेताओं का, जिन पर भ्रष्टाचार, वंशवाद और तुष्टिकरण के आरोप लग रहे थे।
तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ लोगों का तर्क था कि हम क्या करें ? हमारी मजबूरी है।

-हालांकि उनकी धर्मनिरपेक्षता एकांगी ही रही है ।-

वे कह रहे थे कि हम सांप्रदायिक ताकतों को यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए ऐसा कर रहे हैं। उनसे तब यह कहा जा रहा है कि ऐसे में तो आप न भाजपा को रोक सकेंगे और न ही खुद के अस्तित्व को बचा सकेंगे। क्योंकि अधिकतर जनता की भावना आपके खिलाफ है। फिर भी वे नहीं माने। नतीजा सामने है।

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3. सन 1990 के मंडल आरक्षण के समय आरक्षण विरोधियों ने जब मंडल आरक्षण का विरोध शुरू किया तो उन्हें सवर्णों के बीच के कुछ विवेकशील लोग समझा रहे थे --‘गज नहीं फाड़िएगा तो थान हारना पड़ेगा।’ पर, वे नहीं माने। उनका विरोध जारी रहा। भीषण प्रतिक्रिया हुई। नतीजा सबने देखा। अनेक लोगों ने भोगा भी !

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‘कहानी’ का ‘मोरल’ यह है कि जनभावना की उपेक्षा लोकतंत्र में अक्सर  नुकसानदेह ही साबित होती है। संभव है कि कुछ लोगों को मेरी ये बातें अच्छी नहीं लगें। पर ऐतिहासिक अवसरों पर ऐसी बातें कह दी जानी चाहिए। मंडल आरक्षण के समय बिहार विधानसभा के प्रेस रूम की बैठकी में मैं अक्सर यह कहा करता था कि आरक्षण का विरोध मत कीजिए। गज नहीं फाड़िएगा तो थान हारना पड़ेगा। पूर्व कांग्रेसी विधायक हरखू झा इस बात के गवाह हैं। 

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--सुरेंद्र किशोर -- 13 मई 2020

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